शनिवार, 29 सितंबर 2018

#अपना मुंह बंद करो

#VaayaMoodalCampaign
#VaayaMoodalCampaign यानी #शट योर माउथ कंपेन यानी #अपना मुंह बंद करो। यह मुंह बंद कराने का अभियान केरल में चलाया गया, जिसका परिणाम भी तुरंत दिखा। #मी टू कंपेन में जहां महिलाओं से अपना मुंह खोलने की अपील की गई थी, इसके बरक्स #सट योर माउथ कंपेन में ऐसे व्यक्तियों को अपना मुंह बंद करने को कहा गया, जो महिलाओं पर आपत्तिजनक टिप्पणियां कर रहे हैं। वैसे यह कंपेन जिसके कारण अस्तित्व में आया वे ‘महाशय’ और कोई नहीं, बल्कि केरल के निर्दलीय विधायक पीसी जॉर्ज हैं। मामला, जालंधर के बिशप फ्रैंको मुलक्कल पर रेप और यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली एक नन का है। यह इस समय मीडिया में छाया हुआ है। इस मामले को लेकर पीसी जॉर्ज ने कहा कि ‘नन वेश्या’ है। उसने पहली बार ही शिकायत क्यों नहीं की? (इसके अतिरिक्त जॉर्ज ने कई और आपत्तिजनक बातें कहीं।) उक्त नन के बिशप मुलक्कल पर यौन उत्पीड़न के आरोप के बाद बिशप पर कई और नन ने इसी तरह के आरोप लगाए। इन सभी ननों ने बिपश की गिरफ्तारी और मामले की जांच के लिए धरना और प्रदर्शन भी किया। इस बात पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए पीसी जॉर्ज ने यह आपत्तिजनक बातें कही थीं, इसी की प्रतिक्रिया पर #सट योर माउथ कंपेन सामने आया।

जॉर्ज के इस बयान के दो दिन बाद 10 सितंबर को कलाकार, एक्टिविस्ट और पर्यावरणविद् आयशा महमूद ने फेसबुक पर #शट योर माउथ कंपेन छेड़ दिया। उन्होंने अपील की कि आप लोग जॉर्ज को सेलो टेप भेजकर उनका मुंह बंद करने में मदद करें। उनकी इस अपील का असर तुरंत दिखा। उनका साथ देने के लिए कई लोग सामने आए। केरल और केरल से बाहर की कई हस्तियों ने आयशा की इस मुहिम को आवाज दी। इसके बाद सोशल मीडिया पर पीसी जॉर्ज के मुंह पर टेप लगी कई तस्वीरें हैशटैग सट योर माउथ के साथ तैरने लगीं। इस प्रकरण पर आयशा का कहना है कि उन्हें (पीसी जॉर्ज) अपनी जीभ पर कंट्रोल रखने में समस्या आती है। इसलिए उन्हें हमारी सहायता की जरूरत है। ये बात आयशा व्यंग्य में जरूर कहती हैं, पर इसके अर्थ व्यापक है।

महिलाओं पर ऐसी टिप्पणी करने वाले क्या केवल पीसी जॉर्ज हैं? पीसी जॉर्ज जैसे कई बयानवीर हैं, जो महिलाओं को लेकर ऐसी टिप्पणियां या बयान आए दिन देते रहते हैं। क्या इन सभी के मुंह पर टेप नहीं लगना चाहिए? चाहे राजनीतिज्ञ हों, सेलीब्रिटीज हों, इस तरह के बयान देने से पहले वे क्यों नहीं सोचते? अगर मामला महिला से जुड़ा हो, तो वे उसे ‘वेश्या’ घोषित करने में समय नहीं गंवाते हैं। चारित्रिक प्रमाणपत्र बांटना वे अपना ‘धर्म’ समझते हैं। पीसी जॉर्ज को हाल ही में सीसीटीवी फुटेज में टोल कर्मियों से मारपीट करते हुए देखा गया। पर ऐसे कृत्यों के बावजूद उन्हें चारित्रिक प्रमाणपत्र देने की हिम्मत किसी में नहीं है। एक जिम्मेदारी वाले पद पर बैठे जॉर्ज जैसे व्यक्ति जब ऐसी बातें खुले आम करते हैं, तो इसका समाज में गलत संदेश जाता है। पीसी जॉर्ज पीड़ित नन को ‘वेश्या’ घोषित करने में दिक्क्त नहीं होती है, पर आरोपी बिशप मुलक्कल के लिए कुछ नहीं कहते। क्या पीसी जॉर्ज नहीं जानते कि वेश्याएं बनती कैसे हैं और उन्हें आबाद कौन करता है। ये ऐसे लोग हैं, जो सीधे महिलाओं का चरित्र हनन करना अपना ‘मौलिक कर्तव्य’ मानते हैँ।

जॉर्ज जैसे व्यक्तियों को अपनी गलती का अहसास तब और नहीं होता है, जब उनके इस तरह के बयानों का कोई विरोध नहीं होता। तब ऐसे लोगों की हिम्मत और बढ़ जाती है। और चूंकि हमारे समाज का माइंडसेट भी ऐसी ही कथनों के अनुकूल बना हुआ है, इसलिए हम जैसों को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। और हमें फर्क नहीं पड़ता है, तो जॉर्ज जैसों को कोई फर्क नहीं पड़ता। अंतत: वे और बड़े बयानवीर बनकर उभरते हैँ, जैसा कि पीसी जॉर्ज के मामले में देखा जा सकता है। यह उनका आखिरी और पहला बयान नहीं था।

1996 में केरल के इदुक्की जिले के सूर्यनेल्ली में एक किशोरी के साथ सामूहिक बलात्कार कांड में जब 2013 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केस दोबारा ओपन किया गया और पीड़िता ने पूर्व राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरियन को पुन: आरोपी बनाए जाने के संबंध में शिकायत की, तब यह राजनीतिक रूप से काफी गर्म हो गया। ऐसे में पीड़ित लड़की को कांग्रेस सांसद के. सुधाकरन ने ‘बाल वेश्या’ जैसा बताया। उन्होंने कहा कि वह पैसे लेती थी और गिफ्ट लेती थी। 1996 के इस मामले में किशोरी का अपहरण करके 40 दिनों तक राज्य के अलग-अलग जगहों पर ले जाकर बलात्कार किया गया। विशेष अदालत ने 2000 में इस मामले में 36 में से 35 लोगों को दोषी मानते हुए कड़ी सजा सुनाई, पर हाईकोर्ट ने सभी को बरी कर दिया। तब पीड़िता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। किशोरी के इतने सालों के संघर्ष के बावजूद एक ‘जिम्मेदार नेता’ की ऐसी शर्मनाक सोच को क्या कहा जाए?

2013 में पश्चिम बंगाल में लघु-मझोले उद्योग मंत्री स्वप्न देबनाथ ने एक रैली में सीपीएम की महिला नेताओं को लेकर एक शर्मनाक टिप्पणी कर दी। उन्होंने कहा कि सीपीएम की कुछ महिला नेता इतनी गिरी हुई हैं कि वे खुद अपना ब्लाउज फाड़ लेती हैं और हम पर छेड़छाड़ का आरोप लगा देती हैं। जिस पार्टी की मुखिया और राज्य की नेत्री एक महिला (ममता बनर्जी) हों, तब उनकी ही सरकार के एक मंत्री के इस तरह के बयान को क्या समझा जाए। यह किस प्रकार असंवेदनशीलता है, या वहीं माइंडसेट? इसी तरह टीएमसी के नेता तापस पॉल ने विरोधी दल की महिला नेताओं को धमकी देते हुए ‘फर्माया’ था कि वे लड़के (यानी गुंडे) भेजकर रेप करवा देंगे।

ऐसा नहीं है कि यह व्यवहार केवल मजलूम सी महिलाओं के साथ होता है। वास्तविकता यह है कि यह सशक्त कही जाने वाली महिलाओं के साथ भी उसी तत्पर्यता होता है, जैसा उक्त नन और किशोरी के साथ हुआ। इसकी बानगी मशहूर गायक अभिजीत भट्टाचार्य के ट्वीटर अकाउंट के स्थगन से समझा जा सकता है। महिलाओं पर अपनी अभद्र टिप्पणियों को लेकर कुख्यात मशहूर सिंगर अभिजीत भट्टाचार्य ने अरुंधती राय, शेहला राशिद और स्वाति चतुर्वेदी (सभी जानीमानी महिलाएं) को लेकर सोशल मीडिया पर लिखा यानी चारित्रिक हनन करने की कोशिश की। इसके कारण उनका ट्वीटर अकांउट सस्पेंड कर दिया गया। फिर भी अभिजीत कहते रहे कि उन्हें फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि पूरा देश उनके साथ है। (पूरा देश तो नहीं पता, पर हां, उनका यह आत्मविश्वास कि उनके जैसे लोग उनके साथ अवश्य है, तो यह गलत नहीं है। वास्तव में ऐसा है। उनके आत्मविश्वास का आधार हमारे समाज में ही मौजूद है।) माननीयों की इस तरह की और बानगी लोकतंत्र के मंदिर संसद भवन में भी देखी जाती है। महिला आरक्षण की बहस में दिग्गज नेता शरद यादव का ‘परकटी औरतें’ और बाद में ‘गोरी चमड़ी’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया। जिस पर संसद में ठहाके लगे। यह ठहाके तब भी लगे जब प्रधानमंत्री ने शूर्पनखा की हंसी वाली बात कहीं। इसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का संघ की आलोचना के लिए महिलाओं को शॉर्ट्स में देखने वाली बात।

कमोबेश यह ट्रेल काफी लंबी है। इसके लिए #सट योर माउथ कंपेन मात्र एक छोटी, पर महत्वपूर्ण पहल हो सकती है। यह एक ऐसा रास्ता है, जो महिलाओं को अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए मजबूत आधार प्रदान करेगा। किसी भी आपत्तिजनक टिप्पणियों पर चुप न रहने की, बल्कि चुप कराने पर जोर देने का वक्त है।

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

शादी की उम्र को लेकर अंतर क्यों?

Family Law
यह कैसा विरोधाभास है कि 18 साल की उम्र में सरकार चुन सकते हैं पर जीवनसाथी नहीं। इस मामले में शायद महिलाएं भाग्यशाली हैं कि वे 18 साल होने के बाद अपने लिए जीवनसाथी चुन सकती हैं, पर पुरुष नहीं। उन्हें महिला की तुलना में तीन साल और इंतजार करना पड़ता है। यही हमारे देश का कानून है- विभिन्न कानूनों के तहत शादी की न्यूनतम आयु महिलाओं के लिए 18 साल और पुरुषों के लिए 21 साल। शादी के लिए पुरुष और महिला की आयु का अंतर क्यों रखा जाता है? इस अंतर का क्या वैज्ञानिक या सामाजिक आधार है? क्या यह इस विचार को पोषित करता है कि पत्नी पति से उम्र में छोटी होनी चाहिए? इन प्रश्नों का कोई माकूल और तर्कशील उत्तर हमारे पास नहीं है। शायद इसीलिए विधि आयोग ने सुझाव दे दिया कि क्यों न पुरुषों की शादी की न्यूनतम आयु महिला के सामान 18 कर दी जाए।

बलवीर सिंह चौहान की अध्यक्षता वाली विधि आयोग ने हाल ही में ‘परिवार कानून में सुधार’ पर अपने परामर्श पत्र में पुरुषों की शादी की न्यूनतम उम्र महिला के बराबर 18 वर्ष करने का सुझाव दिया है। वैसे विधि आयोग इस सुझाव को उलट ढंग से भी कह सकता था। यानी महिला की शादी की न्यूनतम आयु पुरुषों के बराबर 21 वर्ष कर देनी चाहिए। लेकिन पुरुषों को महिला के बराबर शादी की न्यूनतम आयु निर्धारित करने का सुझाव देने से आशय लैंगिक असमानता की तरफ ध्यान खींचना से ज्यादा है। ‘पति और पत्नी के लिए उम्र में अंतर करने का कोई कानूनी आधार नहीं है, क्योंकि शादी कर रहे दोनों लोग हर तरह से बराबर हैं और उनकी साझेदारी बराबर वालों के बीच वाली होनी चाहिए।’ विधि आयोग का यह कथन समाज में व्याप्त उस नजरिए पर चोट करता है जिसमें शादी के लिए निर्धारित मापदंडों में लड़की को हर लिहाज से छोटा या कमतर होना ही चाहिए। कानूनी रूप से शादी के लिए निर्धारित उम्र में महिला और पुरुष का भेद नहीं होना चाहिए। इसीलिए विधि आयोग आगे जोड़ता है कि ‘अगर बालिग होने की सार्वभौमिक उम्र (18 वर्ष) को मान्यता है, जो सभी नागरिकों को अपनी सरकारें चुनने का अधिकार देती हैं, तो निश्चित रूप से, उन्हें अपना जीवनसाथी चुनने में सक्षम समझा जाना चाहिए।’

विधि आयोग का यह सुझाव आज मौजू हो सकता है। जिस बात का कोई वैज्ञानिक आधार ही न हो, उसे कानूनी जामा क्यों पहनाया जाए? शादी के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताएं चाहे कुछ भी हों, कम से कम कानूनी रूप से तो शादी के लिए महिला और पुरुष की आयु में अंतर नहीं करना चाहिए। सामाजिक रूप से हमारे अंदर लिंग भेद काम करता है, इसलिए हम बाल विवाह जैसा गैर कानूनी काम भी बड़े पैमाने पर करते हैं। यहीं कारण है कि देश में 33 प्रतिशत बाल बधुएं हैं, यानी हर तीसरी बालिका वधु हमारे ही देश की है। हमारा समाज और कानून एक लड़की को 18 की उम्र में ही शादी के लिए परिपक्व मान लेता है, जबकि लड़कों को नहीं। ऐसा कैसे हो सकता है? जबकि दोनों की परवरिश एक ही समय और समाज हो रही होती है। अगर थोड़ी सक्रीयता और सूक्ष्मता से इस बात की पड़ताल की जाए, तो अपने आसपास ही हम इस बात को बढ़ावा देते नजर आते हैं कि एक लड़की शादी के लिए जल्दी परिपक्व हो जाती है। एक बच्ची के पैदा होते ही हम उसकी तुलना उसी के हमउम्र बच्चे (लड़के) करते हुए यह जरूर कहते हैं कि बच्ची छह महीने में ही चलने लगती हैं, बच्ची काफी चंचल होती हैं, बच्ची बहुत जल्दी मुस्कुराने लगती हैं, इस तरह की तमाम तरह की दूसरी बातें भी। हमें जानकर हैरानी होती है कि इन सब बातों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता है। ये सभी लोकमान्यताएं हैं। और इसी के प्रभाव में आकर हम बहुत सी गलत बातों को ठोस आधार प्रदान कर देते हैं।


Gender Bias
2014 में मद्रास हाईकोर्ट ने लड़कियों की मानसिक परिपक्वता के संबंध में कुछ जरूरी सवाल किए थे और उनकी शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाने के सुझाव दिया था। घर से गायब हुई एक लड़की के संबंध में दायर की गई बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका की सुनवाई में कोर्ट ने कहा था कि लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम आयु 21 वर्ष है, जबकि लड़कियों के लिए 18 है। 17 साल की उम्र तक दोनों एक जैसे ही वातावरण में बड़े होते हैं, तो फिर लड़कियों को 18 वर्ष की उम्र में लड़कों के मुकाबले अधिक परिपक्व कैसे माना जा सकता है? इसी क्रम में उन्होंने आगे कहा था कि 18 वर्ष की उम्र में लड़कियां स्कूटर चला सकती हैं या नौकरी पा सकती हैं, पर इसकी तुलना शादी के लिए आवश्यक मानसिक परिपक्वता से नहीं की जा सकती है। इसी तरह फरवरी, 2017 में राष्ट्रीय जनसंख्या स्थिरीकरण विधेयक में महिलाओं की शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 करने का प्रस्ताव किया गया था। यह एक निजी विधेयक था, जिसे तृणमूल कांग्रेस के विवेक गुप्ता ने राज्य सभा में पेश किया था। वहीं बिहार के तत्कालिक मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने विवाह की उम्र 25 वर्ष करने की पैरवी की थी। जनता की अदालत में पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा था कि मुझे लगता है कि सदियों पुरानी आश्रम प्रणाली परंपरा के अनुसार महिला और पुरुष दोनों की विवाह की आयु 25 वर्ष देनी चाहिए। (भारतीय परंपरा में 25 वर्ष के बाद गृहस्थ आश्रम में प्रवेश को उचित माना गया है।) इसके पीछे पूर्व मुख्यमंत्री का मानना था कि विवाह की उम्र को बढ़ाकर 25 वर्ष कर देने से समाज में महिलाओं और बच्चों में व्याप्त खराब स्वास्थ्य और कुपोषण जैसी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है।

लड़कियों की शादी की उम्र कम रखे जाने से आधी आबादी का भारी नुकसान तो होता ही है, साथ ही समाज का स्वस्थ और विकसित निमार्ण में बाधा आती है। पिछले साल जारी एक्शन एड इंडिया संस्था की रिपोर्ट की माने तो देश में 18 साल से कम उम्र में होने वाली 10.3 करोड़ भारतीयों में से करीब 8.52 करोड़ की संख्या लड़कियों की है। इससे लड़कियों का स्वास्थ्य, शिक्षा तो खराब होता ही है, आने वाली हमारी भावी पीढ़ी पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। उनकी आने वाली संतानें न केवल कुपोषण का शिकार होती हैं, बल्कि वे अपना और अपने परिवार का जीवन स्तर उठाने में नाकामयाब रहती हैं। शिशु एवं मातृ मुत्यु दर में इजाफा के मूल में कम उम्र में विवाह एक बड़ा कारण है। इसी रिपोर्ट की माने तो बालिकाओं के बाल विवाह रोकने से तकरीबन 27 हजार नवजातों, 55 हजार शिशुओं की मौत और 1,60,000 बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है।

देश में लड़कियों  की शादी की उम्र 18 साल निर्धारित है, पर आज भी करीब 10.3 करोड़ भारतीयों की शादी अठारह साल से पहले हो जाती है। ऐसे में समझा जा सकता है कि समस्या की जड़ कहां है। अमूमन विश्व भर में लड़कियों और लड़कों की शादी की न्यूनतम आयु में अंतर रखा गया है। कुछ देशों में दोंनों की विवाह की उम्र बराबर है तो कुछ में पुरुषों की आयु महिला की तुलना में अधिक रखी गई है। देश जैसे भूटान, म्यांमार, आस्ट्रेलिया इजरायल, इराक, फ्रांस आदि में महिला और पुरुष की शादी की न्यूनतम आयु बराबर रखी गई है। चीन में महिला और पुरुष की शादी की न्यूनतम आयु क्रमश: 20 और 22 रखी गई है। इस तरह समझा जा सकता है कि शादी को लेकर यह भेदभाव विश्वव्यापी है। अब जब विधि आयोग ने इस तरह की सिफारिश की है, तो इस पर गंभीरता से सोचने और लैंगिक भेदभाव को दूर करने के साथ-साथ इसके कई अच्छे परिणामों पर विचार करने के अवसर के रूप में देखना आवश्यक है।