सोमवार, 7 अगस्त 2023

धमाल मचाने वाली परदादी रामबाई

 


एक सौ छह साल वह उम्र होती है, जब कोई भगवान का भजन करता है या किसी का सहारा लेकर अपना बचा हुआ जीवन जीता है। पर ऐसे भी जीवट वाले लोग होते हैं, जो इन बनी-बनाई धारणाओं को तोड़ देते हैं। रामबाई एक ऐसा ही नाम हैं। जिन्होंने उम्र की सीमाओं को तोड़ते हुए एक मिसाल कायम कर दी है। जानते हैं उनकी इस सफलता के पीछे की कहानी को।

 

एक सौ छह साल की रामबाई तब समाचारों की सुर्खियां बटोरने लगीं, जब उन्होंने लाठी पकड़कर चलने की उम्र में फर्राटा दौड़ में एक नहीं, तीन स्वर्ण पदक जीत लिये। खासतौर से सोशल मीडिया में उन्हें इस उपलब्धि के लिए खूब सराहा गया। उनके गले में पड़े हुये मेडल और उनकी मासूम हंसी वाली फोटो देखकर नहीं कहा जा सकता कि वे हमेशा से किसी दौड़-भाग वाले खेल में हिस्सा लेना चाहती थीं, क्योंकि उनकी घरेलू जिंदगी ही दौड़-भाग वाली थी। जब जिंदगी के तीसरे पहर में उन्हें नाती-पोतो, परनाती से भरे घर में समय उनके साथ सुस्ताने लगा, तब भी उन्होंने ऐसे किसी कॉम्पिटिशन में भाग लेने और जीतने की नहीं सोची होगी, क्योंकि उनका अब तक का जीवन ही किसी ट्राफी से कम नहीं था। फिर भी उन्होंने अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में ऐसे किसी कॉम्पिटिशन में न केवल भाग लिया, बल्कि शानदार जीत भी हासिल की। ऐसा उन्होंने क्यों और कैसे कर लिया, यही जानने में आज हमारी, सबकी दिलचस्पी बनी हुई है।

जिंदगी की रेस को सफलता पूर्वक क्वालीफाई करने वाली हरियाणा की रामबाई ने उत्तराखंड में आयोजित हुई 18वीं युवरानी महेंद्र कुमारी राष्ट्रीय एथलेटिक्स चैंपियनशिप में बुजुर्ग खिलाड़ियों के ग्रुप खेल में भाग लिया। यहां 100 मीटर रेस में उन्होंने पहला स्थान प्राप्त करके गोल्ड मेडल प्राप्त किया। इसके साथ-साथ एक के बाद एक 200 मीटर दौड़, रिले दौड़ में गोल्ड मेडल जीत कर इतिहास बना दिया। यहां वे अकेली ही प्रतिस्पर्धाओं में भाग नहीं ले रही थीं, बल्कि उनकी बेटी और पोती भी दूसरी स्पर्धाओं में भाग ले रही थीं। अपनी तीन पीढ़ियों के साथ इन स्पर्धाओं में जीतकर उन्होंने इतिहास भी बनाया।

प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने की उनकी कहानी आज की सफलता से शुरू नहीं होती है। बल्कि अपनी पोती शर्मीला की प्रेरणा और पंजाब की 100 साल की एथलीट मानकौर से प्रेरणा लेकर उन्होंने भी मैदान में उतने की ठानी। पर यह सब आज जितना आसान नहीं था। चार लोग क्या कहेंगे, जैसी चीजें उनके दिमाग में भी थीं। पर इन सबसे पार पाने को ही साहस कहते हैं, जिसका नतीजा आज हम सब के सामने है। दो साल पहले ही जून 2022 उन्होंने अपनी 104 वर्ष की अवस्था में दौड़ प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया था। तब उन्होंने गुजरात के बडोदरा में नेशनल ओपन मास्टर्स एथलेटिक्स चैंपियनशिप में दोहरा स्वर्ण पदक जीता था। यहां उन्होंने 100 मीटर की दौड़ को केवल 45.50 सेकंड में पूरी करके मानकौर का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। आज भी यह उनके नाम का वर्ल्ड रिकॉर्ड है। पिछले दो सालों में रामबाई 14 अलग-अलग इवेंट में लगभग 200 मेडल जीत चुकी हैं। वे देश के बाहर भी जाकर दूसरी प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेती हैं।

हरियाणा के चरखी दादरी जिले के गांव कादमा की रहने वाली रामबाई ने अपना पूरा जीवन घर और खेत में काम करते हुये बिताया है। आज वे इस गांव की सबसे बुजुर्ग महिला हैं और उन्हें गांववाले प्यार से उड़नपरी परदादीकहकर बुलाते हैं। वे आज भी यहां गांव वाला साधारण जीवन व्यतीत करती हैं। गांव के संसाधनों पर ही वे अपना नियमित और संयमित जीवनचर्या जीतीं हैं। खुद को फिट रखने के लिए रोज सुबह जल्दी उठकर दौड़ लगाती हैं। दही, दूध, चूरमा और हरी सब्जियों से वे अपनी सेहत का ख्याल रखती हैं। खासतौर पर वे शुद्ध शाकाहारी हैं और अपनी सेहत को ठीक रखने के लिए वे दूध और दूध से बने व्यंजनों का भरपूर उपयोग करती हैं। उनके चेहरे का आत्मविश्वास बताता है कि वे आगे भी कई और पदक जीतने वाली हैं।

(पिछले दिनों 'युगवार्ता' पत्रिका में प्रकाशित)

 


शनिवार, 29 अप्रैल 2023

कैसे सम्हालेगें हम अपने बुजुर्गों को ?


दादा-दादियों की कहानियों में एक चमत्कारी दुनिया होती है, जिसे सुनकर मासूम बच्चे उस अजीम दुनिया के वासी बन जाते हैं। पर क्या ऐसी दुनिया स्वयं दादा-दादियों की होती है। समय-समय पर हमारे समाज से ऐसी कहानियां (घटनाएं) सामाने आती हैं कि जिन पर विश्वास करना कठिन हो जाता है। हालिया मामला हरियाणा राज्य के चरखी-दादरी के बाढ़डा के शिव काॅलोनी का है। जहां पर 78 साल के बुर्जुग दंपति ने आत्महत्या कर ली और पीछे एक सुसाइड नोट छोड़ा जिससे उनकी आपबीती हम सबके सामने आ सकी। यह आपबीती जानकर हमारे समाज, शहर, मुहल्ले और घरों में रहने वाले बुजुर्गों के चेहरे मुरझा से गए हैं। वे अपनी वर्तमान स्थिति के बारे में चिंतित हो रहे है, तो कोई बड़ी बात नहीं है।

हरियाणा के चरखी-दादरी के बाढ़ड़ा की शिव कालोनी में रहे जगदीशचंद्र आर्य और उनकी पत्नी ने मार्च की अंतिम तारीख को सल्फास खाकर आत्महत्या कर ली। जब पुलिस उनके पास पहुंचीं, तब वे जिंदा थे और उन्होंने अपनी बात एक पत्र के माध्यम से पुलिस को सौंप दिया। इसके बाद ही उनकी दयनीय स्थिति के बारे में बात सार्वजनिक हुयी। जगदीशचंद्र आर्य के दो पुत्र, दो पुत्रवधुएं और पोते हैं। पुत्रों के पास करोड़ों की संपत्ति भी है। बड़े पुत्र का एक बेटा हाल ही में आईएएस पास करके अंडर ट्रेनी भी है। उक्त दंपति को हाल ही में छोटे बेटे की मृत्यु के बाद छोटी बहू ने घर से निकाल दिया। फलस्वरूप वे बड़े बेटे के पास रहने पहुंच गए। छोटे बेटे के पास रहने से पहले वे अनाथ आश्रम में दो साल तक रहे। पत्नी को जब लकवा की बीमारी हो गई, तो वे वापिस अपने बेटों के पास आए, पर उन्होंने बेमन से रखा और दुव्यर्वहार किया। यहां तक कि खाने-पीने तक का ख्याल तक नहीं रखा गया। इसी से परेशान होकर बुजुर्ग दंपति आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो गए। जिस पर बनी खबर हम सब बड़े दुखी भाव से पढ़ रहे हैं।

हमारे समाज का अभी तक का ढाचा ऐसा था, जहां बुजुर्ग और बच्चे संयुक्त रूप से एक परिवार के अंदर सुरक्षित और संरक्षित रहते थे। पर समय के साथ यह देखा गया है कि हमारा समाज बदल रहा है। मजबूत पारिवारिक ढांचा टूट रहा है और साथ ही यह देखा गया है कि सामाजिक सरोकार भी बदल गए हैं। इसलिए समाज बुजुर्ग, दादा-दादी से ज्यादा बोझ बन गये हैं। जहां देश की बुजुर्ग आबादी तेजी से बढ़ रही है, वहीं हमारी सोच उस तेजी से परिवर्द्धित नहीं हो रही है। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में बुजुर्ग आबादी 104 मिलियन थी, जो कुल जनसंख्या का 8.6 फीसदी था। वहीं एनएसओ की रिर्पोट भारत में बुजुर्ग, 2021’ माने तो यह बुजुर्ग आबादी 2031 तक 194 मिलियन तक पहुंच सकती है, जो 2021 में 138 मिलियन थी। बुजुर्ग आबादी में यह बढ़ोत्तरी एक दशक में 41 फीसदी रहेगी। यानी हम 2031 तक एक बड़ी संख्या में बुजुर्ग आबादी के मालिक होंगे। इस आबादी में महिलाओं और पुरूषों का अनुपात 101 और 93 फीसदी का है।

ऐसा नहीं है कि हमारे देश में ही बुजुर्ग आबादी तेजी से बढ़ रही है, वरन ऐसा चलन पूरे विश्व के देशों में देखा जा रहा है। हमारे पड़ोसी चीन में आबादी का असंतुलन बढ़ रहा है, इसलिए वहां आबादी बढ़ाने यानी बच्चे पैदा करने पर जोर दिया जा रहा है। दूसरे विकसित देशों का भी यही हाल है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या निधि यानी यूएनएफपीए ने भारतीय समाज में बुजुर्गों की समस्याओं और जनसांख्यिकीय परिवेश के संबंध में सरकार तथा गैर-सरकारी संगठनों की प्रतिक्रिया पर प्रकाश डालने का प्रयास करते हुए हमारे वृद्धजनों की देखभालः शीघ्र प्रतिक्रियानाम से एक रिपोर्ट तैयार की है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से हुआ विकास, जिसमें चिकित्सा विज्ञान और बेहतर पोषण तथा स्वास्थ्य देखभाल संबंधी सेवाओं को उपलब्ध कराया जाना शामिल है, जिसके परिणामस्वरूप लोग दीर्घायु हो रहे हैं। इसके साथ-साथ जन्मदर में भी गिरावट आई है जिसकी वजह से देश की आबादी में वरिष्ठ नागरिकों के अनुपात में वृद्धि हुई है। कई तरह के अध्यनों में यह बात सामने भी आ रही है।

समय-समय पर होने वाले अध्ययनों से यह तो समझ में आ रहा है कि देश में बुजुर्ग आबादी तेजी से बढ़ रही है। इसलिए स्वाभाविक प्रश्न है कि इस बढ़ती आबादी में जिसमें बुजुर्ग पुरूषों से अधिक संख्या में बुजुर्ग महिलाएं शामिल हैं, उनका प्रबंधन कैसे होगा? क्या आने वाले समय में बुजुर्ग आबादी हमारे लिए समस्या बन सकती है या कई तरह की सामाजिक और आर्थिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं? ऐसे बहुत से प्रश्नों से आज हम दो-चार हो रहे हैं, जब समाज में जगदीश चंद्र आर्य जैसे बुजुर्गों के साथ ऐसी घटनाएं होती हैं। वैसे तो बुजुर्ग होती आबादी की कई समस्याएं होती हैं, पर उपरी तौर पर ऐसे समय आय की कमी, पेंशन पाने में दिक्कत और परिवारवालों से देखभाल की कमी, सम्मानजनक व्यवहार न होना आदि ऐसे कारण है जिनकी वजह से एक बुजुर्ग की जीने की आशा टूट जाती है। एनएसओ की 2021 की रिपोर्ट की माने तो वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात समय के साथ-साथ बढ़ रहा है। 1961 में वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात 10.9 था, तो 2011 यही अनुपात बढ़कर 14.2 फीसदी पहुंच गया। आशा की जा रही है कि वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात 2021 और 2031 में क्रमशः 15.7 से बढ़कर 20.1 तक पहुंच जायेगा।

यह वृद्धावस्था निर्भरता ही बुजुर्ग के साथ कभी-कभी अमानवीय व्यवहार में तबदील हो जाता है। कमोवेश यह स्थिति कम या ज्यादा संपत्ति वाले बुजुर्गों दोनों पर लागू होती है। 2016 को एजवेल फाउंडेशन ने बुजुर्गों पर एक अध्ययन किया, जिसमें उन्होंने ऐसी तस्वीर पेश की, जिस पर हमें आज से ही सोचना शुरू कर देना चाहिए। रिपोर्ट में कहा गया कि देश के 65 फीसदी बुजुर्गों के पास कोई सम्मानजनक आय के स्रोत न होने के कारण वे गरीबी में जी रहे हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि इन बुजुर्गों में अपने अधिकारों और नियम-कानूनों के प्रति जागरुकता की कमी न होने के कारण वे अमानवीय परिस्थितियों में जी रहे हैं। इसकी सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं ही हो रही हैं, क्योंकि वे लिंगभेद का भी शिकार होती रही हैं। ये महिलाएं लंबा वैधव्य भी ढो रही हैं, जिससे इनकी स्थिति और भी दयनीय हो जाती है। अपने एक निर्धारित सैंपल में किए अध्ययन में पाया गया कि 37 फीसदी बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार किया गया, 20 फीसदी बुजुर्गों को सामाजिक जीवन से काट दिया गया। जबकि 13 फीसदी बुजुर्गों को मानसिक रूप से परेशान किया गया, 13 फीसदी बुजुर्गों को मूलभूत सुविधाओं से वंचित कर दिया गया।

अब ऐसी स्थिति में बुजुर्ग आबादी के प्रति समाज और सरकार दोनों को विशेष तौर पर तैयार होना होगा। ऐसा ढांचा बनाना होगा जहां बुजुर्ग आबादी एक सम्मानीय जीवन जी सके। उसे दो टाइम के खाने के लिए संघर्ष न करना पड़े। इसके लिए टूटते और बदलते समाज को भी अपनी पैनी दृष्टि से खुद का अवलोकन करना चाहिए कि क्यों आखिर हम अपने पालनहार की उचित देखभाल करने में असमर्थ हो जाते हैं। सरकारी प्रयास जो हो रहे हैं वे तो अपनी गति से होते रहेंगे, उससे हमारा ज्यादा जोर नहीं हो सकता है। लेकिन सरकारों को भी समाज में बुजुर्गों की हैसियत देखते हुए एक लोककल्याणकारी राज्य की भूमिका में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होगी, नहीं तो हम अपनी मूल्यवान और अनुभवी बुजुर्ग आबादी से कुछ भी हासिल नहीं कर सकेगे। यही हर किसी के लिए सोचनीय विषय हो जायेगा, क्योंकि एक दिन हर व्यक्ति को बुजुर्ग होना है।