रविवार, 10 मार्च को ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक
ने एक महत्वपूर्ण फैसला लिया। उन्होंने अपनी पार्टी बीजू जनता दल से 33 फीसदी टिकट महिला उम्मीदवारों को देने घोषणा कर दी। जिस तरह से महिला आरक्षण
बिल ठंडे बस्से में है और राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से इस
पर राजनीति करते रहे हैं, इस परिदृश्य में बीजद का यह फैसला जमीनी
स्तर पर कुछ करने की इच्छाशक्ति दिखाता है। इसी बीच पश्चिम बंगाल से तृणमूल कांग्रेस
नेत्री ममता बनर्जी ने भी कह दिया कि वे भी इस लोकसभा चुनाव में महिलाओं को 41
फीसदी टिकट देगीं। राजनीति में कुछ करने की इच्छा रखने वाली महिलाओं
के लिए ये बहुत ही उत्साहवर्द्धक खबरें हैं। जब तक महिलाओं को लड़ने के लिए जमीन ही
नहीं दी जाएगी, तब तक वे राजनीति में अपना दखल कैसे करेगीं। कम
से कम आधी आबादी को राजनीतिक जमीन उपलब्ध कराने के लिए पटनायक और ममता प्रेरक पात्र
बन गए हैं। ये ध्यान देने वाली बात है कि ये दोनों घोषणाएं राज्यस्तर पर मजबूत पार्टियों
की तरफ से आई हैं, किसी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी ने इस तरह की
कोई घोषणा नहीं की है।
देश में स्थानीय निकाय चुनावों के बाद संसद और विधानसभाओं में
महिला प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए 33 प्रतिशत सीटों को आरक्षित करने की बात काफी
समय से हो रही है। इस मामले में राजनीतिक इच्छाशक्ति और रवैया इतना ढुलमुल है कि यह
विधेयक आठ सालों (2010 में राज्यसभा से पारित) से संसद में अटका हुआ है। जबकि इसके बरक्स हर चुनाव में राजनीतिक दल बहुमत
में आने और चुनाव जीतने के बाद महिला आरक्षण का वादा करते रहे हैं। इन दलों में अगर
महिलाओं को संसद तक पहुंचाने की इच्छाशक्ति होती, तो सबसे आसान
तरीका यही है कि वे अपने दल में ही 33 फीसदी सीट महिला उम्मीदवार
को दे सकते हैं। पर हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ और होते हैं। इन राजनीतिक
दलों की कथनी और करनी में अंतर है।
केंद्र की सत्ता में महिला प्रतिनिधित्व की बात करें, तो स्थिति
काफी कमजोर है। राजनीतिक दल महिलाओं को संसद तक पहुंचाने में अपनी जिम्मेदारी नहीं
समझते हैं। इसे पिछली 16वीं लोकसभा चुनावों में महिला सांसदों
की संख्या देखकर समझा जा सकता है। 2014 के लोकसभा चुनावों में
सर्वाधिक महिला सांसद चुनकर आई थीं, जिनकी संख्या 61 थीं। यह ‘सर्वाधिक संख्या’ में
आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि कुल 543 लोकसभा सीटों में यह सिर्फ
11.23 फीसदी बैठता है। जिस देश की महिला आबादी 58 करोड़ (कुल आबादी लगभग 121 करोड़)
के लगभग हो, वहां महिला प्रतिनिधित्व के इस स्तर
को क्या कहा जाए? इसी तरह 2009 में संसद
पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या 59 (10.87 फीसदी) थी। इससे समझा जा सकता है कि पहले की तमाम आमचुनाव में स्थिति कामोबेश कैसी
रही होगी। पहली लोकसभा 1951 में महिला सांसदों की संख्या
22 (4.23 फीसदी) थी। सबसे कम महिला सांसद
1977 में 19 (3.51 फीसदी) थीं। ऐसी ही कमी 1989 में 9वीं
लोकसभा और 2004 में 14वीं लोकसभा चुनावों
के दौरान देखी गई। सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं का यह प्रतिनिधित्व किसी भी कोण
से आदर्श नहीं कहा जा सकता है।
अब सवाल है कि क्या कारण है कि महिलाएं संसद तक नहीं पहुंच पा
रही हैं। क्या राजनीति के लिए योग्य महिलाओं की कमी है? क्या महिलाओं
में राजनीतिक भागीदारी की इच्छा नहीं है? यदि उनकी इच्छा है तो
वे कौन सी शक्तियां हैं, जो उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं। देश
में महिलाओं के कम राजनीतिक प्रतिनिधित्व को देखते हुए ऐसे प्रश्न स्वत: उठते हैं। पहले दूसरे प्रश्न पर बात करते हैं। महिलाएं राजनीति में आने के
लिए इच्छुक हैं? उत्तर है ‘हां।’
1957 से 2014 (चूंकि 1957 से आंकड़े उपलब्ध हैं) में संपादित लोकसभा चुनावों में
जहां महिला उम्मीदवारों की संख्या में 15 फीसदी की वृद्धि देखी
गई, वहीं पुरुष उम्मीदवारों के मामले में यह वृद्धि पांच फीसदी
ही है। तो इच्छा शक्ति की कमी नहीं कहा जा सकता है। हां, अवसरों
की कमी जरूर कहा जा सकता है।
अब दूसरा प्रश्न, क्या महिला प्रतिनिधि काम करने में योग्य नहीं
हैं? इसका भी विश्लेषण किया गया है। मई, 2018 में यूनाइटेड नेशंस यूनिवसिर्टी के वर्ल्ड इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स
रिसर्च की देश में महिला प्रतिनिधियों के कामकाज पर एक स्टडी सामने आयी। इस स्टडी में
इस बात का अध्ययन किया गया कि किसी क्षेत्र के आर्थिक विकास तब कोई अंतर हो सकता है,
जब वहां के जनप्रतिनिधि पुरुष या महिला हो। इस स्टडी ने बहुत ही उत्साहवर्द्धक
खबर दी कि महिला विधायकों के निर्वाचन क्षेत्रों में अधिक आर्थिक विकास देखा गया बरक्स
पुरुष विधायकों के। महिला प्रतिनिधियों के क्षेत्रों में बिजली और सड़क निर्माण के
आंकड़े बेहतरीन पाए गए। इस स्टडी में यह भी बताया गया कि महिला प्रतिनिधि कम भ्रष्ट
और अपराधिक प्रवृति की थीं। उनमें प्रभावोत्पादकता अधिक थीं। वे राजनीतिक अवसरवादिता
के फेर में कम पड़ती हैं। इस पूरी स्टडी के अध्ययन से पता चलता है कि महिला प्रतिनिधि
राजनीति में मिले इस अवसर को पूरी शिद्दत निभाती हैं। फिर क्या कारण है कि साफ-सुथरी राजनीति करने वाली महिलाओं को केंद्र और राज्य की राजनीति में अवसर कम
दिया जा रहा है। कहीं राजनीति में पुरुष वर्चस्व इसके लिए दोषी तो नहीं।
आइए देखते हैं। जुलाई, 2018 में इंडिया स्पेंड ने तमिलनाडु राज्य में
पंचायत में महिला प्रतिनिधियों पर अध्ययन किया। पाया यह गया कि लिंग पूर्वाग्रह तोड़ने,
वित्तीय बाधाओं को पार करने, शारीरिक खतरों से
जूझने और जातिवाद से लड़कर तमाम सफलताएं और बेहतरीन काम करने के बावजूद आज उनके पास
राजनीति में आगे बढ़ने के अवसर न के बराबर हैं। स्थानीय शासन में महिलाओं के लिए
33 फीसदी आरक्षण के बल पर दो दशकों से सक्रीय और सक्षम इन महिलाओं के
पास किसी भी पार्टी राजनीति, राज्य विधानसभा या संसद में महत्वपूर्ण
पद नहीं है। इस अध्ययन में स्थानीय स्तर पर सक्रीय इन महिलाओं की व्यक्तिगत बातों के
अध्ययन से निष्कर्ष निकला कि किसी बड़ी भूमिका के लिए उन्हें सशक्त बनाने की बजाय इन
दलों ने उनकी भूमिका को सीमित ही रखा। उन्हें सशक्त बनाने की जिम्मेदारी राजनीतिक दलों
में महत्वपूर्ण पदों में कार्यरत नियतनियंताओं की थी, जिनमें
पुरुष प्रतिनिधि ही बैठे हुए हैं। यानी वही कारण, इच्छाशक्ति
का अभाव।
अब यह इच्छाशक्ति नवीन पटनायक और ममता बनर्जी ने दिखाया है, तो यह
कहा जा रहा है कि यह राजनीतिक तिकड़म है। तो लाख टके का सवाल है कि यह तिकड़म आप क्यों
नहीं कर रहे हैं। कम से कम महिलाओं के साथ-साथ आपकी भी नैय्या
भी पार हो जाएगी।
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