शनिवार, 13 सितंबर 2014

श्राद्ध से अधिक श्रद्धा की जरूरत

हाल ही में मेरी एक परिचिता अपने लिए कुछ नये कपड़े खरीद कर ले आयी। शाम को जब उसके पति ने कपड़े देखे तो उसकी डांट लगा दी। कारण था कि पितृपक्ष आरम्भ हो चुके है अतः खरीदारी नहीं करनी चाहिए। अब चूकिं कपड़े खरीदकर आ चुके थे और जरूरी भी था इसलिए इस समस्या का हल निकाला गया कि रस्मीतौर पर किसी दूसरे व्यक्ति कपड़े पहनाकर पुराना मानकर हम इस्तेमाल करे। इससे पितृपक्ष  दोष  नहीं लगेगा। तो इस तरह उक्त  ‘कठोर नियम’ का हल बड़ी चतुराई से सरलीकरण कर दिया गया। जब मैंने यह पूरा वाकया सुना तो अनायास ओठो पर मुस्कान तैर गई। लगा कि अगर उनके पुरखों ने किंचित यह सब  देख लिया तो उन पर क्या बीतेगी यह तो किसी गया के पंडे से जाकर पूछना पड़ेगा।
शास्त्रो के अनुसार पितरों का प्रतिनिधित्व करने वाले तीन जीव माने जाते है-कौआ, श्वान और गाय। मान्यता है कि अपने भोजन को तीन हिस्सो में बाटकर इन तीनों को भोजन दान किया जाए। यह हमारे पितरों का प्रतिनिधित्व करते है। भौतिक विलासता से दूर रहकर सात्विक दिनचर्या का पालन करना आवश्यक है। इन  दिनों सभीे समाचार पत्रों के धर्मिक पृश्ठ पर किसी न
किसी रूप में पाठकों को पितृपक्ष में अचार-व्यवहार के बारे में बाताया जा रहा है। इन कर्मकाण्डों के बीच फंसे व्यक्ति खासकर युवा असहज महसूस करते है। पर उन्हें यह सब मानने और पालन करने के लिए बाध्य किया जाता  है।
दूसरी तरफ इन अनुष्ठान के इतर जब हम अपने आसपास अपने बुजुर्गो की उपेक्षा होते देखते है। तो लगता है कि इस श्राद्ध  का क्या अर्थ है जब हमें अपने बुजुर्गो के प्रति श्रद्धा ही नहीं है। जबकि देश मे बूढे माता-पिता की जिम्मेदारी अधिक पुख्ता बनाने की कोशिश की जा रही है। बिहार में तो बकायदा कानून बना कर बेटों से माता -पिता की देखभाल कराने के प्रावधान बना दिये गए हैं  जिसके अनुसार जो भी व्यक्त्ति अपने असहाय माता-पिता के  भरण-पोषन  की जिम्मेदारी नहीं उठाएगा उसे जेल की सजा मिल सकती है। भारतीय संस्कृति की श्राद्ध परम्परा से आज हम ‘सजा के प्रावधान’ तक पहुंच चुके है। हम मर चुके पूर्वजों की चिंता करते तो दिख जातेे है पर जो जिंदा है उनकी चिंता गैरजरूरी समझते है। हम अपने इस धार्मिक अनुष्ठान का मर्म नहीं समझते। लकीर के फकीर होकर सब कुछ  मानते चले जाते है। यहीं हमारी समस्या है।
वास्तव में अपने बुर्जुगों का सम्मान हम इस सीमा तक करे कि उनकी मृत्यु के बाद भी हम उनके योगदान के लिए अभार व्यक्त करे। इस बात को न समझकर कर्मकाण्डों को पूरा करके अपनी इतिश्री समझ लेते है। जबकि श्राद्ध से अधिक उन्हें हमारी श्रद्धा की जरूरत है।

शनिवार, 6 सितंबर 2014

कार्टून की दुनिया और बच्चे

एक कॉमिक्स पात्र 'नागराज' का मॉडल रूप  
कंप्यूटर युग में बच्चों से किताबें पढने की उम्मीद कोई नहीं करता है। सभी यह शिकायत करते हुए मिल जाते है कि बच्चे किताबें नहीं पढ़ते हैं। बच्चों में किताबें पढ़ने की रूचि नहीं हैं पर मुझे लगता है कि हम लोग ही बच्चों को किताबों तक नहीं पहुंचने देते है। इस बार दिल्ली पुस्तक मेला में राजा पाॅकेट बुक और डायमंड काॅमिक्स के स्टाॅल लगे थे जिसमें बच्चों की उमड़ी भीड़ देखकर नहीं कहा जा सकता कि कार्टून चैनल आ जाने के बाद बच्चे कॉमिक्स पढ़ना नहीं चाहते है, वह भी दिल्ली जैसे महानगर के बच्चे। ‘काॅमिक्स मंहगी है’ कह कर कई माता-पिता बच्चों को दूसरी चीजें खरीदवाने को उत्सुक थे। जबकि डायमंड वाले पचास प्रतिशत छूट पर काॅमिक्स बेच रहे थे। मुझे याद है कि मेरे मम्मी-पापा कभी काॅमिक्स जैसी मनोरंजक किताबें खरीदने के पक्ष में नहीं होते थे, उन्हें फिजूलखर्ची लगती थी क्योंकि एक बार पढ़ लेने के बाद वह बेकार हो जाती थी। पर किराये पर लाकर पढ़ सकते थे वो भी छुट्टियो के दिनों में। कामोवेश हम सभी के बचपन की यही कहानी हो सकती है। उस समय काॅमिक्स और बाल साहित्य की पत्रिकाएं पढ़कर ही हमारे अंदर पढ़ने की आदत विकसित हुई, इस बात से एकदम इंकार नहीं किया जा सकता है। पुस्तक मेला में यह देखकर अच्छा लगा कि काॅमिक्स जैसी चित्रकथाओं में बच्चों की रूचि बची हुयी है, बस अगर रूचि पैदा करनी है तो वह बड़ों में।