शनिवार, 19 दिसंबर 2020

तो तुम लेखक बनना चाहते हो








तो तुम लेखक बनना चाहते हो

- चार्ल्स बुकोवस्की




अगर फूट के ना निकले
बिना किसी वजह के
मत लिखो.
अगर बिना पूछे-बताये ना बरस पड़े
तुम्हारे दिल और दिमाग़
और जुबां और पेट से
मत लिखो.
अगर घंटों बैठना पड़े
अपने कम्प्यूटर को ताकते
या टाइपराइटर पर बोझ बने हुए
खोजते कमीने शब्दों को
मत लिखो.
अगर पैसे के लिए
या शोहरत के लिए लिख रहे हो
मत लिखो.
अगर लिख रहे हो
कि ये रास्ता है
किसी औरत को बिस्तर तक लाने का
तो मत लिखो.
अगर बैठ के तुम्हें
बार-बार करने पड़ते हैं सुधार
जाने दो.
अगर लिखने का सोच के ही
होने लगता है तनाव
छोड़ दो.
अगर किसी और की तरह
लिखने की फ़िराक़ में हो
तो भूल ही जाओ

अगर वक़्त लगता है
कि चिंघाड़े तुम्हारी अपनी आवाज़
तो उसे वक़्त दो
पर ना चिंघाड़े ग़र फिर भी
तो सामान बाँध लो.
अगर पहले पढ़ के सुनाना पड़ता है
अपनी बीवी या प्रेमिका या प्रेमी
या माँ-बाप या अजनबी आलोचक को
तो तुम कच्चे हो अभी.
अनगिनत लेखकों से मत बनो
उन हज़ारों की तरह
जो कहते हैं खुद को ‘लेखक’
उदास, खोखले और नक्शेबाज़
स्व-मैथुन के मारे हुए.
दुनिया भर की लाइब्रेरियां
त्रस्त हो चुकी हैं
तुम्हारी क़ौम से
मत बढ़ाओ इसे.
दुहाई है, मत बढ़ाओ.
जब तक तुम्हारी आत्मा की ज़मीन से
लम्बी-दूरी के मारक रॉकेट जैसे
नहीं निकलते लफ़्ज़
जब तक चुप रहना
तुम्हें पूरे चाँद की रात के भेड़िये-सा
नहीं कर देता पागल या हत्यारा
जब तक कि तुम्हारी नाभी का सूरज
तुम्हारे कमरे में आग नहीं लगा देता
मत मत मत लिखो.




क्यूंकि जब वक़्त आएगा
और तुम्हें मिला होगा वो वरदान

तुम लिखोगे और लिखते रहोगे

जब तक भस्म नहीं हो जाते
तुम या यह हवस.
कोई और तरीक़ा नहीं है
कोई और तरीक़ा नहीं था कभी
कोई और तरीक़ा हो भी नहीं सकता.


चार्ल्स बुकोवस्की जर्मनी मूल के लेखक और कवि है. उनकी उक्त कविता अंतर्जाल पर टहलते हुए मिली. अद्भुत लगी, इसलिए आप सभी पाठकों से साझा करने का दिल किया. चार्ल्स बुकोवस्की की  कविताएँ बिलकुल सहज जीवन के यथार्थ से रूबरू या   कहे दो दो हाथ करती दिखती है.

सोमवार, 16 मार्च 2020

वोट चाहिए, पर भागीदार नहीं!

महिलाओं के दम पर दिल्ली में सरकार बनाने वाली आम आदमी पार्टी ने उस समय तमाम महिला वोटरों का निराश कर दिया, जब नवगठित कैबिनेट में एक भी महिला को जगह नहीं दी। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने तीसरे कार्यकाल में अपनी पुरानी कैबिनेट को दोहरा दिया। इसे लेकर आम लोगों में जबरदस्त प्रतिक्रियाएं आईं। ये कैसा विरोधाभास है कि चुनाव से पहले महिलाओं के हित और कल्याण के लिए जिन्होंने कई प्रकार की फौरी राहते बांटी, उन्हीं ने ही अपनी पार्टी में काम करने वाली और चुनाव बाद जीतीं महिला विधायकों की उपेक्षा कर दी? ऐसा तो नहीं हो सकता कि आम आदमी पार्टी से जीतीं 08 महिला विधायकों में से कोई भी कैबिनेट में शामिल होने लायक नहीं था? दिल्ली में शिक्षा व्यवस्था में तमाम सुधारों के पीछे काम करने वाली आतिशी मार्लेना को उन्होंने कैसे नजरअंदाज कर दिया? जबकि इन चुनावों में शिक्षा के क्षेत्र में हुए सुधार को एक बड़ा मुद्दा बनाया गया था। सरकार में महिलाओं को जगह न दिए जाने के संबंध में ऐसे कई सवाल सीधे मुख्यमंत्री से मुखातिब हुए। पर मुख्यमंत्री के विशेषाधिकार के नाम पर किसी का जवाब नहीं मिला। इसका अर्थ क्या यह लगाया जाए कि आम आदमी पार्टी योग्य महिलाओं के होते हुए भी सिर्फ पुरुषों की पार्टी बनकर रहना चाहती है?

दिल्ली विधानसभा के इस चुनाव में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 62 सीटें जीती हैं। यद्यपि 2015 के मुकाबले सीटें कम आई हैं, पर महिला सीटों में इजाफा हुआ है। इस बार 62 विधायकों में आठ महिला विधायक चुनावी जंग जीत कर आई हैं। जबकि 2015 में 06 महिला विधायक थीं। अरविंद केजरीवाल की इस धमाकेदार जीत के पीछे महिलाओं के समर्थन को एक बड़ी वजह बताया जा रहा है। चुनाव के बाद हुए सीएसडीएस के सर्वे के अनुसार आम आदमी पार्टी को 60 फीसदी महिलाओं ने वोट किया, जबकि 49 फीसदी पुरुषों ने। यह 2015 के मुकाबले 07 फीसदी की बढोत्तरी दिखाता है। महिला वोटरों ने आम आदमी पार्टी को कई कारणों से वोट किया। इसमें सबसे बड़ा कारण महिलाओं के लिए उनकी कल्याणकारी योजनाएं और सीएए-एनआरसी के प्रति उनका रुख बना। लोकसभा चुनावों से पहले इस संदर्भ में चेंज डॉट ओआरजी का एक आॅनलाइन सर्वे भी देखा जा सकता है। जो बताता है कि महिलाएं किन मुद्दों पर वोट देना पसंद करती है। शायद मुख्यमंत्री केजरीवाल इस बात को अच्छे से समझ गए थे।

कारण चाहे जो भी हो, लेकिन आधी आबादी के प्रति अरविंद केजरीवाल और पार्टी की जो सद्इच्छा थी, वह उनकी सत्ता भागीदारी में नहीं दिखी। वे अन्य राजनीतिज्ञों की तरह महिलाओं की उपेक्षा सत्ता समीकरण के लिए आसानी से कर गए। अगर कैबिनेट में महिलाओं को मंत्री पद दिया जाता तो संबंधित विभागों में (रिसर्च बताती हैं कि) महिलाओं और बच्चों के प्रति अधिक संवेदनशीलता से काम होने की पूरी संभावना होती। यह दिल्ली का दुर्भाग्य रहा है कि 1993 से केवल चार महिलाएं कैबिनेट में स्थान पा सकी हैं। आम आदमी पार्टी की 49 दिन की सरकार में राखी बिड़लान को महिला और बाल, समाज कल्याण और भाषा मंत्री बनाया था। 1998 में भाजपा से पूर्णिमा सेठी, कृष्णा तीरथ (1998-2001) एवं किरण वालिया (2008-2013) कांग्रेस से दिल्ली कैबिनेट में रही हैं।

देखा गया है कि राजधानी दिल्ली की विधानसभा चुनावों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व राज्य के कैबिनेट में ही नहीं रहा है, बल्कि विधानसभा में भी काफी कम रहा है। 1993 के पहले चुनाव से लेकर हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव तक केवल 39 महिलाएं ही विधानसभा पहुंच सकी हैं। देश और अन्य राज्यों की तरह दिल्ली में भी महिलाओं की राजनीति की डगर आसान नहीं रही है, चाहे जिस भी राजनीतिक दलों की सरकार रही हो। फिर भी राज्य के मुख्यमंत्री महिलाओं के प्रति जिस तरह की संवेदनशीलता का प्रदर्शन करते हैं, उनसे इस तरह की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। फिर अभी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के पास पूरे पांच साल हैं, वे अपनी गलती सुधार भी सकते हैं।     

सोमवार, 13 जनवरी 2020

माननीयों के घड़ियाली आंसू


निर्भया जैसे भीभत्स कांड के बाद, और सख्त कानून बनने, कई तरह की गाइड लाइन जारी होने के बावजूद कई जघन्य अपराध हो चुके हैं और भी होने की पूरी संभावना है। प्रश्न है कि देश के नियंता माननीय अब तक महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों के प्रति जरा भी संवेदनशील क्यों नहीं हुए हैं? क्या यह देश की एक भयावह समस्या नहीं है, जहां प्रत्येक बच्ची, किशोरी, महिलाएं एक असुरक्षा की भावना के साथ जी रही हैं। क्या देश का कोई भी सांसद इस बात का दम भर सकता है कि उसके क्षेत्र में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में जरा भी कमी आई है। क्या यह कोई बड़ी बात है कि प्रत्येक सांसद या विधायक अपने-अपने क्षेत्रों की महिलाओं को यह अश्वासन नहीं दे सकता है कि हमारे क्षेत्र की मां-बेटी-बहन सुरक्षित होगी। क्या यह इतना मुश्किल है? या फिर इच्छा शक्ति का अभाव है? अगर यह जरा भी सच है, तब तो आपका गुस्सा भी बनावटी है।
और हो भी क्यों न। राजनीति में महिलाओं के लिए कोई खास स्पेस नहीं रखा गया है। भारतीय राजनीति अन्य क्षेत्रों की तरह अभी भी महिला विरोधी ही है। संसद में महिला आरक्षण की बात हो, या राजनीतिक दलों में महिला भागीदारी, सभी का स्तर काफी निम्न स्तर का है।इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि आजादी के सात दशक बात भी इस नई लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या कुल जमा सर्वाधिक 78 सांसद ही है, जो कि कुल सासंदों का 17 फीसदी बैठता है। आजादी के सात दशकों बाद राजनीति में महिला भागीदारी यह चेहरा यह बताने के लिए काफी है कि महिलाएं अपनी सुरक्षा के लिए माननीयों से ज्यादा अपेक्षाएं क्यों रखे। नेशनल इलेक्शन वॉच ने हैदराबाद की घटना के बाद देश की संसद का महिला विरोधी हाल बयान किया है। वैसे देश की राजनीति का अपराधीकरण और ऐसे लोगों का सांसद और विधायक बनना भी इसी समस्या से जोड़कर देखा जा सकता है।   
हाल ही में नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफोर्म्स ने 4,896 में से 4,822 सांसदों और विधायकों के शपथपत्रों का विश्लेषण किया है। इससे पता चलता है कि 2009 से 2019 तक लोक सभा चुनाव में महिलाओं के ऊपर अत्याचार से संबंधित मामले घोषित करने वाले उम्मीदवारों की संख्या में 231 फीसदी की वृद्धि हुई है। वहीं इसी दौरान लोकसभा चुनाव में महिलाओं पर अत्याचार से संबंधित मामले घोषित करने वाले सांसदों की संख्या में 850 फीसदी की वृद्धि हुई है। नेशनल इलेक्शन वॉच की इस रिपोर्ट की माने तो कहा जा सकता है कि महिलाओं के मामले में आरोपित माननीयों से महिलाओं के प्रति संवेदनशील होने की अपेक्षा हम कैसे कर सकते हैं। हां, दूसरी बात है कि इस तरह के आरोपों को सभी सांसद और विधायकआरोपही मानकर चलते हैं।
यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि पिछले पांच सालों में महिलाओं के ऊपर अत्याचार से संबंधित मामले घोषित करने वाले कुल 572 उम्मीदवारों ने लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा चुनाव लड़ा था, इनमें से किसी भी उम्मीदवार पर आरोप दोषसिद्ध नहीं हुआ है। इन्हीं वर्षों में ऐसे मामले घोषित करने वाले 162 निर्दलीय उम्मीदवारों ने लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा के लिए चुनाव लड़ा था। इस विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि राजनीतिक दल महिलाओं पर अत्याचार के मुद्दों पर ज्यादा चिंतित दिखाई नहीं देते हैं। यहां तक महिला नेतृत्व वाले राजनीतिक दल जैसे कांग्रेस, बीएसपी और एआईटीसी भी ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दे रहे हैं। राज्यों में पश्चिम बंगाल से सबसे अधिक 16 सांसद और विधायक, ओडीशा और महाराष्ट्र दोनों से 12-12 सांसद और विधायक हैं, जिन्होंने महिलाओं से संबंधित अपराध घोषित किए हैं। पिछले पांच वर्षों में राज्यों में महाराष्ट्र से सबसे अधिक 84 उम्मीदवार, दूसरे नंबर पर बिहार से 75 और तीसरे नंबर पर पश्चिम बंगाल से 69 उम्मीदवारों (निर्दलीय उम्मीदवारों सहित) को राजनीतिक दलों ने टिकट दिया, जबकि उन्होंने अपने शपथपत्र में महिलाओं के ऊपर अत्याचार से संबंधित मामले घोषित किए थे।
कारण सिर्फ इतना ही नहीं है कि राजनीति का अपराधीकरण हुआ और सांसद-विधायक कई-कई मामलों में आरोपित हैं, वास्तव में महिला विहीन राजनीति अधिक मात्रा में पुरुष सत्ता का पोषण कर रही है। इसलिए देखा गया है कि न केवल पुरुष सांसद बल्कि महिला सांसद भी महिला मुद्दों के प्रति इतनी संवेदनशील नहीं रहती है, जितना उन्हें होना चाहिए। उनकी प्राथमिकता महिला मुद्दों से कही ज्यादा अपने दलों के प्रति रहती है। इसलिए वे समय-समय पर महिला मुद्दों के प्रतिसिलेक्टिवरवैया भी अख्तियार कर लेती हैं। इसकी वजह राजनीति का वही मेल डॉमिनेशन होता है। इसके लिए जरूरी है कि पहले न केवल राजनीति में बल्कि राजनीतिक दलों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जाए, ताकि महिलाएं अधिक से अधिक संख्या में संसद, विधानसभा पहुंच सके। परिणामस्वरूप राजनीति महिला मुखी होगी और माननीय कहीं अधिक महिलाओं के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझेगे, और महिला मुद्दों पर केवल घड़ियाली आंसू नहीं बहायेंगे।