शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

हर स्त्री का रोजनामचा

कुछ पुस्तकें खुद को पढ़ाने की काबिलियत रखती हैं। ऐसी ही एक पतली सी पुस्तक पिछले दिनों हाथ में आयी। आदतन मजमून समझने के उद्देश्य से पेज पलटते-पलटते वह कब पढ़ते हुये समाप्त हो गयी, समाप्त होने के साथ समझ आया कि अच्छी पुस्तकें स्वयं को पढ़ाने की काबिलियत रखती हैं। यह खूबसूरत किताब है- रोजनामचा, एक कवि-पत्नी का।

किताब किसी रहस्य या रोमांच से भरी हुयी नहीं थी, इसमें चिलचस्पी की वजह बनती है इसकी सीधी और साधारण तरीके से दर्ज की गई जिंदगी की बातें। वैसी ही बातें जैसी हम अपने पड़ोसियों या जान-परिचय के साथ पांच या दस मिनट खड़े होकर कर लेते हैं और मन हल्का होने के साथ हम फिर अपनी जिंदगी में वापस आ जाते हैं। किताब रोजनामचा, एक कवि-पत्नी काऐसी ही रोजमर्रा की मन की बातें कहने वाली किताब हैं। इसमें
दिलचस्पी इस करण से भी बढ़ जाती हैं कि यह रोजनामचा एक ऐसी महिला ने दर्ज किया जो एक नामी लेखक
, कवि और साहित्यकार की पत्नी हैं। एक लेखक साहित्कार की पत्नियों के अपने जीवन में क्या संघर्ष होते हैं, यह जानने के लिये इस तरह की डायरीनुमा किताबों का अपना महत्व है। ऐसी रचनायें एक रचनात्मक व्यक्ति के सबसे करीब शख्स के माध्यम से आती हैं, तो उनकी विश्वनीयता अधिक स्थायी होती है और अनुभव अद्भुत है।

जानेमाने वरिष्ठ साहित्यकार रमाकांत शर्मा उद्भ्रांतकी पत्नी उषा शर्मा की यह डायरी है। जिसे उन्होंने अनियमित ही सही पर अपने अनुभवों को लिखा है। यह पुस्तक उषा शर्मा की मृत्यु के उपरांत उद्भ्रांत जी ने संपादित करके हम पाठकों के समझ प्रस्तुत किया है। डायरी में दर्ज घटनाएं बहुत लंबे समय तक की नहीं हैं। 1977 से 1983 तक ही उषा शर्मा लगातार लिख सकीं। आखिर उनकी अपनी व्यस्तताएं थीं, दूसरी बात किताब के संपादक जिन्होंने अपने प्राक्कथन में लिखा है कि उनके कहने पर ही वे लिखने को तैयार हुई थीं। इसलिये शायद समय के दबाव और संघर्ष के कारण वे इस तरह के काम को महत्व नहीं दे पायी होंगी। 18 मार्च 1983 को वे लिखती भी हैं- डायरी आज तो लिख रही हूं देखो कितने दिन लिख पाती हूं। रिंकी के इम्तहान भी होने वाले हैं। उसका टीवी में भी प्रोग्राम है। इच्छा तो हो रही है कि उसको भेज दूं। देखो क्या होता है।

इस रोजनामचा में लेखिका उषा शर्मा ने 30-40 शब्दों से लेकर लगभग एक हजार शब्दों में अपने मन-भावों को व्यक्त किया है। यह कोई घुमा-फिराकर लिखी गई साहित्यिक रचना नहीं हैं। एक पत्नी अपने घरेलू फ्रंट पर क्या संघर्ष करती है बस इसे साफ-साफ लिखा गया है। एक दंपति के बीच का प्यार और टकराहट, उनका मान और मनौव्वल, बच्चों का लालन-पालन, एक संयुक्त परिवार के आपसी टकराहटें, पति से उसकी अपेक्षायें, इन सबके बीच होने वाला सिर दर्द भी, सब कुछ बड़ी ही साफगोई से दर्ज कर दिया है लेखिका ने। 20 जुलाई, 1982 को वे लिखती हैं- काफी दिनों बाद आज लिखने बैठी हूं। बच्चे इतना तंग करते हैं। घर में किसी न किसी बात को लेकर झगड़ा हो जाता है। क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता है।

कई साहित्कार पत्नियों ने अपने साहित्कार पतियों के बारे में लिखा है। जिन्हें पढ़कर साहित्कारों के निजी जीवन की काफी जानकारियां मिलती है। लेकिन एक गैर साहित्कार पत्नी जब अपने साहित्कार पति और अपने निजी जीवन के बारे में साफगोई से लिखती है, तब एक समाज की सामाजिक और सांस्कृतिक बुनावट उद्घाटित होती है। एक गैर साहित्यिक पत्नी कैसे अपने पति से कम्युनिकेट करें यह भी समस्या होती है। इसी समस्या के बारे में लेखिका ने 12 जनवरी 1980 को भारी मन से लिखा है- समझ में नहीं आता कि किस तरह ये समझ पैदा करूं। राजू थोड़ी बातें करा करें, तो शायद आ जाए, लेकिन राजू चाहते हैं कि हम किताबें पढ़ के समझ पैदा करें।लेखिका की इतनी संक्षिप्त डायरी में ही हमारे समाज की स्त्रियों के जीवन के इतने पहलू समाहित हैं कि किताब में हर स्त्री को अपना जिया जीवन दिख जायेगा। ऐसा लगता है कि लेखिका यदि अपना यह लेखन जारी रख पाती तो हम उनके लेखक पति और स्वयं उनके लेखन की उत्कृटता के दूसरे पहलू जरूर देख पाते।

 

(समीक्षा युगवार्ता पत्रिका के जुलाई अंक में छपी है)

गुरुवार, 30 मई 2024

जब मुझ पर पत्रकार बनने का भूत सवार हुआ और हुआ मेरा पहला साक्षात्कार

 

(आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है। 30 मई, 1826 को जुगल किशोर शुक्ल ने ‘उदन्त मार्तण्ड’ नाम से हिंदी साप्ताहिक का प्रकाशन कलकत्ता से शुरू किया था। जुगल किशोर शुक्ल कानपुर के निवासी थे, यह हम सब कानपुर वासियों के लिये गर्व की बात है कि उनके प्रयासों से हिंदी का पहला पत्र प्रकाशित हुआ। आज हिंदी पत्रकारिता के 198 वर्ष हो चुके हैं। किसी घ
टना के लगभग दो सौ वर्ष पूरे होना अपने आप में एक बड़ी बात होती है। इसी परिप्रेक्ष्य में यह सोचने की बात है कि इन लगभग 200 वर्षों की हिंदी पत्रकारिता में हम कहां तक पहुंचे हैं। आज हिंदी पत्रकारिता की जो दशा और दिशा है, वह चिंता का विषय है।)



मुझ पर पत्रकार बनने का भूत सवार हुआ। सभी ने मुझे बहुत समझाया-‘पत्रकारिता में क्या रखा है, भूखे मरने की नौबत आ जाएगी।’ लेकिन मैंने पूरे जोश से पैरोकारी की। समाज सेवा की दुहाई दी। बड़े से बड़े पत्रकारों के नाम लिए, लेकिन सब बेकार। आखिर मैंने भी मूढ़ लोगों की बात न मानते हुए बगावत का बिगुल बजा दिया और झटपट पत्रकारिता के क्षेत्र में टांग अड़ा दी। 

पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद ‘जंगे मैदान’ में आ डटी। मैंने अपनी कलम चारों दिशाओं में भांजी और कहा- अब समाज के दुश्मनों की छुट्टी हो जाएगी।  और पूरे जोश के साथ पत्रकारिता के मंदिरों (समाचार पत्र के दफ्तरों) में माथा टेकने लगी। प्रसाद और आशीर्वाद की उम्मीद लिए मुझे कहीं-कहीं दर्शन मिलना भी मुश्किल हो गया।

परेशान होकर मैंने अपने कुछ पत्रकार मित्रों (जो अब तक पत्रकार रूपी जीव बन गए थे) से सम्पर्क साधा, पूछा- बंधुवर! ये बताइए कि मुझे कब इन समाचारायल रूपी मंदिरों में प्रवेश मिलेगा?

मेरी बात सुनकर वे थोड़ा मुस्कराएं, फिर सगर्व बोले- तुम्हारी कोई जान पहचान है?

इस प्रश्न पर मुझे आश्चर्य कम गुस्सा अधिक आ रहा था क्योंकि मेरी सात पुश्तों में किसी ने पत्रकारिता का नाम तक नहीं सुना था और अमा ये परिचय की बात कर रहे हैं। अतः मैंने ‘न’ में सिर हिलाया।

इस सिर हिलाऊ उत्तर पर उसने भी फिल्मी डाक्टर की तरह आजू-बाजू सिर हिलाकर कहा-‘तब तो तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता’। और मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह खून का घूट पी कर रह गयी।

खैर, इस घटना के बाद मैं बिल्कुल निराश नहीं हुयी। और एक राजनीतिक पार्टी की भांति मैंने तुरंत दावा किया कि इस बार मेरी ही सरकार बनेगी। और पूरे जोशोखरोश के साथ अपने अभियान में लग गयी। आखिर एक दिन मोनालिसा की मुस्कान मेरे चेहरे पर आ गयी क्योंकि काफी जद्दोजहद के बाद मुझे एक मंदिर में दर्शन के लिए बुला लिया गया। मंै पूरे साजो-सामान के साथ सम्पादक महोदय के सामने उपस्थित हुई और तुरंत ही अपनी सरकार बनाने का दावा पेश किया।

मैंने कहा, ‘श्रीमन् मैं लिखती हूं, जो थोड़ा बहुत यहां-वहां छपता रहता है’ यह कहते हुए मैंने अपने कार्य कौशल की थाथी उनके मेज पर खिसका दी।

लेकिन यह क्या?

उन्होंने किसी ‘अछूत कन्या’ की तरह मेरी फाइल को हाथ तक नहीं लगाया और सीधे सवाल दाग दिया- ‘आपने अभी तक क्या सीखा है?’

मैं भी कहां चुप रहने वाली, एक भाट की तरह अपने सारे छोटे-बड़े गुणों का बखान कर डाला।

लेकिन यह क्या? आफताब शिवदसानी की तरह उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं आए।

उन्होंने मुझसे दूसरा सवाल किया, ‘आप किस बीट पर काम करना चाहेंगी।’

मैंने तुरंत ही कहा- समाजिक एवं सांस्कृतिक।

‘तब तो आप ऐश-अभिषेक की न्यूज ला सकती है’ उन्होंने पूछा।

मैंने कहा, श्रीमन! यह तो किसी के निजी जीवन में दखलंदाजी है।

उन्होंने तीसरा प्रश्न किया, ‘आप कोई स्टिंग-विस्टिंग कर सकती हैं।’

मैंने कहा, नहीं! श्रीमन, यह झूठ और फरेब पर आधारित है, सच्ची पत्रकारिता के विरुद्ध है।

‘आप शिल्पा-गेरे जैसे प्रकरण की फोटो ला सकती है।’ उन्होंने चौथा प्रश्न किया।

मैंने कहा, श्रीमन! ‘यह कैसे हो सकता है? यह तो आप के पालिसी के विरुद्ध है।’

इस पर वे आंखे निकालते हुए बोले, अब तुम हमें हमारी पाॅलिसीज के बारे में बताओगी। महोदया! आप में पत्रकार वाले एक भी गुण नहीं है। जाइए, पहले कुछ सीखिए, फिर आइए।

और एक हारे हुए जुआरी की तरह मैं पत्रकारालय रूपी दफ्तर से निकल आयी। बाहर आने के बाद मैंने अपनी हार का ठीकरा अपने पत्रकारिता इंस्टीट्यूट के पर फोड़ दिया। जहां हमें गलत तरीके की शिक्षा दी गयी थी। अतः अब मैंने मीडिया दफ्तरों के चक्कर लगाने बंद कर दिए हैं। मैं अब ऐसे इंस्टीट्यूट की तलाश में हूं, जहां मुझे ‘सच्चा’ पत्रकार बनने के वास्तविक गुणों की शिक्षा दी जाए।

( उपर्युक्त व्यंग्यात्मक लेख की आज अनायास याद आ गई। यह लेख पत्रकारिता के संघर्ष के दौरान लिखा गया था। उन दिनों यह किसी बेवसाइट पर छपा भी था। इस में लिखी बातों को मेरी कथा व्यथा भी मान लिया गया था। इस बात पर मैं आज भी मुस्कुरा देती हूूं। वास्तव में यह मेरी तरह पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश करने वालों की व्यथा कथा आज भी बनी हुई है। )


मंगलवार, 14 मई 2024

आम को खास बनाते हमारे नेता

 


रोटियां सेंकती
, फसल काटती, बोरा ढोते, चाय बनाते हमारे नेत्रियां-नेता आम जनों के बीच अपनी उम्मीदवारी पक्की करते नजर आ रहे हैं। अब वे इसमें कितना सफल होंगे ये तो आने वाला वक्त ही बता सकता है। इन सबके बीच आमजन खुद को खास समझने लगा है।
 

पूरा देश चुनावी मोड में है। गली-नुक्कड़ों में चुनावी चर्चा सुनी और सुनाई जा रही है। नेताओं (इसमें महिला नेत्री भी शामिल हैं) की सक्रीयता देखने योग्य है। इस 35 से 40 डिग्री सेल्सियस तापमान में नेताओं का खाना-पीना, नींद और दोपहरिया वाला आराम सब हराम हो चला है। नेताजन अपने क्षेत्रों में सभी मतदाताओं से व्यक्तिगततौर पर मिल लेना चाह रहे हैं। दरवाजों पर दस्तक दे रहे हैं। प्रणाम कर रहे हैं। गुजारिश कर रहे हैं। किये गये कामों का हवाला दे रहे हैं। नये उम्मीदवार अपनी दावेदारी जतला रहे हैं। कुल मिलाकर कर वे सभी तरह के जतन कर रहे हैं, जिनके एवज में वे अपने वोटरों से वोट निकलवा सकें।

इन सबके बीच आम चुनावों की एक विशेषता और भी है, वह है आमजन के बीच आम आदमी बनकर दिखाना।इस दिखानेके दिखावे के बीच कई बार अजीब स्थितियां भी बन जाती हैं। आखिर आम आदमी बनना हर किसी के वश की बात तो है नहीं। आम लोगों से जनसंपर्क के बीच नेताजन अपने कार्यकलापों से जो दिखाते हैं, उससे जनता के बीच एक अच्छा संदेश जाता है। इसके लिये पीआर एजेंसियों तक का सहारा लेना पड़ता है। क्योंकि सोशल मीडिया के दौर में इमेंज बिल्डिंग इतनी आसान चीज नहीं रह गई है। आपकी हर छोटी-बड़ी गतिविधि कैमरे की निगाहों में आ जा रही है। इन सबके बीच उम्मीदवारों के उपर जो सबसे अधिक दबाव की बात होती है वह है आम लोगों की तरह दिखना और आम लोगों को सहज महसूस कराना। आम लोगों के बीच से आया हुआ दिखाने के लिए कुछ प्रतीकात्मक तस्वीरों को बनाया और बिगाड़ा जाता है। आम लोगों के बीच से आया हुआ बताने का दबाव नेताओं पर सर्वाधिक होता है।


गांव-गांव गली-गली आम लोगों से संपर्क में महिला उम्मीदवार जब आम महिलाओं को गले लगा
, बड़ी-बूढ़ी महिलाओं को प्रणाम करके, उनके बच्चों को गोद में उठाकर पुच्चकारती हैं, तो उसकी तस्वीरें जनमानस में अच्छे से बैठती हैं। सबसे अच्छी बात कि इस दौरान देश में महिलाओं के लिये मान्य वेशभूषा साड़ी का बहुतायत में प्रयोग करती हैं। साड़ी भारतीय महिला नेत्रियों के लिये वैसा ही परिधान बन गया है जैसा पुरुष नेताओं के लिये कुर्ता-पैजामा। खासकर महिला नेत्री से यह सामाजिक उम्मीद आज भी है कि वे देश संभालने वाले काम भी करें, पर दूसरी तरफ वे घर संभालने में भी पूरी तरह दक्ष हों। इसी दबाव से महिलानेत्री गुजरती भी हैं, इस इमेज को बनाने के लिए काम भी करती हैं। आखिर अच्छा घर संभालने वाली ही अच्छा देश संभालने वाली नेता हो सकती है। इसीलिये चुनाव के दौरान कुछ चारित्रिक लांछन लगाने वाले आरोप भी उछाले जाते हैं। देश भर में अपने-अपने लोकसभा की खाक छानते नेताजन ऐसी तस्वीरों को जनमानस में बैठाना चाहते हैं।

एक समय जब रायबरेली में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सिर पर पल्लू लेकर जनसभाओं को संबोधित करती थी, तो आम महिलाओं में यह चर्चा का विषय होता था। दरअसल इंदिरा गांधी रायबरेली को अपना ससुराल मानती थीं। कहते हैं कि 1967 से 1984 तक जनपद आगमन पर उनके सिर से पल्लू कभी नहीं हटा। आज भी उस दौर के लोग इस बात पर चर्चा करते हैं। जब उनकी विदेश से आई बहू सोनिया गांधी ने इसी इमेज को फाॅलो किया तो इसके पीछे देश की बहू के सिर पर पल्लू होना चाहिये वाली ठसक काम कर रही थी। कमाल की बात है कि जब उनकी नातिन प्रियंका गांधी वाड्रा ने साड़ी पहन कर अपनी मां सोनिया गांधी के लिये वोट मांगने आयीं, तो मीडिया में उनकी चर्चा दादी इंदिरा की तरह साड़ी पहनने की ज्यादा होती थी। और इसी बात का प्रभाव आज भी आम जनपद निवासियों पर है।

 

हाल ही मथुरा से भाजपा उम्मीदवार फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी की फसल काटती तस्वीरें जब सोशल मीडिया पर वायरल हुईं लोगों की प्रतिक्रिया गौर करने लायक थी। चूंकि एक सेलेब्रिटी होने के कारण भी लोगों की निगाहें और खासतौर पर मीडिया की निगाहें ऐसी चीजों पर जरूर रहती हैं, तो परिणामस्वरूप बात दूर तक जाती नजर आई। इसी वाद-विवाद का फायदा उठाकर इसी सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार मुकेश दंगर ने कहा भी कि मैं इस ब्रजभूमि की मिट्टी का बेटा हूं और हेमा जी प्रवासी हैं... मैं ब्रजवासी हूं। यानी यहां दोनों उम्मीदवार खुद को जनता के बीच का बता रहे हैं।

इसी तरह 14 अप्रैल को एक दस-बारह सेकेंड का वीडिया कांग्रेस बीजेपी में शामिल हुये नवीन जिंदल का वायरल हुआ जिसमें वे अनाज से भरे बोरे उठाकर लोड कर रहे हैं। जिंदल स्टील एंड पाॅवर लिमिटेड के चेयरमैन और 300 करोड़ से अधिक की संपत्ति के मालिक का यूं बोरा उठाकर लोड करना लोगों को अंचभित कर गया। नवीन जिंदल कुरूक्षेत्र, हरियाणा से भाजपा के उम्मीदवार हैं। इसी तरह गाजियाबाद से कांग्रेस की तेज-तर्रार उम्मीदवार डाॅली शर्मा कुछ महिलाओं के साथ मिट्टी के चूल्हें पर रोटियां सेंकेती नजर आईं। 11

अप्रैल को जारी अपने एक वीडियो में वे बता रही हैं कि जीतन के बाद सारा काम आवे है मुझे। यानी उनके कहने का अर्थ है कि राजनीति संबंधी कामकाज के साथ वे घरेलू कामों को भी उतनी ही दक्षता से करती हैं। यानी वे एक आम घरेलू महिला ही हैं।

चाय पर चर्चा’ भारतीय जनता पार्टी का सबसे लोकप्रिय प्रतीकात्मक कार्य है। इसलिए उनके बहुत से उम्मीदवार चाय बनाते, चाय परोसते, अदरख कूटते, चाय पीते आदि लोकप्रिय काम करते नजर आये हैं। गोरखपुर से सांसद लोकप्रिय अभिनेता रवि किसन हो, या मंडी, हिमाचल से उम्मीदवार अभिनेत्री कंगना रनावत हो या फिर गोड्डा, झारखंड से भाजपा सांसद निशिकांत दुबे हो, सभी चाय पर चर्चा करते हुये नजर आये। हम सभी जानते है कि चाय एक चलता-फिरता आम पेय है। चाय के बहाने बड़ी से बड़ी चर्चाएं हो जाती है। गली-नुक्कड़ों पर लगने वाले चाय की टपरी और वहां होने वाली राजनीतिक चर्चाओं को अहमियत देने वाला यह कलात्मक जरिया है। लोगों को यह खूब आकर्षित करता है। आम लोगों से जुड़ने का यह बखूबी तरीका भी है कि आम लोगों का पेय चायखास लोग भी पीते हैं।

अभी चुनाव के जितने चरण बाकी हैं, यह देखना बहुत ही दिलचस्प होगा कि हमारे नेता आमजन से जुड़ने के लिए क्या-क्या जतन करते हैं। इन सबके बीच आम लोग खुद को खास समझने का लुफ्त तो ले ही सकते हैं।

मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

क्या महिला आरक्षण में फेल हो गए हैं आप ?

 प्रतिभा कुशवाहा


आगामी लोक सभा चुनावों के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों में महिला उम्मीदवारी का जो आलम है उसे देखकर राजनीति में महिला प्रतिनिधित्व की कोई अच्छी उन्नत तस्वीर बनती नहीं दिख रही है। इसी सवाल से आज राजनीति में सक्रीय प्रत्येक महिला जूझ रही है।


लोकतंत्र का चुनावी उत्सव शुरू हो चुका है। खबर है कि लोकसभा चुनाव 2024 के पहले चरण की 102 सीटों के लिए विभिन्न पार्टियांे के 1624 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। और इन
डेढ़ हजार से उपर के प्रत्याशियों में महिला प्रत्याशियों की संख्या केवल 134 हैं यानी कुल 08 फीसदी। इससे बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ रहा है कि महिला प्रत्याशियों की इतनी कम संख्या के लिए कौन-कौन सी राजनीतिक पार्टियां जिम्मेदार हैं। कामोबेश कम या ज्यादा सभी का हाल एक जैसा ही है। चुनाव आयोग के जारी किये गये आंकड़ों से ये तो पता चल रहा है कि लोक सभा और राज्य विधानसभा में 33 फीसदी महिला आरक्षण बिल ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ पास होने के बावजूद हमारी राजनीतिक पार्टियांे को कोई जल्दी नहीं है कि अधिक से अधिक महिलाएं संसद तक पहुंचें। और समाज विकास में अपना बहुमूल्य हस्तक्षेप दर्ज करें।

सितंबर, 2023 में नारी शक्ति वंदन अधिनियम लाकर केंद्र की नरंेद्र मोदी सरकार ने महिलाओं की सार्वजनिक भागीदारी के लिए इतिहास रच दिया था। थोड़ी बहुत न-नुकुर के बाद कामोबेश सभी राजनीतिक दलों की मजबूरी बन गई थी इस बिल का समर्थन करने की। इस बिल के पास होते ही अभी तो नहीं भविष्य के लिए महिलाओं को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित कर दी गईं हैं। तब से 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए सार्वजनिक क्षेत्रों में काम कर रही महिलाओं ने जिस बात की उम्मीद लगा रखी थी उसका हाल किताबों में लिखी इबारत जैसा ही रहा। खासतौर पर राजनीति में अपना भविष्य देख रही महिलाओं ने तो ऐसा बिलकुल नहीं सोचा होगा। 27 साल की जद्दोजहेद के बाद महिला आरक्षण बिल पास होने के बाद महिलाओं को ऐसा लग रहा है कि यह कोरा आश्वासन ही बन गया। इस बिल के प्रति सबसे ज्यादा उत्साह भारतीय जनता पार्टी ने दिखाया था, उसी के प्रयासों का नतीजा था कि यह आरक्षण बिल पास हो सका। 

अगर इस लोकसभा चुनाव की बात करें तो भारतीय जनता पार्टी ने अब तक 419 प्रत्याशियों में 67 महिला उम्मीदवारों की सूची बनाई है। यह कुल प्रत्याशियों का 16 फीसदी है जोकि पिछली लोकसभा 2019 के मुकाबले ;12 फीसदीद्ध ज्यादा है। लेकिन महिला आरक्षण बिल 2023 में निर्धारित संख्या से कहीं अधिक दूर ही है। पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव 09 फीसदी ही महिला प्रत्याशियों का टिकट दिया था। यद्यपि यह सच है कि 17वीं लोकसभा में सबसे ज्यादा महिला सांसद 78 मिलीं थीं जिसमें सबसे बड़ा भाग भारतीय जनता पार्टी का था।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अब तक अपनी घोषित 237 उम्मीदवारों में 33 महिला उम्मीदवारों को चुना है, जोकि काफी कम है। कांग्रेस ने 2019 की लोकसभा चुनाव के लिए 262 सीटों के लिए 54 महिलाओं को टिकट दिये थे, जो लगभग 20 फीसदी था। इनमें से 11 फीसदी महिलाएं चुनाव जीत पायी थीं। इसी तरह तृणमूल कांग्रेस ने कुल सीटों में 38 फीसदी महिलाओं को टिकट दिये। जिनमें से 56 फीसदी महिलाएं चुनाव जीत गई थीं। इसी तरह इन चुनावों में बीजेडी ने 28 फीसदी महिला प्रत्याशियों को टिकट दिये थे जिनमें 83 फीसदी महिलाओं ने सीटें जीत लीं। यह गौर करने वाली बात है कि घोषित तौर पर 2019 में तृणमूल कांग्रेस और बीजेडी ने सबसे अधिक महिलाओं को टिकट दिये थे। इसी तरह बहुजन समाज पार्टी ने कुल प्रत्याशियों में 24 फीसदी महिलाओं को टिकट दिये थे। लेकिन अगर संख्या की बात की जाये तो भारतीय जनता पार्टी की महिला सांसद सबसे अधिक 40 थीं, जिसके परिणामस्वरूप मंत्रिपरिषद के गठन में इसका प्रभाव भी दिखा था। 

1957 से 2019 तक के लोकसभा चुनावों में महिला प्रत्याशियों की संख्या लगभग 1,513 फीसदी बढ़ चुकी है। 1957 में केवल 45 महिलाओं ने लोकसभा चुनाव लड़ा था, जबकि 2019 में यह बढ़कर 726 तक पहुंच गया। जबकि इसी दौरान पुरूष प्रत्याशियों की संख्या लगभग 397 फीसदी बढ़ गयी। 1957 लोकसभा चुनाव में 1,474 पुरूष प्रत्याशियों ने भाग लिया था, जबकि 2019 लोकसभा चुनावा में 7,322 पुरूष प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था। चुनाव आयोग के जारी इन आकड़ों की नजर से देखे तो इन चुनावों में भाग लेने वाले पुरूष प्रत्याशियों की संख्या पांच गुना बढ़ी, जबकि महिला प्रत्याशियों की संख्या 16 गुना बढ़ी। पर आंकड़ों की इस बाजीगरी के बावजूद यह सच है कि महिला प्रत्याशियों की संख्या किसी भी चुनावों में 1000 का आंकड़ा पार नहीं कर सकी है।

देश की जनसंख्या में महिलाओं की संख्या 48.5 फीसदी है। चुनाव आयोग के अनुसार इन चुनावों में महिला वोटरों की संख्या 47.1 करोड़ है। वहीं पुरूष वोटरों की संख्या 49.7 करोड़ है। साथ ही यह भी दिलचस्प है कि देश के 12 राज्यों में महिला वोटर पुरूष वोटरों से अधिक हैं। इसके बावजूद भी महिलाओं को टिकट दिये जाने पर आना-कानी की जाती है। देखा जाये तो राजनीतिक दलों को महिलाओं के वोट में अधिक दिलचस्पी रहती है पर उन्हें जनप्रतिनिधि के रूप में उचित प्रतिनिधित्व देने में कोई खास रुचि नहीं होती। इसलिए संसद तक महिलाओं की दौड़ बहुत ही चिंताजनक है। 2019 तक वैश्विक स्तर पर महिला सांसदों का औसत 24.3 फीसदी है। हमारे पड़ोसी बांग्लादेश की संसद में महिला प्रतिनिधित्व 21 फीसदी है। यहां तक रवाण्डा जैसे देश में यह प्रतिनिधित्व आधे से अधिक यानी 61 फीसदी है। विकसित देश यूके और अमेरिका में महिला सांसद क्रमशः 32 और 24 फीसदी है।

2014 के लोकसभा चुनावों में सर्वाधिक महिला सांसद चुनकर आई थीं, जिनकी संख्या 61 थीं। यह ‘सर्वाधिक संख्या’ का सच यह है कि कुल 543 लोकसभा सीटों में यह सिर्फ 11.23 फीसदी ही रहा। इसी तरह 2009 में संसद पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या 59 (10.87 फीसदी) थी। इससे समझा जा सकता है कि पहले के तमाम आमचुनावों में स्थिति कामोबेश कैसी रही होगी। सबसे कम महिला सांसद 1977 में 19 (3.51 फीसदी) थीं। यहीं पर सवाल उठते हैं कि क्या कारण है कि महिलाएं संसद तक नहीं पहुंच पा रही हैं। क्या राजनीति के लिए योग्य महिलाओं की कमी है? या फिर महिलाओं में राजनीतिक भागीदारी की इच्छा नहीं है? यदि उनकी इच्छा है तो वे कौन सी शक्तियां हैं, जो उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं। देश में महिलाओं के कम राजनीतिक प्रतिनिधित्व को देखते हुए ऐसे सवाल उठने स्वाभाविक भी है। अगर नारी शक्ति वंदन अधिनियम का समर्थन करके भी राजनीतिक दलों की कोई भी इच्छाशक्ति काम नहीं कर रही है, तो क्या यह मान लिया जाए बिल पारित करके भी महिला प्रतिनिधित्व के मामले में महिलाओं को ढाक के तीन पात ही नसीब होगा। और इसके लिए उन्हें एक लंबा इंतजार करना होगा।


सोमवार, 7 अगस्त 2023

धमाल मचाने वाली परदादी रामबाई

 


एक सौ छह साल वह उम्र होती है, जब कोई भगवान का भजन करता है या किसी का सहारा लेकर अपना बचा हुआ जीवन जीता है। पर ऐसे भी जीवट वाले लोग होते हैं, जो इन बनी-बनाई धारणाओं को तोड़ देते हैं। रामबाई एक ऐसा ही नाम हैं। जिन्होंने उम्र की सीमाओं को तोड़ते हुए एक मिसाल कायम कर दी है। जानते हैं उनकी इस सफलता के पीछे की कहानी को।

 

एक सौ छह साल की रामबाई तब समाचारों की सुर्खियां बटोरने लगीं, जब उन्होंने लाठी पकड़कर चलने की उम्र में फर्राटा दौड़ में एक नहीं, तीन स्वर्ण पदक जीत लिये। खासतौर से सोशल मीडिया में उन्हें इस उपलब्धि के लिए खूब सराहा गया। उनके गले में पड़े हुये मेडल और उनकी मासूम हंसी वाली फोटो देखकर नहीं कहा जा सकता कि वे हमेशा से किसी दौड़-भाग वाले खेल में हिस्सा लेना चाहती थीं, क्योंकि उनकी घरेलू जिंदगी ही दौड़-भाग वाली थी। जब जिंदगी के तीसरे पहर में उन्हें नाती-पोतो, परनाती से भरे घर में समय उनके साथ सुस्ताने लगा, तब भी उन्होंने ऐसे किसी कॉम्पिटिशन में भाग लेने और जीतने की नहीं सोची होगी, क्योंकि उनका अब तक का जीवन ही किसी ट्राफी से कम नहीं था। फिर भी उन्होंने अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में ऐसे किसी कॉम्पिटिशन में न केवल भाग लिया, बल्कि शानदार जीत भी हासिल की। ऐसा उन्होंने क्यों और कैसे कर लिया, यही जानने में आज हमारी, सबकी दिलचस्पी बनी हुई है।

जिंदगी की रेस को सफलता पूर्वक क्वालीफाई करने वाली हरियाणा की रामबाई ने उत्तराखंड में आयोजित हुई 18वीं युवरानी महेंद्र कुमारी राष्ट्रीय एथलेटिक्स चैंपियनशिप में बुजुर्ग खिलाड़ियों के ग्रुप खेल में भाग लिया। यहां 100 मीटर रेस में उन्होंने पहला स्थान प्राप्त करके गोल्ड मेडल प्राप्त किया। इसके साथ-साथ एक के बाद एक 200 मीटर दौड़, रिले दौड़ में गोल्ड मेडल जीत कर इतिहास बना दिया। यहां वे अकेली ही प्रतिस्पर्धाओं में भाग नहीं ले रही थीं, बल्कि उनकी बेटी और पोती भी दूसरी स्पर्धाओं में भाग ले रही थीं। अपनी तीन पीढ़ियों के साथ इन स्पर्धाओं में जीतकर उन्होंने इतिहास भी बनाया।

प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने की उनकी कहानी आज की सफलता से शुरू नहीं होती है। बल्कि अपनी पोती शर्मीला की प्रेरणा और पंजाब की 100 साल की एथलीट मानकौर से प्रेरणा लेकर उन्होंने भी मैदान में उतने की ठानी। पर यह सब आज जितना आसान नहीं था। चार लोग क्या कहेंगे, जैसी चीजें उनके दिमाग में भी थीं। पर इन सबसे पार पाने को ही साहस कहते हैं, जिसका नतीजा आज हम सब के सामने है। दो साल पहले ही जून 2022 उन्होंने अपनी 104 वर्ष की अवस्था में दौड़ प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया था। तब उन्होंने गुजरात के बडोदरा में नेशनल ओपन मास्टर्स एथलेटिक्स चैंपियनशिप में दोहरा स्वर्ण पदक जीता था। यहां उन्होंने 100 मीटर की दौड़ को केवल 45.50 सेकंड में पूरी करके मानकौर का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। आज भी यह उनके नाम का वर्ल्ड रिकॉर्ड है। पिछले दो सालों में रामबाई 14 अलग-अलग इवेंट में लगभग 200 मेडल जीत चुकी हैं। वे देश के बाहर भी जाकर दूसरी प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेती हैं।

हरियाणा के चरखी दादरी जिले के गांव कादमा की रहने वाली रामबाई ने अपना पूरा जीवन घर और खेत में काम करते हुये बिताया है। आज वे इस गांव की सबसे बुजुर्ग महिला हैं और उन्हें गांववाले प्यार से उड़नपरी परदादीकहकर बुलाते हैं। वे आज भी यहां गांव वाला साधारण जीवन व्यतीत करती हैं। गांव के संसाधनों पर ही वे अपना नियमित और संयमित जीवनचर्या जीतीं हैं। खुद को फिट रखने के लिए रोज सुबह जल्दी उठकर दौड़ लगाती हैं। दही, दूध, चूरमा और हरी सब्जियों से वे अपनी सेहत का ख्याल रखती हैं। खासतौर पर वे शुद्ध शाकाहारी हैं और अपनी सेहत को ठीक रखने के लिए वे दूध और दूध से बने व्यंजनों का भरपूर उपयोग करती हैं। उनके चेहरे का आत्मविश्वास बताता है कि वे आगे भी कई और पदक जीतने वाली हैं।

(पिछले दिनों 'युगवार्ता' पत्रिका में प्रकाशित)

 


शनिवार, 29 अप्रैल 2023

कैसे सम्हालेगें हम अपने बुजुर्गों को ?


दादा-दादियों की कहानियों में एक चमत्कारी दुनिया होती है, जिसे सुनकर मासूम बच्चे उस अजीम दुनिया के वासी बन जाते हैं। पर क्या ऐसी दुनिया स्वयं दादा-दादियों की होती है। समय-समय पर हमारे समाज से ऐसी कहानियां (घटनाएं) सामाने आती हैं कि जिन पर विश्वास करना कठिन हो जाता है। हालिया मामला हरियाणा राज्य के चरखी-दादरी के बाढ़डा के शिव काॅलोनी का है। जहां पर 78 साल के बुर्जुग दंपति ने आत्महत्या कर ली और पीछे एक सुसाइड नोट छोड़ा जिससे उनकी आपबीती हम सबके सामने आ सकी। यह आपबीती जानकर हमारे समाज, शहर, मुहल्ले और घरों में रहने वाले बुजुर्गों के चेहरे मुरझा से गए हैं। वे अपनी वर्तमान स्थिति के बारे में चिंतित हो रहे है, तो कोई बड़ी बात नहीं है।

हरियाणा के चरखी-दादरी के बाढ़ड़ा की शिव कालोनी में रहे जगदीशचंद्र आर्य और उनकी पत्नी ने मार्च की अंतिम तारीख को सल्फास खाकर आत्महत्या कर ली। जब पुलिस उनके पास पहुंचीं, तब वे जिंदा थे और उन्होंने अपनी बात एक पत्र के माध्यम से पुलिस को सौंप दिया। इसके बाद ही उनकी दयनीय स्थिति के बारे में बात सार्वजनिक हुयी। जगदीशचंद्र आर्य के दो पुत्र, दो पुत्रवधुएं और पोते हैं। पुत्रों के पास करोड़ों की संपत्ति भी है। बड़े पुत्र का एक बेटा हाल ही में आईएएस पास करके अंडर ट्रेनी भी है। उक्त दंपति को हाल ही में छोटे बेटे की मृत्यु के बाद छोटी बहू ने घर से निकाल दिया। फलस्वरूप वे बड़े बेटे के पास रहने पहुंच गए। छोटे बेटे के पास रहने से पहले वे अनाथ आश्रम में दो साल तक रहे। पत्नी को जब लकवा की बीमारी हो गई, तो वे वापिस अपने बेटों के पास आए, पर उन्होंने बेमन से रखा और दुव्यर्वहार किया। यहां तक कि खाने-पीने तक का ख्याल तक नहीं रखा गया। इसी से परेशान होकर बुजुर्ग दंपति आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो गए। जिस पर बनी खबर हम सब बड़े दुखी भाव से पढ़ रहे हैं।

हमारे समाज का अभी तक का ढाचा ऐसा था, जहां बुजुर्ग और बच्चे संयुक्त रूप से एक परिवार के अंदर सुरक्षित और संरक्षित रहते थे। पर समय के साथ यह देखा गया है कि हमारा समाज बदल रहा है। मजबूत पारिवारिक ढांचा टूट रहा है और साथ ही यह देखा गया है कि सामाजिक सरोकार भी बदल गए हैं। इसलिए समाज बुजुर्ग, दादा-दादी से ज्यादा बोझ बन गये हैं। जहां देश की बुजुर्ग आबादी तेजी से बढ़ रही है, वहीं हमारी सोच उस तेजी से परिवर्द्धित नहीं हो रही है। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में बुजुर्ग आबादी 104 मिलियन थी, जो कुल जनसंख्या का 8.6 फीसदी था। वहीं एनएसओ की रिर्पोट भारत में बुजुर्ग, 2021’ माने तो यह बुजुर्ग आबादी 2031 तक 194 मिलियन तक पहुंच सकती है, जो 2021 में 138 मिलियन थी। बुजुर्ग आबादी में यह बढ़ोत्तरी एक दशक में 41 फीसदी रहेगी। यानी हम 2031 तक एक बड़ी संख्या में बुजुर्ग आबादी के मालिक होंगे। इस आबादी में महिलाओं और पुरूषों का अनुपात 101 और 93 फीसदी का है।

ऐसा नहीं है कि हमारे देश में ही बुजुर्ग आबादी तेजी से बढ़ रही है, वरन ऐसा चलन पूरे विश्व के देशों में देखा जा रहा है। हमारे पड़ोसी चीन में आबादी का असंतुलन बढ़ रहा है, इसलिए वहां आबादी बढ़ाने यानी बच्चे पैदा करने पर जोर दिया जा रहा है। दूसरे विकसित देशों का भी यही हाल है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या निधि यानी यूएनएफपीए ने भारतीय समाज में बुजुर्गों की समस्याओं और जनसांख्यिकीय परिवेश के संबंध में सरकार तथा गैर-सरकारी संगठनों की प्रतिक्रिया पर प्रकाश डालने का प्रयास करते हुए हमारे वृद्धजनों की देखभालः शीघ्र प्रतिक्रियानाम से एक रिपोर्ट तैयार की है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से हुआ विकास, जिसमें चिकित्सा विज्ञान और बेहतर पोषण तथा स्वास्थ्य देखभाल संबंधी सेवाओं को उपलब्ध कराया जाना शामिल है, जिसके परिणामस्वरूप लोग दीर्घायु हो रहे हैं। इसके साथ-साथ जन्मदर में भी गिरावट आई है जिसकी वजह से देश की आबादी में वरिष्ठ नागरिकों के अनुपात में वृद्धि हुई है। कई तरह के अध्यनों में यह बात सामने भी आ रही है।

समय-समय पर होने वाले अध्ययनों से यह तो समझ में आ रहा है कि देश में बुजुर्ग आबादी तेजी से बढ़ रही है। इसलिए स्वाभाविक प्रश्न है कि इस बढ़ती आबादी में जिसमें बुजुर्ग पुरूषों से अधिक संख्या में बुजुर्ग महिलाएं शामिल हैं, उनका प्रबंधन कैसे होगा? क्या आने वाले समय में बुजुर्ग आबादी हमारे लिए समस्या बन सकती है या कई तरह की सामाजिक और आर्थिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं? ऐसे बहुत से प्रश्नों से आज हम दो-चार हो रहे हैं, जब समाज में जगदीश चंद्र आर्य जैसे बुजुर्गों के साथ ऐसी घटनाएं होती हैं। वैसे तो बुजुर्ग होती आबादी की कई समस्याएं होती हैं, पर उपरी तौर पर ऐसे समय आय की कमी, पेंशन पाने में दिक्कत और परिवारवालों से देखभाल की कमी, सम्मानजनक व्यवहार न होना आदि ऐसे कारण है जिनकी वजह से एक बुजुर्ग की जीने की आशा टूट जाती है। एनएसओ की 2021 की रिपोर्ट की माने तो वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात समय के साथ-साथ बढ़ रहा है। 1961 में वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात 10.9 था, तो 2011 यही अनुपात बढ़कर 14.2 फीसदी पहुंच गया। आशा की जा रही है कि वृद्धावस्था निर्भरता अनुपात 2021 और 2031 में क्रमशः 15.7 से बढ़कर 20.1 तक पहुंच जायेगा।

यह वृद्धावस्था निर्भरता ही बुजुर्ग के साथ कभी-कभी अमानवीय व्यवहार में तबदील हो जाता है। कमोवेश यह स्थिति कम या ज्यादा संपत्ति वाले बुजुर्गों दोनों पर लागू होती है। 2016 को एजवेल फाउंडेशन ने बुजुर्गों पर एक अध्ययन किया, जिसमें उन्होंने ऐसी तस्वीर पेश की, जिस पर हमें आज से ही सोचना शुरू कर देना चाहिए। रिपोर्ट में कहा गया कि देश के 65 फीसदी बुजुर्गों के पास कोई सम्मानजनक आय के स्रोत न होने के कारण वे गरीबी में जी रहे हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि इन बुजुर्गों में अपने अधिकारों और नियम-कानूनों के प्रति जागरुकता की कमी न होने के कारण वे अमानवीय परिस्थितियों में जी रहे हैं। इसकी सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं ही हो रही हैं, क्योंकि वे लिंगभेद का भी शिकार होती रही हैं। ये महिलाएं लंबा वैधव्य भी ढो रही हैं, जिससे इनकी स्थिति और भी दयनीय हो जाती है। अपने एक निर्धारित सैंपल में किए अध्ययन में पाया गया कि 37 फीसदी बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार किया गया, 20 फीसदी बुजुर्गों को सामाजिक जीवन से काट दिया गया। जबकि 13 फीसदी बुजुर्गों को मानसिक रूप से परेशान किया गया, 13 फीसदी बुजुर्गों को मूलभूत सुविधाओं से वंचित कर दिया गया।

अब ऐसी स्थिति में बुजुर्ग आबादी के प्रति समाज और सरकार दोनों को विशेष तौर पर तैयार होना होगा। ऐसा ढांचा बनाना होगा जहां बुजुर्ग आबादी एक सम्मानीय जीवन जी सके। उसे दो टाइम के खाने के लिए संघर्ष न करना पड़े। इसके लिए टूटते और बदलते समाज को भी अपनी पैनी दृष्टि से खुद का अवलोकन करना चाहिए कि क्यों आखिर हम अपने पालनहार की उचित देखभाल करने में असमर्थ हो जाते हैं। सरकारी प्रयास जो हो रहे हैं वे तो अपनी गति से होते रहेंगे, उससे हमारा ज्यादा जोर नहीं हो सकता है। लेकिन सरकारों को भी समाज में बुजुर्गों की हैसियत देखते हुए एक लोककल्याणकारी राज्य की भूमिका में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होगी, नहीं तो हम अपनी मूल्यवान और अनुभवी बुजुर्ग आबादी से कुछ भी हासिल नहीं कर सकेगे। यही हर किसी के लिए सोचनीय विषय हो जायेगा, क्योंकि एक दिन हर व्यक्ति को बुजुर्ग होना है।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

धारासण सत्याग्रह: क्रूर सत्ता के प्रति शांतिपूर्ण प्रतिरोध

भारतीय स्वतंत्रता कितनी कुर्बानियों और बलिदानों के बाद हासिल हुई है इसका अंदाजा तभी लग सकता है जब हम स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास को खंगाले और देखें। मोटेतौर पर हम सभी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से वाकिफ हैं। बचपन से ही स्कूल की किताबों में समय-समय पर पढ़ाया गया है, पर इस पठन-पाठन में बहुत कुछ छूट भी गया है जिसका वाचन जरूरी है। इसलिए जरूरी है कि हम अपनी आजादी की कीमत पहचान सके। हम आजादी के दीवानों की शहादत के मूल्य जान सकें। जब हम आजादी के 75 वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं, आजादी का अमृत महोत्सव भी मना रहे हैं, तब और भी जरूरी है कि आजादी के लिए मर मिटने वालों की तासीर महसूस की जाए। इसी तरह की तासीर वाली एक दास्तां है धारासण सत्याग्रह।

समय था मार्च, 1930 का, सविनय अवज्ञा आंदोलन वाला। ब्रिटेन के अधीन देश में नमक कानून (साल्ट एक्ट 1882) के तहत देशवासियों के लिए नमक बनाना और बेचना प्रतिबंधित था। देशवासियों पर भारी मात्रा में नमक के नाम पर नाम टैक्स वसूला जाता था। नमक का हमारे दैनिक जीवन की कितनी आवश्यक चीज है इस बात से हम सभी परिचित हैं। ऐसी आवश्यक वस्तु पर भारी मात्रा में कर अदायगी से देश के लोग खासकर गरीब जनता काफी त्रस्त थी। नमक बेचने और बनाने में ब्रिटिश शासकों का अधिपत्य था। साथ ही इस पर भारी टैक्स के माध्यम से देश का पैसा विदेशियों की जेबों में जमा हो रहा था और भारतीयों के मन में रोष।

1915 में देश लौट चुके मोहनदास करमचंद गांधी अपने अहिंसा के सिद्धांत और सत्याग्रह के औजार से देशवासियों के मन में एक आशा की किरण जगा चुके थे। महात्मा गांधी ने देश की भावनाओं को जानते हुए इस ब्रिटिश नमक कानून की अवहेलना करने की ठानी, पर अहिंसात्मक तरीके से। गांधी जी ने अंग्रेज शासकों को साफतौर पर आगाह कि वे देशवासियों के साथ मिलकर नमक नीतियों के प्रतिरोध में सत्याग्रह और सामूहिक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर रहे हैं। उन्होंने इस बावत 02 मार्च, 1930 को वायसराय लार्ड इरविन को पत्र लिखकर सूचित किया वे अपने साथियों के साथ मिलकर 10 दिन में नमक कानून तोड़ने जा रहे हैं। तब 12 मार्च को महात्मा गांधी साबरमती आश्रम से अपने कुछ मुट्ठी भर साथियों के साथ नमक बनाने के लिए 240 मील दूर अरब सागर की ओर दांडी नामक गांव की यात्रा शुरू की। इसे इतिहास दांडी मार्च के रूप में जानता है।

कुछ लोगों के साथ शुरू की गई यह यात्रा दांडी पहुंचे-पहुंचते दसियों हजार की भीड़ में तब्दील हो गई। 05 अप्रैल को दांडी पहुंचकर गांधी जी ने समुद्र तट पहुंचकर नमक बनाकर विदेशी शासकों का कानून तोड़ दिया। देखते ही देखते देश के दूसरे भागों में भी हजारों लोग सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने लगे। बहुत कम लोगों को नमक बनाने की जानकारी थी, सभी ने अपने-अपने ढंग से नमक बनाकर कानून तोड़ने की अपनी कोशिश की। नमक बनाने के साथ-साथ दूसरे कानून भी लोगों ने अहिंसात्मक तरीके से तोड़े। सबसे बड़ी बात की लोग अहिंसात्मक रूप से विरोध करने के लिए तैयार थे। साठ हजार से अधिक लोगों को अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। जवाहरलाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, महादेव देसाई और गांधी के बेटे देवदास को गिरफ्तार करके सबसे पहले जेल भेज दिया गया था। लेकिन सत्याग्रह अधिक जोर-शोर से चल रहा था।

21 मई, वह तरीख है जिसने दुनिया का ध्यान भारतीय संघर्ष की ओर खींचा। इस दिन अंग्रेज शासकों ने दिखा दिया कि वे कितने क्रूर तरीके से देशवासियों को अपने काबू में करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। दांडी मार्च के बाद आंदोलन की सफलता को देखते हुए और आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए महात्मा गांधी ने वायसराय को सूचित किया कि वे घारासण नमक कारखाने में अहिंसात्मक रूप से प्रदर्शन करेंगे। आंदोलन की गंभीरता समझते हुए अंग्रेज प्रशासन ने 05 मई को ही महात्मा गांधी की रातों-रात गिरफ्तारी कर ली। आधी रात को जब गांधी जी अपने साथियों के साथ सो रहे थे, तो एक भारी सशस्त्र बल के साथ गांधी को गिरफ्तार करके यारवदा जेल ले जाया गया। लेकिन गांधी के बिना सत्याग्रह चल रहा था। अब धारासण नमक कारखाने पर आंदोलन की जिम्मेदारी दूसरे नेताओं की थी, क्योंकि सभी बड़े नेताओं की गिरफ्तारी पहले ही हो चुकी थी।

उत्तरी मुंबई से धारासण नमक कारखाना 150 मील दूर था। साथ दांडी से दक्षिण की ओर 40 किमी दूर था। इस मार्च की जिम्मेदारी पहले एक बुर्जुग नेता अब्बास तैयबजी और गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी ने उठाई। धारासण पहुंचने से पहले ही उन्हें बीच रास्ते मंे गिरफ्तार कर लिया गया। और तीन महीने जेल की सजा दे दी गई। इनकी गिरफ्तारी के बाद सरोजनी नायडू और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने शांतिपूर्ण सत्याग्रह की जिम्मेदारी उठाई। कई सौ सत्याग्रहियों का जस्था लेकर सरोजनीय नायडू के नेतृत्व में धारासण की ओर चल पड़ा। कई बार उन्हें वापस लौटने की चेतावनी दी गई। सरोजनी नायडू ने सत्याग्रही को समझाया कि कुछ भी हो जाए आप लोगों को अहिंसा धर्म निभाना है। किसी भी हालत में हिंसक नहीं होना है। 21 मई को सरोजनी नायडू के नेतृत्व में कारखाने तक पहुंचने में सफल हुए। कारखाने तक न पहुंच सके इसके लिए प्रशासन ने कारखाने को कंटीले तारों से घेर दिया था। हजारों की पुलिस फौज को वहां तैनात कर दिया था। यह निश्चय किया गया कि कारखाने में सभी लोग प्रवेश न करके कुछ लोग जत्थे बनाकर घुसने की कोशिश करेंगे। ऐसा ही किया गया। जब एक जत्था घुसने की कोशिश करता तो पुलिस लाठी से वार करके उनके सिर, कंधे, हाथ तोड़ देती। सत्याग्रही बगैर किसी प्रतिरोध के जमीन पर गिर जाते। सत्याग्रह में शामिल महिलाएं इन घायलों को उठा ले जाती और उनकी प्राथमिक चिकित्सा में जुट जाती।

यह शांतिपूर्ण प्रदर्शन तब तक चलता रहा जब तक अंग्रेजी फौज ने सभी सत्याग्रहियों को बुरी तरह घायल नहीं कर दिया। यह आंदोलन घंटे भर तक चलता रहा। इस पूरी घटना को एक अमेरिकी पत्रकार वेब मिलर ने बहुत ही मार्मिक रूप से रिपोर्ट किया था। उन्होंने यूनाइटेड प्रेस को लिखा कि आंदोलन में शामिल एक भी व्यक्ति ने पुलिस का प्रतिरोध नहीं किया। किसी ने भी पुलिस की बरती लाठियों को रोकने के लिए अपने हाथ उपर नहीं किये। वे खड़े-खड़े गिर जाते। जो लोग नीचे गिरे, वे गिरे ही रहे, कुछ बेहोश हो गए या चोटिल सिर और टूटे कंधों के कारण दर्द से कराहते रहे। दो-तीन मिनट में जमीन में सत्याग्रही बिछ गए थे। उनके सफेद कपड़े खून से भर गए थे। साथ ही बचे हुए लोग चुपचाप और हठपूर्वक तब तक चलते रहे जब तक उन्हें मारकर गिरा नहीं दिया गया...। घायलों को ले जाने के लिए वहां पर्याप्त स्ट्रेचर नहीं थे। कई कई लोग एक दूसरे के उपर गिरे पड़े थे।... एक जत्थे के बाद दूसरा जत्था बेरहमी से पिटने के लिए शांतिपूर्ण तरीके से हाथ उठाए बगैर आगे बढ जाता था। इस आंखों देखी घटना को रिपोर्ट करने के बाद मिलर ने अस्पताल से भी कई रिपोर्ट फाइल कीं। उन्होंने बताया कि 320 घायल हैं, कई बेहोश है जिनके सिर में चोट आई है। काफी दूसरे लोगों को कमर से नीचे और पेट में चोट से तड़प रहे हैं। सैकड़ों घायलों को घंटों से कोई इलाज नहीं मिला और दो की मौत हो गई...।

निहत्थे और शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे लोगों पर पूरी ताकत से हमलावर हुई अंग्रेज सरकार की भर्तस्ना पूरे विश्वभर में हुई। मीडिया के माध्यम से पूरे विश्व ने देखा लिया था कि भारत क्यों पूर्ण स्वराज की मांग कर रहा है। उस समय धारासण सत्याग्रह की घटना को विश्वभर के 1350 अखबारों में छापा था। इससे विश्व की सहानुभूति भारत के प्रति बढ़ी। ग्लोबल प्रेस कवरेज और अंतरराष्ट्रीय समर्थन ने वायसराय लार्ड इरविन को गांधी से बातचीत के लिए मजबूर होना पड़ा। इसी का परिणाम है गांधी-इरविन समझौता। वैसे इस समझौते का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। पर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में नमक आंदोलन और धारासण सत्याग्रह का काफी महत्व है। जिसने आजादी की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर जोड़ दिया। इस आंदोलन ने भारतीय महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से प्रत्यक्ष रूप से जोड़ दिया। साथ ही भारतीयों के मन में स्वतंत्रता की तमन्ना को अधिक जगा दिया था।