सोमवार, 7 अगस्त 2023

धमाल मचाने वाली परदादी रामबाई

 


एक सौ छह साल वह उम्र होती है, जब कोई भगवान का भजन करता है या किसी का सहारा लेकर अपना बचा हुआ जीवन जीता है। पर ऐसे भी जीवट वाले लोग होते हैं, जो इन बनी-बनाई धारणाओं को तोड़ देते हैं। रामबाई एक ऐसा ही नाम हैं। जिन्होंने उम्र की सीमाओं को तोड़ते हुए एक मिसाल कायम कर दी है। जानते हैं उनकी इस सफलता के पीछे की कहानी को।

 

एक सौ छह साल की रामबाई तब समाचारों की सुर्खियां बटोरने लगीं, जब उन्होंने लाठी पकड़कर चलने की उम्र में फर्राटा दौड़ में एक नहीं, तीन स्वर्ण पदक जीत लिये। खासतौर से सोशल मीडिया में उन्हें इस उपलब्धि के लिए खूब सराहा गया। उनके गले में पड़े हुये मेडल और उनकी मासूम हंसी वाली फोटो देखकर नहीं कहा जा सकता कि वे हमेशा से किसी दौड़-भाग वाले खेल में हिस्सा लेना चाहती थीं, क्योंकि उनकी घरेलू जिंदगी ही दौड़-भाग वाली थी। जब जिंदगी के तीसरे पहर में उन्हें नाती-पोतो, परनाती से भरे घर में समय उनके साथ सुस्ताने लगा, तब भी उन्होंने ऐसे किसी कॉम्पिटिशन में भाग लेने और जीतने की नहीं सोची होगी, क्योंकि उनका अब तक का जीवन ही किसी ट्राफी से कम नहीं था। फिर भी उन्होंने अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में ऐसे किसी कॉम्पिटिशन में न केवल भाग लिया, बल्कि शानदार जीत भी हासिल की। ऐसा उन्होंने क्यों और कैसे कर लिया, यही जानने में आज हमारी, सबकी दिलचस्पी बनी हुई है।

जिंदगी की रेस को सफलता पूर्वक क्वालीफाई करने वाली हरियाणा की रामबाई ने उत्तराखंड में आयोजित हुई 18वीं युवरानी महेंद्र कुमारी राष्ट्रीय एथलेटिक्स चैंपियनशिप में बुजुर्ग खिलाड़ियों के ग्रुप खेल में भाग लिया। यहां 100 मीटर रेस में उन्होंने पहला स्थान प्राप्त करके गोल्ड मेडल प्राप्त किया। इसके साथ-साथ एक के बाद एक 200 मीटर दौड़, रिले दौड़ में गोल्ड मेडल जीत कर इतिहास बना दिया। यहां वे अकेली ही प्रतिस्पर्धाओं में भाग नहीं ले रही थीं, बल्कि उनकी बेटी और पोती भी दूसरी स्पर्धाओं में भाग ले रही थीं। अपनी तीन पीढ़ियों के साथ इन स्पर्धाओं में जीतकर उन्होंने इतिहास भी बनाया।

प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने की उनकी कहानी आज की सफलता से शुरू नहीं होती है। बल्कि अपनी पोती शर्मीला की प्रेरणा और पंजाब की 100 साल की एथलीट मानकौर से प्रेरणा लेकर उन्होंने भी मैदान में उतने की ठानी। पर यह सब आज जितना आसान नहीं था। चार लोग क्या कहेंगे, जैसी चीजें उनके दिमाग में भी थीं। पर इन सबसे पार पाने को ही साहस कहते हैं, जिसका नतीजा आज हम सब के सामने है। दो साल पहले ही जून 2022 उन्होंने अपनी 104 वर्ष की अवस्था में दौड़ प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया था। तब उन्होंने गुजरात के बडोदरा में नेशनल ओपन मास्टर्स एथलेटिक्स चैंपियनशिप में दोहरा स्वर्ण पदक जीता था। यहां उन्होंने 100 मीटर की दौड़ को केवल 45.50 सेकंड में पूरी करके मानकौर का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। आज भी यह उनके नाम का वर्ल्ड रिकॉर्ड है। पिछले दो सालों में रामबाई 14 अलग-अलग इवेंट में लगभग 200 मेडल जीत चुकी हैं। वे देश के बाहर भी जाकर दूसरी प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेती हैं।

हरियाणा के चरखी दादरी जिले के गांव कादमा की रहने वाली रामबाई ने अपना पूरा जीवन घर और खेत में काम करते हुये बिताया है। आज वे इस गांव की सबसे बुजुर्ग महिला हैं और उन्हें गांववाले प्यार से उड़नपरी परदादीकहकर बुलाते हैं। वे आज भी यहां गांव वाला साधारण जीवन व्यतीत करती हैं। गांव के संसाधनों पर ही वे अपना नियमित और संयमित जीवनचर्या जीतीं हैं। खुद को फिट रखने के लिए रोज सुबह जल्दी उठकर दौड़ लगाती हैं। दही, दूध, चूरमा और हरी सब्जियों से वे अपनी सेहत का ख्याल रखती हैं। खासतौर पर वे शुद्ध शाकाहारी हैं और अपनी सेहत को ठीक रखने के लिए वे दूध और दूध से बने व्यंजनों का भरपूर उपयोग करती हैं। उनके चेहरे का आत्मविश्वास बताता है कि वे आगे भी कई और पदक जीतने वाली हैं।

(पिछले दिनों 'युगवार्ता' पत्रिका में प्रकाशित)

 


शनिवार, 29 अप्रैल 2023

कैसे सम्हालेगें हम अपने बुजुर्गों को ?


दादा-दादियों की कहानियों में एक चमत्कारी दुनिया होती है, जिसे सुनकर मासूम बच्चे उस अजीम दुनिया के वासी बन जाते हैं। पर क्या ऐसी दुनिया स्वयं दादा-दादियों की होती है। समय-समय पर हमारे समाज से ऐसी कहानियां (घटनाएं) सामाने आती हैं कि जिन पर विश्वास करना कठिन हो जाता है। हालिया मामला हरियाणा राज्य के चरखी-दादरी के बाढ़डा के शिव काॅलोनी का है। जहां पर 78 साल के बुर्जुग दंपति ने आत्महत्या कर ली और पीछे एक सुसाइड नोट छोड़ा जिससे उनकी आपबीती हम सबके सामने आ सकी। यह आपबीती जानकर हमारे समाज, शहर, मुहल्ले और घरों में रहने वाले बुजुर्गों के चेहरे मुरझा से गए हैं। वे अपनी वर्तमान स्थिति के बारे में चिंतित हो रहे है, तो कोई बड़ी बात नहीं है।

हरियाणा के चरखी-दादरी के बाढ़ड़ा की शिव कालोनी में रहे जगदीशचंद्र आर्य और उनकी पत्नी ने मार्च की अंतिम तारीख को सल्फास खाकर आत्महत्या कर ली। जब पुलिस उनके पास पहुंचीं, तब वे जिंदा थे और उन्होंने अपनी बात एक पत्र के माध्यम से पुलिस को सौंप दिया। इसके बाद ही उनकी दयनीय स्थिति के बारे में बात सार्वजनिक हुयी। जगदीशचंद्र आर्य के दो पुत्र, दो पुत्रवधुएं और पोते हैं। पुत्रों के पास करोड़ों की संपत्ति भी है। बड़े पुत्र का एक बेटा हाल ही में आईएएस पास करके अंडर ट्रेनी भी है। उक्त दंपति को हाल ही में छोटे बेटे की मृत्यु के बाद छोटी बहू ने घर से निकाल दिया। फलस्वरूप वे बड़े बेटे के पास रहने पहुंच गए। छोटे बेटे के पास रहने से पहले वे अनाथ आश्रम में दो साल तक रहे। पत्नी को जब लकवा की बीमारी हो गई, तो वे वापिस अपने बेटों के पास आए, पर उन्होंने बेमन से रखा और दुव्यर्वहार किया। यहां तक कि खाने-पीने तक का ख्याल तक नहीं रखा गया। इसी से परेशान होकर बुजुर्ग दंपति आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो गए। जिस पर बनी खबर हम सब बड़े दुखी भाव से पढ़ रहे हैं।

हमारे समाज का अभी तक का ढाचा ऐसा था, जहां बुजुर्ग और बच्चे संयुक्त रूप से एक परिवार के अंदर सुरक्षित और संरक्षित रहते थे। पर समय के साथ यह देखा गया है कि हमारा समाज बदल रहा है। मजबूत पारिवारिक ढांचा टूट रहा है और साथ ही यह देखा गया है कि सामाजिक सरोकार भी बदल गए हैं। इसलिए समाज बुजुर्ग, दादा-दादी से ज्यादा बोझ बन गये हैं। जहां देश की बुजुर्ग आबादी तेजी से बढ़ रही है, वहीं हमारी सोच उस तेजी से परिवर्द्धित नहीं हो रही है। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में बुजुर्ग आबादी 104 मिलियन थी, जो कुल जनसंख्या का 8.6 फीसदी था। वहीं एनएसओ की रिर्पोट भारत में बुजुर्ग, 2021’ माने तो यह बुजुर्ग आबादी 2031 तक 194 मिलियन तक पहुंच सकती है, जो 2021 में 138 मिलियन थी। बुजुर्ग आबादी में यह बढ़ोत्तरी एक दशक में 41 फीसदी रहेगी। यानी हम 2031 तक एक बड़ी संख्या में बुजुर्ग आबादी के मालिक होंगे। इस आबादी में महिलाओं और पुरूषों का अनुपात 101 और 93 फीसदी का है।

ऐसा नहीं है कि हमारे देश में ही बुजुर्ग आबादी तेजी से बढ़ रही है, वरन ऐसा चलन पूरे विश्व के देशों में देखा जा रहा है। हमारे पड़ोसी चीन में आबादी का असंतुलन बढ़ रहा है, इसलिए वहां आबादी बढ़ाने यानी बच्चे पैदा करने पर जोर दिया जा रहा है। दूसरे विकसित देशों का भी यही हाल है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या निधि यानी यूएनएफपीए ने भारतीय समाज में बुजुर्गों की समस्याओं और जनसांख्यिकीय परिवेश के संबंध में सरकार तथा गैर-सरकारी संगठनों की प्रतिक्रिया पर प्रकाश डालने का प्रयास करते हुए हमारे वृद्धजनों की देखभालः शीघ्र प्रतिक्रियानाम से एक रिपोर्ट तैयार की है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से हुआ विकास, जिसमें चिकित्सा विज्ञान और बेहतर पोषण तथा स्वास्थ्य देखभाल संबंधी सेवाओं को उपलब्ध कराया जाना शामिल है, जिसके परिणामस्वरूप लोग दीर्घायु हो रहे हैं। इसके साथ-साथ जन्मदर में भी गिरावट आई है जिसकी वजह से देश की आबादी में वरिष्ठ नागरिकों के अनुपात में वृद्धि हुई है। कई तरह के अध्यनों में यह बात सामने भी आ रही है।

समय-समय पर होने वाले अध्ययनों से यह तो समझ में आ रहा है कि देश में बुजुर्ग आबादी तेजी से बढ़ रही है। इसलिए स्वाभाविक प्रश्न है कि इस बढ़ती आबादी में जिसमें बुजुर्ग पुरूषों से अधिक संख्या में बुजुर्ग महिलाएं शामिल हैं, उनका प्रबंधन कैसे होगा? क्या आने वाले समय में बुजुर्ग आबादी हमारे लिए समस्या बन सकती है या कई तरह की सामाजिक और आर्थिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं? ऐसे बहुत से प्रश्नों से आज हम दो-चार हो रहे हैं, जब समाज में जगदीश चंद्र आर्य जैसे बुजुर्गों के साथ ऐसी घटनाएं होती हैं। वैसे तो बुजुर्ग होती आबादी की कई समस्याएं होती हैं, पर उपरी तौर पर ऐसे समय आय की कमी, पेंशन पाने में दिक्कत और परिवारवालों से देखभाल की कमी, सम्मानजनक व्यवहार न होना आदि ऐसे कारण है जिनकी वजह से एक बुजुर्ग की जीने की आशा टूट जाती है। एनएसओ की 2021 की रिपोर्ट की माने तो वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात समय के साथ-साथ बढ़ रहा है। 1961 में वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात 10.9 था, तो 2011 यही अनुपात बढ़कर 14.2 फीसदी पहुंच गया। आशा की जा रही है कि वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात 2021 और 2031 में क्रमशः 15.7 से बढ़कर 20.1 तक पहुंच जायेगा।

यह वृद्धावस्था निर्भरता ही बुजुर्ग के साथ कभी-कभी अमानवीय व्यवहार में तबदील हो जाता है। कमोवेश यह स्थिति कम या ज्यादा संपत्ति वाले बुजुर्गों दोनों पर लागू होती है। 2016 को एजवेल फाउंडेशन ने बुजुर्गों पर एक अध्ययन किया, जिसमें उन्होंने ऐसी तस्वीर पेश की, जिस पर हमें आज से ही सोचना शुरू कर देना चाहिए। रिपोर्ट में कहा गया कि देश के 65 फीसदी बुजुर्गों के पास कोई सम्मानजनक आय के स्रोत न होने के कारण वे गरीबी में जी रहे हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि इन बुजुर्गों में अपने अधिकारों और नियम-कानूनों के प्रति जागरुकता की कमी न होने के कारण वे अमानवीय परिस्थितियों में जी रहे हैं। इसकी सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं ही हो रही हैं, क्योंकि वे लिंगभेद का भी शिकार होती रही हैं। ये महिलाएं लंबा वैधव्य भी ढो रही हैं, जिससे इनकी स्थिति और भी दयनीय हो जाती है। अपने एक निर्धारित सैंपल में किए अध्ययन में पाया गया कि 37 फीसदी बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार किया गया, 20 फीसदी बुजुर्गों को सामाजिक जीवन से काट दिया गया। जबकि 13 फीसदी बुजुर्गों को मानसिक रूप से परेशान किया गया, 13 फीसदी बुजुर्गों को मूलभूत सुविधाओं से वंचित कर दिया गया।

अब ऐसी स्थिति में बुजुर्ग आबादी के प्रति समाज और सरकार दोनों को विशेष तौर पर तैयार होना होगा। ऐसा ढांचा बनाना होगा जहां बुजुर्ग आबादी एक सम्मानीय जीवन जी सके। उसे दो टाइम के खाने के लिए संघर्ष न करना पड़े। इसके लिए टूटते और बदलते समाज को भी अपनी पैनी दृष्टि से खुद का अवलोकन करना चाहिए कि क्यों आखिर हम अपने पालनहार की उचित देखभाल करने में असमर्थ हो जाते हैं। सरकारी प्रयास जो हो रहे हैं वे तो अपनी गति से होते रहेंगे, उससे हमारा ज्यादा जोर नहीं हो सकता है। लेकिन सरकारों को भी समाज में बुजुर्गों की हैसियत देखते हुए एक लोककल्याणकारी राज्य की भूमिका में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होगी, नहीं तो हम अपनी मूल्यवान और अनुभवी बुजुर्ग आबादी से कुछ भी हासिल नहीं कर सकेगे। यही हर किसी के लिए सोचनीय विषय हो जायेगा, क्योंकि एक दिन हर व्यक्ति को बुजुर्ग होना है।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

धारासण सत्याग्रह: क्रूर सत्ता के प्रति शांतिपूर्ण प्रतिरोध

भारतीय स्वतंत्रता कितनी कुर्बानियों और बलिदानों के बाद हासिल हुई है इसका अंदाजा तभी लग सकता है जब हम स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को खंगाले और देखें। मोटेतौर पर हम सभी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से वाकिफ हैं। बचपन से ही स्कूल की किताबों में समय-समय पर पढ़ाया गया है, पर इस पठन-पाठन में बहुत कुछ छूट भी गया है जिसका वाचन जरूरी है। इसलिए जरूरी है कि हम अपनी आजादी की कीमत पहचान सके। हम आजादी के दीवानों की शहादत के मूल्य जान सकें। जब हम आजादी के 75 वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं, आजादी का अमृत महोत्सव भी मना रहे हैं, तब और भी जरूरी है कि आजादी के लिए मर मिटने वालों की तासीर महसूस की जाए। इसी तरह की तासीर वाली एक दास्तां है धारासण सत्याग्रह।

समय था मार्च, 1930 का, सविनय अवज्ञा आंदोलन वाला। ब्रिटेन के अधीन देश में नमक कानून (साल्ट एक्ट 1882) के तहत देशवासियों के लिए नमक बनाना और बेचना प्रतिबंधित था। देशवासियों पर भारी मात्रा में नमक के नाम पर नाम टैक्स वसूला जाता था। नमक का हमारे दैनिक जीवन की कितनी आवश्यक चीज है इस बात से हम सभी परिचित हैं। ऐसी आवश्यक वस्तु पर भारी मात्रा में कर अदायगी से देश के लोग खासकर गरीब जनता काफी त्रस्त थी। नमक बेचने और बनाने में ब्रिटिश शासकों का अधिपत्य था। साथ ही इस पर भारी टैक्स के माध्यम से देश का पैसा विदेशियों की जेबों में जमा हो रहा था और भारतीयों के मन में रोष।

1915 में देश लौट चुके मोहनदास करमचंद गांधी अपने अहिंसा के सिद्धांत और सत्याग्रह के औजार से देशवासियों के मन में एक आशा की किरण जगा चुके थे। महात्मा गांधी ने देश की भावनाओं को जानते हुए इस ब्रिटिश नमक कानून की अवहेलना करने की ठानी, पर अहिंसात्मक तरीके से। गांधी जी ने अंग्रेज शासकों को साफतौर पर आगाह कि वे देशवासियों के साथ मिलकर नमक नीतियों के प्रतिरोध में सत्याग्रह और सामूहिक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर रहे हैं। उन्होंने इस बावत 02 मार्च, 1930 को वायसराय लार्ड इरविन को पत्र लिखकर सूचित किया वे अपने साथियों के साथ मिलकर 10 दिन में नमक कानून तोड़ने जा रहे हैं। तब 12 मार्च को महात्मा गांधी साबरमती आश्रम से अपने कुछ मुट्ठी भर साथियों के साथ नमक बनाने के लिए 240 मील दूर अरब सागर की ओर दांडी नामक गांव की यात्रा शुरू की। इसे इतिहास दांडी मार्च के रूप में जानता है।

कुछ लोगों के साथ शुरू की गई यह यात्रा दांडी पहुंचे-पहुंचते दसियों हजार की भीड़ में तब्दील हो गई। 05 अप्रैल को दांडी पहुंचकर गांधी जी ने समुद्र तट पहुंचकर नमक बनाकर विदेशी शासकों का कानून तोड़ दिया। देखते ही देखते देश के दूसरे भागों में भी हजारों लोग सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने लगे। बहुत कम लोगों को नमक बनाने की जानकारी थी, सभी ने अपने-अपने ढंग से नमक बनाकर कानून तोड़ने की अपनी कोशिश की। नमक बनाने के साथ-साथ दूसरे कानून भी लोगों ने अहिंसात्मक तरीके से तोड़े। सबसे बड़ी बात की लोग अहिंसात्मक रूप से विरोध करने के लिए तैयार थे। साठ हजार से अधिक लोगों को अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। जवाहरलाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, महादेव देसाई और गांधी के बेटे देवदास को गिरफ्तार करके सबसे पहले जेल भेज दिया गया था। लेकिन सत्याग्रह अधिक जोर-शोर से चल रहा था।

21 मई, वह तरीख है जिसने दुनिया का ध्यान भारतीय संघर्ष की ओर खींचा। इस दिन अंग्रेज शासकों ने दिखा दिया कि वे कितने क्रूर तरीके से देशवासियों को अपने काबू में करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। दांडी मार्च के बाद आंदोलन की सफलता को देखते हुए और आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए महात्मा गांधी ने वायसराय को सूचित किया कि वे घारासण नमक कारखाने में अहिंसात्मक रूप से प्रदर्शन करेंगे। आंदोलन की गंभीरता समझते हुए अंग्रेज प्रशासन ने 05 मई को ही महात्मा गांधी की रातों-रात गिरफ्तारी कर ली। आधी रात को जब गांधी जी अपने साथियों के साथ सो रहे थे, तो एक भारी सशस्त्र बल के साथ गांधी को गिरफ्तार करके यारवदा जेल ले जाया गया। लेकिन गांधी के बिना सत्याग्रह चल रहा था। अब धारासण नमक कारखाने पर आंदोलन की जिम्मेदारी दूसरे नेताओं की थी, क्योंकि सभी बड़े नेताओं की गिरफ्तारी पहले ही हो चुकी थी।

उत्तरी मुंबई से धारासण नमक कारखाना 150 मील दूर था। साथ दांडी से दक्षिण की ओर 40 किमी दूर था। इस मार्च की जिम्मेदारी पहले एक बुर्जुग नेता अब्बास तैयबजी और गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी ने उठाई। धारासण पहुंचने से पहले ही उन्हें बीच रास्ते मंे गिरफ्तार कर लिया गया। और तीन महीने जेल की सजा दे दी गई। इनकी गिरफ्तारी के बाद सरोजनी नायडू और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने शांतिपूर्ण सत्याग्रह की जिम्मेदारी उठाई। कई सौ सत्याग्रहियों का जस्था लेकर सरोजनीय नायडू के नेतृत्व में धारासण की ओर चल पड़ा। कई बार उन्हें वापस लौटने की चेतावनी दी गई। सरोजनी नायडू ने सत्याग्रही को समझाया कि कुछ भी हो जाए आप लोगों को अहिंसा धर्म निभाना है। किसी भी हालत में हिंसक नहीं होना है। 21 मई को सरोजनी नायडू के नेतृत्व में कारखाने तक पहुंचने में सफल हुए। कारखाने तक न पहुंच सके इसके लिए प्रशासन ने कारखाने को कंटीले तारों से घेर दिया था। हजारों की पुलिस फौज को वहां तैनात कर दिया था। यह निश्चय किया गया कि कारखाने में सभी लोग प्रवेश न करके कुछ लोग जत्थे बनाकर घुसने की कोशिश करेंगे। ऐसा ही किया गया। जब एक जत्था घुसने की कोशिश करता तो पुलिस लाठी से वार करके उनके सिर, कंधे, हाथ तोड़ देती। सत्याग्रही बगैर किसी प्रतिरोध के जमीन पर गिर जाते। सत्याग्रह में शामिल महिलाएं इन घायलों को उठा ले जाती और उनकी प्राथमिक चिकित्सा में जुट जाती।

यह शांतिपूर्ण प्रदर्शन तब तक चलता रहा जब तक अंग्रेजी फौज ने सभी सत्याग्रहियों को बुरी तरह घायल नहीं कर दिया। यह आंदोलन घंटे भर तक चलता रहा। इस पूरी घटना को एक अमेरिकी पत्रकार वेब मिलर ने बहुत ही मार्मिक रूप से रिपोर्ट किया था। उन्होंने यूनाइटेड प्रेस को लिखा कि आंदोलन में शामिल एक भी व्यक्ति ने पुलिस का प्रतिरोध नहीं किया। किसी ने भी पुलिस की बरती लाठियों को रोकने के लिए अपने हाथ उपर नहीं किये। वे खड़े-खड़े गिर जाते। जो लोग नीचे गिरे, वे गिरे ही रहे, कुछ बेहोश हो गए या चोटिल सिर और टूटे कंधों के कारण दर्द से कराहते रहे। दो-तीन मिनट में जमीन में सत्याग्रही बिछ गए थे। उनके सफेद कपड़े खून से भर गए थे। साथ ही बचे हुए लोग चुपचाप और हठपूर्वक तब तक चलते रहे जब तक उन्हें मारकर गिरा नहीं दिया गया...। घायलों को ले जाने के लिए वहां पर्याप्त स्ट्रेचर नहीं थे। कई कई लोग एक दूसरे के उपर गिरे पड़े थे।... एक जत्थे के बाद दूसरा जत्था बेरहमी से पिटने के लिए शांतिपूर्ण तरीके से हाथ उठाए बगैर आगे बढ जाता था। इस आंखों देखी घटना को रिपोर्ट करने के बाद मिलर ने अस्पताल से भी कई रिपोर्ट फाइल कीं। उन्होंने बताया कि 320 घायल हैं, कई बेहोश है जिनके सिर में चोट आई है। काफी दूसरे लोगों को कमर से नीचे और पेट में चोट से तड़प रहे हैं। सैकड़ों घायलों को घंटों से कोई इलाज नहीं मिला और दो की मौत हो गई...।

निहत्थे और शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे लोगों पर पूरी ताकत से हमलावर हुई अंग्रेज सरकार की भर्तस्ना पूरे विश्वभर में हुई। मीडिया के माध्यम से पूरे विश्व ने देखा लिया था कि भारत क्यों पूर्ण स्वराज की मांग कर रहा है। उस समय धारासण सत्याग्रह की घटना को विश्वभर के 1350 अखबारों में छापा था। इससे विश्व की सहानुभूति भारत के प्रति बढ़ी। ग्लोबल प्रेस कवरेज और अंतरराष्ट्रीय समर्थन ने वायसराय लार्ड इरविन को गांधी से बातचीत के लिए मजबूर होना पड़ा। इसी का परिणाम है गांधी-इरविन समझौता। वैसे इस समझौते का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। पर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में नमक आंदोलन और धारासण सत्याग्रह का काफी महत्व है। जिसने आजादी की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर जोड़ दिया। इस आंदोलन ने भारतीय महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से प्रत्यक्ष रूप से जोड़ दिया। साथ ही भारतीयों के मन में स्वतंत्रता की तमन्ना को अधिक जगा दिया था।


शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

लैंगिक असमानता में भारत की स्थिति

हिमाचल में पर्यटकों के बीच रोज़ी- रोटी की तलाश में 


 





किसी भी देश-समाज में लैंगिक समानता-असमानता एक प्रमुख मुद्दा आज तक बना हुआ है। और हो भी क्यों ना? स्त्री-पुरूष समानता की चाहे जितनी भी बातें-सातें की जाएं, पर जमीनी स्तर पर कोई सुधार नजर नहीं आ पा रहा है। पुरूष और महिलाओं में आर्थिक-सामाजिक स्तर पर गैर-बराबरी समाज और देश के विकास में बाधक होती है। इसे समय-समय पर विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से प्रकाश में लाया जाता है। तमाम प्रकार के संगठन इस दिशा में दिशा-निर्देशों का काम करते हैं, फिर भी गैर-बराबरी का गैप बढ़ जाता है, कम होता कम ही न
जर आता है। कोरोना संकट के बाद तो इसमें और भी इजाफा देखने को मिला है। कोरोना से जो भी आर्थिक संकट आया
, वह अंतिम तौर पर महिलाओं की सेहत और आर्थिक असमानता के तौर पर नजर आने लगा है।

 

हाल ही में वल्र्ड इकोनाॅमिक फोरम ने ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2022 जारी की है। इस इंडेक्स के अनुसार 146 देशों की सूची में भारत का स्थान 135वां है। यह लिस्ट चार-पांच मुद्दों पर स्कोरिंग के आधार पर हर साल जारी की जाती है। पिछले साल जारी इस लिस्ट में भारत का स्थान 156 देशों में से 140वां था। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि स्कोरिंग के मामले में भारत की रैंक में कुछ सुधार आया है। जेंडर गैप इंडेक्स 2022 में स्कोरिंग के लिए महिलाओं से संबंधित चार मुद्दों की पड़ताल की जाती है, जिससे यह विश्लेषण करने में आसानी होती है कि महिलाओं और बच्चियों की विकास में भागीदारी कैसी रही। यही बात उनके विकास के संबंध में कही जा सकती है कि महिलाएं विकास के साथ चल पर रही हैं कि नहीं। जांच करने के ये चार मुद्दे हैं-1. आर्थिक भागीदारी और अवसर, 2. शिक्षा प्राप्ति, 3. स्वास्थ्य और उत्तरजीविता, 4. राजनीतिक सशक्तिकरण।

आर्थिक भागीदारी और अवसर, शिक्षा प्राप्ति, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता, राजनीतिक सशक्तिकरण, इन चारों में भारत को क्रमशः 143वीं, 107वीं, 146वीं, 48वीं रैंक मिली है जिसे फाइनल मिलाकर ही देश को 135वीं रैंक प्राप्त हुई है। अगर इनमें से स्वास्थ्य और उत्तरजीविता की बात करें, तो देश को सबसे निचला स्थान मिला है। 146 देशों की सूची में 146वां स्थान। यह अत्यन्त सोचनीय और विचारणीय है। यदि इसी सूची में आर्थिक भागीदारी और शिक्षा प्राप्ति की बात करंे, तो भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। स्वास्थ और शिक्षा से ही किसी व्यक्ति का संपूर्ण विकास संभव है, यदि यह दोनों ही अच्छे नहीं है तो उसका भविष्य अंधकारमय हो जाता है, अगर कोई चमत्कार न हो तो?

अगर यहां महिलाओं की संदर्भ में यह बात कहीं जा रही है तो इसके खतरनाक मायने हो सकते हैं। एक महिला के स्वस्थ जीवन का प्रभाव भविष्य में पैदा होने वाली संतानों पर पड़ता है। अगर एक मां कमजोर और अस्वस्थ होगी तो निश्चित ही बच्चें भी कमजोर और अस्वस्थ होंगे। इस साल आई नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2019-21 की माने तो देश की 15 से 49 वर्ष की 57 फीसदी महिलाएं खून की कमी से जूझ रही हैं यानी उनके शरीर में लाल रक्त कणिकाओं की कमी है, जो शरीर में हीमोग्लोबिन के स्तर को बनाए रखती हैं। हीमोग्लोबिन के माध्यम से आक्सीजन हर अंग तक पहुंचता हैं। यह महिलाओं में आयरन की कमी को दर्शाता है। और यह आयरन अच्छे पोषणयुक्त आहार से मिलता है, जो एक भरे-पूरे घरों की महिलाओं को भी कामोवेश नहीं मिल पा रहा है। ऐसा क्योंकर है?

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 में यह एनीमिक महिलाओं का 57 फीसदी आंकड़ा गैर-गर्भवती महिलाओं का है यानी गर्भवती महिलाओं के मामलों में यह मामला अधिक गंभीर हो सकता था। पर गर्भावस्था में महिलाओं के प्रति परिवार अधिक संवेदनशील होने के कारण महिलाओं की देखभाल ठीक से हो जाती है, इसलिए वे एनीमिक होने से थोड़ी बहुत बची रहती हैं इसलिए उनका आंकड़ा इसी सर्वे में 52 फीसदी है, जिसे किसी भी मायने में अच्छा तो नहीं कहा जा सकता है। महिलाओं में एनीमिया शहरी इलाकों में 54 फीसदी और ग्रामीण इलाकों में 58.7 फीसदी है। महिलाओं में खून की कमी एक ऐसा पैमाना है तो हमें बताता है कि हमारी बच्चियां और महिलाएं किस हद तक कुपोषित हैं।

आखिर महिलाएं खुद के स्वास्थ पर ध्यान क्यों नहीं दे पाती हैं? इसका प्रमुख कारण तो यही है कि समाज में उनका स्थान दूसरे दर्जे पर आता है। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की बारी किसी भी चीज में पुरूषों के बाद ही आती है। यह बात महिलाएं बखूबी समझती है, बल्कि उनकी सोच भी इसी बात से संचालित होती है कि वे खुद को प्राथमिकता क्या, महत्व तक देना भूल जाती हैं। आर्थिक रूप से संबल न हो पाने के कारण वे अपने स्वास्थ को कोई खास तबज्जो देने की स्थिति में नहीं रहती हैं। अगर आर्थिक संबल की बात करें तो आज देश में श्रमशक्ति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 29 फीसदी है, जोकि 2004 में 35 फीसदी था। यह बहुत ही गौर किया जाने वाला तथ्य है कि महिलाओं का घरेलू स्तर पर किया जाने वाला श्रम पूरी तरह से अवैतनिक है। खेती से जुड़ी महिलाएं खेत से जुड़े 40 फीसदी कामों को निपटाती हैं, पर अगर उनके हिस्से खेती की जमीन की बात करें, तो केवल 09 फीसदी खेती ही उनके नाम पर है। 60 फीसदी महिलाओं के नाम पर कोई भी मूल्यवान संपत्तियां नहीं हैं। कुल मिलाकर देश की जीडीपी में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 17 फीसदी है। क्या यह उचित है और यह कैसे है? क्या अर्थ तंत्र का संचालन सिर्फ पुरूषों के हाथों में है? आईएमएफ का अनुमान है कि अगर श्रमशक्ति के मामले में महिलाओं के साथ भेदभाव न किया जाए, तो देश की जीडीपी में 27 फीसदी का इजाफा किया जा सकता है। लेकिन सवाल वही है कि यह सब कैसे हो सकता है?

ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2022 की माने तो विश्व में लैंगिक समानता की स्थिति अभी हमसे बहुत दूर है। यह ग्लोबल जेंडर खाई इतनी गहरी है कि इसे पाटने में 132 साल लग सकते हैं। इसी रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया यानी यहां हमारा देश भी है, इस गैप को पाटने में लगभग दो शताब्दी यानी 197 साल का वक्त लग सकता है। और कोविड के बाद जो स्थितियां पैदा हुई हैं, उसका बुरा परिणाम महिला शक्ति पर पड़ा ही है...। इसलिए यह गैप पाटने का इंतजार लंबा भी हो सकता है...।

शुक्रवार, 3 जून 2022

36 साल तक पुरुष बनकर पाली अपनी बेटी

 

कितना सरल हो जाता है मर्द बनकर जीना। एस. पेटीअम्मल ने यही सोचकर अपने बाल काटकर लुंगी-शर्ट पहनकर पुरूष बन गईं। आखिर उन्हें एक मां होने के नाते अपनी बेटी का भविष्य सुरक्षित करना था। प्रश्न महज यह है कि एस. पेटीअम्मल को पुरूष पहचान क्यों धारण करनी पड़ी?

 

 

हेडिंग से इस बात का अंदाजा न लगाये कि यह किसी महिला के लिंग परिवर्तन का साइंटिफिक मामला है या यह भी न सोचे कि एक बेटी को बड़ा करने के लिए महिला होकर पिता की भूमिका अदा करने वाला कोई भावनात्मक मामला ही है। बल्कि यह मामला समाज में अपनी स्त्री होने की पहचान छुपा कर खुद के साथ-साथ अपनी बेटी की भविष्य सुरक्षा और सुविधा सुनिश्चित करने का मामला है। यह कहानी है 57 साल की एस. पेटीअम्मल की।

यह कहानी (या व्यथा कहें तो ज्यादा ठीक लगेगा।) आई है तमिलनाडु के कुट्टुनायकनपट्टी गांव से। जहां एस. पेटीअम्मल अपनी बेटी शनमुगसंदरी के साथ रहती हैं मुथु बनकर। मुथु यानी पुरूष बनकर। एस. पेटीअम्मल 36 वर्षों से अपनी स्त्री पहचान छुपाये हुए मुथु बनकर अपनी बेटी की परवरिश कर रही हैं। आज उनकी बेटी की शादी हो चुकी है और वह सुखपूर्वक अपना जीवन बिता रही हैं। उनके परिवार के नजदीकी लोगों के अतिरिक्त किसी को पता नहीं था कि मुथु ही एस. पेटीअम्मल हो सकती हैं। प्रश्न है कि आखिर एस. पेटीअम्मल को पुरूष वेश क्यों धारण करना पड़ा? ऐसी क्या आवश्यकता पड़ी कि घर के बाहर एस. पेटीअम्मल को मुथु बनकर निकलना पड़ा? कारण साफ है स्त्री बनकर जीवन जीने में उन्हें परेशानी आ रही थी। परेशानी क्यों आ रही थी? जवाब है कि उनके पति की मृत्यु हो चुकी थी और वे बिल्कुल अकेली थीं। उन्हें अपनी बेटी का पालन-पोषण करने के लिए घर के बाहर जाकर रूपये-पैसे कमाने थे जिससे उनकी बेटी का भविष्य बन सके।

अब रूपये-पैसे तो स्त्री होकर भी कमाये जा सकते हैं, इसके लिए क्योंकर पुरूष रूप धारण करना पड़ा? यही सवाल ही विडंबना है। जब एस. पेटीअम्मल के पति की मृत्यु हुई तो उनकी शादी को कुछ ही महीने हुए थे और वे गर्भवती थीं। बेटी के पैदा होने के बाद खुद और उसके भरण-पोषण के लिए जब वे घर से बाहर निकलीं, तो उन्होंने कमाई के लिए हर तरह के छोटे-मोटे काम करने शुरू किये। भवन निर्माण में ईंट-पत्थर ढोने से लेकर होटल-चाय की दुकानों में भी सब तरह का काम किया। एस. पेटीअम्मल कहती हैं- ‘मैं जहां भी जाती वहां पुरूषों का वर्चस्व था। कई जगह दुर्यव्यहार और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता। यहां तक महीनों यौन उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ा। दुखी होकर एक दिन मैं तिरूचेंदूर मुरूगन मंदिर गई और पुरूष बनने का फैसला कर लिया। मैंने अपने लंबे काले बाल काट डाले, अपनी धोती की जगह शर्ट और लुंगी पहनकर मुथु बन गई। उस गांव को छोड़कर अपनी नई पहचान को साथ लेकर दूसरी जगह बेटी के साथ आ गई और नया जीवन शुरू कर दिया। क्या इस नई पहचान के साथ एस. पेटीअम्मल का जीवन आसान हुआ?

पुरूष पहचान के साथ एस. पेटीअम्मल का जीवन थोड़ा आसान हो गया था, यह इसी बात से समझ में आता है कि उन्होंने 36 वर्ष तक इस दोहरे जीवन को जिया। न केवल जिया बल्कि शिद्दत के साथ जिया कि उनकी पूरी पर्सनाल्टी ही बदल गईं। वे कहती हंै कि इस पहचान ने मेरी बेटी के लिए एक सुरक्षित जीवन सुनिश्चित किया, इसलिए मैं मरते दम तक मुथु ही रहूंगी। उनका आधार कार्ड, राशन कार्ड और उनका वोटर आईडी पुरूष पहचान के साथ मुथु नाम पर ही है। अब जाकर उन्होंने इस रहस्य से पर्दा उठाया है, तो दुनिया उन्हें शाब्बासी दे रही है कि बेटी के पालन-पोषण के लिए एक मां क्या नहीं कर सकती है। पर दुनिया के मन में यह सवाल नहीं आ रहा है कि एक अकेली मां (सिंगल मदर) का जीवन यह समाज इतना कष्टकारी और दुरूह क्यों बना देता है कि एक तरफ खाई और दूसरी कुंआ ही नजर आए। एस. पेटीअम्मल के साहस और संघर्ष के लिए तालियां बजाने से पहले हमें एक नजर इस बात पर डालनी चाहिए कि समाज में अकेली स्त्री का जीवन इतनी मुश्किलों से भरा क्यों बना हुआ है? क्यों एक स्त्री मर्द बनकर ही इस मर्दवादी समाज में जीने के लिए मजबूर होती है?

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2022

सोशल मीडिया पर बुली होतीं महिलाएं


सोशल मीडिया पर महिलाएं अपनी उपस्थिति और अभिव्यक्ति से कई तरह के लोगों की आंखों की किरकिरी बन रही हैं। यही कारण है कि उन्हें ऑनलाइन धमकाना उतना ही न्यू नार्मल हो गया है जितना उनकी दमदार उपस्थिति उन्हें दर्ज कर रही है।

 

सोशल मीडिया में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार कोई नई बात नहीं रह गई है। इसी में एक कड़ी और जुड़ गई है- बुल्ली बाई। बुल्ली बाई से पहले भी सुल्ली बाई भी आया था। सांगठनिक रूप से महिलाओं को उनकी बात कहने के बदले बकायदा अभियान चला कर ट्रोल किया जाता है। फकत संदेश इतना है कि वे अपना मुंह और दिमाग बंद कर मूक दर्शक बनी रहें, इसी में उनकी भलाई है। ...बोला नहीं कि उन्हें बदनाम करके उनका शीलहरण करने का कोई मौका नहीं छोड़ेगे। भले ही वह मौका मौखिक या वर्चुअल ही क्यों न हो। जब बुल्ली बाई ऐप के संचालकों पर कार्रवाई हो रही थी, तभी सोशल मैसेजिंग ऐप टेलीग्राम पर एक खास चैनल को सोशल मीडिया पर सामने लाया गया, जहां महिलाओं की तस्वीर साझा करके उन्हें अपशब्द कहे जा रहे हैं। जिस पर तुरंत कार्रवाई करते हुए आईटी मंत्री अश्विन वैष्णव ने चैनल को तत्काल बंद करा दिया। यानी यह सिलसिला अनवरत जारी है...।

आश्चर्य की बात है कि जिन महिलाओं को सोशल मीडिया में टार्गेट किया जाता है या किया जा रहा है वे कोई साधारण महिलाएं नहीं हैं। इनमें से कुछ पत्रकार, कुछ सिनेमा में काम करने वाली, कुछ सोशल वर्कर, कुछ लेखिका, डाॅक्टर, इंजीनियर, छात्राएं यानी विभिन्न तरह के व्यवसायों से संबंध रखने वाली हैं। इन महिलाओं को छोड़ दिया जाए तो इस बात का आश्चर्य होता है कि कुछ साल पहले लोकप्रिय विदेश मंत्री स्व. सुषमा स्वराज और महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी को भी इस तरह के लोगों ने अपने उद्देश्य के लिए निशाना बनाया था। जिसकी चहुंओर घोर निंदा हुई थी। इन दोनों केंद्रीय मंत्रियों का अपराध बस इतना था कि उन्होंने जो कार्य किया था वह दुर्व्यवहार करने वाले इन सोशल मीडिया हैंडल्स को पसंद नहीं आया। जून, 2018 को केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज को दस दिनों तक लोगों के अपशब्दों का शिकार होना पड़ा, जब उन्होंने दो अलग मजहब वाले दंपति को पासपोर्ट दिलाने में मदद कर दी थी, जो विवादों में आ गया था। मामला इतना बढ़ गया था कि खुद केंद्रीय मंत्री के पति स्वराज कौशल को सोशल मीडिया पर उतरना पड़ा।

सवाल उठता है कि यदि केंद्रीय मंत्री के साथ सोशल मीडिया पर ऐसी घटना हो सकता है, तो फिर दूसरी महिलाओं की क्या बिसात। सोशल मीडिया पर इस तरह के दुर्व्यवहार का शिकार होने वाली सुषमा स्वराज ही पहली केंद्रीय मंत्री नहीं थीं, बल्कि इसी तरह केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी को भी 2016 को हैशटैग आयएमट्रोल्डहेल्प सर्विस लांच करने के दौरान बहुत कुछ सुनना पड़ा। इस हैशटैग के जरिए मेनका गांधी ने महिलाओं से अपील की थी कि वे उन्हें ट्वीट और ई-मेल के जरिए इस माध्यम पर उनके साथ हुए दुर्व्यवहार और छेड़छाड़ के बारे में शिकायत करें। उनकी इसी पहल पर उन्हें जमकर ट्रोल किया गया। आखिरकार उन्हें इस हैशटैग के बारे में सफाई देनी पड़ी। उन्होंने कहा कि इंटरनेट पर लिखने की आजादी पर रोकटोक नहीं होगी, मंत्रालय तभी कार्रवाई करेगा जब बदतमीजी, प्रताड़ना या घृणित काम की शिकायत आएगी। इसी तरह ब्रिटेन में भी महिला सांसदों को सोशल मीडिया पर सुषमा स्वराज और मेनका गांधी की तरह कई तरह के दुर्व्यवहार का सामना आये दिन करना होता है। वहां पर सबसे ज्यादा ट्रोलिंग का शिकार अश्वेत सांसद डाएन एबाॅट हुईं। इसका कारण है कि उनके विचार कुछ खास लोगों को ज्यादा पसंद नहीं आते हैं। ऐसा नहीं है कि सत्तासीन महिलाओं को देश में ही ऐसे अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ा है, अमेरिका जैसे खुले विचारों वाले देश में आॅनलाइन महिलाओं को गाली-गलौच, बदसलूकी का व्यवहार झेलना पड़ता है। वहां की रिसर्च बताती है कि 40 फीसदी नागरिक ऐसी वाहियात ट्रोलिंग का शिकार हर साल बनते हैं।

ये दोनों मामले बताते हैं कि सोशल मीडिया की ताकत का किस तरह महिलाओं के मानसिक शोषण का जरिया बनाया जा रहा है। बुल्ली बाई ऐप उसी की एक और कड़ी मात्र है। जहां मौखिक ही सही महिलाओं की नीलामी की जा रही थी। अशोभनीय टिप्पणियों के जरिए यौन हिंसा की जा रही थी। इस समय देश-विदेश में सोशल मीडिया पर महिलाओं की संख्या काफी बढ गई है। वे खुलकर हर मामले में अपने विचार शेयर करती हैं। यह बात कुछ स्त्री विरोधी मानसिकता या वर्ग के लोगों को बर्दास्त नहीं होती है और सांगठित रूप से ऐसी महिलाओं को सबक सिखाने के लिए उन पर टूट पड़ते हैं। इसके लिए किसी भी हद से गुजर जाते हैं। अक्टूबर, 2020 में एक वैश्विक सर्वे स्टेट आॅफ द वल्र्डस गल्र्स रिपोर्टमें आया कि किस तरह बड़े विकसित देशों में महिलाएं बड़े पैमाने में आॅनलाइन (फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्वीटर, वाट्सअप, टिकटाॅक) हिंसा का शिकार बनती हैं। बाइस देशों (भारत, ब्राजील, नाइजीरिया, स्पेन, आस्ट्रलिया, जापान, थाइलैंण्ड और यूएस) में हुए इस सर्वे में 14,000 महिलाओं जिनकी उम्र 15-25 थी शामिल की गईं थीं। रिपोर्ट में पाया गया कि यूरोप में 63 फीसदी, लैटिन अमेरिका में 60 फीसदी, एशिया पैसिफिक रीजन में 58 फीसदी, अफ्रीका में 54 फीसदी और दक्षिण अमेरिका में 52 फीसदी महिलाओं ने सोशल मीडिया पर हैरेसमेंट की रिपोर्ट की। उन पर रेसिस्ट कमेंट किए गए, उनका आॅनलाइन पीछा किया गया, उन्हें यौन हिंसा की धमकी दी गई आदि इत्यादि। इस प्लेटफार्म पर उन्हें 47 फीसदी तक शारीरिक और यौन हिंसा की धमकी मिली जबकि 59 फीसदी महिलाओं को गाली-गलौच और अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया गया।

इस सर्वे में सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि इन महिलाएं में ऐसे महिलाओं की संख्या अच्छी खासी थी जो हैरेस करने वाले पर्सन को जानती थीं यानी रियल जिंदगी में वह सख्स उनसे ताल्लुक रखता था। 11 फीसदी महिलाओं ने स्वीकार किया कि उन्हें आॅनलाइन हैरेस करने वाला पूर्व या वर्तमान का उनका पार्टनर भी था, जबकि 21 फीसदी ने स्वीकार किया ऐसे लोग उनके दोस्त भी थे, 23 फीसदी ने स्वीकार किया उन्हें वे स्कूल के दिनों से जानती थीं। अब इसे क्या कहा जाए। इस सबके परिणाम स्वरूप क्या होगा, यह भी इसी सर्वे रिपोर्ट में सामने आया। 42 फीसदी महिलाओं ने कहा कि उन्हें मानसिक और इमोशनल तनाव हुआ और लगभग इतनी ही महिलाओं ने कहा कि उनका आत्मसम्मान और आत्मविश्वास इस तरह के हैरेसमेंट से खो गया था। इस कारण से लगभग 19 फीसदी महिलाओं ने सोशल मीडिया को छोड़ दिया या आना-जाना कम कर दिया। और 12 फीसदी महिलाओं ने माना कि उन्होंने यहां अपनी अभिव्यक्ति के तरीके को बदल दिया। यानी जरूरी मामलों पर उन्होंने चुप्पी अख्तियार कर ली। आखिर यही तो चाहते हैं ऐसे लोग? यही पर आकर उनका उद्देश्य पूरा हो जाता है।

आखिर इसका इलाज क्या है? यहां सत्ताधारी से लेकर साधारण काॅलेज गोइंग लड़की तक लाचार हो जाती है। पहली समस्या यह है कि इस तरह की हरकत करने वाले लोग गुमनाम या फर्जी नामों से अपना एकांउट आॅपरेट करते हैं, यदि ऐसे अकाउंट्स पर लगाम लगाई जाए, तो सोशल मीडिया को काफी साफ-सुथरा किया जा सकता है। केंद्रीय मंत्री के मामले में जब एक्शन लिया गया, तब तक ऐसे फर्जी अकाउंट्स डिलीट करके जा चुके थे। इनका कोई पुख्ता सबूत नहीं होने के कारण ही ऐसे लोग इतना साहस करते हैं। अकाउंट्स यदि वेरिफाइड होने लगे तो आधी समस्या खुद ही समाप्त हो जाएगी। 2013 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने केएन गोविंदाचार्य की याचिका पर आदेश दिया था कि सोशल मीडिया अकाउंट का बेरीफिकेशन के साथ देश में शिकायत अधिकारी की नियुक्ति की जानी चाहिए, इससे इस समस्या पर लगाम लगाई जा सकती है। इसी तरह मद्रास हाईकोर्ट ने एक मामले में कहा था कि री-ट्वीट के लिए भी जवावदेही तय की जानी चाहिए। एक्सपर्ट कहते हैं कि वास्तव में अभी तक देश में इस तरह की ट्रोलिंग से निपटने के लिए अलग से कोई कानून नहीं है। फिर यदि सरकार चाहे तो मौजूदा आईटी एक्ट के तहत सोशल मीडिया कंपनियों को बाध्य कर सकती है कि वे ट्रोल्स पर कार्रवाई करें। कहीं न कहीं मसला हीला-हवाली और उपेक्षा का बनता है। क्या हम बहु-बेटियों की सोशल मीडिया पर उपस्थिति और अभिव्यक्त को जरूरी नहीं समझते? इच्छा शक्ति से बहुत कुछ हो सकता है। 


रविवार, 8 अगस्त 2021

महिलाओं के प्रति संवेदनशील होनी चाहिए पुलिस?

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने पिछले दिनों आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कारणों की वजह से महिला पीड़ितों के प्रति एक अलग रूख रखा जाता है। इसलिए महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा से संबंधित सभी मामलों में पुलिस को लैंगिक दृष्टिकोण से संवेदनशील होकर कार्य करने की जरूरत है। साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों से अधिक कारगर ढंग से निपटने के लिए पुलिस अधिकारियों में आवश्यक कौशल और रवैया विकसित करने के लिए यह जरूरी है कि सभी राज्यों के पुलिस संगठन सभी स्तरों पर पुलिसकर्मियों को संवेदनशील बनाने के लिए उपयुक्त पहल करें।

दरअसल यह कार्यक्रम और उपर्युक्त वक्तव्य राष्ट्रीय महिला आयोग और पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो की एक संयुक्त और बहुत ही आवश्यक पहल को लेकर था, जिसमें आयोग और ब्यूरो दोनों की सद्इच्छा है कि देश की पुलिस को महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा और अपराधों को अधिक संवेदनशीलता और बगैर किसी पूर्वाग्रह-पक्षपात के अपने कर्तव्यों को प्रभावी ढंग निभाने के लिए प्रशिक्षित करना है। इसी उद्देश्य के साथ राष्ट्रीय महिला आयोग ने लैंगिक समानता से जुड़े मुद्दों पर पुलिस अधिकारियों को संवेदनशील बनाने (विशेष रूप से लैंगिक आधार पर होने वाले अपराधों के मामलों में) के लिए देशभर में एक प्रशिक्षण शुरू करने का निर्णय लिया है।

हमारे देश की पुलिस का चेहरा कम संवेदनशील और अधिक असंवेदनशीलता का है। उसका पूरा ढांचा अंगेजों के जमाने से जैसा रचा और ढाला गया वैसा ही चला आ रहा है। सुधार की कितनी जरूरत है इसे समय-समय पर कई समितियों और आयोगों की सिफारिशें (धर्मवीर आयोग, पद्नाभैया समिति, सोली सोराबजी समिति आदि) के माध्यम से रखा गया है। तो यह सुधार क्यों नहीं हुए? इसके कई राजनीतिक पेंच और मजबूरियां हैं। खैर, बात यह है कि जो हो सकता है, वह किया जा रहा है। महिला आयोग ने यह बहुत ही महत्वपूर्ण कदम उठाया है। यह सर्वविदित तथ्य है कि महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा और अपराधिक घटनाएं (बलात्कार, छेड़खानी, मारपीट, घरेलू हिंसा, दहेज हत्या, अपहरण, वेश्यावृत्ति के लिए बेचना, मानव तस्करी आदि) दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की क्राइम इन इंडिया-2019 की रिपोर्ट की माने तो लगभग 4.05 लाख (4,05,861) आपराधिक केस दर्ज किये गये थे। यह साल 2018 के मुकाबले 7.3 फीसदी ज्यादा हैं। प्रति एक लाख महिलाओं पर होने वाले अपराधों की दर में भी बढोत्तरी हुई, जहां साल 2018 में 58.8 प्रतिशत थी, वहीं 2019 में बढ़कर 62.4 प्रतिशत पर पहुंच गई है। महिलाओं के प्रति होने वाले इन सभी अपराधों में से 31 प्रतिशत भाग पति या उसके संबंधियों द्वारा की गई क्रूरताओंका है। कुल रजिस्टर केस में से 08 प्रतिशत बलात्कार के केस हैं। गणना के हिसाब से औसतन 87 बलात्कार के केस 2019 में रोज दर्ज कराएं गए। यह कहानी तो दर्ज किए गए महिलाओं के प्रति किए गए अपराधों की है। क्या हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि इन आंकड़ों से महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों की सही तस्वीर पेश होती है। वजह है, हमारा समाज, हमारी पुलिस और कानून व्यवस्था। जिसका भी वास्ता इन सब चीजों से पड़ता है, वह अच्छी तरह से समझ जाता है कि यह व्यवस्था किसके लिए है और काम करती है। ऐसे में महिलाओं और बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों की विसात ही क्या।

इसकी सही तस्वीर और तस्तीक भी हम कर लेते हैं। जो पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो हर साल दर्ज अपराधों को एकसूत्र करता है, वह इन सभी दर्ज केसों पर क्या एक्शन लेता है, यह ज्यादा जरूरी है क्योंकि पुलिसिया कार्यवाही पर ही हमारी अदालतें काम करती हैं। हमारे देश में आॅल इंडिया चार्जशीट रेट (आईपीसी के अंतगर्त) 2019 में 67.2 प्रतिशत था, तो 2018 में 68.1 प्रतिशत था। जबकि इसी दौरान अपराध निस्तारण दर थोड़ा बढ़कर 50 से 50.4 तक रही। यह जानना जरूरी है कि आरोप पत्र की दर ही वह संख्या होती है, जो यह दर्शाती है कि पुलिस ने कितने दर्ज अपराधों का निस्तारण किया। किसी मामले में दोष सिद्धि इसी चार्जशीट पर निर्भर करती है। दोषसिद्धि दर कोर्ट द्वारा अपराध निस्तारण के आधार पर बनती है। इसी रोशनी पर जानते हैं कि महिलाओं के प्रति होने वाले दर्ज अपराधों के साथ क्या होता है?

2019 में बलात्कार के केस में चार्जशीट दर 81.5 प्रतिशत है, जबकि इसकी दोषसिद्धि दर 27.8 रही। केरल में जहां चार्जशीट दर राज्यों में सबसे अधिक 93.2 थी, वहीं दोषसिद्धि दर 13.4 प्रतिशत थी, जो कि राष्ट्रीय औसत 23.7 से भी काफी कम है। ऐसे ही 2019 में देश भर में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के लिए लगभग 44.75 लाख लोगों को गिरफ्तार किया गया, इनमें से 5.05 लाख चार्जशीट दाखिल की गईं, इसमें से 46,164 दोषी ठहराया गया, 13,896 आरोपमुक्त हुए और 1.61 लाख बरी हुए। अब इन आंकड़ों को देखने से ही पता चलता है कि चार्जशीट से दोषी ठहराये जाने के बीच कितना अंतर है? यह अंतर क्यों और कैसे है? खैर, इसके कई कारण हो सकते हैं और है भी। लेकिन प्राथमिक तौर पर पहली जिम्मेदारी पुलिस की ही होती है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है क्योंकि अपराध होने पर सबसे पहले पुलिस ही जांच करती है, इसलिए छोटी से छोटी बात मायने रखती है। क्या दोषसिद्धि तक पहुंचने में इन्हीं छोटी सी छोटी चीजों का हाथ तो नहीं होता है?

पुलिस सुधार के एजेंडे में हमेशा जांच-पूछताछ के तौर-तरीके, जांच विभाग को विधि व्यवस्था विभाग से अलग करने, पुलिस विभाग में महिलाओं की 33 फीसदी भागीदारी के अलावा पुलिस की निरंकुशता की जांच के लिए विभाग बनाने पर जोर दिया गया है। यह सब इसलिए कि पुलिस का चेहरा मानवीय और लोकतांत्रिक बने, जिससे वह अधिक संवेदनशीलता से काम कर सके। एक अच्छी पुलिस आम नागरिकों को न केवल सुरक्षा उपलब्ध कराती है, बल्कि उसके साथ हुई हिंसा या अपराध में न्याय दिलाने में सहायक भी होती है। इसलिए न्याय दिलाने की व्यवस्था में पुलिस जैसे महत्वपूर्ण और सबसे जरूरी अंग पर काफी विश्लेषण किया गया है। इंडियन जुडिशल रिपोर्ट-2019 में पुलिस की संख्या बल, पुलिस में विभिन्न धर्मों, जातियों, महिलाओं का प्रतिनिधित्व पर एक विस्तृत अध्ययन किया गया है। इंडियन जुडिशल रिपोर्ट-2019 की माने तो महिलाओं और बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों में बढोत्तरी और न्याय न मिल पाने की एक बहुत बड़ी वजह महिलाओं का पुलिस संख्या बल में न केवल कम होना है, बल्कि ऑफीसर रैंक में भी उचित प्रतिनिधित्व में न होना भी है। यानी इस रिपोर्ट के अनुसार हम पुलिस में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देकर भी उसे मानवीय चेहरा दे सकते हैं, तो देर किस बात की है? हमें यह भी जानना होगा।