सोमवार, 16 मार्च 2020

वोट चाहिए, पर भागीदार नहीं!

महिलाओं के दम पर दिल्ली में सरकार बनाने वाली आम आदमी पार्टी ने उस समय तमाम महिला वोटरों का निराश कर दिया, जब नवगठित कैबिनेट में एक भी महिला को जगह नहीं दी। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने तीसरे कार्यकाल में अपनी पुरानी कैबिनेट को दोहरा दिया। इसे लेकर आम लोगों में जबरदस्त प्रतिक्रियाएं आईं। ये कैसा विरोधाभास है कि चुनाव से पहले महिलाओं के हित और कल्याण के लिए जिन्होंने कई प्रकार की फौरी राहते बांटी, उन्हीं ने ही अपनी पार्टी में काम करने वाली और चुनाव बाद जीतीं महिला विधायकों की उपेक्षा कर दी? ऐसा तो नहीं हो सकता कि आम आदमी पार्टी से जीतीं 08 महिला विधायकों में से कोई भी कैबिनेट में शामिल होने लायक नहीं था? दिल्ली में शिक्षा व्यवस्था में तमाम सुधारों के पीछे काम करने वाली आतिशी मार्लेना को उन्होंने कैसे नजरअंदाज कर दिया? जबकि इन चुनावों में शिक्षा के क्षेत्र में हुए सुधार को एक बड़ा मुद्दा बनाया गया था। सरकार में महिलाओं को जगह न दिए जाने के संबंध में ऐसे कई सवाल सीधे मुख्यमंत्री से मुखातिब हुए। पर मुख्यमंत्री के विशेषाधिकार के नाम पर किसी का जवाब नहीं मिला। इसका अर्थ क्या यह लगाया जाए कि आम आदमी पार्टी योग्य महिलाओं के होते हुए भी सिर्फ पुरुषों की पार्टी बनकर रहना चाहती है?

दिल्ली विधानसभा के इस चुनाव में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 62 सीटें जीती हैं। यद्यपि 2015 के मुकाबले सीटें कम आई हैं, पर महिला सीटों में इजाफा हुआ है। इस बार 62 विधायकों में आठ महिला विधायक चुनावी जंग जीत कर आई हैं। जबकि 2015 में 06 महिला विधायक थीं। अरविंद केजरीवाल की इस धमाकेदार जीत के पीछे महिलाओं के समर्थन को एक बड़ी वजह बताया जा रहा है। चुनाव के बाद हुए सीएसडीएस के सर्वे के अनुसार आम आदमी पार्टी को 60 फीसदी महिलाओं ने वोट किया, जबकि 49 फीसदी पुरुषों ने। यह 2015 के मुकाबले 07 फीसदी की बढोत्तरी दिखाता है। महिला वोटरों ने आम आदमी पार्टी को कई कारणों से वोट किया। इसमें सबसे बड़ा कारण महिलाओं के लिए उनकी कल्याणकारी योजनाएं और सीएए-एनआरसी के प्रति उनका रुख बना। लोकसभा चुनावों से पहले इस संदर्भ में चेंज डॉट ओआरजी का एक आॅनलाइन सर्वे भी देखा जा सकता है। जो बताता है कि महिलाएं किन मुद्दों पर वोट देना पसंद करती है। शायद मुख्यमंत्री केजरीवाल इस बात को अच्छे से समझ गए थे।

कारण चाहे जो भी हो, लेकिन आधी आबादी के प्रति अरविंद केजरीवाल और पार्टी की जो सद्इच्छा थी, वह उनकी सत्ता भागीदारी में नहीं दिखी। वे अन्य राजनीतिज्ञों की तरह महिलाओं की उपेक्षा सत्ता समीकरण के लिए आसानी से कर गए। अगर कैबिनेट में महिलाओं को मंत्री पद दिया जाता तो संबंधित विभागों में (रिसर्च बताती हैं कि) महिलाओं और बच्चों के प्रति अधिक संवेदनशीलता से काम होने की पूरी संभावना होती। यह दिल्ली का दुर्भाग्य रहा है कि 1993 से केवल चार महिलाएं कैबिनेट में स्थान पा सकी हैं। आम आदमी पार्टी की 49 दिन की सरकार में राखी बिड़लान को महिला और बाल, समाज कल्याण और भाषा मंत्री बनाया था। 1998 में भाजपा से पूर्णिमा सेठी, कृष्णा तीरथ (1998-2001) एवं किरण वालिया (2008-2013) कांग्रेस से दिल्ली कैबिनेट में रही हैं।

देखा गया है कि राजधानी दिल्ली की विधानसभा चुनावों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व राज्य के कैबिनेट में ही नहीं रहा है, बल्कि विधानसभा में भी काफी कम रहा है। 1993 के पहले चुनाव से लेकर हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव तक केवल 39 महिलाएं ही विधानसभा पहुंच सकी हैं। देश और अन्य राज्यों की तरह दिल्ली में भी महिलाओं की राजनीति की डगर आसान नहीं रही है, चाहे जिस भी राजनीतिक दलों की सरकार रही हो। फिर भी राज्य के मुख्यमंत्री महिलाओं के प्रति जिस तरह की संवेदनशीलता का प्रदर्शन करते हैं, उनसे इस तरह की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। फिर अभी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के पास पूरे पांच साल हैं, वे अपनी गलती सुधार भी सकते हैं।     

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