शनिवार, 17 अगस्त 2024

...जब महिलाओं का ओलिंपिक में खेलना प्रतिबंधित था!

  

फ्रांसिस विद्वान पियरे
डी कुबर्टिन ने जब प्राचीन ओलंपिक खेलों को पुनर्गठित करने का इरादा बनाया, तब उनके जेहन में पुरूषों और महिलाओं की समान भागीदारी की कोई कल्पना नहीं थी। इन खेलों में महिलाओं की भागीदारी के बारे में कुबर्टिन की स्थिति दूसरे ओलंपिक संस्करण में बदलनी शुरू हुई।


ओलंपिक खेल अपनी पूरी धूम के साथ संपन्न हो गये हैं। खुशी की बात है कि इस बार आधी आबादी अपने पूरे हक के साथ खेली। इस खेल के महाकुंभ में महिलाओं ने अपनी भागीदारी का 50 फीसदी का आंकड़ा छू लिया है। इस आंकड़े तक पहुंचने में महिलाओं को कुल 124 वर्ष का समय लगा। जब 1900 में इन खेलों में शामिल होने की अनुमति मिली थी, तब कोई नहीं सोच सकता था कि महिलायें अपने घरेलू जिंदगी से निकलकर हर तरह के खेलों में न केवल भाग लेंगी, बल्कि अच्छा प्रदर्शन भी कर सकेंगी। इन वर्षों में 1900 से 2024 तक महिलाओं की संख्या 22 से 5000 तक पहुंचने की यह यात्रा बहुत ही अद्भुत रही है, इसे स्वयं महिलाओं को भी जानना चाहिये। 

प्राचीन ओलंपिक खेल जो ओलंपिया में 776 से 393 ई.पू. तक आयोजित होते थे, तब यह खेल का एक धार्मिक पवित्र आयोजन होता था। इतना पवित्र कि इसमें महिलाओं को भाग लेने की मनाही होती थी। बाद में जब आधुनिक ओलंपिक का आयोजन वैश्विक सहमति से 1896 में हुये, तब भी इसमें महिलाओं के खेलने को लेकर कोई बात नहीं सोची गई थी। भले ही इसे ‘मार्डन ओलंपिक’ कहा जा रहा था। फ्रांसिस विद्वान पियरे डी कुबर्टिन ने जब प्राचीन ओलंपिक खेलों को पुनर्गठित करने का इरादा बनाया, तब उनके जेहन में पुरूषों और महिलाओं की समान भागीदारी की कोई कल्पना नहीं थी। इन खेलों में महिलाओं की भागीदारी के बारे में कुबर्टिन की स्थिति दूसरे ओलंपिक संस्करण में बदलनी शुरू हुई। तब 1900 में पेरिस में आयोजित आधुनिक ओलंपिक खेलों के इस दूसरे संस्करण में महिलाओं ने ओलंपिक खेलों में भाग लिया। कुल 22 महिलाओं ने इसमें भागीदारी की थी।

1900 में पेरिस में आयोजित आधुनिक ओलंपिक खेलों के इस दूसरे संस्करण में महिलाओं ने ओलंपिक खेलों में भाग लिया। कुल 22 महिलाओं ने इसमें भागीदारी की थी।

कहा जाता है 1896 के ओलंपिक में एक ‘अनाम’ महिला ने मैराथन में भाग लेने की कोशिश की। जाहिर है वहां महिलाओं की मनाही थी। इसलिये उस महिला को पुरूषों के बाद दौड़ने की अनुमति दे दी गई और उसने 4.5 घंटे में मैराथन पूरी कर ली, ऐसा कहा जाता है। यह विडंबना ही है कि उस महिला का उल्लेख समकालीन विदेशी स्रोतों में तो मिल जाता है। लेकिन ग्रीक समाचार पत्रों में उसके नाम का खुलासा कभी नहीं किया गया। बाद में लोगों ने एक प्राचीन त्रासदी की ग्रीक देवी ‘मेलपोमीन’ का नाम उस मैराथन दौड़ने वाली अनाम महिला को दे दिया। आज मेलपोमीन नाम से उस महिला को संबोधित किया जाता है। ओलंपिक में भाग लेने वाली पहली महिला माना जाता है। तो ऐसे हुई इन खेलों में महिलाओं की एंट्री।

इस घटना के बाद आधुनिक ओलंपिक के दूसरे संस्करण 1900 में बकायदा महिलाओं को प्रवेश दिया गया। इस बार पेरिस में आयोजित इस संस्करण में 22 महिला खिलाड़ियों ने भाग लिया। 997 पुरूष खिलाड़ियों के बीच से इन 22 महिला खिलाड़ियों को ‘स्त्रियों वाले’ खेल में भाग लेने की अनुमति मिली। ये खेल थे- टेनिस, घुड़सवारी, नौकायन, क्राॅकेट और गोल्फ। ओलंपिक स्काॅलर रीता अमरल नून्स अपनी एक रिसर्च पेपर में बताती है कि 20 शताब्दी के प्रारम्भ में कुछ कुलीन महिलाओं ने घर और परिवार से समय निकालकर कुछ ‘शिष्ट’ और महिला माफिक खेलों को चुना। ज्यादा शारीरिक श्रम वाले खेल जैसे हाॅकी, क्रिकेट, तैराकी और एथलेटिक्स उनके लिये सामाजिक रूप से स्वीकार नहीं थे। टीम आधारित ज्यादातर खेल पुरूषों के लिये थे, जबकि महिलायें व्यक्तिगत खेलों को ही भाग ले पाती थीं। महिलाओं की इन खेलों में स्वीकार्यता दो विश्वयुद्धों के बाद बढ़ी, जब महिलाएं घर चलाने के लिये बाहर े निकलने लगीं। और फैक्ट्री, कार्यालयों और कार्यशालाओं में कामकाज करने के लिये उन्हें अपनी वेशभूषा में बदलाव लाना पड़ा। उन्होंने कोर्सेट पहनना बंद कर दिया, ताकि वे छोटी स्कर्ट पहन सकें और बाल भी छोटे रखने लगी। इसके बाद से वे जिमनास्टिक और तैराकी जैसी प्रतियेागिताओं में आराम से भाग ले पायीं।

कुछ कुलीन महिलाओं ने घर और परिवार से समय निकालकर कुछ ‘शिष्ट’ और महिला माफिक खेलों को चुना। ज्यादा शारीरिक श्रम वाले खेल जैसे हाॅकी, क्रिकेट, तैराकी और एथलेटिक्स उनके लिये सामाजिक 

रूप से स्वीकार नहीं थे।

1976 तक आते आते महिलाएं इन खेलों में भाग तो ले रही थी पर उनकी भागीदारी 20 फीसदी से नीचे ही रही। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति पिछले तीन दशकों से खेलों में लैंगिक समानता के लिये प्रयासरत है। इसके लिये काफी सारे प्रावधान किये गये। साथ ही साथ अपनी समितियों में भी महिला भागीदारी को लेकर सतर्क हुआ। 1996 में अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने अपना ओलंपिक चार्टर अपडेट किया, जिसमें सभी खेलों और सभी स्तरों में महिलाओं के प्रवेश और साथ ही साथ अपनी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों तरह की संस्थाओं में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देना शामिल किया गया। इसी वर्ष अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने खेलों में महिलाओं पर पहली विश्व कांफ्रंेस आयोजित की। इसमें यह निश्चित किया गया कि 2000 तक निर्णय लेने वाली जगहों में कम से कम 10 फीसदी महिलायें हों और यह संख्या 2005 तक 20 फीसदी हो जानी चाहिये।

इन सब प्रावधानों के बावजूद भी इन खेलों में महिलाओं को समय समय पर भेदभाव और असमानता का सामना करना पड़ा। 2012 में अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने महिला मुक्केबाजी को शामिल करने के बाद इस बात पर बहस हो गयी कि पुरूष मुक्केबाज खिलाड़ियों से महिला खिलाड़ियों को अलग दिखने के लिये स्कर्ट पहननी चाहिये क्योंकि खेलते समय सभी मुक्केबाज हेडगियर पहने रहते हैं। इससे स्त्री और पुरूष खिलाड़ियों में अंतर किया जा सकेगा। महिलाओं के खेलों को समय का आवंटन में भी भेदभाव देखा जाता रहा। महिलाओं के मुकाबले चाहे वे फाइनल ही क्यों न हो, दोपहर में रखे जाते जबकि शाम के मुख्य समय स्लाॅट पुरूषों के मुकाबलों से भरे रहते। साथ ही यह भी देखा गया कि लैंगिक समानता के लिये मिक्स जेंडर टीम बनाये जाने का प्रावधान बनाया गया। लेकिन इन मामलों में भी अक्सर पुरूषों को फेवर मिल जाता है। उदाहरण के लिये स्कीट शूटिंग प्रतियोगिता 1992 तक एक ओपन स्पोर्ट था। चीनी खिलाड़ी हान सान ने इसमें स्वर्णपदक जीत लिया था। इसके बाद से स्कीट शूटिंग को जेंडर के हिसाब से अलग अलग कर दिया गया।

महिलाओं के खेलों को समय का आवंटन में भी भेदभाव देखा जाता रहा। महिलाओं के मुकाबले चाहे वे फाइनल ही क्यों न हो, दोपहर में रखे जाते जबकि शाम के मुख्य समय स्लाॅट पुरूषों के मुकाबलों से भरे रहते। 

अगर अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति में महिलाओं की भागीदारी की बात करें, तो यह काफी संतोषजनक कहा जा सकता है। 2012 में अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति में 134 मानद सदस्यों सहित 134 सदस्य थे जिनमें 24 महिला सदस्य थीं। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के 141वें सेशन की मीटिंग मुंबई में अक्टूर, 2023 में आयोजि हुई। यहां समिति के आठ सदस्यों का चुनाव किया गया। इसके बाद अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति में महिला मेंबर की संख्या का प्रतिशत 41.1 तक पहुंच गया है। इन कई उपलब्धियों के बावजूद, अभी भी लैंगिक भेदभाव है। भले ही 2012 का ओलंपिक ऐसा पहला ओलंपिक था जिसमें लगभग हर देश ने कम से कम एक महिला खिलाड़ी को भेजा था, फिर भी कई मुस्लिम देश अभी भी महिला एथलीटों को इन खेलों में भाग लेने से रोका जाता है। यह जरूर है कि इस पेरिस ओलंपिक में आधी आबादी  को अपना हक मिलता हुआ दिखा है, पर यह कुछ देशों में महिलाओं को प्रोत्साहन मिलने के परिणामस्वरूप दिख रहा है। पर सच्चाई यही है कि अभी काफी सफर बाकी है। 

मंगलवार, 30 जुलाई 2024

सत्संगों में महिलाओं को मिलता क्या हैं!

 

दो जुलाई को हाथरस के सिकंदरा राव के अंतगर्त फुलराई गांव में भोले बाबा के सत्संग में मची भगदड़ जो हुआ, उससे जन-सामान्य काफी नाराज है। आधिकारिक आंकड़े तो बता रहे है कि कुल 121 लोगों की मौत हुई, जिनमें से 112 महिलाएं थीं। और वो ज्यादातर बुजुर्ग महिलाएं। इन मरने वालों में सात बच्चे और दो पुरूष भी शामिल हैं। इस भगदड़ में मरने वालों में 112 महिलाओं की संख्या जन-साधारण में चिंता और चर्चा का विषय बन गई है। अगर सोशल मीडिया को समाज का आईना माने, तो दो जुलाई से अब तक इस सत्संग में भगदड़ की चर्चा हो रही है। कहा जा रहा है कि ऐसी जगहों में सबसे ज्यादा महिलाएं ही जाती है। धार्मिक क्रिया-कलापों में महिलाओं की दिलचस्पी होने और खाली समय होने के कारण भी ऐसी जगहों में महिलाएं और उनके साथ में बच्चे एकट्ठा हो जाते हैं। महिलाएं ही सबसे ज्यादा बाबाओं धार्मिक गुरूओं की भक्त होती हैं। अंधविश्वासी है महिलाएं, तभी इतनी बड़ी संख्या में ऐसी जगहों पर बिना सोचे-समझे पहुंचती हैं। भावनात्मक रूप से कमजोर महिलाएं इन बाबाओं के झांसे में आ जाती हैं। इन महिलाओं को घर में बैठकर पूजा-पाठ नहीं किया जाता, हर जगह भीड़ बढ़ाती हैं।

किसी भी धर्म में धार्मिक होना अच्छी दृष्टि से देखा जाता है। व्रत-उपवास, पूजापाठ, धार्मिक कर्मकांड करने वाली स्त्री हर घर में मान्य होती है। कई घरों में ऐसी महिलाओं के उदाहरण देकर अन्य महिलाओं को प्रेरित भी किया जाता है।

ऐसी टिप्पणियों को पढ़ने के बाद लगने लगा कि कहीं न कहीं वास्तव में ऐसे धार्मिक आयोजनों में होने वाली महिलाओं की भीड़ तो जिम्मेदार नहीं है। अगर गहराई से सोचा जाए तो ऐसी टिप्पणियां जो ज्यादातर पुरूषों की ओर से आई थीं, स्त्री विरोधी ही लगीं। अत्यधिक धार्मिक होना, अंधविश्वासी होना, बाबाओं के झांसे में आ जाना, भावनात्मक रूप से कमजोर, घर में खाली होना आदि आरोप सही हैं, पर वे ऐसी क्योंकर हैं, या वे ऐसी बनाई गई हैं, इस पर चर्चा कौन करेगा। किसी भी धर्म में धार्मिक होना अच्छी दृष्टि से देखा जाता है। व्रत-उपवास, पूजापाठ, धार्मिक कर्मकांड करने वाली स्त्री हर घर में मान्य होती है। कई घरों में ऐसी महिलाओं के उदाहरण देकर अन्य महिलाओं को प्रेरित भी किया जाता है। यहां तक तो सभी को ठीक लगता है कि घर की महिलाएं हमारी धार्मिक परंपराओं की रक्षा कर रही हैं, लेकिन जब यह धार्मिक प्रवृत्तियां धीरे-धीरे अंधविश्वास में बदल जाएं, तब उन्हें सही गलत कौन बताने आयेगा। आलोचना करने से तो यह समस्या नहीं हल होने वाली कि महिलाएं ऐसे सत्संगों में क्यों जाती हैं।

सत्संगों में क्यों जाती हैं महिलाएं

महिलाओं के पास खाली समय होता है। हां, होता है। जैसे वे धार्मिक कर्मकांड़ों के लिये समय निकालती हैं, वैसे वे ऐसी जगह जाने के लिये भी समय निकालती हैं। वजह है घर की बोरियत से कुछ समय के लिये ही सही, छुटकारा मिल सके। घर से कुछ दूर होने वाले मेला, हाट बाजार, धार्मिक आयोजनों में महिलाएं बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती देखी जाती हैं। समाज में यह परंपरा भी है कि पचास-साठ की उम्र की महिलाओं को पूजा-पाठ में अधिक समय व्यतीत करना चाहिये। पुरूषों पर भी यह नियम लागू होता है, पर वे आय कमाने में लगे होते हैं, इस कारण समय का अभाव होता है। पर महिलाओं के पास ऐसा समय निकल आता है। ये भी एक तथ्य है कि ऐसी जगहों पर जाने के लिये घर के मुखिया की तरफ कोई खास रोक-टोक भी नहीं लगाई जाती है। आस-पड़ोस की महिलाएं मिलकर एक ग्रुप बनाकर स्वमेव ऐसे आयोजनों पर चली जाती हैं।

घर से कुछ दूर होने वाले मेला, हाट बाजार, धार्मिक आयोजनों में महिलाएं बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती देखी जाती हैं। समाज में यह परंपरा भी है कि पचास-साठ की उम्र की महिलाओं को पूजा-पाठ में अधिक समय व्यतीत करना चाहिये।

आज भी हमारे समाज में ऐसी संस्कृति विकसित नहीं हुई है कि महिलाएं स्वयं के लिये समय निकालकर सैर-सपाटे के लिये निकल सकें। रिश्तेदारी के अलावे घर के आसपास या दूसरे गांव-शहर में होने वाले धार्मिक आयोजनों में जाना उनके लिये अधिक आसान होता है। आज भी गांव और कस्बे की महिलाओं के लिये सोलो ट्रैवेलिंग सपना ही हैं। मध्यम क्लास की इन महिलाओं में देश-दुनिया देखने के अवसरों की भारी कमी होती है। खुद को एक्सप्रेस करने के लिये ऐसे स्थानों पर जाती है, यहां होने वाले प्रवचनों से उन्हें थोड़े समय के लिये मानसिक शांति का अनुभव होता है। और इसीलिये ऐसी जगहों के लिये उनका विश्वास बढ़ जाता है। वे पुनः पूरे उत्साह के साथ ऐसे सत्संगों में जाने के लिये सजधज कर तैयार हो जाती हैं।

ऐसे धार्मिक आयोजनों में होने वाला कीर्तन, नृत्य जैसी गतिविधियों में महिलाएं खुद को अभिव्यक्ति करने का अवसर तलाशती हैं। बगैर किसी लोकलाज के डर के खुद को अभिव्यक्त करती हुईं देखी जा सकती हैं। ऐसे बाबाओं के साथ व्यक्तिगत बातचीत में कई तरह की सांत्वना पाती हैं, भेदभाव रहित प्रेम देखती हैं, अपनी समस्या सुनाने के लिये यहां कोई मिल जाता है, जो उनके घरों में कभी नहीं मिल पाता हैं और अगर संयोग से उनके जीवन में कुछ अच्छा हो जाता है, तो वे इसे इन बाबाओं का आशीर्वाद समझती हैंै। इसलिये यह समझना कहीं से मुश्किल नहीं है कि यहां आकर महिलाओं को क्या मिलता है। वे बेवजह यहां नहीं आती हैं, यहां उनका अपना ‘स्पेस’ होता है।

मध्यम क्लास की इन महिलाओं में देश-दुनिया देखने के अवसरों की भारी कमी होती है। खुद को एक्सप्रेस करने के लिये ऐसे स्थानों पर जाती है, यहां होने वाले प्रवचनों से उन्हें थोड़े समय के लिये मानसिक शांति का अनुभव होता है।

भगदड़ में क्यों मरती हैं महिलाएं

वैसे तो हमारे यहां किसी तरह के पुख्ता आंकड़े नहीं हैं, जो कह सके कि ऐसी भगदड़ों में कितनी महिलाएं, बुजुर्ग या बच्चे जान से हाथ धोते हैं। लेकिन हर बार होने वाली ऐसी भगदड़ों की मीडिया रिपोर्ट से यहीं छनकर आता है कि महिलाएं सबसे पहले हताहत होती हैं। ऐसा होने का सबसे बड़ा कारण है कि शारीरिक रूप से खुद को दमखम के साथ आगे नहीं बढ़ा पाना। दूसरा कारण होता है उनकी वेशभूषा। साड़ी जैसा परिधान दौड़ने और कूदने में उन्हें अक्षम बना देता है। चूंकि महिलाएं घर से बाहर कम निकलती हैं, इसलिये संकट का सामना करने के अवसर उनके पास कम होते हैं। जाहिर है किसी संकट की घड़ी में उनके अंदर घबराहट अधिक होती है। और घबराहट में किसी भी संकट का सामना नहीं किया जा सकता है। परिणामस्वरूप वे अपने उपर नियंत्रण खो देती हैं।

महिलाएं घर से बाहर कम निकलती हैं, इसलिये संकट का सामना करने के अवसर उनके पास कम होते हैं। जाहिर है किसी संकट की घड़ी में उनके अंदर घबराहट अधिक होती है। और घबराहट में किसी भी संकट का सामना नहीं किया जा सकता है।

समाज महिलाओं की स्थिति दूसरे दर्जे की है। हर क्षेत्र के आंकड़े यही कहते हैं। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक असुरक्षाओं से ग्रसित महिला किसी
आसाराम, रामपाल, रामरहीम, जया किशोरी, अनिरूद्धाचार्य के यहां ही आश्रय तलाशते चले जाने की संभावना अधिक ही होती है। तो इसके कारणों को तलाशकर उनका उपाय करने की जरूरत है ना कि उनकी कमियों और कमजोरियों को दर्शाने की।

शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

हर स्त्री का रोजनामचा

कुछ पुस्तकें खुद को पढ़ाने की काबिलियत रखती हैं। ऐसी ही एक पतली सी पुस्तक पिछले दिनों हाथ में आयी। आदतन मजमून समझने के उद्देश्य से पेज पलटते-पलटते वह कब पढ़ते हुये समाप्त हो गयी, समाप्त होने के साथ समझ आया कि अच्छी पुस्तकें स्वयं को पढ़ाने की काबिलियत रखती हैं। यह खूबसूरत किताब है- रोजनामचा, एक कवि-पत्नी का।

किताब किसी रहस्य या रोमांच से भरी हुयी नहीं थी, इसमें चिलचस्पी की वजह बनती है इसकी सीधी और साधारण तरीके से दर्ज की गई जिंदगी की बातें। वैसी ही बातें जैसी हम अपने पड़ोसियों या जान-परिचय के साथ पांच या दस मिनट खड़े होकर कर लेते हैं और मन हल्का होने के साथ हम फिर अपनी जिंदगी में वापस आ जाते हैं। किताब रोजनामचा, एक कवि-पत्नी काऐसी ही रोजमर्रा की मन की बातें कहने वाली किताब हैं। इसमें
दिलचस्पी इस करण से भी बढ़ जाती हैं कि यह रोजनामचा एक ऐसी महिला ने दर्ज किया जो एक नामी लेखक
, कवि और साहित्यकार की पत्नी हैं। एक लेखक साहित्कार की पत्नियों के अपने जीवन में क्या संघर्ष होते हैं, यह जानने के लिये इस तरह की डायरीनुमा किताबों का अपना महत्व है। ऐसी रचनायें एक रचनात्मक व्यक्ति के सबसे करीब शख्स के माध्यम से आती हैं, तो उनकी विश्वनीयता अधिक स्थायी होती है और अनुभव अद्भुत है।

जानेमाने वरिष्ठ साहित्यकार रमाकांत शर्मा उद्भ्रांतकी पत्नी उषा शर्मा की यह डायरी है। जिसे उन्होंने अनियमित ही सही पर अपने अनुभवों को लिखा है। यह पुस्तक उषा शर्मा की मृत्यु के उपरांत उद्भ्रांत जी ने संपादित करके हम पाठकों के समझ प्रस्तुत किया है। डायरी में दर्ज घटनाएं बहुत लंबे समय तक की नहीं हैं। 1977 से 1983 तक ही उषा शर्मा लगातार लिख सकीं। आखिर उनकी अपनी व्यस्तताएं थीं, दूसरी बात किताब के संपादक जिन्होंने अपने प्राक्कथन में लिखा है कि उनके कहने पर ही वे लिखने को तैयार हुई थीं। इसलिये शायद समय के दबाव और संघर्ष के कारण वे इस तरह के काम को महत्व नहीं दे पायी होंगी। 18 मार्च 1983 को वे लिखती भी हैं- डायरी आज तो लिख रही हूं देखो कितने दिन लिख पाती हूं। रिंकी के इम्तहान भी होने वाले हैं। उसका टीवी में भी प्रोग्राम है। इच्छा तो हो रही है कि उसको भेज दूं। देखो क्या होता है।

इस रोजनामचा में लेखिका उषा शर्मा ने 30-40 शब्दों से लेकर लगभग एक हजार शब्दों में अपने मन-भावों को व्यक्त किया है। यह कोई घुमा-फिराकर लिखी गई साहित्यिक रचना नहीं हैं। एक पत्नी अपने घरेलू फ्रंट पर क्या संघर्ष करती है बस इसे साफ-साफ लिखा गया है। एक दंपति के बीच का प्यार और टकराहट, उनका मान और मनौव्वल, बच्चों का लालन-पालन, एक संयुक्त परिवार के आपसी टकराहटें, पति से उसकी अपेक्षायें, इन सबके बीच होने वाला सिर दर्द भी, सब कुछ बड़ी ही साफगोई से दर्ज कर दिया है लेखिका ने। 20 जुलाई, 1982 को वे लिखती हैं- काफी दिनों बाद आज लिखने बैठी हूं। बच्चे इतना तंग करते हैं। घर में किसी न किसी बात को लेकर झगड़ा हो जाता है। क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता है।

कई साहित्कार पत्नियों ने अपने साहित्कार पतियों के बारे में लिखा है। जिन्हें पढ़कर साहित्कारों के निजी जीवन की काफी जानकारियां मिलती है। लेकिन एक गैर साहित्कार पत्नी जब अपने साहित्कार पति और अपने निजी जीवन के बारे में साफगोई से लिखती है, तब एक समाज की सामाजिक और सांस्कृतिक बुनावट उद्घाटित होती है। एक गैर साहित्यिक पत्नी कैसे अपने पति से कम्युनिकेट करें यह भी समस्या होती है। इसी समस्या के बारे में लेखिका ने 12 जनवरी 1980 को भारी मन से लिखा है- समझ में नहीं आता कि किस तरह ये समझ पैदा करूं। राजू थोड़ी बातें करा करें, तो शायद आ जाए, लेकिन राजू चाहते हैं कि हम किताबें पढ़ के समझ पैदा करें।लेखिका की इतनी संक्षिप्त डायरी में ही हमारे समाज की स्त्रियों के जीवन के इतने पहलू समाहित हैं कि किताब में हर स्त्री को अपना जिया जीवन दिख जायेगा। ऐसा लगता है कि लेखिका यदि अपना यह लेखन जारी रख पाती तो हम उनके लेखक पति और स्वयं उनके लेखन की उत्कृटता के दूसरे पहलू जरूर देख पाते।

 

(समीक्षा युगवार्ता पत्रिका के जुलाई अंक में छपी है)

गुरुवार, 30 मई 2024

जब मुझ पर पत्रकार बनने का भूत सवार हुआ और हुआ मेरा पहला साक्षात्कार

 

(आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है। 30 मई, 1826 को जुगल किशोर शुक्ल ने ‘उदन्त मार्तण्ड’ नाम से हिंदी साप्ताहिक का प्रकाशन कलकत्ता से शुरू किया था। जुगल किशोर शुक्ल कानपुर के निवासी थे, यह हम सब कानपुर वासियों के लिये गर्व की बात है कि उनके प्रयासों से हिंदी का पहला पत्र प्रकाशित हुआ। आज हिंदी पत्रकारिता के 198 वर्ष हो चुके हैं। किसी घ
टना के लगभग दो सौ वर्ष पूरे होना अपने आप में एक बड़ी बात होती है। इसी परिप्रेक्ष्य में यह सोचने की बात है कि इन लगभग 200 वर्षों की हिंदी पत्रकारिता में हम कहां तक पहुंचे हैं। आज हिंदी पत्रकारिता की जो दशा और दिशा है, वह चिंता का विषय है।)



मुझ पर पत्रकार बनने का भूत सवार हुआ। सभी ने मुझे बहुत समझाया-‘पत्रकारिता में क्या रखा है, भूखे मरने की नौबत आ जाएगी।’ लेकिन मैंने पूरे जोश से पैरोकारी की। समाज सेवा की दुहाई दी। बड़े से बड़े पत्रकारों के नाम लिए, लेकिन सब बेकार। आखिर मैंने भी मूढ़ लोगों की बात न मानते हुए बगावत का बिगुल बजा दिया और झटपट पत्रकारिता के क्षेत्र में टांग अड़ा दी। 

पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद ‘जंगे मैदान’ में आ डटी। मैंने अपनी कलम चारों दिशाओं में भांजी और कहा- अब समाज के दुश्मनों की छुट्टी हो जाएगी।  और पूरे जोश के साथ पत्रकारिता के मंदिरों (समाचार पत्र के दफ्तरों) में माथा टेकने लगी। प्रसाद और आशीर्वाद की उम्मीद लिए मुझे कहीं-कहीं दर्शन मिलना भी मुश्किल हो गया।

परेशान होकर मैंने अपने कुछ पत्रकार मित्रों (जो अब तक पत्रकार रूपी जीव बन गए थे) से सम्पर्क साधा, पूछा- बंधुवर! ये बताइए कि मुझे कब इन समाचारायल रूपी मंदिरों में प्रवेश मिलेगा?

मेरी बात सुनकर वे थोड़ा मुस्कराएं, फिर सगर्व बोले- तुम्हारी कोई जान पहचान है?

इस प्रश्न पर मुझे आश्चर्य कम गुस्सा अधिक आ रहा था क्योंकि मेरी सात पुश्तों में किसी ने पत्रकारिता का नाम तक नहीं सुना था और अमा ये परिचय की बात कर रहे हैं। अतः मैंने ‘न’ में सिर हिलाया।

इस सिर हिलाऊ उत्तर पर उसने भी फिल्मी डाक्टर की तरह आजू-बाजू सिर हिलाकर कहा-‘तब तो तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता’। और मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह खून का घूट पी कर रह गयी।

खैर, इस घटना के बाद मैं बिल्कुल निराश नहीं हुयी। और एक राजनीतिक पार्टी की भांति मैंने तुरंत दावा किया कि इस बार मेरी ही सरकार बनेगी। और पूरे जोशोखरोश के साथ अपने अभियान में लग गयी। आखिर एक दिन मोनालिसा की मुस्कान मेरे चेहरे पर आ गयी क्योंकि काफी जद्दोजहद के बाद मुझे एक मंदिर में दर्शन के लिए बुला लिया गया। मंै पूरे साजो-सामान के साथ सम्पादक महोदय के सामने उपस्थित हुई और तुरंत ही अपनी सरकार बनाने का दावा पेश किया।

मैंने कहा, ‘श्रीमन् मैं लिखती हूं, जो थोड़ा बहुत यहां-वहां छपता रहता है’ यह कहते हुए मैंने अपने कार्य कौशल की थाथी उनके मेज पर खिसका दी।

लेकिन यह क्या?

उन्होंने किसी ‘अछूत कन्या’ की तरह मेरी फाइल को हाथ तक नहीं लगाया और सीधे सवाल दाग दिया- ‘आपने अभी तक क्या सीखा है?’

मैं भी कहां चुप रहने वाली, एक भाट की तरह अपने सारे छोटे-बड़े गुणों का बखान कर डाला।

लेकिन यह क्या? आफताब शिवदसानी की तरह उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं आए।

उन्होंने मुझसे दूसरा सवाल किया, ‘आप किस बीट पर काम करना चाहेंगी।’

मैंने तुरंत ही कहा- समाजिक एवं सांस्कृतिक।

‘तब तो आप ऐश-अभिषेक की न्यूज ला सकती है’ उन्होंने पूछा।

मैंने कहा, श्रीमन! यह तो किसी के निजी जीवन में दखलंदाजी है।

उन्होंने तीसरा प्रश्न किया, ‘आप कोई स्टिंग-विस्टिंग कर सकती हैं।’

मैंने कहा, नहीं! श्रीमन, यह झूठ और फरेब पर आधारित है, सच्ची पत्रकारिता के विरुद्ध है।

‘आप शिल्पा-गेरे जैसे प्रकरण की फोटो ला सकती है।’ उन्होंने चौथा प्रश्न किया।

मैंने कहा, श्रीमन! ‘यह कैसे हो सकता है? यह तो आप के पालिसी के विरुद्ध है।’

इस पर वे आंखे निकालते हुए बोले, अब तुम हमें हमारी पाॅलिसीज के बारे में बताओगी। महोदया! आप में पत्रकार वाले एक भी गुण नहीं है। जाइए, पहले कुछ सीखिए, फिर आइए।

और एक हारे हुए जुआरी की तरह मैं पत्रकारालय रूपी दफ्तर से निकल आयी। बाहर आने के बाद मैंने अपनी हार का ठीकरा अपने पत्रकारिता इंस्टीट्यूट के पर फोड़ दिया। जहां हमें गलत तरीके की शिक्षा दी गयी थी। अतः अब मैंने मीडिया दफ्तरों के चक्कर लगाने बंद कर दिए हैं। मैं अब ऐसे इंस्टीट्यूट की तलाश में हूं, जहां मुझे ‘सच्चा’ पत्रकार बनने के वास्तविक गुणों की शिक्षा दी जाए।

( उपर्युक्त व्यंग्यात्मक लेख की आज अनायास याद आ गई। यह लेख पत्रकारिता के संघर्ष के दौरान लिखा गया था। उन दिनों यह किसी बेवसाइट पर छपा भी था। इस में लिखी बातों को मेरी कथा व्यथा भी मान लिया गया था। इस बात पर मैं आज भी मुस्कुरा देती हूूं। वास्तव में यह मेरी तरह पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश करने वालों की व्यथा कथा आज भी बनी हुई है। )


मंगलवार, 14 मई 2024

आम को खास बनाते हमारे नेता

 


रोटियां सेंकती
, फसल काटती, बोरा ढोते, चाय बनाते हमारे नेत्रियां-नेता आम जनों के बीच अपनी उम्मीदवारी पक्की करते नजर आ रहे हैं। अब वे इसमें कितना सफल होंगे ये तो आने वाला वक्त ही बता सकता है। इन सबके बीच आमजन खुद को खास समझने लगा है।
 

पूरा देश चुनावी मोड में है। गली-नुक्कड़ों में चुनावी चर्चा सुनी और सुनाई जा रही है। नेताओं (इसमें महिला नेत्री भी शामिल हैं) की सक्रीयता देखने योग्य है। इस 35 से 40 डिग्री सेल्सियस तापमान में नेताओं का खाना-पीना, नींद और दोपहरिया वाला आराम सब हराम हो चला है। नेताजन अपने क्षेत्रों में सभी मतदाताओं से व्यक्तिगततौर पर मिल लेना चाह रहे हैं। दरवाजों पर दस्तक दे रहे हैं। प्रणाम कर रहे हैं। गुजारिश कर रहे हैं। किये गये कामों का हवाला दे रहे हैं। नये उम्मीदवार अपनी दावेदारी जतला रहे हैं। कुल मिलाकर कर वे सभी तरह के जतन कर रहे हैं, जिनके एवज में वे अपने वोटरों से वोट निकलवा सकें।

इन सबके बीच आम चुनावों की एक विशेषता और भी है, वह है आमजन के बीच आम आदमी बनकर दिखाना।इस दिखानेके दिखावे के बीच कई बार अजीब स्थितियां भी बन जाती हैं। आखिर आम आदमी बनना हर किसी के वश की बात तो है नहीं। आम लोगों से जनसंपर्क के बीच नेताजन अपने कार्यकलापों से जो दिखाते हैं, उससे जनता के बीच एक अच्छा संदेश जाता है। इसके लिये पीआर एजेंसियों तक का सहारा लेना पड़ता है। क्योंकि सोशल मीडिया के दौर में इमेंज बिल्डिंग इतनी आसान चीज नहीं रह गई है। आपकी हर छोटी-बड़ी गतिविधि कैमरे की निगाहों में आ जा रही है। इन सबके बीच उम्मीदवारों के उपर जो सबसे अधिक दबाव की बात होती है वह है आम लोगों की तरह दिखना और आम लोगों को सहज महसूस कराना। आम लोगों के बीच से आया हुआ दिखाने के लिए कुछ प्रतीकात्मक तस्वीरों को बनाया और बिगाड़ा जाता है। आम लोगों के बीच से आया हुआ बताने का दबाव नेताओं पर सर्वाधिक होता है।


गांव-गांव गली-गली आम लोगों से संपर्क में महिला उम्मीदवार जब आम महिलाओं को गले लगा
, बड़ी-बूढ़ी महिलाओं को प्रणाम करके, उनके बच्चों को गोद में उठाकर पुच्चकारती हैं, तो उसकी तस्वीरें जनमानस में अच्छे से बैठती हैं। सबसे अच्छी बात कि इस दौरान देश में महिलाओं के लिये मान्य वेशभूषा साड़ी का बहुतायत में प्रयोग करती हैं। साड़ी भारतीय महिला नेत्रियों के लिये वैसा ही परिधान बन गया है जैसा पुरुष नेताओं के लिये कुर्ता-पैजामा। खासकर महिला नेत्री से यह सामाजिक उम्मीद आज भी है कि वे देश संभालने वाले काम भी करें, पर दूसरी तरफ वे घर संभालने में भी पूरी तरह दक्ष हों। इसी दबाव से महिलानेत्री गुजरती भी हैं, इस इमेज को बनाने के लिए काम भी करती हैं। आखिर अच्छा घर संभालने वाली ही अच्छा देश संभालने वाली नेता हो सकती है। इसीलिये चुनाव के दौरान कुछ चारित्रिक लांछन लगाने वाले आरोप भी उछाले जाते हैं। देश भर में अपने-अपने लोकसभा की खाक छानते नेताजन ऐसी तस्वीरों को जनमानस में बैठाना चाहते हैं।

एक समय जब रायबरेली में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सिर पर पल्लू लेकर जनसभाओं को संबोधित करती थी, तो आम महिलाओं में यह चर्चा का विषय होता था। दरअसल इंदिरा गांधी रायबरेली को अपना ससुराल मानती थीं। कहते हैं कि 1967 से 1984 तक जनपद आगमन पर उनके सिर से पल्लू कभी नहीं हटा। आज भी उस दौर के लोग इस बात पर चर्चा करते हैं। जब उनकी विदेश से आई बहू सोनिया गांधी ने इसी इमेज को फाॅलो किया तो इसके पीछे देश की बहू के सिर पर पल्लू होना चाहिये वाली ठसक काम कर रही थी। कमाल की बात है कि जब उनकी नातिन प्रियंका गांधी वाड्रा ने साड़ी पहन कर अपनी मां सोनिया गांधी के लिये वोट मांगने आयीं, तो मीडिया में उनकी चर्चा दादी इंदिरा की तरह साड़ी पहनने की ज्यादा होती थी। और इसी बात का प्रभाव आज भी आम जनपद निवासियों पर है।

 

हाल ही मथुरा से भाजपा उम्मीदवार फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी की फसल काटती तस्वीरें जब सोशल मीडिया पर वायरल हुईं लोगों की प्रतिक्रिया गौर करने लायक थी। चूंकि एक सेलेब्रिटी होने के कारण भी लोगों की निगाहें और खासतौर पर मीडिया की निगाहें ऐसी चीजों पर जरूर रहती हैं, तो परिणामस्वरूप बात दूर तक जाती नजर आई। इसी वाद-विवाद का फायदा उठाकर इसी सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार मुकेश दंगर ने कहा भी कि मैं इस ब्रजभूमि की मिट्टी का बेटा हूं और हेमा जी प्रवासी हैं... मैं ब्रजवासी हूं। यानी यहां दोनों उम्मीदवार खुद को जनता के बीच का बता रहे हैं।

इसी तरह 14 अप्रैल को एक दस-बारह सेकेंड का वीडिया कांग्रेस बीजेपी में शामिल हुये नवीन जिंदल का वायरल हुआ जिसमें वे अनाज से भरे बोरे उठाकर लोड कर रहे हैं। जिंदल स्टील एंड पाॅवर लिमिटेड के चेयरमैन और 300 करोड़ से अधिक की संपत्ति के मालिक का यूं बोरा उठाकर लोड करना लोगों को अंचभित कर गया। नवीन जिंदल कुरूक्षेत्र, हरियाणा से भाजपा के उम्मीदवार हैं। इसी तरह गाजियाबाद से कांग्रेस की तेज-तर्रार उम्मीदवार डाॅली शर्मा कुछ महिलाओं के साथ मिट्टी के चूल्हें पर रोटियां सेंकेती नजर आईं। 11

अप्रैल को जारी अपने एक वीडियो में वे बता रही हैं कि जीतन के बाद सारा काम आवे है मुझे। यानी उनके कहने का अर्थ है कि राजनीति संबंधी कामकाज के साथ वे घरेलू कामों को भी उतनी ही दक्षता से करती हैं। यानी वे एक आम घरेलू महिला ही हैं।

चाय पर चर्चा’ भारतीय जनता पार्टी का सबसे लोकप्रिय प्रतीकात्मक कार्य है। इसलिए उनके बहुत से उम्मीदवार चाय बनाते, चाय परोसते, अदरख कूटते, चाय पीते आदि लोकप्रिय काम करते नजर आये हैं। गोरखपुर से सांसद लोकप्रिय अभिनेता रवि किसन हो, या मंडी, हिमाचल से उम्मीदवार अभिनेत्री कंगना रनावत हो या फिर गोड्डा, झारखंड से भाजपा सांसद निशिकांत दुबे हो, सभी चाय पर चर्चा करते हुये नजर आये। हम सभी जानते है कि चाय एक चलता-फिरता आम पेय है। चाय के बहाने बड़ी से बड़ी चर्चाएं हो जाती है। गली-नुक्कड़ों पर लगने वाले चाय की टपरी और वहां होने वाली राजनीतिक चर्चाओं को अहमियत देने वाला यह कलात्मक जरिया है। लोगों को यह खूब आकर्षित करता है। आम लोगों से जुड़ने का यह बखूबी तरीका भी है कि आम लोगों का पेय चायखास लोग भी पीते हैं।

अभी चुनाव के जितने चरण बाकी हैं, यह देखना बहुत ही दिलचस्प होगा कि हमारे नेता आमजन से जुड़ने के लिए क्या-क्या जतन करते हैं। इन सबके बीच आम लोग खुद को खास समझने का लुफ्त तो ले ही सकते हैं।

मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

क्या महिला आरक्षण में फेल हो गए हैं आप ?

 प्रतिभा कुशवाहा


आगामी लोक सभा चुनावों के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों में महिला उम्मीदवारी का जो आलम है उसे देखकर राजनीति में महिला प्रतिनिधित्व की कोई अच्छी उन्नत तस्वीर बनती नहीं दिख रही है। इसी सवाल से आज राजनीति में सक्रीय प्रत्येक महिला जूझ रही है।


लोकतंत्र का चुनावी उत्सव शुरू हो चुका है। खबर है कि लोकसभा चुनाव 2024 के पहले चरण की 102 सीटों के लिए विभिन्न पार्टियांे के 1624 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। और इन
डेढ़ हजार से उपर के प्रत्याशियों में महिला प्रत्याशियों की संख्या केवल 134 हैं यानी कुल 08 फीसदी। इससे बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ रहा है कि महिला प्रत्याशियों की इतनी कम संख्या के लिए कौन-कौन सी राजनीतिक पार्टियां जिम्मेदार हैं। कामोबेश कम या ज्यादा सभी का हाल एक जैसा ही है। चुनाव आयोग के जारी किये गये आंकड़ों से ये तो पता चल रहा है कि लोक सभा और राज्य विधानसभा में 33 फीसदी महिला आरक्षण बिल ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ पास होने के बावजूद हमारी राजनीतिक पार्टियांे को कोई जल्दी नहीं है कि अधिक से अधिक महिलाएं संसद तक पहुंचें। और समाज विकास में अपना बहुमूल्य हस्तक्षेप दर्ज करें।

सितंबर, 2023 में नारी शक्ति वंदन अधिनियम लाकर केंद्र की नरंेद्र मोदी सरकार ने महिलाओं की सार्वजनिक भागीदारी के लिए इतिहास रच दिया था। थोड़ी बहुत न-नुकुर के बाद कामोबेश सभी राजनीतिक दलों की मजबूरी बन गई थी इस बिल का समर्थन करने की। इस बिल के पास होते ही अभी तो नहीं भविष्य के लिए महिलाओं को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित कर दी गईं हैं। तब से 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए सार्वजनिक क्षेत्रों में काम कर रही महिलाओं ने जिस बात की उम्मीद लगा रखी थी उसका हाल किताबों में लिखी इबारत जैसा ही रहा। खासतौर पर राजनीति में अपना भविष्य देख रही महिलाओं ने तो ऐसा बिलकुल नहीं सोचा होगा। 27 साल की जद्दोजहेद के बाद महिला आरक्षण बिल पास होने के बाद महिलाओं को ऐसा लग रहा है कि यह कोरा आश्वासन ही बन गया। इस बिल के प्रति सबसे ज्यादा उत्साह भारतीय जनता पार्टी ने दिखाया था, उसी के प्रयासों का नतीजा था कि यह आरक्षण बिल पास हो सका। 

अगर इस लोकसभा चुनाव की बात करें तो भारतीय जनता पार्टी ने अब तक 419 प्रत्याशियों में 67 महिला उम्मीदवारों की सूची बनाई है। यह कुल प्रत्याशियों का 16 फीसदी है जोकि पिछली लोकसभा 2019 के मुकाबले ;12 फीसदीद्ध ज्यादा है। लेकिन महिला आरक्षण बिल 2023 में निर्धारित संख्या से कहीं अधिक दूर ही है। पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव 09 फीसदी ही महिला प्रत्याशियों का टिकट दिया था। यद्यपि यह सच है कि 17वीं लोकसभा में सबसे ज्यादा महिला सांसद 78 मिलीं थीं जिसमें सबसे बड़ा भाग भारतीय जनता पार्टी का था।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अब तक अपनी घोषित 237 उम्मीदवारों में 33 महिला उम्मीदवारों को चुना है, जोकि काफी कम है। कांग्रेस ने 2019 की लोकसभा चुनाव के लिए 262 सीटों के लिए 54 महिलाओं को टिकट दिये थे, जो लगभग 20 फीसदी था। इनमें से 11 फीसदी महिलाएं चुनाव जीत पायी थीं। इसी तरह तृणमूल कांग्रेस ने कुल सीटों में 38 फीसदी महिलाओं को टिकट दिये। जिनमें से 56 फीसदी महिलाएं चुनाव जीत गई थीं। इसी तरह इन चुनावों में बीजेडी ने 28 फीसदी महिला प्रत्याशियों को टिकट दिये थे जिनमें 83 फीसदी महिलाओं ने सीटें जीत लीं। यह गौर करने वाली बात है कि घोषित तौर पर 2019 में तृणमूल कांग्रेस और बीजेडी ने सबसे अधिक महिलाओं को टिकट दिये थे। इसी तरह बहुजन समाज पार्टी ने कुल प्रत्याशियों में 24 फीसदी महिलाओं को टिकट दिये थे। लेकिन अगर संख्या की बात की जाये तो भारतीय जनता पार्टी की महिला सांसद सबसे अधिक 40 थीं, जिसके परिणामस्वरूप मंत्रिपरिषद के गठन में इसका प्रभाव भी दिखा था। 

1957 से 2019 तक के लोकसभा चुनावों में महिला प्रत्याशियों की संख्या लगभग 1,513 फीसदी बढ़ चुकी है। 1957 में केवल 45 महिलाओं ने लोकसभा चुनाव लड़ा था, जबकि 2019 में यह बढ़कर 726 तक पहुंच गया। जबकि इसी दौरान पुरूष प्रत्याशियों की संख्या लगभग 397 फीसदी बढ़ गयी। 1957 लोकसभा चुनाव में 1,474 पुरूष प्रत्याशियों ने भाग लिया था, जबकि 2019 लोकसभा चुनावा में 7,322 पुरूष प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था। चुनाव आयोग के जारी इन आकड़ों की नजर से देखे तो इन चुनावों में भाग लेने वाले पुरूष प्रत्याशियों की संख्या पांच गुना बढ़ी, जबकि महिला प्रत्याशियों की संख्या 16 गुना बढ़ी। पर आंकड़ों की इस बाजीगरी के बावजूद यह सच है कि महिला प्रत्याशियों की संख्या किसी भी चुनावों में 1000 का आंकड़ा पार नहीं कर सकी है।

देश की जनसंख्या में महिलाओं की संख्या 48.5 फीसदी है। चुनाव आयोग के अनुसार इन चुनावों में महिला वोटरों की संख्या 47.1 करोड़ है। वहीं पुरूष वोटरों की संख्या 49.7 करोड़ है। साथ ही यह भी दिलचस्प है कि देश के 12 राज्यों में महिला वोटर पुरूष वोटरों से अधिक हैं। इसके बावजूद भी महिलाओं को टिकट दिये जाने पर आना-कानी की जाती है। देखा जाये तो राजनीतिक दलों को महिलाओं के वोट में अधिक दिलचस्पी रहती है पर उन्हें जनप्रतिनिधि के रूप में उचित प्रतिनिधित्व देने में कोई खास रुचि नहीं होती। इसलिए संसद तक महिलाओं की दौड़ बहुत ही चिंताजनक है। 2019 तक वैश्विक स्तर पर महिला सांसदों का औसत 24.3 फीसदी है। हमारे पड़ोसी बांग्लादेश की संसद में महिला प्रतिनिधित्व 21 फीसदी है। यहां तक रवाण्डा जैसे देश में यह प्रतिनिधित्व आधे से अधिक यानी 61 फीसदी है। विकसित देश यूके और अमेरिका में महिला सांसद क्रमशः 32 और 24 फीसदी है।

2014 के लोकसभा चुनावों में सर्वाधिक महिला सांसद चुनकर आई थीं, जिनकी संख्या 61 थीं। यह ‘सर्वाधिक संख्या’ का सच यह है कि कुल 543 लोकसभा सीटों में यह सिर्फ 11.23 फीसदी ही रहा। इसी तरह 2009 में संसद पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या 59 (10.87 फीसदी) थी। इससे समझा जा सकता है कि पहले के तमाम आमचुनावों में स्थिति कामोबेश कैसी रही होगी। सबसे कम महिला सांसद 1977 में 19 (3.51 फीसदी) थीं। यहीं पर सवाल उठते हैं कि क्या कारण है कि महिलाएं संसद तक नहीं पहुंच पा रही हैं। क्या राजनीति के लिए योग्य महिलाओं की कमी है? या फिर महिलाओं में राजनीतिक भागीदारी की इच्छा नहीं है? यदि उनकी इच्छा है तो वे कौन सी शक्तियां हैं, जो उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं। देश में महिलाओं के कम राजनीतिक प्रतिनिधित्व को देखते हुए ऐसे सवाल उठने स्वाभाविक भी है। अगर नारी शक्ति वंदन अधिनियम का समर्थन करके भी राजनीतिक दलों की कोई भी इच्छाशक्ति काम नहीं कर रही है, तो क्या यह मान लिया जाए बिल पारित करके भी महिला प्रतिनिधित्व के मामले में महिलाओं को ढाक के तीन पात ही नसीब होगा। और इसके लिए उन्हें एक लंबा इंतजार करना होगा।


सोमवार, 7 अगस्त 2023

धमाल मचाने वाली परदादी रामबाई

 


एक सौ छह साल वह उम्र होती है, जब कोई भगवान का भजन करता है या किसी का सहारा लेकर अपना बचा हुआ जीवन जीता है। पर ऐसे भी जीवट वाले लोग होते हैं, जो इन बनी-बनाई धारणाओं को तोड़ देते हैं। रामबाई एक ऐसा ही नाम हैं। जिन्होंने उम्र की सीमाओं को तोड़ते हुए एक मिसाल कायम कर दी है। जानते हैं उनकी इस सफलता के पीछे की कहानी को।

 

एक सौ छह साल की रामबाई तब समाचारों की सुर्खियां बटोरने लगीं, जब उन्होंने लाठी पकड़कर चलने की उम्र में फर्राटा दौड़ में एक नहीं, तीन स्वर्ण पदक जीत लिये। खासतौर से सोशल मीडिया में उन्हें इस उपलब्धि के लिए खूब सराहा गया। उनके गले में पड़े हुये मेडल और उनकी मासूम हंसी वाली फोटो देखकर नहीं कहा जा सकता कि वे हमेशा से किसी दौड़-भाग वाले खेल में हिस्सा लेना चाहती थीं, क्योंकि उनकी घरेलू जिंदगी ही दौड़-भाग वाली थी। जब जिंदगी के तीसरे पहर में उन्हें नाती-पोतो, परनाती से भरे घर में समय उनके साथ सुस्ताने लगा, तब भी उन्होंने ऐसे किसी कॉम्पिटिशन में भाग लेने और जीतने की नहीं सोची होगी, क्योंकि उनका अब तक का जीवन ही किसी ट्राफी से कम नहीं था। फिर भी उन्होंने अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में ऐसे किसी कॉम्पिटिशन में न केवल भाग लिया, बल्कि शानदार जीत भी हासिल की। ऐसा उन्होंने क्यों और कैसे कर लिया, यही जानने में आज हमारी, सबकी दिलचस्पी बनी हुई है।

जिंदगी की रेस को सफलता पूर्वक क्वालीफाई करने वाली हरियाणा की रामबाई ने उत्तराखंड में आयोजित हुई 18वीं युवरानी महेंद्र कुमारी राष्ट्रीय एथलेटिक्स चैंपियनशिप में बुजुर्ग खिलाड़ियों के ग्रुप खेल में भाग लिया। यहां 100 मीटर रेस में उन्होंने पहला स्थान प्राप्त करके गोल्ड मेडल प्राप्त किया। इसके साथ-साथ एक के बाद एक 200 मीटर दौड़, रिले दौड़ में गोल्ड मेडल जीत कर इतिहास बना दिया। यहां वे अकेली ही प्रतिस्पर्धाओं में भाग नहीं ले रही थीं, बल्कि उनकी बेटी और पोती भी दूसरी स्पर्धाओं में भाग ले रही थीं। अपनी तीन पीढ़ियों के साथ इन स्पर्धाओं में जीतकर उन्होंने इतिहास भी बनाया।

प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने की उनकी कहानी आज की सफलता से शुरू नहीं होती है। बल्कि अपनी पोती शर्मीला की प्रेरणा और पंजाब की 100 साल की एथलीट मानकौर से प्रेरणा लेकर उन्होंने भी मैदान में उतने की ठानी। पर यह सब आज जितना आसान नहीं था। चार लोग क्या कहेंगे, जैसी चीजें उनके दिमाग में भी थीं। पर इन सबसे पार पाने को ही साहस कहते हैं, जिसका नतीजा आज हम सब के सामने है। दो साल पहले ही जून 2022 उन्होंने अपनी 104 वर्ष की अवस्था में दौड़ प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया था। तब उन्होंने गुजरात के बडोदरा में नेशनल ओपन मास्टर्स एथलेटिक्स चैंपियनशिप में दोहरा स्वर्ण पदक जीता था। यहां उन्होंने 100 मीटर की दौड़ को केवल 45.50 सेकंड में पूरी करके मानकौर का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। आज भी यह उनके नाम का वर्ल्ड रिकॉर्ड है। पिछले दो सालों में रामबाई 14 अलग-अलग इवेंट में लगभग 200 मेडल जीत चुकी हैं। वे देश के बाहर भी जाकर दूसरी प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेती हैं।

हरियाणा के चरखी दादरी जिले के गांव कादमा की रहने वाली रामबाई ने अपना पूरा जीवन घर और खेत में काम करते हुये बिताया है। आज वे इस गांव की सबसे बुजुर्ग महिला हैं और उन्हें गांववाले प्यार से उड़नपरी परदादीकहकर बुलाते हैं। वे आज भी यहां गांव वाला साधारण जीवन व्यतीत करती हैं। गांव के संसाधनों पर ही वे अपना नियमित और संयमित जीवनचर्या जीतीं हैं। खुद को फिट रखने के लिए रोज सुबह जल्दी उठकर दौड़ लगाती हैं। दही, दूध, चूरमा और हरी सब्जियों से वे अपनी सेहत का ख्याल रखती हैं। खासतौर पर वे शुद्ध शाकाहारी हैं और अपनी सेहत को ठीक रखने के लिए वे दूध और दूध से बने व्यंजनों का भरपूर उपयोग करती हैं। उनके चेहरे का आत्मविश्वास बताता है कि वे आगे भी कई और पदक जीतने वाली हैं।

(पिछले दिनों 'युगवार्ता' पत्रिका में प्रकाशित)