शुक्रवार, 3 जून 2022

36 साल तक पुरुष बनकर पाली अपनी बेटी

 

कितना सरल हो जाता है मर्द बनकर जीना। एस. पेटीअम्मल ने यही सोचकर अपने बाल काटकर लुंगी-शर्ट पहनकर पुरूष बन गईं। आखिर उन्हें एक मां होने के नाते अपनी बेटी का भविष्य सुरक्षित करना था। प्रश्न महज यह है कि एस. पेटीअम्मल को पुरूष पहचान क्यों धारण करनी पड़ी?

 

 

हेडिंग से इस बात का अंदाजा न लगाये कि यह किसी महिला के लिंग परिवर्तन का साइंटिफिक मामला है या यह भी न सोचे कि एक बेटी को बड़ा करने के लिए महिला होकर पिता की भूमिका अदा करने वाला कोई भावनात्मक मामला ही है। बल्कि यह मामला समाज में अपनी स्त्री होने की पहचान छुपा कर खुद के साथ-साथ अपनी बेटी की भविष्य सुरक्षा और सुविधा सुनिश्चित करने का मामला है। यह कहानी है 57 साल की एस. पेटीअम्मल की।

यह कहानी (या व्यथा कहें तो ज्यादा ठीक लगेगा।) आई है तमिलनाडु के कुट्टुनायकनपट्टी गांव से। जहां एस. पेटीअम्मल अपनी बेटी शनमुगसंदरी के साथ रहती हैं मुथु बनकर। मुथु यानी पुरूष बनकर। एस. पेटीअम्मल 36 वर्षों से अपनी स्त्री पहचान छुपाये हुए मुथु बनकर अपनी बेटी की परवरिश कर रही हैं। आज उनकी बेटी की शादी हो चुकी है और वह सुखपूर्वक अपना जीवन बिता रही हैं। उनके परिवार के नजदीकी लोगों के अतिरिक्त किसी को पता नहीं था कि मुथु ही एस. पेटीअम्मल हो सकती हैं। प्रश्न है कि आखिर एस. पेटीअम्मल को पुरूष वेश क्यों धारण करना पड़ा? ऐसी क्या आवश्यकता पड़ी कि घर के बाहर एस. पेटीअम्मल को मुथु बनकर निकलना पड़ा? कारण साफ है स्त्री बनकर जीवन जीने में उन्हें परेशानी आ रही थी। परेशानी क्यों आ रही थी? जवाब है कि उनके पति की मृत्यु हो चुकी थी और वे बिल्कुल अकेली थीं। उन्हें अपनी बेटी का पालन-पोषण करने के लिए घर के बाहर जाकर रूपये-पैसे कमाने थे जिससे उनकी बेटी का भविष्य बन सके।

अब रूपये-पैसे तो स्त्री होकर भी कमाये जा सकते हैं, इसके लिए क्योंकर पुरूष रूप धारण करना पड़ा? यही सवाल ही विडंबना है। जब एस. पेटीअम्मल के पति की मृत्यु हुई तो उनकी शादी को कुछ ही महीने हुए थे और वे गर्भवती थीं। बेटी के पैदा होने के बाद खुद और उसके भरण-पोषण के लिए जब वे घर से बाहर निकलीं, तो उन्होंने कमाई के लिए हर तरह के छोटे-मोटे काम करने शुरू किये। भवन निर्माण में ईंट-पत्थर ढोने से लेकर होटल-चाय की दुकानों में भी सब तरह का काम किया। एस. पेटीअम्मल कहती हैं- ‘मैं जहां भी जाती वहां पुरूषों का वर्चस्व था। कई जगह दुर्यव्यहार और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता। यहां तक महीनों यौन उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ा। दुखी होकर एक दिन मैं तिरूचेंदूर मुरूगन मंदिर गई और पुरूष बनने का फैसला कर लिया। मैंने अपने लंबे काले बाल काट डाले, अपनी धोती की जगह शर्ट और लुंगी पहनकर मुथु बन गई। उस गांव को छोड़कर अपनी नई पहचान को साथ लेकर दूसरी जगह बेटी के साथ आ गई और नया जीवन शुरू कर दिया। क्या इस नई पहचान के साथ एस. पेटीअम्मल का जीवन आसान हुआ?

पुरूष पहचान के साथ एस. पेटीअम्मल का जीवन थोड़ा आसान हो गया था, यह इसी बात से समझ में आता है कि उन्होंने 36 वर्ष तक इस दोहरे जीवन को जिया। न केवल जिया बल्कि शिद्दत के साथ जिया कि उनकी पूरी पर्सनाल्टी ही बदल गईं। वे कहती हंै कि इस पहचान ने मेरी बेटी के लिए एक सुरक्षित जीवन सुनिश्चित किया, इसलिए मैं मरते दम तक मुथु ही रहूंगी। उनका आधार कार्ड, राशन कार्ड और उनका वोटर आईडी पुरूष पहचान के साथ मुथु नाम पर ही है। अब जाकर उन्होंने इस रहस्य से पर्दा उठाया है, तो दुनिया उन्हें शाब्बासी दे रही है कि बेटी के पालन-पोषण के लिए एक मां क्या नहीं कर सकती है। पर दुनिया के मन में यह सवाल नहीं आ रहा है कि एक अकेली मां (सिंगल मदर) का जीवन यह समाज इतना कष्टकारी और दुरूह क्यों बना देता है कि एक तरफ खाई और दूसरी कुंआ ही नजर आए। एस. पेटीअम्मल के साहस और संघर्ष के लिए तालियां बजाने से पहले हमें एक नजर इस बात पर डालनी चाहिए कि समाज में अकेली स्त्री का जीवन इतनी मुश्किलों से भरा क्यों बना हुआ है? क्यों एक स्त्री मर्द बनकर ही इस मर्दवादी समाज में जीने के लिए मजबूर होती है?