रविवार, 18 मई 2014

च’ से चरखा

नाम मोहित बताया उसने। शरमाते लजाते उसके चेहरे पर मेरे सवालों से बचने की जल्दबाजी दिख रही थी।। मैंने पूछा कि कहां से सीखा? कोई जवाब न मिला। पर मेरा दूसरा प्रश्न  तैयार था। ‘कहां से आए हो?’ मैंने पूछा।  ‘गांध्ी हिन्दुस्तानी से।’ अपना समान समेटते हुये उसने बताया। और अपने बड़े दो सहोदरों के साथ हो लिया। मेरी दिलचस्पी दो घंटे तक चले एक कार्यक्रम के दैारान कम हो
गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, राजघाट 
ने लगी जब वह छोटा बच्चा मंच पर अपने चरखा कातने का समान जमाने लगा। पांच वर्श की छोटी से अवस्था में चरखा कातने के काम को वह कुषलता से अंजाम दे रहा था। वह किसी प्रशिक्षित कारीगर से कम नहीं था। पर अभी उसमें एक कुशल कारीगरी की कमी थी इसलिए उसका ताना-बाना पल दर पल पर टूट जाता। वह बड़े नफासत से ताने को लेकर बगैर गांठ पड़े कातने लगता। पर कच्ची उमर का असर कच्चे सूत पर तारी था, ताना पल-पल टूट जाता। पर सीखने वाली इस उमर में मोहित हर टूटन से सीख रहा था। जो मुझे साफ दिखाई दे रहा था।
म्ुाझे अच्छे से याद है। बचपन में हमारे घर पर एक लोहे की तकली हुआ करती थी। उसमें सूत काता जाता रहा होगा। ‘रहा होगा’ इसलिए क्यांेकि मेरे बचपन का समय घर पर सूत कातने वाला समय नहीं था और  कभी मैने किसी को तकली पर सूत कातते भी नहीं देखा। घर पर वह कहां से और क्यों लाई गई इसका भी स्मरण नहीं है। हो सकता है बड़े-बुर्जुगों के समय खरीद कर लाई गयी हो और उससे सूत भी काता जाता रहा हो। ऐसा मेंरा अनुमान है। सो उपेक्षित पड़ी उस तकली पर बचपन की उत्सुकता सूत कातना सीखना चाहती थी। इस काम में पिताजी ने सहयोग दिया और मेरे अभ्यास का दौर भी चलने लगा। मेरे खाली समय के खेल में वह तकली भी शामिल हो गई। काफी समय तक वह तकली मेरे पास रही। पर न मैं तकली की हो सकी न तकली मेरी। अप्रयोज्य वस्तु जिस अर्थ में कबाड़ होती है तकली हमारे घर में कबाड़ ही थी। और एक दिन कब वह चुपके से कबाड़ में चली गई। मुझे क्या किसी को याद नहीं। वास्तव में हम में से किसी को उसकी जरूररत नहीं थी। बढि़या से बढि़या सूत बाजार में पैसे देकर मिल जाता था। तो फिर उस हुनर को सीखने का तो सवाल ही नहीं था।
पर उस मोहित को देखकर लगा कि चरखा उसका होकर रहेगा। पर रोबोट युग का यह बच्चा चरखा कातना क्यों सीख रहा था। क्या उसके पास खेलने या सीखने के दूसरी चीजें नहीं थी। या पिफर किसी अनुपलब्ध् विकल्प के कारण वह चरखा कातना सीख रहा था। यह सब मैं उससे पूछना चाहती थी। मोहनदास करमचंद गांध्ी के आजादी की लड़ाई का शस्त्र चरखा ही था। उन्होंने चरखे में स्वालंबन को देखा, बुना और जिया। चरखे की इसी प्रासंगिकता को वह नन्हा बच्चा सिखा रहा है। नही ंतो आज का समय इतना निर्दयी है कि हमारी वर्णमाला की किताब से च’ से ‘चरखा’ पढ़ाने की भी प्रासंगिता नहीं बची है। अपनी नर्सरी की किताब की वह बाल कविता ‘तकली रानी, तकली रानी! नाच रही कैसी मनमानी!!! अब किसी को भी याद नहीं आती। ये मोहित का चरखा कैसी चुनौती दे रहा है, मुझे और आने वाले समय को कि देखना एक दिन मै चांद में बैठी बुड्ढी़ दादी के सन जैसे बालों की तरह सफेद और चमकीला सूत कातकर दिखा दूंगा।

('अंतिम जन' के अप्रैल अंक मे प्रकाशित लेख का एक अंश )

2 टिप्‍पणियां:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

हम जब स्कूल में पढते थे तब तकली से रुई कातनी पड़ती थी, जिसका धागा जितना पतला और अच्छा होता था उसे काम के हिसाब से नम्बर मिलते थे। चरखा भी हमारे घर में था, दादी और बुआ सूत काताती थी और फ़िर उस सूत से सुंदर दरी बनाई जाती थी।

प्रतिभा कुशवाहा ने कहा…

हा॥ललित जी॥मेरी मम्मी भी यही बात बताती है कि उन दिनों स्कूलों मे सूत कातने की परीक्षा हुआ करती थी!!