महिलाओं के स्वास्थ को लेकर हमारे समाज में हमेशा से
लापरवाही, अज्ञानता, ढिलाई और अनुत्तरदायीता का माहौल रहा है।
इसका बहुत बड़ा कारण गरीबी, अशिक्षा के साथ-साथ लैंगिग असमानता के चलते भेदभावपूर्ण व्यवहार, आर्थिक
रूप से दूसरों पर आश्रित होना है। इसके चलते महिलाएं घर में अपने स्वास्थ के बारे
में बात नहीं कर पाती। समाज में दोयम दर्जे की जिंदगी जीने वाली महिलाएं और
लड़कियां अपने सभी फैसलों के लिए जहां पुरुष वर्ग पर आश्रित होती हैं, वहीं उनसे इस बात की आशा नहीं जा सकती कि वे अपने स्वास्थ जैसी मामूली
बातों के लिए जद्दोजहद कर सकेंगीं। यहीं कारण है कि देश में हर वर्ग की स्त्री
अपने स्वास्थ को लेकर न केवल लापरवाह हैं बल्कि एक हद तक उदासीन भी है। ऐसा नहीं
हैकि मैट्रो सिटी में महिलाएं न केवल अपने पैरों में खड़ी हैं, बल्कि एक हद तक काफी पढ़ी-लिखी भी हैं, वे भी अपने स्वास्थ को लेकर ढिलाई बरतती हुई मिल जाएगी। इसका कारण कहीं न
कहीं उनके आसपास का माहौल और बचपन से उनकी परवरिश जिम्मेदार है, जिसके कारण वे अपने खानपान और अपने शरीर के प्रति अनुत्तरदायी हो जाती
हैं।
देश में महिलाओं की एक बड़ी समस्या कुपोषण है। सही ढंग से
खानपान न कर पाने के कारण महिलाएं और किशोर लड़कियां कुपोषण की समस्या को झेल रही
हैं। हाल ही में ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट-2017 आई है। इसमें बताया गया है
कि देश की आधे से ज्यादा प्रजनन क्षमता वाली महिलाएं एनीमिक यानी रक्त अल्पतता से
जूझ रही हैं। यह अध्ययन 140 देशों की महिलाओं के स्वास्थ
संबंधी आंकड़ों पर विश्लेषण वर्ल्ड हेल्थ एसेम्बली ने प्रस्तुत किया। रिपोर्ट में
बताया गया कि 2016 में यह संख्या 48 प्रतिशत
था, जो अब बढ़कर 51 प्रतिशत हो गया। इसी
तरह डब्ल्यूएचओ के 2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत में 54
फीसदी गर्भवती महिलाएं एनीमिक हैं, यह संख्या
पाकिस्तान के 50 फीसदी, बांग्लादेश के 48
फीसदी, नेपाल के 44 फीसदी,
थाइलैंड के 30 फीसदी, इरान
के 26 फीसदी के मुकाबले अधिक है। वास्तव में एनीमिया अपने आप
में कोई बड़ी बीमारी नहीं है। मामूली खानपान में ध्यान देकर इस पर नियंत्रण किया
जा सकता है। लेकिन तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी यह समस्या दशकों से बनी हुई है।
हमारे देश में महिलाओं के एनीमिक होने के कई समाजिक-सांस्कृतिक
कारण हैं। पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण महिलाओं और लड़कियों के साथ तमाम तरह
के भेदभाव किए जाते हैं। बहुत से समाजों में रूढ़ियों और खाने-पीने के कई तरह के प्रतिबंध होते हैं। बचपन से लड़कियों के प्रति खाने-पीने को लेकर होने वाले भेदभाव से भी उनमें जन्मजात पोषक तत्वों की कमी हो
जाती है। किशोरावस्था में जब बच्चियों को मासिकधर्म होने लगता है तब उन्हें पोषक
तत्वों जैसे प्रोटीन, आयरन, मिनरल की
कहीं ज्यादा आवश्यकता होती है, लेकिन उन्हें यह सब उतनी
मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाता है। एक प्रजननकाल वाली महिलाओं में प्रत्येक महीने
मासिकधर्म के तहत 40 मिली. खून शरीर से
निकल जाता है, इसके साथ उनके शरीर से लगभग 0.6 मिलीग्रा. आयरन भी नष्ट हो जाता है। इसलिए एक महिला
के लिए आयरन की आवश्यकता कहीं अधिक बढ़ जाती है। शादी के बाद भी महिलाओं को ससुराल
पक्ष की अधिक जिम्मेदारी के चलते अपने स्वास्थ के प्रति लापरवाह होती जाती है। कई
घरों में प्रजनन या बेटे न पैदा कर पाने के कारण होने वाला भेदभाव भी उनके
स्वास्थ्य पर काफी असर डालता है। कम उम्र में शादी और जल्दी बच्चा पैदा करने के
कारण भी उनका स्वास्थ काफी हद तक प्रभावित होता है। इसलिए उनमें पोषण की कमी और
एनीमिया हो जाना ज्यादा बड़ी बात नहीं लगती है।
सवाल उठता है कि जो महिलाएं घर का इतना ख्याल रखती हैं, वे खुद के
प्रति इतनी लापरवाह क्यों हो जाती हैं? यह भी देखा जाता है
कि महिलाएं घर के दूसरे सदस्यों के न होने पर अपने लिए खाना तक नहीं पकाती। जो भी
थोड़ा बहुत होता है, उसी को खाकर संतुष्ट हो जाती हैं।
उन्हें लगता हैं कि यह उनके लिए पर्याप्त है। कई घरों में यह परंपरा के तहत होता
है कि महिलाएं घर के पुरुषों और बड़े-बूढ़े को खिलाने के बाद
खाती हैं। इसी कारण से उन्हें पर्याप्त और समय पर भोजन नहीं मिल पाता है। कई बार
खाने से अनिच्छा भी हो जाती है। अगर इस दौरान भोजन कम पड़ जाए, तो आधा-अधूरा खाना खाकर उठ जाती हैं। आज भी गांव-देहात में शादी या दूसरे समारोहों में पंगत में महिलाओं को पुरुषों के बाद
खिलाने का रिवाज है। ये कुछ ऐसी छिपी वजहें हैं जिसके कारण भी महिलाओं में पोषक
तत्वों की कमी हो जाती है।
देश के नागरिक अस्वस्थ्य हो तो देश को आर्थिक नुकसान भी
उठाने पड़ते हैं। इसका असर देश की जीडीपी पर भी पड़ता है। 2003 में फूड
पॉलिसी में एक पेपर प्रस्तुत किया गया था, जिसने बताया कि आयरन
की कमी से होने वाली एनीमिया से देश को 0.9 फीसदी जीडीपी का
नुकसान उठाना पड़ता है। यह नुकसान डालर में 20.25 बिलियन और
रुपयों में 1.35 लाख करोड़ से ऊपर था। यह आकलन वर्ल्ड बैंक
ने 2016 की भारत की जीडीपी से निकाला था। चूंकि एनीमिया
प्रमुख रूप से बच्चों और महिलाओं को ज्यादा प्रभावित करता है, इसलिए इस कारण मातृ मृत्यु दर और बीच में ही स्कूल छोड़ने के मामले सामने
आते हैं। इससे राष्ट्र को बड़ी क्षति उठानी पड़ती है। 2014 के
न्यूट्रिशन में प्रकाशित एक स्टडी के अनुसार मातृ मृत्यु से संबंधित कारणों में 50
फीसदी जिम्मेदार कारण एनीमिया ही होता है। साथ ही गर्भावस्था में
भ्रूण मृत्यु, कम वजन के बच्चे, जन्मगत
असमान्यताएं और बीच में ही डिलीवरी होने का कारण भी एनीमिया से संबंधित होता है। एनीमिया
से बच्चों के आईक्यू लेबल को भी नुकसान पहुंचाता है।
देश इस समस्या से लड़ने के लिए
काफी प्रयासरत है। 1970 से ही यहां पर एनएनएपीपी यानी राष्ट्रीय पोषणात्मक
रक्तअल्पता रोकथाम कार्यक्रम चल रहा है। तीन वर्ष पहले इसने साप्ताहिक आयरन व
फोलिक एसिड संबंधित कार्यक्रम चलाया, जिसके तहत किशोरियों को
आयरन से संबंधित गोली दी जाने की व्यवस्था की गई थी। फिर भी, स्वास्थ संबंधी विशेषज्ञों का मानना है कि एनएनएपीपी की इस तरह की मुहिम
पर्याप्त नहीं है। महिलाओं में आयरन की कमी कुपोषण और गरीबी से संबंधित है। भारत
सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ मिशन के तहत 36,707 करोड़ का आवटन
किया है। यह वास्तविक आवश्यकता से काफी कम है। इसके साथ सरकार ने 2.07 लाख करोड़ एक दूसरी योजना महत्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी के लिए खर्च
किए है, ताकि गरीबी से लोग लड़ सके, पर
इस योजना की भी अपनी विवशताएं हैं। जनवरी 2016 की इंडिया
स्पेंड की रिपोर्ट इस संबंध में विस्तार से बताती है।
(पूरा लेख युगवार्ता साप्ताहिक में प्रकाशित)
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