रविवार, 17 मार्च 2019

उत्तराधिकार के अधिकार से महरूम बेटियां

हाल ही में एक अध्ययन सामने आया है। इसमें बताया गया है कि लिंग भेद मिटाने या कम करने के उद्देश्य से उत्तराधिकार या विरासत संबंधी कानूनों बनाने के साथ सुधार किया गया। विरासत कानूनों में हर सुधार के बाद सोचा गया था कि इससे महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने में मदद मिलेगी। पर इस अध्ययन में आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि यह सुधार समाज में बेटे की ललक या बेटियों के बरक्स पुत्र की वरीयता कम नहीं कर सका। 2018 में किए गए इस अध्ययन के अनुसार, 1970 से 1990 के बीच लड़कियों की विरासत संबंधी कानूनों को मजबूत बनाने के लिए जो कई तरह के बदलाव किए गए उससे अनजाने में ही कन्या भ्रूण हत्या और उच्च महिला शिशु मृत्यु दर को बढ़ावा मिला। अध्ययन में पाया गया कि महिलाओं को विरासत के अधिकार देने से माता-पिता को बेटी से ज्यादा हानि महसूस हुई। इसका बहुत बड़ा कारण बेटी का शादी के बाद ससुराल जाना है, और इससे बेटी के संपत्ति ससुरालीजनों के पक्ष में चले जाना था।

2018 में जर्नल ऑफ डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स में प्रकाशित इस अध्ययन को किंग्स कॉलेज विश्वविद्यालय, न्यूयार्क विश्वविद्यालय और एसेक्स विश्वविद्यालय में शोधकर्ताओं ने किया था। इस अध्ययन में इस बात का विश्लेषण किया गया कि यदि पहली संतान एक लड़की है, तो दूसरे बच्चे के लिए परिवार की इच्छाएं (बेटा या बेटी) क्या होगी? इस अध्ययन में इस निष्कर्ष तक पहुंचा गया कि विरासत संबंधी कानूनों को मजबूत बनाने के साथ-साथ पैदा होने वाली लड़कियों के अपने पहले जन्मदिन तक पहुंचने से पहले दो-तीन फीसदी अंक तक जीवित न रहने की संभावना थी। अगर पहली संतान बेटी है, तो दूसरी संतान बेटी की मृत्यु की संभावना नौ फीसदी अंक अधिक थी। इस अध्ययन के निष्कर्षों तक पहुंचने के लिए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण एवं ग्रामीण आर्थिक और जनसांख्यिकी सर्वेक्षण-2006 के आंकड़ों का उपयोग किया गया है।

ऐसा नहीं है कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 लागू होने से पहले बेटियों की सामाजिक या आर्थिक हालत बहुत अच्छी थी। उस समय तक उनकी सामाजिक हैसियत और पहचान किसी न किसी पुरुष सदस्य से जुड़कर ही पूरी होती थी। उनका एक स्वतंत्र अस्तित्व हो सकता है, यह सोच कहीं नहीं थी। इसी सोच के चलते उन्हें अलग से संपत्ति का अधिकारी या उत्तराधिकार मानने की बात समाज के गले उतर नहीं सकी। पर जैसे ही कानून ने उन्हें इस अधिकार के उपयुक्त पाया और इस दिशा में सोचा, वैसे ही वे परिवार के दूसरे पुरुष सदस्यों के आंखों की किरकिरी बन गईं। घर की महिलाओं को अपने समकक्ष खड़ा पाकर, उन्हें जहनी तौर पर असुविधा हुई। अब तक परिवार अपनी बेटियों का पालन-पोषण ‘पराया धन’ समझकर कर रहा था। यह दूसरी बात है कि घर की बेटियों ने अपने इस अधिकार का उपयोग बहुत आवश्यकता पड़ने पर भी नहीं किया या वे इस अधिकार का उपयोग करने में सक्षम भी नहीं थी।

देश में परिवार समाज की प्रमुख ईकाई है, जिसका एक मजबूत खांचा है। इस खांचे को बनाए रखने के लिए सारी कार्यविधियां काम करती हैं। समाज नहीं चाहता है कि इसमें किसी भी प्रकार की क्षति पहुंचे। चाहे वह कानून के द्वारा ही क्यों न हो। इसलिए बेटियों को उत्तराधिकारी मानने में माता-पिता की कोई खास दिलचस्पी नहीं होती और न ही बेटियों को अपने रिश्ते खराब करने की शर्त पर यह मंजूर होता है। इस संपत्ति बंटवारे को लेकर माता-पिता की भी अपनी समस्याएं हैं। वे नहीं चाहते थे कि उनकी संपत्ति उनके बेटों के हाथ से निकलकर बेटी के मार्फत दूसरे परिवार में चली जाए। अंतत: वे अपने अच्छे भविष्य के लिए पुत्रों पर ही आश्रित होने वाले हैं। भाई-बहन के बीच संपत्ति बंटवारा संबंधित दूसरी तमाम दिक्कतें भी इसमें शामिल हैं। इस तरह स्वयं माता-पिता और बाद में भाइयों ने कभी अपनी बहनों को संपत्ति में हिस्सा देने या विरासत सौंपने की कोई पहल नहीं की। दूसरी तरफ उन्हें दहेज देकर उनकी संपत्ति संबंधी उनके अधिकारों को कमतर करके मार दिया।

यही जमीनी हकीकत है कानूनी और सामाजिक मान्यताओं के अंतर में। सामाजिक मान्यताओं के बरक्स जब कानून अपना दखल करना चाहता है, तो समाज अपना रास्ता दूसरे तरीके से ढूढ़ लेता है। इसलिए जब 2018 में जर्नल ऑफ डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स में प्रकाशित इस तरह का कोई अध्ययन सामने आता है, तो बहुत अधिक आश्चर्य नहीं होता है। महिलाओं को पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी देने में आज तक हमारा समाज इसीलिए सफल नहीं हो पाया है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 में अचल संपत्ति में महिलाओं को मिलने वाले अधिकारों का उल्लेख किया गया था। लेकिन इसमें कुछ कमियां होने के कारण महिलाएं इस अधिकार का उपयोग नहीं कर पा रही थी। इसके लिए 2005 में हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम लागू हुआ। इस संशोधन के बाद पुत्री को बेटों के बराबर पैतृक संपत्ति में हक मिल सका। यह अधिनियम हिंदू परिवार के साथ-साथ सिख, जैन और बौद्ध धर्मावलंबियों पर भी लागू है। इस संशोधन से पहले पिता की संपत्ति में स्वामित्व का अधिकार पुत्रियों को नहीं दिया गया था, लेकिन अब जन्म से ही बेटियों को पिता की संपत्ति पर अधिकार है। पर समस्या यह है कि व्यवहार में इस कानूनी हक का पालन हो पा रहा है। इसकी पड़ताल के लिए कोई गंभीर प्रयास या अध्ययन नहीं किया गया है। जिसकी अब जरूरत महसूस की जा रही है क्योंकि कानून लागू हुए डेढ दशक होने जा रहा है।

बुधवार, 6 मार्च 2019

ऑस्कर में बुलंद हुुई महिला आवाज

दिल्ली से मात्र साठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित हापुड़ जिले के लोग एक दूसरे के साथ खुशियां बांट रहे हैं। कारण, हापुड़ के एक गांव में बनी 25 मिनट की डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘पीरियड, एंड ऑफ सेंटेंस’ को 91वें एकेडमी अवार्ड्स यानी ऑस्कर में बेस्ट डॉक्युमेंट्री शॉर्ट सब्जेक्ट कैटेगरी के लिए चुन लिया गया है। यह डॉक्युमेंट्री महिलाओं के पीरियड यानी महावारी को टैबू मानने को लेकर बनी है। इसलिए जब इस खुशी का इजहार डॉक्युमेंट्री की भारतीय सह-निर्माता गुनीता मोंगा ने यह लिखकर किया कि हम जीत गए, इस दुनिया की हर लड़की तुम सब देवी हो… अगर जन्नत सुन रही है तो। …यह दिखाता है कि पीरियड जैसा बालॉजिकल विषय हमेशा से कितनी भ्रांतियों की जकड़न में रहा है। जिस पर खुद महिलाएं तक बात नहीं कर पाती हैं, जैसा कि इस डॉक्युमेंट्री में दिखाया गया है।

‘पीरियड, एंड ऑफ सेंटेंस’ डॉक्युमेंट्री की शुरुआत ही कुछ किशोरियों से इसी सवाल के साथ होती है, जिस पर वे बिना झिझक के बोल तक नहीं पाती हैं। चाहे यह सवाल उनसे उनके ही घर पर किया गया हो, या फिर स्कूल में। जब लड़कियों का यह हाल है, तो पुरुषों का क्या हाल हो सकता है, यह भी इस डॉक्युमेंट्री में है। जहां महिलाएं इस बॉयोलाजिकल प्रक्रिया को छूत, बीमारी या गंदी बात मानती हैं, वहीं आदमी इसे महिलाओं की एक बीमारी बताते हैं। काठीखेड़ा (हापुड़ का एक गांव, जहां पर इस डॉक्युमेंट्री को बनाया गया है।) गांव में थोड़ा परिवर्तन तब आता है, जब यहां एक सेनेटरी पैड बनाने वाली मशीन लगाई जाती है। इस मशीन के माध्यम से महिलाओं को पीरियड के दौरान स्वच्छता जैसे मुद्दों के प्रति जागरुक किया जाता है। इस गांव की महिलाओं को इस मानसिक स्थिति तक पहुंचने और सेनेटरी पैड बनाने के कारखाने में काम करने के दौरान कितनी परेशानियों और समाज के विरोध को झेलना पड़ता है, यह सब इस डॉक्युमेंट्री का वृहद विषय है। इन सबको 25 मिनट की इस डॉक्युमेंट्री में समेट लिया गया है। यहां बनने वाले सेनेटरी पैड को फ्लाई नाम से बेचा जाता है। फ्लाई नाम से इस ब्रांड के साथ इस गांव की महिलाओं के सपनों को भी पंख लग जाते हैं।

बेस्ट डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट कैटेगरी अवॉर्ड के लिए ‘पीरियड, एंड ऑफ सेंटेंस’ के मुकाबले 'ब्लैक शीप', 'एंड गेम', 'लाइफबोट' और 'अ नाइट ऐट दी गार्डन' फिल्में थीं। डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘पीरियड, एंड ऑफ सेंटेंस’ का निर्देशन रायका जेहताबची ने किया है। इसे भारतीय सह-निर्माता गुनीता मोंगा की सिखिया एंटरटेनमेंट ने इसे प्रोड्यूज किया है। गुनीत मोगा गैंग्स ऑफ बासेपुर, लंच बाक्स, जुबान, मसान और पेडलर्स जैसी फिल्में प्रोड्यूज कर चुकी हैं। यह डॉक्यूमेंट्री 'ऑकवुड स्कूल इन लॉस एंजिलिस' के छात्रों और उनकी शिक्षक मेलिसा बर्टन द्वारा शुरू किए गए 'द पैड प्रोजेक्ट' का हिस्सा है। भारतीय समय के अनुसार सुबह, 25 फरवरी को इन पुरस्कारों की घोषणा की गईं। देश में दस साल के बाद इस डॉक्यूमेंट्री के बहाने कोई ऑस्कर देश में आया है। इससे पहले 2009 में ए.आर. रहमान और साउंड इंजीनियर रसूल पोकुट्टी को 'स्लमडॉग मिलेनियर' के लिए ऑस्कर मिला था।


पिछले साल अभिनेता अक्षय कुमार अपनी फिल्म ‘पैडमैन’ के माध्यम से इस विषय को उठा चुके हैं। इस फिल्म को तमिलनाडु के अरुणाचलम मुरुगनांथम के कार्यों से प्रेरित बताया गया था। अरुणाचलम ने महिलाओं की इस समस्या के लिए एक सस्ती पैड मशीन का अविष्कार किया था। जिससे महिलाओं को अपने हाईजीन को बनाए रखने के लिए सस्ती दर में सेनेटरी पैड उपलब्ध हो सकें। और इस काम में वे न केवल सफल होते हैं, बल्कि महिलाओं से जुड़े इस विषय के प्रति वे लोगों का जागरुक करने में भी सफल होते हैं। माहवारी यानी पीरियड को लेकर अधिकतर समाजों में जकड़न इस हद तक है कि इन दिनों में महिलाओं और किशोरियों को घर से बाहर किसी झोपड़ी में रहने तक के लिए मजबूर कर दिया जाता है। इससे न केवल उनकी जान चली जाती है, बल्कि उन्हें अकेला पाकर बलात्कार तक किया जाता है। इसे पड़ोसी देश नेपाल और देश के कुछ इलाकों में चौपदी या छौपाड़ी प्रथा कहते हैं। पैडमैन फिल्म के साथ में इसी विषय को अभिषेक सक्सेना ने ‘फुल्लू’ नाम से फिल्म बनायी थी, बेहतरीन होने के बावजूद जिसकी चर्चा भी कम हुई।

महिलाओं के पीरियड्स संबंधी जकड़न तोड़ने के लिए इस तरह की डॉक्यूमेंट्री और फिल्म को माध्यम बनाने से लोगों का ध्यान आसानी से खींचा जा सकता है। इसलिए इस तरह के प्रयासों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। वैसे भी सदियों से चली आ रही यह जकड़न किसी एक फिल्म से टूटने वाली भी नहीं है। पर बार-बार चोट करने से टूटने की गुंजाइस बन ही जाती है।