सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

#मीटू : आखिरकार गुबार फूट ही पड़ा

central minister menka gandhi
तनुश्री और नाना के विवाद ने बहुत सी महिलाओं को यह हिम्मत दी कि यही सबसे ठीक समय है, जब वे अपनी घुटन से छुटकारा पा सकती हैं। तनुश्री से हिम्मत लेकर लेखिका और निर्देशिका विंता नंदा ने जब अभिनेता और संस्कारी बाबूजी के नाम से लोकप्रिय आलोकनाथ के बारे में विस्तार से लिखा, तो लोगों का आश्चर्यचकित हो जाना लाजिमी था। बीस साल पहले हुए विंता के यौन उत्पीड़न के बाद जिस तरह से एक के बाद एक मामले सामने आए, उससे आलोक नाथ की एक दूसरी छवि ही लोगों ने देख ली। इसी तरह तनुश्री के माध्यम से समाजसेवी नाना पाटेकर एक दूसरा स्वरूप लोगों के सामने आया। तनुश्री के समर्थन में कंगना ने जब विकास बहल पर अपनी बात रखी, तब ‘क्वीन’ जैसी वुमेन ओरिएंटेड फिल्म बनाने वाले व्यक्ति का एक और ही चेहरा सामने आया। इसी क्रम में पत्रकारिता के क्षेत्र से एक प्रमुख नाम एम.जे. अकबर का आया है। अब तक उन पर 15 महिला पत्रकारों ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है। टेलीग्राफ, एशियन ऐज और इंडिया टुडे के शीर्ष पदों पर रहने के बाद आज वे केंद्र सरकार में विदेश राजमंत्री भी हैं।

गौर करने वाली बात है कि जिन पर भी आरोप लग रहे हैं, वे सब अपने-अपने क्षेत्रों में एक बड़ा नाम है। इन सभी पर जो आरोप लगे हैं, वे कई-कई साल पुराने हैं। जिसका अब खुलासा किया जा रहा है। इसी कारण कथित पीड़ितों से यह सवाल किया जा रहा है कि वे उस समय चुप क्यों रहीं? सवाल वाजिब भी है। फिर भी प्रश्न यह है कि हमने महिलाओं को कभी ऐसी सुविधा और माहौल दिया ही नहीं कि वे अपनी बात घर या समाज में सभी के सामने बेखौफ रख सकें। हमारे समाज में संभ्रात घरों की महिलाएं तो कुछ दशकों पहले ही काम पर निकली हैं। खेतों पर, कारखानों में महिलाओं का एक बड़ा वर्ग काम करता रहा है। वहां उनके साथ यौन उत्पीड़न से लेकर आर्थिक शोषण बड़ी आम बात रही है। बॉलीवुड में ‘मिर्च मसाला’ जैसी कुछ ही फिल्मों में इस बात को बखूबी चित्रण किया गया है। आज भी पुरुष सत्ता घर हो या बाहर, महिलाओं के श्रम और शरीर पर अपना ही नियंत्रण चाहता है। इसके लिए कई तरह के जाल बुने जाते रहे हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि फिल्म, राजनीति, खेल, अकादमी, कला, कॉरपोरेट जैसे तमाम क्षेत्रों में ख्याति अर्जित करने वाले मठाधीश बहुत कुछ कंट्रोल करने की हैसियत रखते हैं। वे किसी का कुछ बना भी सकते हैं और किसी का कुछ बिगाड़ भी सकते हैं। मीटू इंडिया आंदोलन पर केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने एक सवाल के जवाब पर कहा कि ताकतवर पदों पर बैठे पुरुष अक्सर ऐसा करते हैं। यह बात मीडिया, राजनीति और यहां तक कि कॉरपोरेट के वरिष्ठ अधिकारियों पर भी लागू होती है। यही बात हॉलीवुड के मीटू अभियान पर प्रसिद्ध अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने कही थी, वह भी गौर करने वाली है। उन्होंने कहा था कि ऐसी बहुत सी कहानियां हमारे सामने आने वाली हैं, क्योंकि यह सिर्फ सेक्सुअलिटी या सेक्स की बात नहीं है, यह पॉवर की बात है। इस पॉवर के तहत हमारी इंडस्ट्री में किसी भी औरत को काम के लिए कम्प्रोमाइज करने को कहा जाता है। अगर वह इसके लिए राजी नहीं होती है, तो उसे डराया जाता है। हॉलीवुड में #मीटू अभियान के बाद जब हार्वे वाइंस्टीन को गिरफ्तार कर लिया गया, तब इस मामले में अदालत में अभियोजन पक्ष ने स्पष्ट कहा कि वाइंस्टीन ने युवतियों को राजी करने के लिए अपनी हैसियत और ताकत का इस्तेमाल इस तरह से किया कि वह उनका यौन शोषण कर सकें।

दिल्ली के निर्भया कांड के बाद जिस मुखरता से देश में यौन हिंसा और उत्पीड़न के विरोध में अवाजें उठीं, उसके बाद कानूनी रूप से महिलाएं काफी मजबूत हुई हैं। बिशाखा गाइड लाइंस के बाद सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वीमन एट वर्कप्लेस एक्ट भी बना। पर इससे उन पर होने वाली यौन और दूसरी हिंसा कम हुई हो, ऐसा नहीं है। आंकड़े इसी बात की चुगली भी करते हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार देश में 2010 में 22,000 बलात्कार के केस दर्ज हुए, वहीं 2014 में बढ़कर 36,000 हो गए यानी 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। एनसीआरबी ने ही 2016 में बताया कि बलात्कार के 95.5 केस में पीड़िता रेपिस्ट को जानती थी। ताजा आंकड़ों में 2016 में ही 4,437 बलात्कार के केस दर्ज हुए थे। इसी से समझा जा सकता है कि महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न, शारीरिक हमले, विदेश में लड़कियां भेजना, पति और संबंधियों द्वारा हिंसा, अपहरण के बाद बलात्कार और हत्या के सभी प्रकार के मामले मिलाकर कितने होंगे?

भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं का योगदान महज 27 (2012 में) फीसदी ही है। भारत विकास रपट मई-2017 में विश्व बैंक ने देश को सुझाव दिया कि अगर विकास दर सात फीसदी से अधिक चाहिए, तो महिलाओं की भागीदारी बढ़ाएं। विश्व बैंक का मानना है कि ऐसा करने पर देश की विकास दर पर एक फीसदी का इजाफा हो सकता है। पर हम हैं कि महिलाओं को काम करने का एक स्वच्छ माहौल ही नहीं दे सकें हैं। जून, 2016 को एसोचैम ने अपने एक अध्ययन में बताया कि पिछले एक दशक में संपूर्ण श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी 10 फीसदी घटकर निचले स्तर पर पहुंच गई है। दूसरी तरफ यूएन इकोनॉमिक एंड सोशल कमीशन फॉर एशिया एंड पैसेफिक का अध्ययन बताता है कि महिला श्रम बल भागीदारी दर में 10 फीसदी वृद्धि से ही जीडीपी में 0.3 फीसदी का उछाल मिल सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि देश में महिलाओं का श्रम बल अनुपात बढ़ाने के लिए नीतियां और कार्यक्रम लागू किए जाए। पर नहीं, हम महिला श्रम का शोषण करने में भी बहुत आगे हैं। देश में महिलाओं को मिलने वाला वेतन पुरुषों के मुकाबले औसतन 18.8 फीसदी कम हैं। यह कमी वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा है। ये अध्ययन तो कॉरपोरेट जैसे संगठित क्षेत्र में किया गया, असंगठित क्षेत्रों में क्या हाल होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे में मीटू के जरिए अपनी कहानी बताने वाली महिलाओं से सवाल पूछना कहा तक उचित है कि पहले क्यों नहीं बताया?

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

तनुश्री से सवाल पूछने से पहले

#metoo campaign
नो एक शब्द ही नहीं, अपने आप में पूरा वाक्य है योरऑनर। इसे किसी तर्क, स्पष्टीकरण या व्याख्या की जरूरत नहीं है। ‘न’ का मतलब ‘न’ ही होता है योरऑनर। ’
‘न मैं नाना पाटेकर हूं और न तनुश्री, तो मैं आपके सवाल का जवाब कैसे दे सकता हूं।’

ऊपर लिखी यह दोनों लाइनें फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन ने बोली हैं। पहली लाइन फिल्म ‘पिंक’ में एक बलात्कार की शिकार लड़की का केस लड़ते हुए और दूसरी लाइन अभिनेत्री तनुश्री और नाना पाटेकर विवाद पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कही। मामला एक ही तरह का है, पर रील और रियल लाइफ का अंतर है। वास्तव में रील और रियल लाइफ में यही फर्क होता है। अगर तनुश्री और नाना पाटेकर विवाद रियल लाइफ में न होकर सिनेमा के लिए फिल्माया गया एक दृश्य जैसा होता तो? तो सदी के महानायक पुरजोर वकालत करके यह केस जीत लेते और फिल्म ‘हिट’ हो जाती। चूंकि मामला फिल्म का नहीं है, इसलिए वे बड़े ही ‘बेशर्म’ तरीके से इस सवाल से बच निकलते हैं। खैर, सदी के महानायक की छोड़िए, दरियादिल सलमान खान की बात कर लें। जब एक प्रेस कांफ्रेंस में महिला पत्रकार ने इस विवाद पर सलमान की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तब ‘आप किस इवेंट में आई हैं मैडम।’ कहकर न केवल महिला पत्रकार का उपहास किया, बल्कि इस मामले को हल्का कर दिया।

हमारी हीरो और नायकों वाली इंडस्ट्री के ‘हीरो’ सिर्फ फिल्मों में ही गरीब, मजलूमों और महिलाओं के लिए लड़ते दिखते हैं, फिल्म से बाहर वे उतने ही साधारण व्यक्ति होते हैं, जितने हमारे आसपास का कोई सामान्य इंसान। इसलिए तनुश्री जैसी किसी भी अभिनेत्री को सदी के महानायक और दरियादिल सलमान खान से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। न ही उन लोगों से कोई उम्मीद होनी चाहिए, जो यह कहते नजर आ रहे हैं कि उसी समय क्यों नहीं बोलीं। या यह प्रसिद्धि पाने का एक आसान तरीका है। अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब तेलुगू अभिनेत्री श्री रेड्डी को कास्टिंग काउच और अपने साथ हुए यौन शोषण के विरोध में सरेआम निर्वस्त्र होकर प्रोटेस्ट करना पड़ा। तब भी यही सवाल चारों तरफ तैरतें नजर आए। आखिरकार श्री रेड्डी के मामले के सामने आने के बाद कई और अभिनेत्रियों ने अपना मुंह खोला और सब कुछ ढका-छिपा क्रिस्टल की तरह साफ नजर आने लगा। यही हाल आज इस बॉलीवुड का है। सब कुछ ढका-छिपा है। अगर कोई अपना मुंह खोलता भी है, तो बजाए उसकी गंभीरता के समझने के, उल्टा उसी का ट्रायल शुरू हो जाता है। कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। इस मामले में भी सवाल तनुश्री से ही किए जा रहे हैं, नाना से नहीं।

हमें तनुश्री की इस बात की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने अपने साथ हुए उस वाकये पर न उस समय चुप रहीं और न आज चुप हैं। आज वे जिस आत्मविश्वास के साथ मुखर होकर अपनी बात मीडिया में रख रही हैं, उस हिम्मत को पाने में उन बीते दस साल का योगदान भी है, जिसे उन्होंने इस दर्द के साथ जिया है। आज तनुश्री पर वैसे ही हमले हो रहे हैं, जैसा श्री रेड्डी पर हुए थे। पर इस समाज की महिलाओं के प्रति जड़ता और माइंडसेट को क्या कहा जाए, जो सारे सवाल तनुश्री से ही कर रहा है। तनुश्री से ही गवाह और सुबूत मांग रहा है। तनुश्री को ही सिद्ध करना पड़ रहा है कि ज्यादती उसके साथ हुई है। यह एक सभ्य समाज की निशानी कैसे हो सकती है जहां पीड़िता को ही सिद्ध करना पड़े कि उसके साथ कुछ गलत हुआ था। इस मामले पर केद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि ‘पहले क्यों नहीं कहा’ का सवाल लोगों ने तब भी पूछा था, जब हॉलीवुड निर्देशक हार्वे विंस्टीन के खिलाफ बोला गया था। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पीड़तिा कब सामने आती है। मैं जानती हूं कि जब आपके शरीर पर हमला होता है, तो यह आपको हमेशा याद रहता है।

बॉलीवुड महिला और महिला चरित्रों को लेकर स्टीरियो टाइप रहा है। हर इंडस्ट्री की तरह बॉलीवुड भी पुरुष प्रधान है। आज भी यहां महिलाओं को पेमेंट से लेकर रोल तक में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। आज भी इस इंडस्ट्री में महिला निर्देशक गिनती की हैं। उनका अनुभव बताता है कि कैसे उन्हें ‘जज’ किया जाता है। पहले भी और आज भी फिल्मों और मॉडलिंग के क्षेत्र को लड़कियों के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। सवाल है कि ऐसा क्यों है? जब इस क्षेत्र में पढ़े-लिखे जहीन लोग काम कर रहे हैं, तो महिला के काम को खराब क्यों समझा जाता है? कहीं सामान्य लोगों की यही समझ बॉलीवुड में काम करने वालों की भी तो नहीं है। दुर्भाग्य है कि ऐसा ही है। तभी वह इस इंडस्ट्री में काम करने वाली महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से नहीं देख पाते हैं। वे उनके अस्तित्व को उसी तरह स्वीकार करने की स्थिति में नहीं होता है, जिस तरह वे अपनी घर की महिलाओं के बारे में सोचते हैं। यहीं अंतर ही इस इंडस्ट्री में काम करने वाली महिलाओं को यौन उत्पीड़न और काटिंग काउच के रूप में भुगतना पड़ता है।

हमारा सिनेमा (बॉलीवुड) शताब्दी पार कर गया है। यहां महिलाओं (अभिनेत्रियों और दूसरे काम करने वाली महिलाएं) के शोषण का इतिहास भी इतना ही पुराना हो चुका है। भारतीय सिनेमा में महिलाओं के लिए द्वार खोलने वाली बांग्ला स्टार अभिनेत्री कानन देवी ने अपनी आत्मकथा में सेक्सुअल हैरेसमेंट और दुर्व्यहार के बारे में लिखा है। बाद में इन्होंने महिला कलाकारों की मदद के लिए एक संस्था महिला शिल्पी महल की स्थापना भी इसी वजह से की। लीजेंड गजल गायिका बेगम अख्तर की कहानी तो अत्यंत दर्दभरी है। बिहार के एक राजा ने किशोरावस्था में ही उनकी कला की प्रशंसा के बहाने उनका बलात्कार किया। जिसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव उन पर ताउम्र रहा। ये कुछ ऐसी सच्चाइयां हैं, जो लोगों के सामने आ पाई। वरना ऐसी बहुत सी कहानियां इस इंडस्ट्री में दफ्न पड़ी हैं। यह केवल तनुश्री की लड़ाई नहीं है, यह बॉलीवुड की बहुत सी तनुश्रीयों की लड़ाई है, जिसे उन्हें खुद ही लड़नी पड़ेगी। इस मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी की बात ठीक लगती है कि भारत में भी हमें हैशटैग मीटू जैसा अभियान शुरु करने की जरूरत है।

रविवार, 7 अक्तूबर 2018

यौन अपराधियों का तैयार होगा निजी रिकार्ड

metooमहिलाओं की सुरक्षा एक अहम मामला है। मामला अहम इसलिए भी है क्योंकि देश में महिलाओं, किशोरियों और बच्चियों के खिलाफ अपराधों में किसी भी स्तर पर कमी नहीं आई है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया। इसकी काफी समय से चर्चा भी चल रही थी। सरकार यौन अपराधियों का निजी रिकॉर्ड बनाकर एक डेटाबेस तैयार कर रही है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने नेशनल रजिस्टर ऑफ सेक्सुअल ऑफेंडर्स यानी एनआरएसओ को हरी झंडी दिखा दी है। अब यौन अपराधियों से जुड़ी निजी व बॉयोमेट्रिक जानकारियों का एक डेटाबेस तैयार किया जाएगा। इस डेटाबेस में यौन अपराधियों का नाम, उनकी फोटो, पता, उंगलियों की छाप, डीएनए के साक्ष्य और उनका आधार व पैन नंबर शामिल किया जाएगा। इन सारी जानकारियों से लैस इस डेटाबेस से किसी भी यौन अपराधी की सभी जानकारी पलक झपकते प्राप्त हो जाया करेंगी। इस डाटा को रजिस्टर करने का काम राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी कर रहा है। फिलहाल इसका उपयोग जांच एजेंसियां ही कर सकेंगी।

इस डेटाबेस को तैयार करने के लाभ क्या होंगे? इस आपराधिक रिकॉर्ड में फिलहाल बलात्कार, गैंगरेप, बच्चों के साथ यौन अपराध करने वाले और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करने वाले लगभग 4,40,000 लोगों की जानकारी रखी जाएगी। जब इस डेटाबेस में शामिल कोई भी अपराधी फिर से अपराध में लिप्त पाया जाएगा, तो वह इसके माध्यम से तुरंत पहचान में आ जाएगा। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यौन अपराध में शामिल कई व्यक्ति जमानत पर छूटने या जेल से बाहर आने के बाद फिर से वही अपराध करते पकड़े गए हैं। देश में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में वृद्धि ही हो रही है। इसे एनसीआरबी की वार्षिक रिपोर्ट-2016 से समझा जा सकता है। एनसीआरबी की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि महिलाओं के खिलाफ 2015-16 में हुए अपराधों में 2.9 फीसदी की वृद्धि हुई। जहां 2015 में महिलाओं के खिलाफ 3,29,243 अपराध के मामले हुए, वहीं 2016 में 3,38,954 अपराध दर्ज किए गए। इस तरह के अपराधों में महिलाओं के खिलाफ होने वाले हर किस्म के अपराध और हिंसा शामिल हैं। इसी तरह केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजीजू ने जुलाई में राज्य सभा में बताया था कि देश में 2016 में 38,947 बलात्कार के मामले दर्ज हुए। वहीं 2015 में 34,651 केस और 2014 में 36,735 बलात्कार के केस दर्ज किए गए। कुल मिलाकर 2014-16 तक देश में 1,10,333 यौन हिंसा के केस दर्ज किए गए।

यौन अपराधियों का इस तरह का डेटाबेस तैयार करने वाला भारत दुनिया का नौवां देश बन गया है। अपने देश के अतिरिक्त दुनिया में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड, कनाडा, आयरलैंड, दक्षिण अफ्रीका और त्रिनिदाद टोबैगो में भी यौन अपराधियों का डेटाबेस रखा जाता है। देश में इस तरह की नेशनल रजिस्टर ऑफ सेक्सुअल ऑफेंडर्स बनाने के लिए चेंज डॉट ऑर्ग नामक वेबसाइट में एक याचिका लगाकर अभियान भी तीन साल पहले शुरू हुआ था। इस अभियान को शुरू करने वाली मडोना रुजेरियो जेनसन का मानना था कि यदि भारत में इस तरह के यौन अपराधियों के डाटा को एक जगह पर इकट्ठा कर लिया जाता है, तो पुलिस के लिए सीरियल अपराधियों को पकड़ना कहीं अधिक सरल हो जाएगा। इस याचिका को अब तक 90,671 लोगों का समर्थन मिला है। अब जब सरकार ने इस काम को आगे बढ़ा दिया है, तो इस तरह के छोटे-छोटे प्रयासों की अहमियत बढ़ जाती है।

इस अच्छे फैसले के खिलाफ कुछ सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यही कि इससे यौन अपराध में शामिल व्यक्तियों को सजा भुगतने के बाद जीवनयापन में कठिनाई आ सकती है या उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। दूसरा यह कि इस तरह के डेटाबेस तैयार करने के बाद महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कितनी कमी आ सकेगी? यह डेटाबेस तभी उपयोगी होगा, जब एक ही व्यक्ति पुन: अपराध करे। एनसीआरबी की वार्षिक रिपोर्ट-2016 बताती है कि फिर से अपराध करने वालों की संख्या 6.4 फीसदी है। यह आंकड़ा सभी प्रकार के अपराधों में से निकाला गया है। इसमें यौन अपराधियों का प्रतिशत कितना होगा, इसका अलग से विवरण उपलब्ध नहीं है। इसलिए अपर्याप्त आंकड़ों के प्रकाश में इस तरह के डेटाबेस का महत्व बहुत अधिक नहीं दिख पा रहा है। एक पक्ष यह भी है कि महिलाओं के खिलाफ यौन या दूसरों अपराधों में उनके जान-पहचान और करीबी रिश्तेदार शामिल होते हैं जिनकी या तो रिपोर्ट दर्ज ही नहीं कराई जाती है या फिर दर्ज होती है, तो डेटाबेस में नाम रजिस्टर होने के डर से परिजनों पर दबाव और भी बढ़ सकता है। संभावना है कि इस तरह के मामले दर्ज होने में और भी कठिनाई न आ जाए। इन सब शंकाओं के बावजूद इसे महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम माना जाना चाहिए।