शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

धारासण सत्याग्रह: क्रूर सत्ता के प्रति शांतिपूर्ण प्रतिरोध

भारतीय स्वतंत्रता कितनी कुर्बानियों और बलिदानों के बाद हासिल हुई है इसका अंदाजा तभी लग सकता है जब हम स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को खंगाले और देखें। मोटेतौर पर हम सभी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से वाकिफ हैं। बचपन से ही स्कूल की किताबों में समय-समय पर पढ़ाया गया है, पर इस पठन-पाठन में बहुत कुछ छूट भी गया है जिसका वाचन जरूरी है। इसलिए जरूरी है कि हम अपनी आजादी की कीमत पहचान सके। हम आजादी के दीवानों की शहादत के मूल्य जान सकें। जब हम आजादी के 75 वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं, आजादी का अमृत महोत्सव भी मना रहे हैं, तब और भी जरूरी है कि आजादी के लिए मर मिटने वालों की तासीर महसूस की जाए। इसी तरह की तासीर वाली एक दास्तां है धारासण सत्याग्रह।

समय था मार्च, 1930 का, सविनय अवज्ञा आंदोलन वाला। ब्रिटेन के अधीन देश में नमक कानून (साल्ट एक्ट 1882) के तहत देशवासियों के लिए नमक बनाना और बेचना प्रतिबंधित था। देशवासियों पर भारी मात्रा में नमक के नाम पर नाम टैक्स वसूला जाता था। नमक का हमारे दैनिक जीवन की कितनी आवश्यक चीज है इस बात से हम सभी परिचित हैं। ऐसी आवश्यक वस्तु पर भारी मात्रा में कर अदायगी से देश के लोग खासकर गरीब जनता काफी त्रस्त थी। नमक बेचने और बनाने में ब्रिटिश शासकों का अधिपत्य था। साथ ही इस पर भारी टैक्स के माध्यम से देश का पैसा विदेशियों की जेबों में जमा हो रहा था और भारतीयों के मन में रोष।

1915 में देश लौट चुके मोहनदास करमचंद गांधी अपने अहिंसा के सिद्धांत और सत्याग्रह के औजार से देशवासियों के मन में एक आशा की किरण जगा चुके थे। महात्मा गांधी ने देश की भावनाओं को जानते हुए इस ब्रिटिश नमक कानून की अवहेलना करने की ठानी, पर अहिंसात्मक तरीके से। गांधी जी ने अंग्रेज शासकों को साफतौर पर आगाह कि वे देशवासियों के साथ मिलकर नमक नीतियों के प्रतिरोध में सत्याग्रह और सामूहिक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर रहे हैं। उन्होंने इस बावत 02 मार्च, 1930 को वायसराय लार्ड इरविन को पत्र लिखकर सूचित किया वे अपने साथियों के साथ मिलकर 10 दिन में नमक कानून तोड़ने जा रहे हैं। तब 12 मार्च को महात्मा गांधी साबरमती आश्रम से अपने कुछ मुट्ठी भर साथियों के साथ नमक बनाने के लिए 240 मील दूर अरब सागर की ओर दांडी नामक गांव की यात्रा शुरू की। इसे इतिहास दांडी मार्च के रूप में जानता है।

कुछ लोगों के साथ शुरू की गई यह यात्रा दांडी पहुंचे-पहुंचते दसियों हजार की भीड़ में तब्दील हो गई। 05 अप्रैल को दांडी पहुंचकर गांधी जी ने समुद्र तट पहुंचकर नमक बनाकर विदेशी शासकों का कानून तोड़ दिया। देखते ही देखते देश के दूसरे भागों में भी हजारों लोग सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने लगे। बहुत कम लोगों को नमक बनाने की जानकारी थी, सभी ने अपने-अपने ढंग से नमक बनाकर कानून तोड़ने की अपनी कोशिश की। नमक बनाने के साथ-साथ दूसरे कानून भी लोगों ने अहिंसात्मक तरीके से तोड़े। सबसे बड़ी बात की लोग अहिंसात्मक रूप से विरोध करने के लिए तैयार थे। साठ हजार से अधिक लोगों को अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। जवाहरलाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, महादेव देसाई और गांधी के बेटे देवदास को गिरफ्तार करके सबसे पहले जेल भेज दिया गया था। लेकिन सत्याग्रह अधिक जोर-शोर से चल रहा था।

21 मई, वह तरीख है जिसने दुनिया का ध्यान भारतीय संघर्ष की ओर खींचा। इस दिन अंग्रेज शासकों ने दिखा दिया कि वे कितने क्रूर तरीके से देशवासियों को अपने काबू में करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। दांडी मार्च के बाद आंदोलन की सफलता को देखते हुए और आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए महात्मा गांधी ने वायसराय को सूचित किया कि वे घारासण नमक कारखाने में अहिंसात्मक रूप से प्रदर्शन करेंगे। आंदोलन की गंभीरता समझते हुए अंग्रेज प्रशासन ने 05 मई को ही महात्मा गांधी की रातों-रात गिरफ्तारी कर ली। आधी रात को जब गांधी जी अपने साथियों के साथ सो रहे थे, तो एक भारी सशस्त्र बल के साथ गांधी को गिरफ्तार करके यारवदा जेल ले जाया गया। लेकिन गांधी के बिना सत्याग्रह चल रहा था। अब धारासण नमक कारखाने पर आंदोलन की जिम्मेदारी दूसरे नेताओं की थी, क्योंकि सभी बड़े नेताओं की गिरफ्तारी पहले ही हो चुकी थी।

उत्तरी मुंबई से धारासण नमक कारखाना 150 मील दूर था। साथ दांडी से दक्षिण की ओर 40 किमी दूर था। इस मार्च की जिम्मेदारी पहले एक बुर्जुग नेता अब्बास तैयबजी और गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी ने उठाई। धारासण पहुंचने से पहले ही उन्हें बीच रास्ते मंे गिरफ्तार कर लिया गया। और तीन महीने जेल की सजा दे दी गई। इनकी गिरफ्तारी के बाद सरोजनी नायडू और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने शांतिपूर्ण सत्याग्रह की जिम्मेदारी उठाई। कई सौ सत्याग्रहियों का जस्था लेकर सरोजनीय नायडू के नेतृत्व में धारासण की ओर चल पड़ा। कई बार उन्हें वापस लौटने की चेतावनी दी गई। सरोजनी नायडू ने सत्याग्रही को समझाया कि कुछ भी हो जाए आप लोगों को अहिंसा धर्म निभाना है। किसी भी हालत में हिंसक नहीं होना है। 21 मई को सरोजनी नायडू के नेतृत्व में कारखाने तक पहुंचने में सफल हुए। कारखाने तक न पहुंच सके इसके लिए प्रशासन ने कारखाने को कंटीले तारों से घेर दिया था। हजारों की पुलिस फौज को वहां तैनात कर दिया था। यह निश्चय किया गया कि कारखाने में सभी लोग प्रवेश न करके कुछ लोग जत्थे बनाकर घुसने की कोशिश करेंगे। ऐसा ही किया गया। जब एक जत्था घुसने की कोशिश करता तो पुलिस लाठी से वार करके उनके सिर, कंधे, हाथ तोड़ देती। सत्याग्रही बगैर किसी प्रतिरोध के जमीन पर गिर जाते। सत्याग्रह में शामिल महिलाएं इन घायलों को उठा ले जाती और उनकी प्राथमिक चिकित्सा में जुट जाती।

यह शांतिपूर्ण प्रदर्शन तब तक चलता रहा जब तक अंग्रेजी फौज ने सभी सत्याग्रहियों को बुरी तरह घायल नहीं कर दिया। यह आंदोलन घंटे भर तक चलता रहा। इस पूरी घटना को एक अमेरिकी पत्रकार वेब मिलर ने बहुत ही मार्मिक रूप से रिपोर्ट किया था। उन्होंने यूनाइटेड प्रेस को लिखा कि आंदोलन में शामिल एक भी व्यक्ति ने पुलिस का प्रतिरोध नहीं किया। किसी ने भी पुलिस की बरती लाठियों को रोकने के लिए अपने हाथ उपर नहीं किये। वे खड़े-खड़े गिर जाते। जो लोग नीचे गिरे, वे गिरे ही रहे, कुछ बेहोश हो गए या चोटिल सिर और टूटे कंधों के कारण दर्द से कराहते रहे। दो-तीन मिनट में जमीन में सत्याग्रही बिछ गए थे। उनके सफेद कपड़े खून से भर गए थे। साथ ही बचे हुए लोग चुपचाप और हठपूर्वक तब तक चलते रहे जब तक उन्हें मारकर गिरा नहीं दिया गया...। घायलों को ले जाने के लिए वहां पर्याप्त स्ट्रेचर नहीं थे। कई कई लोग एक दूसरे के उपर गिरे पड़े थे।... एक जत्थे के बाद दूसरा जत्था बेरहमी से पिटने के लिए शांतिपूर्ण तरीके से हाथ उठाए बगैर आगे बढ जाता था। इस आंखों देखी घटना को रिपोर्ट करने के बाद मिलर ने अस्पताल से भी कई रिपोर्ट फाइल कीं। उन्होंने बताया कि 320 घायल हैं, कई बेहोश है जिनके सिर में चोट आई है। काफी दूसरे लोगों को कमर से नीचे और पेट में चोट से तड़प रहे हैं। सैकड़ों घायलों को घंटों से कोई इलाज नहीं मिला और दो की मौत हो गई...।

निहत्थे और शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे लोगों पर पूरी ताकत से हमलावर हुई अंग्रेज सरकार की भर्तस्ना पूरे विश्वभर में हुई। मीडिया के माध्यम से पूरे विश्व ने देखा लिया था कि भारत क्यों पूर्ण स्वराज की मांग कर रहा है। उस समय धारासण सत्याग्रह की घटना को विश्वभर के 1350 अखबारों में छापा था। इससे विश्व की सहानुभूति भारत के प्रति बढ़ी। ग्लोबल प्रेस कवरेज और अंतरराष्ट्रीय समर्थन ने वायसराय लार्ड इरविन को गांधी से बातचीत के लिए मजबूर होना पड़ा। इसी का परिणाम है गांधी-इरविन समझौता। वैसे इस समझौते का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। पर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में नमक आंदोलन और धारासण सत्याग्रह का काफी महत्व है। जिसने आजादी की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर जोड़ दिया। इस आंदोलन ने भारतीय महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से प्रत्यक्ष रूप से जोड़ दिया। साथ ही भारतीयों के मन में स्वतंत्रता की तमन्ना को अधिक जगा दिया था।


शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

लैंगिक असमानता में भारत की स्थिति

हिमाचल में पर्यटकों के बीच रोज़ी- रोटी की तलाश में 


 





किसी भी देश-समाज में लैंगिक समानता-असमानता एक प्रमुख मुद्दा आज तक बना हुआ है। और हो भी क्यों ना? स्त्री-पुरूष समानता की चाहे जितनी भी बातें-सातें की जाएं, पर जमीनी स्तर पर कोई सुधार नजर नहीं आ पा रहा है। पुरूष और महिलाओं में आर्थिक-सामाजिक स्तर पर गैर-बराबरी समाज और देश के विकास में बाधक होती है। इसे समय-समय पर विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से प्रकाश में लाया जाता है। तमाम प्रकार के संगठन इस दिशा में दिशा-निर्देशों का काम करते हैं, फिर भी गैर-बराबरी का गैप बढ़ जाता है, कम होता कम ही न
जर आता है। कोरोना संकट के बाद तो इसमें और भी इजाफा देखने को मिला है। कोरोना से जो भी आर्थिक संकट आया
, वह अंतिम तौर पर महिलाओं की सेहत और आर्थिक असमानता के तौर पर नजर आने लगा है।

 

हाल ही में वल्र्ड इकोनाॅमिक फोरम ने ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2022 जारी की है। इस इंडेक्स के अनुसार 146 देशों की सूची में भारत का स्थान 135वां है। यह लिस्ट चार-पांच मुद्दों पर स्कोरिंग के आधार पर हर साल जारी की जाती है। पिछले साल जारी इस लिस्ट में भारत का स्थान 156 देशों में से 140वां था। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि स्कोरिंग के मामले में भारत की रैंक में कुछ सुधार आया है। जेंडर गैप इंडेक्स 2022 में स्कोरिंग के लिए महिलाओं से संबंधित चार मुद्दों की पड़ताल की जाती है, जिससे यह विश्लेषण करने में आसानी होती है कि महिलाओं और बच्चियों की विकास में भागीदारी कैसी रही। यही बात उनके विकास के संबंध में कही जा सकती है कि महिलाएं विकास के साथ चल पर रही हैं कि नहीं। जांच करने के ये चार मुद्दे हैं-1. आर्थिक भागीदारी और अवसर, 2. शिक्षा प्राप्ति, 3. स्वास्थ्य और उत्तरजीविता, 4. राजनीतिक सशक्तिकरण।

आर्थिक भागीदारी और अवसर, शिक्षा प्राप्ति, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता, राजनीतिक सशक्तिकरण, इन चारों में भारत को क्रमशः 143वीं, 107वीं, 146वीं, 48वीं रैंक मिली है जिसे फाइनल मिलाकर ही देश को 135वीं रैंक प्राप्त हुई है। अगर इनमें से स्वास्थ्य और उत्तरजीविता की बात करें, तो देश को सबसे निचला स्थान मिला है। 146 देशों की सूची में 146वां स्थान। यह अत्यन्त सोचनीय और विचारणीय है। यदि इसी सूची में आर्थिक भागीदारी और शिक्षा प्राप्ति की बात करंे, तो भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। स्वास्थ और शिक्षा से ही किसी व्यक्ति का संपूर्ण विकास संभव है, यदि यह दोनों ही अच्छे नहीं है तो उसका भविष्य अंधकारमय हो जाता है, अगर कोई चमत्कार न हो तो?

अगर यहां महिलाओं की संदर्भ में यह बात कहीं जा रही है तो इसके खतरनाक मायने हो सकते हैं। एक महिला के स्वस्थ जीवन का प्रभाव भविष्य में पैदा होने वाली संतानों पर पड़ता है। अगर एक मां कमजोर और अस्वस्थ होगी तो निश्चित ही बच्चें भी कमजोर और अस्वस्थ होंगे। इस साल आई नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2019-21 की माने तो देश की 15 से 49 वर्ष की 57 फीसदी महिलाएं खून की कमी से जूझ रही हैं यानी उनके शरीर में लाल रक्त कणिकाओं की कमी है, जो शरीर में हीमोग्लोबिन के स्तर को बनाए रखती हैं। हीमोग्लोबिन के माध्यम से आक्सीजन हर अंग तक पहुंचता हैं। यह महिलाओं में आयरन की कमी को दर्शाता है। और यह आयरन अच्छे पोषणयुक्त आहार से मिलता है, जो एक भरे-पूरे घरों की महिलाओं को भी कामोवेश नहीं मिल पा रहा है। ऐसा क्योंकर है?

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 में यह एनीमिक महिलाओं का 57 फीसदी आंकड़ा गैर-गर्भवती महिलाओं का है यानी गर्भवती महिलाओं के मामलों में यह मामला अधिक गंभीर हो सकता था। पर गर्भावस्था में महिलाओं के प्रति परिवार अधिक संवेदनशील होने के कारण महिलाओं की देखभाल ठीक से हो जाती है, इसलिए वे एनीमिक होने से थोड़ी बहुत बची रहती हैं इसलिए उनका आंकड़ा इसी सर्वे में 52 फीसदी है, जिसे किसी भी मायने में अच्छा तो नहीं कहा जा सकता है। महिलाओं में एनीमिया शहरी इलाकों में 54 फीसदी और ग्रामीण इलाकों में 58.7 फीसदी है। महिलाओं में खून की कमी एक ऐसा पैमाना है तो हमें बताता है कि हमारी बच्चियां और महिलाएं किस हद तक कुपोषित हैं।

आखिर महिलाएं खुद के स्वास्थ पर ध्यान क्यों नहीं दे पाती हैं? इसका प्रमुख कारण तो यही है कि समाज में उनका स्थान दूसरे दर्जे पर आता है। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की बारी किसी भी चीज में पुरूषों के बाद ही आती है। यह बात महिलाएं बखूबी समझती है, बल्कि उनकी सोच भी इसी बात से संचालित होती है कि वे खुद को प्राथमिकता क्या, महत्व तक देना भूल जाती हैं। आर्थिक रूप से संबल न हो पाने के कारण वे अपने स्वास्थ को कोई खास तबज्जो देने की स्थिति में नहीं रहती हैं। अगर आर्थिक संबल की बात करें तो आज देश में श्रमशक्ति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 29 फीसदी है, जोकि 2004 में 35 फीसदी था। यह बहुत ही गौर किया जाने वाला तथ्य है कि महिलाओं का घरेलू स्तर पर किया जाने वाला श्रम पूरी तरह से अवैतनिक है। खेती से जुड़ी महिलाएं खेत से जुड़े 40 फीसदी कामों को निपटाती हैं, पर अगर उनके हिस्से खेती की जमीन की बात करें, तो केवल 09 फीसदी खेती ही उनके नाम पर है। 60 फीसदी महिलाओं के नाम पर कोई भी मूल्यवान संपत्तियां नहीं हैं। कुल मिलाकर देश की जीडीपी में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 17 फीसदी है। क्या यह उचित है और यह कैसे है? क्या अर्थ तंत्र का संचालन सिर्फ पुरूषों के हाथों में है? आईएमएफ का अनुमान है कि अगर श्रमशक्ति के मामले में महिलाओं के साथ भेदभाव न किया जाए, तो देश की जीडीपी में 27 फीसदी का इजाफा किया जा सकता है। लेकिन सवाल वही है कि यह सब कैसे हो सकता है?

ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2022 की माने तो विश्व में लैंगिक समानता की स्थिति अभी हमसे बहुत दूर है। यह ग्लोबल जेंडर खाई इतनी गहरी है कि इसे पाटने में 132 साल लग सकते हैं। इसी रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया यानी यहां हमारा देश भी है, इस गैप को पाटने में लगभग दो शताब्दी यानी 197 साल का वक्त लग सकता है। और कोविड के बाद जो स्थितियां पैदा हुई हैं, उसका बुरा परिणाम महिला शक्ति पर पड़ा ही है...। इसलिए यह गैप पाटने का इंतजार लंबा भी हो सकता है...।