रविवार, 23 फ़रवरी 2014

एक दबाव ग्रुप के रूप में उभरें महिलाएं

पिछले दिनों वार्षिक ब्लॉग मीट-2014 यानि "Annual Bloggers Meet, 2014" में जाना हुआ, जहां एक बहुत ही अनोखा और उत्सावर्द्धक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। अनोखा इसलिए था कि इस बार हम ‘ब्लॉग मीट’ में हम ब्लॉग या किसी वैकल्पिक मीडिया के बारे में चर्चा करने के लिए इकटठे नहीं हुए थे जैसे कि अमूमन हम ब्लॉगर अक्सर इकट्ठा होकर रायशुमारी करते रहते थे, बल्कि इस ब्लॉग मीट में हम ऐसी समस्याओं या मुद्दों पर चर्चा करने के लिए एकजुट हुए थे जो देष की आजादी से लेकर अभी तक हमें परेषान किये हुए हैं। हम सभी ब्लॉगर मित्रों को प्रमुख रूप से चार विषय चर्चा करने के लिए दिये गये। ये चार विषय थे- पहला, सांप्रदायिक सौहार्द कैसे बनाए, युवा शक्ति दोहन और उत्थान, महिला की सामाजिक और राजनीतिक भागीदारी, सरकार के कामकाज में पारदर्षिता। आपसी चर्चा के बाद अपने अपने विचार भी देने को कहा गया, जो इस बात को आगे बढाये कि इन सभी समस्याओं से हम कैसे उबर सकते हैं। या फिर हम इन मुद्दों से निपटने के लिए क्या निवारक उपाय अपना सकते है। वैसे यह विशिष्ट कार्यक्रम "A Billion Ideas" की तरफ से आयोजित था।
मैंने इन सभी मुद्दों में से चर्चा के लिए ‘महिलाओं की सामाजिक और राजनीतिक भागीदारी’ को चुना। यह भागीदारी घर, समाज और देश के नागरिक के तौर पर महिलाओं को किस सीमा तक मिली हुई है और वह इसका उपयोग किस हद तक कर रही हैं? यदि नहीं कर पा रही हैं तो क्या कारण हैं? ऐसी बाध्यताओं को कैसे दूर किया जा सकता है। ऐसे कई सवालों पर अपने सभी ब्लॉग मित्रों से हम सबने चर्चा की। चर्चा काफी सार्थक और उपयोगी रही। हम सभी ने अपने आसपास, घर-पड़ोस, देष-विदेष की महिलाओं की स्थिति को अपनी बातचीत में षामिल भी किया। जिसके बाद काफी ऐसी चीजें सामने आई जिन पर हम अधिक सोचते भी नहीं थे। सर्वाधिक हमारा खुद का घर, जहां महिलाएं हमारे साथ पत्नी, बेटी या बहन के रूप में हमसे दिन-रात टकराती रहती है। उनकी आजादी, अधिकार और सरोकार के बारे में हम कितना सोचते है? या कितना दे पाते हैं? यह प्रश्न  सबसे ज्यादा मथ गया हम सभी को! इसलिए हम सभी इस बात पर सहमत हुए कि षुरूआत हमें अपने घरों से करनी पड़ेगी क्योंकि हमारे समाज में लैंगिंग असमानता हमारे घरों से निकल कर सभी जगहों में फैलती है। इसलिए पहले घर में सुधार हो। तब बात बनें!
महिलाओं की समाज में भागीदारी सुनिष्चित करने के संदर्भ में मैं दो बातों पर अधिक जोर देना चाहूंगी- पहली कि महिलाओं को एक प्रतीकात्मक स्थिति से बचाना होगा, दूसरा उनकी राजनीतिक भागीदारी।
   महिलाओं को एक प्रतीकात्मक रूप दे देने के कारण वह महज षो पीस बन कर रह जाती है। इसलिए हमारे खासतौर पर हिंदू समाज मंे महिला या तो देवी होती है या सबसे निकृश्ट प्राणी। जिसे पैदा करने से पहले कई बार सोचा जाता है इसलिए उन्हें कोख में ही मौत की नींद सुला दिया जाता है। महिलाओं को जब पुरुषों की तरह का एक प्राणी मात्र मान लिया जाय और किसी प्रतीक के तौर पर उन्हें प्रस्तुत न किया जाए तब ही मां-बाप से लेकर समाज उनके बारे में सोचेगा। तो पहले हमें इस बात को भली-भांति समझ लेना है।
दूसरा महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी। इस समय संसद में महिला आरक्षण को लेकर काफी राजनीति चल रही हैं।  देर-सबेर महिलाओं को संसद में आरक्षण मिल भी जाएगा। पर प्रष्न यह है कि इसके बाद भी क्या महिलाओं की समाज और राजनीति में भागीदारी सुनि
वार्षिक ब्लॉग मीट-2014
ष्चित हो जाएगी? क्या वे निर्णय लेने में सहभागी होगी? षायद नहीं? असल में राजनीतिक सहभागिता दो तरह से होती है- सहयोग व असहयोग। महिला आरक्षण के बाद हम राजनीति में सहभागी तो जाएगें, हम वहीं राजनीति करेंगे जो स्थापनाएं अभी तक पुरूषों ने राजनीतिक क्षेत्र में खड़ी की हैं। भारत में महिलाएं भी एक लोकतांत्रिक देश की तरह रह रही हैं, उनके लिए भी संवैधानिक अधिकार संविधान ने दिए है। फिर भी आज तक वे अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए कहीं नजर नहीं आती हैं? वोट भी वे अपने परिवार या पति के कहने पर दे आतीं हैं। यह राजनीतिक सहभागिता नहीं है। किसी भी तरह की जानकारी और सूचना हासिल करना, राजनीतिक कार्यो में पारदर्षिता की मांग, सामाजिक मुद्दों पर बहस व संगोष्ठि करना, विभिन्न सामाजिक गतिविधियों के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करना, प्रतिनिधियों और जनता के बीच संवाद कायम करना आदि कार्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा होते है, इन सभी में महिलाओं को बढ़-चढ़ कर योगदान करना चाहिए। घर में बैठकर इंतजार नहीं करना चाहिए। जिससे समाज में आधी आबादी का एक दवाब समूह तैयार हो सके। जिसके पास यह क्षमता हो कि वह अपने हित में सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी परिवर्तन कर सके। ऐसे ग्रुप सामाजिक और राजनीतिक दोनों रूपों में बेहतर काम कर सकते हैं।
आज भी हमारे यहां एक महिला और बाल कल्याण मंत्रालय होता है। महिलाओं को हम हमेशा उनके बच्चों से जोड़कर देखने के हम आदी हो गये है। वजह है महिलाओं को पुरुषों के बराबर समान नागरिक नहीं समझा जाता। जबकि हमारे पास संवैधानिक अधिकार है। उनके घरेलू श्रम को आज भी मान्यता प्रदान नहीं की जा रही हैं। समग्र राष्ट्रीय आय में उसका क्या योगदान है, यह पता किया जाना जरूरी है। कहने का अर्थ है कि महिलाओं को डिसीजन मेंकिंग के काबिल बनाने से पहले उन्हें आधी आबादी के रूप में मान्यता देनी होगी। जिस दिन यह हो जाएगा, वे अपने डिसीजन खुद लेंगी और दूसरों के बारे में भी।


शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

इस वसंत में

प्रेम जानने के लिए
खरीद लाई
प्रेम विशेषांक
प्रेम के सभी महाविशेषांक
प्रेम में पकी कविताएं
प्रेम पर लिखी सभी कहानियों के
हर शब्द को
पढ़ा मैंने
गुना मैंने
चखा मैंने
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फिर भी
पैदा नहीं  कर पाई
कोई प्रेम विज्ञान
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पर आज
एक बच्चे की
मासूम मुस्कान ने
फूलों से सिंचे रस जैसा
शहद  बना दिया
मेरे गाँव से एक बच्ची की  मनमोहक मुस्कान युक्त तस्वीर 
मेरे ओठों पर
बगैर किसी
मधुमास के।