शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

लैंगिक असमानता में भारत की स्थिति

हिमाचल में पर्यटकों के बीच रोज़ी- रोटी की तलाश में 


 





किसी भी देश-समाज में लैंगिक समानता-असमानता एक प्रमुख मुद्दा आज तक बना हुआ है। और हो भी क्यों ना? स्त्री-पुरूष समानता की चाहे जितनी भी बातें-सातें की जाएं, पर जमीनी स्तर पर कोई सुधार नजर नहीं आ पा रहा है। पुरूष और महिलाओं में आर्थिक-सामाजिक स्तर पर गैर-बराबरी समाज और देश के विकास में बाधक होती है। इसे समय-समय पर विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से प्रकाश में लाया जाता है। तमाम प्रकार के संगठन इस दिशा में दिशा-निर्देशों का काम करते हैं, फिर भी गैर-बराबरी का गैप बढ़ जाता है, कम होता कम ही न
जर आता है। कोरोना संकट के बाद तो इसमें और भी इजाफा देखने को मिला है। कोरोना से जो भी आर्थिक संकट आया
, वह अंतिम तौर पर महिलाओं की सेहत और आर्थिक असमानता के तौर पर नजर आने लगा है।

 

हाल ही में वल्र्ड इकोनाॅमिक फोरम ने ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2022 जारी की है। इस इंडेक्स के अनुसार 146 देशों की सूची में भारत का स्थान 135वां है। यह लिस्ट चार-पांच मुद्दों पर स्कोरिंग के आधार पर हर साल जारी की जाती है। पिछले साल जारी इस लिस्ट में भारत का स्थान 156 देशों में से 140वां था। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि स्कोरिंग के मामले में भारत की रैंक में कुछ सुधार आया है। जेंडर गैप इंडेक्स 2022 में स्कोरिंग के लिए महिलाओं से संबंधित चार मुद्दों की पड़ताल की जाती है, जिससे यह विश्लेषण करने में आसानी होती है कि महिलाओं और बच्चियों की विकास में भागीदारी कैसी रही। यही बात उनके विकास के संबंध में कही जा सकती है कि महिलाएं विकास के साथ चल पर रही हैं कि नहीं। जांच करने के ये चार मुद्दे हैं-1. आर्थिक भागीदारी और अवसर, 2. शिक्षा प्राप्ति, 3. स्वास्थ्य और उत्तरजीविता, 4. राजनीतिक सशक्तिकरण।

आर्थिक भागीदारी और अवसर, शिक्षा प्राप्ति, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता, राजनीतिक सशक्तिकरण, इन चारों में भारत को क्रमशः 143वीं, 107वीं, 146वीं, 48वीं रैंक मिली है जिसे फाइनल मिलाकर ही देश को 135वीं रैंक प्राप्त हुई है। अगर इनमें से स्वास्थ्य और उत्तरजीविता की बात करें, तो देश को सबसे निचला स्थान मिला है। 146 देशों की सूची में 146वां स्थान। यह अत्यन्त सोचनीय और विचारणीय है। यदि इसी सूची में आर्थिक भागीदारी और शिक्षा प्राप्ति की बात करंे, तो भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। स्वास्थ और शिक्षा से ही किसी व्यक्ति का संपूर्ण विकास संभव है, यदि यह दोनों ही अच्छे नहीं है तो उसका भविष्य अंधकारमय हो जाता है, अगर कोई चमत्कार न हो तो?

अगर यहां महिलाओं की संदर्भ में यह बात कहीं जा रही है तो इसके खतरनाक मायने हो सकते हैं। एक महिला के स्वस्थ जीवन का प्रभाव भविष्य में पैदा होने वाली संतानों पर पड़ता है। अगर एक मां कमजोर और अस्वस्थ होगी तो निश्चित ही बच्चें भी कमजोर और अस्वस्थ होंगे। इस साल आई नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2019-21 की माने तो देश की 15 से 49 वर्ष की 57 फीसदी महिलाएं खून की कमी से जूझ रही हैं यानी उनके शरीर में लाल रक्त कणिकाओं की कमी है, जो शरीर में हीमोग्लोबिन के स्तर को बनाए रखती हैं। हीमोग्लोबिन के माध्यम से आक्सीजन हर अंग तक पहुंचता हैं। यह महिलाओं में आयरन की कमी को दर्शाता है। और यह आयरन अच्छे पोषणयुक्त आहार से मिलता है, जो एक भरे-पूरे घरों की महिलाओं को भी कामोवेश नहीं मिल पा रहा है। ऐसा क्योंकर है?

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 में यह एनीमिक महिलाओं का 57 फीसदी आंकड़ा गैर-गर्भवती महिलाओं का है यानी गर्भवती महिलाओं के मामलों में यह मामला अधिक गंभीर हो सकता था। पर गर्भावस्था में महिलाओं के प्रति परिवार अधिक संवेदनशील होने के कारण महिलाओं की देखभाल ठीक से हो जाती है, इसलिए वे एनीमिक होने से थोड़ी बहुत बची रहती हैं इसलिए उनका आंकड़ा इसी सर्वे में 52 फीसदी है, जिसे किसी भी मायने में अच्छा तो नहीं कहा जा सकता है। महिलाओं में एनीमिया शहरी इलाकों में 54 फीसदी और ग्रामीण इलाकों में 58.7 फीसदी है। महिलाओं में खून की कमी एक ऐसा पैमाना है तो हमें बताता है कि हमारी बच्चियां और महिलाएं किस हद तक कुपोषित हैं।

आखिर महिलाएं खुद के स्वास्थ पर ध्यान क्यों नहीं दे पाती हैं? इसका प्रमुख कारण तो यही है कि समाज में उनका स्थान दूसरे दर्जे पर आता है। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की बारी किसी भी चीज में पुरूषों के बाद ही आती है। यह बात महिलाएं बखूबी समझती है, बल्कि उनकी सोच भी इसी बात से संचालित होती है कि वे खुद को प्राथमिकता क्या, महत्व तक देना भूल जाती हैं। आर्थिक रूप से संबल न हो पाने के कारण वे अपने स्वास्थ को कोई खास तबज्जो देने की स्थिति में नहीं रहती हैं। अगर आर्थिक संबल की बात करें तो आज देश में श्रमशक्ति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 29 फीसदी है, जोकि 2004 में 35 फीसदी था। यह बहुत ही गौर किया जाने वाला तथ्य है कि महिलाओं का घरेलू स्तर पर किया जाने वाला श्रम पूरी तरह से अवैतनिक है। खेती से जुड़ी महिलाएं खेत से जुड़े 40 फीसदी कामों को निपटाती हैं, पर अगर उनके हिस्से खेती की जमीन की बात करें, तो केवल 09 फीसदी खेती ही उनके नाम पर है। 60 फीसदी महिलाओं के नाम पर कोई भी मूल्यवान संपत्तियां नहीं हैं। कुल मिलाकर देश की जीडीपी में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 17 फीसदी है। क्या यह उचित है और यह कैसे है? क्या अर्थ तंत्र का संचालन सिर्फ पुरूषों के हाथों में है? आईएमएफ का अनुमान है कि अगर श्रमशक्ति के मामले में महिलाओं के साथ भेदभाव न किया जाए, तो देश की जीडीपी में 27 फीसदी का इजाफा किया जा सकता है। लेकिन सवाल वही है कि यह सब कैसे हो सकता है?

ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2022 की माने तो विश्व में लैंगिक समानता की स्थिति अभी हमसे बहुत दूर है। यह ग्लोबल जेंडर खाई इतनी गहरी है कि इसे पाटने में 132 साल लग सकते हैं। इसी रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया यानी यहां हमारा देश भी है, इस गैप को पाटने में लगभग दो शताब्दी यानी 197 साल का वक्त लग सकता है। और कोविड के बाद जो स्थितियां पैदा हुई हैं, उसका बुरा परिणाम महिला शक्ति पर पड़ा ही है...। इसलिए यह गैप पाटने का इंतजार लंबा भी हो सकता है...।

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