मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

एक पूरा साल... 2013

कहने को आज बीत गया
एक पूरा साल... 2013
कामोवेश......
इस साल भी थे
बारह महीने
वही जनवरी, फरवरी
 ...नवंबर, दिसबंर
सात-सात दिन मिलाकर हफ्ते
और हफ्ते मिलकर महीना
कोई तीस दिन का,
कोई इक्तीस दिन का।
हर साल की तरह
इस साल भी थे तीन सौ पैसठ दिन
अंतर दिखा तो बस
कलैंडर में
पिछले वर्ष जब था सोमवार
उसी दिन इस वर्ष पड़ा मंगलवार।
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और इस तरह 2012 का पुराना कलैंडर
देखते देखते
बीत गया
एक पूरा
नया साल- 2013


सोमवार, 23 सितंबर 2013

हम कितने धर्मिक है!

आईटीओ के पुल से
गुजरते हुए देखा मैंने
एक आदमी को।

हाथ में दो थैले
तैयार था पुल से नीचे
यमुना नदी में फेंकने को
उस ‘पवित्र कूड़े’ को
जिसे अपने घर में
अपनी धर्मिक मान्यताएं
निभाने के बाद
झाड़-पोछकर
पानी में विर्सजन हेतु
तत्पर था पूरी धर्मनिष्ठा से
फेकने के लिए इस
पुल से।

000

सर,र,र
छप्प...छपाक्
नदी में गिरती हैं थैलियां
एक मिनट के
अंतराल में थैलियां
यमुना के दूसरे किनारे
से जा टकराती हैं
मुझे पता नहीं है कि
अभी कितनी और दूर
बहेगा पालीथीन में कैद
यह ‘पवित्र कूड़ा।’

पर सोचती हूं कि
कितना अच्छा होता
अगर उस अमुक ने
आजाद कर दिया होता
इस पैकेजिंग की संस्कृति से
इस कूड़े को,
तो ‘पवित्र कूड़ा’
कैसे हिल-मिलकर
बह रहा होता यमुना में
बगैर किसी संघर्ष के
और विलीन हो जाता
यमुना के संघर्षशील जल में
जैसे सदियों से
यमुना में विलीन होती आ रही थी
हमारी सभ्यताओं की मलिनताएं।

000

हां, अब तक
आप सही सोच रहे होगे कि
दिल्ली में यमुना साफ-सुथरी
थोड़े ही बह रही है?
इसमें मिली हैं कई किस्म की गंदगियां
तो फर?

क्या हुआ जो डाल दिया
इतना सा
‘पवित्र कूड़ा’?

शायद
कुछ नहीं
पर थोड़ा थोड़ा करके ही तो
बहुत कुछ हुआ है!
इससे तो आप सहमत होंगे ही।

000

एक चिंता है मेरी
पर पता नहीं
कितनी जायज है?
अभी गणेश उत्सव बीता है
नव दुर्गा आने वाली है
इन सभी पवित्र मूर्तियों का
जल प्रवाह, जल विसर्जन
इसी यमुना में तो किया जाएगा!
और हां, ‘छठ’ भी तो है ?

सच में
हम कितने धर्मिक है!!!


यमुना के किनारे नावों का रंगीन नजारा (वृन्दावन, मथुरा )

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

एक शाश्वत युद्ध

इन दस महीनों मेँ
कभी भी मैंने
तुम्हारा वास्तविक नाम जानने की
कोशिश नहीं की
तुम कहाँ की रहने वाली हो
इसमे भी मेरी कोई दिलचस्पी नहीं बनी
तुम्हारे भाई बहन कितने है ?
यह भी जानने की इच्छा
कभी नहीं पनपी
मन मेँ अगर कोई इच्छा थी
तो, बस यही
कि इंसाफ हो
तुम्हें इंसाफ मिले,
भरपूर इंसाफ
उस अन्याय के खिलाफ
जिसके विरुद्ध तुम
छेड़ कर गई हो
एक शाश्वत युद्ध
इस युद्ध को जिलाए
रखना है हमें
तुम्हारे जाने के बाद
अलाव मे एक चिंगारी
दबाये रखना है
किसी दामनी, निर्भया
या ज्योति के लिए!!

(13 सितंबर को रेयरेस्ट आफ द रेयर केस पर फैसला आने के बाद...)

शनिवार, 7 सितंबर 2013

ओस की बूंद

‘रात’ कभी भी
एक क्षण को भी
दम नहीं मारती।
जबकि सभी
उसकी गोद में
अपनी थकान लेकर
समा जाते है
बेसुध बेखबर।
और 'रात'....
पूरी रात मुस्तैदी से पहरा
बिठाए रखती है
इस कायनात में
कि कहीं
किसी के सपने में
खलल न पड़ जाए!

0000
सारी रात
सभी को
मीठे सपने
बुनने देने का
परिणाम होता हैं
सुबह घास के
तिनकों पर
बिखरी...
निर्मल, ठंडी
ओस की बूंदें
जैसे कोई किसान
अभी अभी
पसीना बहाकर
लौटा हो
खेत से।
मेरे गाँव 'पतरसा ' मे एक धूधली  शाम का चित्र 

रविवार, 1 सितंबर 2013

छज्जे जितनी जगह

घर पर
अपने छज्जे पर
आती थोड़ी सी
गुनगुनी धूप,
बादल की छांव,
बारिस की फुहार
बचाए रखना
चाहती हूँ
उन धूधली, विसूरती
खाली शामों
के लिए
रूखे पलों मे जब
मेरी आँखों में
नमी नहीं
बची रह सकेगी
तब बारिस की
इन फुहारों की तरह
बरस जाएगी आँखें मेरी
लौट आएगी
जिंदगी की नमी
इस खुशी के अंकुरण
के लिए
काफी होगी
मेरे छज्जे पर आती
गुनगुनी धूप
जिसकी गर्माहट में
अंकुर बनेगा वृक्ष
खुशी का एक
छायादार वृक्ष
इसकी बादलों जैसी
पारदर्शी छांव में
इस महानगर में
अपने लिए
एक छज्जे जितनी
जगह की
कल्पना में
इक पल के लिए
ऊंघ जाऊगी।



रविवार, 25 अगस्त 2013

सबसे खतरनाक

‘सबसे खतरनाक होता है
घर से काम पर
और काम से लौटकर घर आना’
‘पाश ’ ने चेताया था।
दफ्तर और घर के बीच का यह फासला
कितना खतरनाक होता है
इसको एक स्त्री से बेहतर कौन जान सकता है।
इसलिए अब मैं 'पाश' के साथ
जाती हूं  दफ्तर
और लौटती भी हूं उन्हीं के साथ
सुरक्षित अपने घर,
क्योंकि वे कहते हैं कि
‘सबसे खतरनाक होता है-
मुर्दा शांति से भर जाना,
तड़प का न होना,
सब कुछ सहन कर जाना।’


(मुंबई बलात्कार कांड से परेशान मन ने जब अवतार सिंह संधू 'पाश' की 'सबसे खतरनाक' कविता को पढ़ा ॥ )

शनिवार, 20 जुलाई 2013

ये खूटियां

खूंटी
छोटी-बड़ी, मोटी-पतली
स्टील, लोहे और तो और
प्लास्टिक की भी
जैसा आप चाहे।
दादा-दादी और नाना-नानी के
जमाने वाली तो बिलकुल नहीं
खूब सजी-संवरी
विभिन्न आकारों, प्रकारों में भी
रंगों का भी कोई जवाब नहीं
खूब रंग-बिरंगी, तितलियों सरीखी
बिलकुल नजाकत के साथ फौलाद
अपनी पसंदानुसार
कहीं भी लगा दें
दीवालों पर, अलमारी में
किसी लुकने-छिपने वाली जगहों पर
जहां किसी और की नजर न पहुंच सके
कभी-कभी दरवाजों के पीछे भी
ठोक सकते हैं इन्हें
एक हथौड़ी के बल से।
कोई गिला नहीं
कोई नाराजगी नहीं
मूक, अविचल
बिलकुल एक औरत की तरह
सबकुछ सहती
सबकुछ ढोती
सजीव बनते घर में
लगी ये निर्जीव
खूटियां।

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

एकबारगी...

एक छोटे से पिजड़े में कैद
बेहद रंगीन बे-जुबान
दो चिडि़या
जो न तो चहकती है,
न हिलती, न डुलती है।
यहां तक कुछ खाने पीने को
भी नहीं मांगती।
कभी कभी डोलती हवा ही
चिडि़या समेत पिजड़े में
जान डालने में
सामर्थ होती है।
फिर  भी न जाने क्यों मेरा मन
उन्हें आजाद कर
'इंडिया गेट' पर असली को धोखा देती ..चहचहाती बे- जुबान चिड़िया 
आकाश में उड़ते देखने का होता है
एकबारगी।

मंगलवार, 2 जुलाई 2013

उजाले में आजानुबाहु

‘पाखी’ के हाल ही प्रकाषित जून अंक में  - दिनेश कुशवाह की लगभग दौ सौ ससत्तर पंक्तियों  की कविता ‘उजाले में आजानुबाहु’ पढ़ने को मिली। जिसे पढ़ने के बाद लगा कि कविता समय के दबाव के साथ-साथ कितने मानसिक दबाव और संघर्ष के बीच निकली होगी। यही बात कविता को कई बार पढ़ने पर मजबूर करती है। मेरे ब्लाॅग पर सभी पाठकों के लिए प्रस्तुत है "बड़बोलों" को आईना दिखाती यह लम्बी कविता- ‘उजाले में आजानुबाहु’

उजाले में आजानुबाहु 

बड़प्पन का ओछापन सँभालते बड़बोले
अपने मुँह से निकली हर बात के लिए
अपने आप को शाबाशी देते हैं
जैसे दुनिया की सारी महानताएँ
उनकी टाँग के नीचे से निकली हों
कुनबे के काया-कल्प में लगे बड़बोले
विश्व कल्याण से छोटी बात नहीं बोलते।

वे करते हैं
अपनी शर्तों पर
अपनी पसंद के नायक की घोषणा
अपनी विज्ञापित कसौटी के तिलिस्म से
रचते हैं अपनी स्मृतियाँ और
वर्तमान की निन्दा करते हुए पुराण।

लोग सुनते हैं उन्हें
अचरज और अचम्भे से मुँहबाए
हमेशा अपनी ही पीठ बार-बार ठोकने से
वे आजानुबाहु हो गये।

उन्होंने ही कहा था तुलसीदास से
ये क्या ऊल-जलूल लिखते रहते हो
रामायण जैसा कुछ लिखो
जिससे लोगों का भला हो।

गांव की पंचायत में
देश की पंचायत के किस्से सुनाते
देश काल से परे बड़बोले
बहुत दूर की कौड़ी ले आते हैं।

सरदार पटेल होते तो इस बात पर
हमसे ज़्ारूर राय लेते
जैसा कि वे हमेशा किया करते थे
अरे छोड़ो यार!
नेहरु को कुछ आता-जाता था
सिवा कोट में गुलाब खोंसने के
तुम तो थे न
जब इंदिरा गांधी ने हमें
पहचानने से इंकार कर दिया
हम बोले-हमारे सामने
तुम फ्राॅक पहनकर घूमती थीं इंदू!
लेकिन मानना पड़ेगा भाई
इसके बाद जब भी मिली इंदिरा
पाँव छूकर ही प्रणाम किया।
‘मैं‘ उनकेे लिए नहीं बना
वे ‘हम‘ हैं
हम होते तो इस बात के लिए
कुर्सी को लात मार देते
जैसे हमने ठाकुर प्रबल प्रताप सिंह को
दो लात लगाकर सिखाया था
रायफल चलाना।

झाँसी की रानी पहले बहुत डरपोक थीं
हमारी नानी की दादी ने सिखाया था
लक्ष्मीबाई को दोनों हाथों तलवार चलाना।

एकबार जब बंगाल में
भयानक सूखा पड़ा था
हमारे बाबा गये थे बादल खोदने
अपना सबसे बड़ा बाँस लेकर।

हर काल-जाति और पेशे में
होते थे बड़बोले पर
लोगों ने कभी नहीं सुना था
इस प्रकार बड़बोलों का कलरव।

वे कभी लोगों की लाशों पर
राजधर्म की बहस करते हैं-
‘शुक्र मनाइए कि हम हैं
नहीं तो अबतक
देश के सारे हिन्दू हो गये होते
उग्रवादी
तो कुछ बड़बोले
नौजवानों को अल्लाह की राह में लगा रहे हैं

कुछ बड़बोलों के लिए
आदमी हरित शिकार है
कमाण्डो और सशस्त्र पुलिस बल से
घिरे बड़बोले कहते हैं
हम अपनी जान हथेली पर लेकर आये हैं।

कभी वे अभिनेत्री के
गाल की तरह सड़क बनाते हैं
कभी कहते हैं सड़क के गढ्ढे में
इंजीनियर को गाड़ देंगे।

जहाँ देश के करोड़ों बच्चे
भूखे पेट सोते हैं
कहते हैं बड़बोले
कोई भी खा सकता है फाइव-स्टार में
मात्र पाँच हजार की छोटी सी रक़म में।

अपनी सबसे ऊँची आवाज़ में
चिल्लाकर कहते हैं वे
स्वयं बहुत बड़ा भ्रष्ट आदमी है यह
श्री किशन भाई बाबूराव अन्ना हजारे
इरोम चानू शर्मिला से अनभिज्ञ
देश की सबसे बड़ी पंचायत में
कहते हैं बड़बोले
एक बुढ्ढा आदमी कैसे रह सकता है
इतने दिन बिना कुछ खाये-पिये
और वे भले मानुष
ब्रह्मचर्य को अनशन की ताकत बताते हैं।

यहाँ किसिम-किसिम के बड़बोले हैं
कोई कहता है
इनके एजेण्डे में कहाँ हैं आदिवासी
दलित-पिछड़े और गरीब लोग
ये बीसी-बीसी (भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार) करें
हम इस बहाने ओबीसी को ठिकाने लगा देंगे।

कोई कहता है
किसी को चिन्ता है टेण्ट में पड़े रामलला की
इस संवेदनशील मुद्दे पर
धूल नहीं डालने देंगे हम
अभी तो केवल झाँकी है
मथुरा काशी बाकी है।

देवता तो देवता हैं
देवियाँ भी कम नहीं हैं
कहती हैं बस! बहुत हो चुका!!
भ्रष्टाचार विरोधी सारे आंदोलन
देश की प्रगति में बाधा हैं
पीएम की खीझ जायज है
या तो पर्यावरण बचा लो
या निवेश करा लो
छबीली मुस्कान, दबी जबान में
कहती हैं वे
सचमुच बहुत भौंकते हैं
ये पर्यावरण के पिल्लै।

नहीं जानतीं वे कि उन जैसी हजारों
स्वप्न-सुन्दरियों की कंचन-काया
मिट्टी हो जायेगी तब भी
बची रहेंगी मेधा पाटकर अरुणा राय और
अरुंधती, चिर युवा-चिरंतन सुंदर।


सचमुच एक ही जाति और जमात के लोग
अलग-अलग समूहों में इस तरह रेंकते
इससे पहले
कभी नहीं सुने गये।

बड़बोले कभी नहीं बोलते
भूख खतरनाक है
खतरनाक है लोगों में बढ़ रहा गुस्सा
गरीब आदमी तकलीफ़ में है
बड़बोले कभी नहीं बोलते।
वे कहते हैं
फिक्रनाॅट
बत्तीस रुपये रोज़ में
जिन्दगी का मजा ले सकते हो।

बड़बोले यह नहीं बोलते कि
विदर्भ के किसान कह रहे हैं
ले जाओ हमारे बेटे-बेटियों को
और इनका चाहें जैसा करो इस्तेमाल
हमारे पास न जीने के साधन हैं
न जीने की इच्छा।

बड़बोले देश बचाने में लगे हैं।

बड़बोले यह नहीं बोलते कि
अगर इस देश को बचाना है
तो उन बातों को भी बताना होगा
जिनपर कभी बात नहीं की गई
जैसे मुठ्ठी भर आक्रमणकारियों से
कैसे हारता रहा है ये
तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का देश?
तब कहाँ थी गीता?
हर दुर्भाग्य को ‘राम रचि राखा‘ किसने प्रचारित किया!
लोगों में क्यों डाली गयी भाग्य-भरोसे जीने की आदत?

पहले की तरह सीधे-सरल-भोले
नहीं रहे बड़बोले
अब वे आशीर्वादीलाल की मुद्रा में
एक ही साथ
वाॅलमार्ट और अन्डरवल्र्ड की
आरती गाते हैं
तुम्हीं गजानन! तुम्ही षड़ानन!
हे चतुरानन! हे पंचानन!
अनन्तआनन! सहस्रबाहो!!

अब उनके सपने सुनकर
हत्यारों की रुह काँप जाती है
उनकी टेढ़ी नजर से
मिमिआने लगता है
बड़ा से बड़ा माफिया
थिंकटैंक बने सारे कलमघसीट
उनके रहमों-करम पर जिन्दा हैं।

पृथ्वी उनके लिए बहुत छोटा ग्रह है
आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उनके मुँह में
देख सकते हैं
ऐसे लोगों को देखकर ही बना होगा
समुद्र पी जाने या सूर्य को
लील लनेे का मिथक।

बड़बोले पृथ्वी पर
मनुष्य की अन्यतम उपलब्धियों के
अन्त की घोषणा कर चुके हैं
और अन्त में बची है पृथ्वी
उनकी जठराग्नि से जल-जंगल-जमीन
खतरे में हैं
खतरे में हैं पशु-पक्षी-पहाड़
नदियाँ-समुद्र-हवा खतरे में हैं
पृथ्वी को गाय की तरह दुहते-दुहते
अब वे धरती का एक-एक रो आं
नोचने पर तुले हैं
हमारे समय के काॅरपोरेटी कंस
कोई संभावना छोड़ना नहीं चाहते
भविष्य की पीढि़यों के लिए
अतिश्योक्ति के कमाल भरे
बड़बोले इनके साथ हैं।

बड़बोलों ने रच दिया है
भयादोहन का भयावह संसार
और बैठा दिये हैं हर तरफ
अपने रक्तबीज क्षत्रप।

तमाम प्रजातियों के बड़बोले
एक होकर लोगों को डरा रहे हैं
इस्तेमाल की चीजों के नाम पर
वैज्ञानिकों की गवाही करा रहे हैं
ब्लेड, निरोध, सिरींज तो छोडि़ये
वे लोगों को नमक का
नाम लेकर डरा रहे हैं।

अब हँसने की चीज नहीं रहा
चमड़े का सिक्का
उन्होंने प्लाटिक को बना दिया
‘मनी‘ और पारसमणि
छुवा भर दीजिए सोना हाजिर।

बड़बोले ग्लोबल धनकुबेरों का आह्वान
देवाधिदेव की तरह कर रहे हैं
‘कस्मै देवाय हविषा विधेम‘
पधारने की कृपा करें देवता!
अतिथि देवो भव!!
मुख्य अतिथि महादेवो भव!!!

बड़बोले आचार्य बनकर बोल रहे हैं
जगती वणिक वृत्ति है
पैसा हाथ का मैल
हम संसार को हथेली पर रखे
आँवले की तरह देखते हैं
‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ तो
हमारे यहाँ पहले से ही था।

भूख गरीबी और भ्रष्टाचार के
भूमण्डलीकरण के पुरोहित
बने बड़बोले सोचते हैं
बर मरे या कन्या
हमें तो दक्षिणा से काम।

बड़बोले भगवा, कासक, जुब्बा
पहनकर बोल रहे हैं
पहनकर बोल रहे हैं
चोंगा-एप्रिन और काला कोट
बड़बोले खद्दर पहनकर
दहाड़ रहे हैं।

पर आश्चर्य!!
कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक
कोई असरदार चीख नहीं
सब चुप्प।
जिन्होंने कोशिश की उन्हें
वन, कन्दरा पहाड़ की गुफाओं में
खदेड़ दिया गया।

बड़बोले ग्रेट मोटीवेटर बनकर
संकारात्मक सोच का व्यापार कर रहे हैं
और कराहने तक को
बता रहे हैं नकारात्मक सोच का परिणाम।

बड़बोले प्रेम-दिवस का विरोध
और घृणा-दिवस का प्रचार कर रहे हैं
वे भाई बनकर बोल रहे हैं
वे बापू बनकर बोल रहे हैं
वे बाबा बनकर बोल रहे हैं।

बड़बोले अब पहले की तरह फेंकते नहीं
बाक़ायदा बोलने की तनख्वाह या
एनजीओ का अनुदान लेते हुए
अखबारों में बोलते हैं
बोलते हैं चैनलों पर
एंकरों की आवाज़ में बोलते हैं।

बाजार के दत्तक पुत्र बने बड़बोले
बड़े व्यवसायियों में लिखा रहे हैं अपना नाम
और येन-केन-प्रकारेण
बड़े व्यवसायियों को कर रहे हैं
अपनी बिरादरी में शामिल।

शताब्दी के महानायक बने बड़बोले
बिग लगाकर तेल बेच रहे हैं
बेच रहे हैं भारत की धरती का पानी
बड़बोले हवा बेचने की तैयारी में हैं।

कहाँ जायें? क्या करें?
जल सत्याग्रह! या नमक सत्याग्रह!
गांधीवाद या माओवाद!
एक बूँद गंगा जल पीकर
बोलो जनता की औलाद!!

बड़बोले अब मदारी की भाषा नहीं
मजमेबाजों की दुराशा पर जिन्दा हैं
कि आज भी असर करता है
लोगों पर उनका जादू
बड़बोले ख़ुश हैं
हम ख़ुश हुआ कि तर्ज पर
कि उन्होंने लोगों को
ताली बजाने वालों की
टोली में बदल दिया।

बड़बोले अर्थशास्त्र इतिहास
शिक्षा-संस्कृति और सभ्यता पर
बोल रहे हैं, बोल रहे हैं
साहित्य-कला और संगीत पर
सेठों और सरकारी अफसरों के रसोइये
बड़बोले कवियों की कामनाओं और
कामिनियों के कवित्व का
आखेट कर रहे हैं।

बड़बोले समझते हैं
जिसकी पोथी पर बोलेंगे
वही बड़ा हो जायेगा
सारे लखटकिया और लेढ़ू
पुरस्कारों के निर्णायक वही हैं।

परन्तु वे किसी के सगे नहीं हैं
वे जिस पौधे को लगाते हैं
कुछ दिनों बाद एकबार
उसे उखाड़कर देख लेते हैं
कहीं जड़ तो नहीं पकड़ रहा।

अगर आप उनके दोस्त बन गये
तो वे आपको जूता बना लेंगे
पहनकर जायेंगे हर जगह
मंदिर-मस्जिद-शौचालय
और दुश्मन बन गये
तो आप
उनकी नीचता की कल्पना नहीं कर सकते।

वे चुप रहकर कुछ भी नहीं करते
सिवाय अपनी दुरभिसंधियों के
खाने-पचाने की कला में निपुण बड़बोले
अब अपने बेटे-दामाद-भाई-भतीजों को
बना रहे हैं भोग कुशल-बे-हया।

शीर्षक से उपरोक्त बने बड़बोलों को
अब किसी बात का मलाल नहीं होता
उन्हें इसकदर निडर और लज्जाहीन
अहलकारों ने बनाया या उस्तादों ने
उन्हें आदत ने मारा या अहंकार ने
कहा नहीं जा सकता
पर उन्होंने वाणी को भ्रष्ट कर दिया
भ्रष्ट कर दिया आचारण को
ग्रस लिया तंत्र को
डँस लिया देश को
सिर्फ बोलते और बोलते हुए
वाणी के बहादुरों ने
लोकतंत्र पर कब्जा कर लिया
और बाँट दिया उसे
जनबल और धनबल के बहादुरों में
और अब तीनों मिलकर
देश पर मरने वालो को
पदक बाँट रहे हैं।

- दिनेश कुशवाह