सोमवार, 24 सितंबर 2012

सन्नाटे में है दिल्ली की एक रात


सन्नाटा
इस  शहर  के आधी रात का    
चुभ रहा है मुझे।
बगल की बिल्डिंग के मुंडेर पर बैठे
कबूतर ने अपने डैने खोलकर अगड़ाई ली।
कहीं दूर बारिस के बाद की आखिरी बूंद
‘टप्प’ से गिरी है।।
आज पास के हनुमान मंदिर के पास 
पीपल के पेड़ के दरम्यान 
गुजरती हवा भी सुनाई दी।।।
ठीक उसी तरह से जैसे
पंद्रह दिन पहले पड़ोस में पैदा हुए 
नवजात बच्चे के रोने की अवाज
सुनाई दी पहली बार।।
शायद उसे इस समय अपनी मां की जरूरत हो।
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कैसे बेसुध् सो रहा है यह  मेट्रो शहर ।
बहुत खल रहा है
मेट्रो जैसे  शहर का यह 
निशब्द सन्नाटा।
जहां आधी रात के बाद ही
पेज थ्री पार्टियां जवान होती है।
इस दौरान
बीपीओ'ज में युवा बना रहे होते है अपना भविष्य 
दीदी के कारण सरकार हिल चुकी है
इसीलिए दस जनपथ से लेकर रेसकोर्स तक
होना चाहिए था राजनितिक कोलाहल।।।
पर नहीं....
सब सन्नाटा है।
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हाल में बने यमुना एक्सप्रेस वे पर कोई 
फरार्टा कार भी नहीं दौड़ रही है?
क्या कोई फेसबुक पर चैटिंग भी नहीं कर रहा होगा?
क्या हो गया है इस 24x7 वाले  शहर को।
उफ़ ...
इस  शहर के लायक नहीं है यह 
हांफता, मरता सन्नाटा।।।
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हम्म... मम 
अच्छा है...
सुबह होने में अब कुछ देर ही बाकी है।




बुधवार, 19 सितंबर 2012

प्रेम का टी-प्वांइट


पहले सीध रास्ता ही था
इधर उधर नहीं मुड़ना था
मंजिल तो सामने ही दिख रही थी।
इसलिए कोई जद्दोजहद नहीं थी।
किसी को ओवरटेक भी नहीं करना था
था ही सीध, सरल, समतल रास्ता।
साथ में ठंडी हवा, शीतल छाया भी,
कोई मोड़, घुमाव भी नहीं दिख रहा था।
जिससे पहले ही सावधन हो जाया जाए।

जैसे जैसे आगे बढ़ते गए, रास्ता सीधा ही दिखता रहा।
मंजिल पहुंच के दायरे में दिख रही थी
अचानक...
यह टी प्वांइट कैसा!
यहां तो इतने लोग खडे़ है।
भला कब से?
आगे क्यों नहीं बढ़े?
एक से पूछा भई, अब वहां किस रास्ते से जाना पड़ेगा?
कोई उत्तर नहीं मिला।
कांधे पर हाथ रखकर झकझोरते हुए पूछा।
फिर भी कोई उत्तर नहीं।

लगता है इसी बात का उत्तर जानने के इंतजार में
वे वर्षों से बुत बन गए।
0000
पीछे मुड़कर अपना सीध रास्ता देखना चाहा-
आश्चर्य,
रास्ते की जगह झाड़-झंगाड़ का
एक आदिम जंगल उग गया था वहां..
... तत्काल।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

अंतर : भूख का


हम ‘भूख’ में है,
जैसे कोई युवा होता है प्यार में।
इसमें कोई छायावादी बिंब नहीं है हमारा,
बता सके कि-
हम भी भूखे है।

इस भूख के पीछे,
पीढि़यों का अ-लिखा इतिहास है,
जो पढ़ाया नहीं जाता है कहीं।
इसलिए शोद्यार्थियों ने
कभी कोई थीसिस भी नहीं लिखी।

दूसरी तरफ-
वे लोग उल्टियां कर रहे है,
हमारी भूख से बड़ी है उनकी भूख

इसलिए आज हम उनकी उदरपूर्ति के लिए
अपने -आपको
समर्पित करते हैं पूरी तरह से।

आओ, निगल लो हमें।
ताकि...
तुम्हारे भरे पूरे पेट में बैठकर ही
तुम्हारी उल्टियों को नियंत्रित कर सके।

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यही है-
सत्ता की भूख और हमारी भूख का
बुनियादी अंतर

( खंडवा में पिछले 17 दिनों तक किसानों द्वारा किये गए जल सत्याग्रह के नाम )