रविवार, 31 अगस्त 2014

सपनों की उड़ान


पिजड़े के अंदर 
कैद थी एक बुलबुल!

उसकी हर फड़फड़ाहट के साथ
उसकी हर बेचैनी के साथ
उसकी हर बेताबी के साथ
उसकी हर कोशिश के बाद
टूट कर रह जाते थे 
उसके मजबूत पर
पिजड़े के अंदर।

पिजड़े के अंदर 
कैद थी एक बुलबुल!

पर 
पिजड़े के अंदर! 
नहीं कैद थी बुलबुल की 
उड़ने की आकांक्षा,
उड़ने के सपने,
उड़ने की तत्परता
उड़ने की कोशिशें ।


टूटें हुए परो के रूप में 
पिजड़े के अंदर से 
उसके उड़ान के सपने
उड़ रहें थे हवा के साथ
दूर बहुत दूर तक।

कैद थी एक बुलबुल
पिजड़े के अंदर।
कबूतर पालने वाले कबूतर के पर क़तर देते है ताकि वे उड़ न सके। ऐसा ही एक कबूतर हमारी छत पर आया। 

रविवार, 3 अगस्त 2014

थैंक्स दोस्त!!

एक दिन
उदासी
बिन बुलाए
मेहमान की तरह आ धमकती है।
एक मुस्कान के साथ
‘हैलो‘ बोल
बगल में बैठ जाती है
हम डरते हैं, आंख चुराते हैं
वह हमारा हाल-चाल पूछती है।

औपचारिकतावश
हम भी
चाय-पानी पूछ ही लेते है।
वह बेशर्म की तरह
घुल-मिल कर बात
करती जाती है...
करती ही जाती है...।

पता नहीं उसे
इतना कुछ कैसे
मालूम होता है हमारे बारे में
पर उसे मालूम होता है सब कुछ
हमारा तिनका तिनका
जर्रा जर्रा...
उसकी सौबत में
कुछ ही देर में
हमारी सांसें
जोर से चलने लगती है
सीने पर पत्थर पड़ने लगते है
दम फूलने के साथ
सांसें छूटती-सी मालूम पड़ती हैं।

तभी
मोबाइल बज उठता है
स्क्रीन पर नाम चमकता है ‘दोस्त’
अरे, कितने दिनों बाद याद किया कमबख्ता ने!
एक मद्धिम सी मुस्कुराहट के साथ
उससे शुरू हुई बातें
ठहाको में बदलने लगती है
इधर पहलू में बैठी उदासी
बोर होने लगती है।

अब
उदासी
चुपके से
बगैर दरवाजा खोले ही
दरवाजे के नीचे से निकलने की
कोशिश में है।
मुझे विदा करने उसे
दरवाजे तक नहीं जाना पड़ा।

चंद लम्हों बाद
वह दूर जाती दिखती है।
थैंक्स दोस्त!!

सॉरी दोस्त!
दोस्ती में
थैंक्स-सॉरी
नहीं होता।