रविवार, 8 अगस्त 2021

महिलाओं के प्रति संवेदनशील होनी चाहिए पुलिस?

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने पिछले दिनों आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कारणों की वजह से महिला पीड़ितों के प्रति एक अलग रूख रखा जाता है। इसलिए महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा से संबंधित सभी मामलों में पुलिस को लैंगिक दृष्टिकोण से संवेदनशील होकर कार्य करने की जरूरत है। साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों से अधिक कारगर ढंग से निपटने के लिए पुलिस अधिकारियों में आवश्यक कौशल और रवैया विकसित करने के लिए यह जरूरी है कि सभी राज्यों के पुलिस संगठन सभी स्तरों पर पुलिसकर्मियों को संवेदनशील बनाने के लिए उपयुक्त पहल करें।

दरअसल यह कार्यक्रम और उपर्युक्त वक्तव्य राष्ट्रीय महिला आयोग और पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो की एक संयुक्त और बहुत ही आवश्यक पहल को लेकर था, जिसमें आयोग और ब्यूरो दोनों की सद्इच्छा है कि देश की पुलिस को महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा और अपराधों को अधिक संवेदनशीलता और बगैर किसी पूर्वाग्रह-पक्षपात के अपने कर्तव्यों को प्रभावी ढंग निभाने के लिए प्रशिक्षित करना है। इसी उद्देश्य के साथ राष्ट्रीय महिला आयोग ने लैंगिक समानता से जुड़े मुद्दों पर पुलिस अधिकारियों को संवेदनशील बनाने (विशेष रूप से लैंगिक आधार पर होने वाले अपराधों के मामलों में) के लिए देशभर में एक प्रशिक्षण शुरू करने का निर्णय लिया है।

हमारे देश की पुलिस का चेहरा कम संवेदनशील और अधिक असंवेदनशीलता का है। उसका पूरा ढांचा अंगेजों के जमाने से जैसा रचा और ढाला गया वैसा ही चला आ रहा है। सुधार की कितनी जरूरत है इसे समय-समय पर कई समितियों और आयोगों की सिफारिशें (धर्मवीर आयोग, पद्नाभैया समिति, सोली सोराबजी समिति आदि) के माध्यम से रखा गया है। तो यह सुधार क्यों नहीं हुए? इसके कई राजनीतिक पेंच और मजबूरियां हैं। खैर, बात यह है कि जो हो सकता है, वह किया जा रहा है। महिला आयोग ने यह बहुत ही महत्वपूर्ण कदम उठाया है। यह सर्वविदित तथ्य है कि महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा और अपराधिक घटनाएं (बलात्कार, छेड़खानी, मारपीट, घरेलू हिंसा, दहेज हत्या, अपहरण, वेश्यावृत्ति के लिए बेचना, मानव तस्करी आदि) दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की क्राइम इन इंडिया-2019 की रिपोर्ट की माने तो लगभग 4.05 लाख (4,05,861) आपराधिक केस दर्ज किये गये थे। यह साल 2018 के मुकाबले 7.3 फीसदी ज्यादा हैं। प्रति एक लाख महिलाओं पर होने वाले अपराधों की दर में भी बढोत्तरी हुई, जहां साल 2018 में 58.8 प्रतिशत थी, वहीं 2019 में बढ़कर 62.4 प्रतिशत पर पहुंच गई है। महिलाओं के प्रति होने वाले इन सभी अपराधों में से 31 प्रतिशत भाग पति या उसके संबंधियों द्वारा की गई क्रूरताओंका है। कुल रजिस्टर केस में से 08 प्रतिशत बलात्कार के केस हैं। गणना के हिसाब से औसतन 87 बलात्कार के केस 2019 में रोज दर्ज कराएं गए। यह कहानी तो दर्ज किए गए महिलाओं के प्रति किए गए अपराधों की है। क्या हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि इन आंकड़ों से महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों की सही तस्वीर पेश होती है। वजह है, हमारा समाज, हमारी पुलिस और कानून व्यवस्था। जिसका भी वास्ता इन सब चीजों से पड़ता है, वह अच्छी तरह से समझ जाता है कि यह व्यवस्था किसके लिए है और काम करती है। ऐसे में महिलाओं और बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों की विसात ही क्या।

इसकी सही तस्वीर और तस्तीक भी हम कर लेते हैं। जो पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो हर साल दर्ज अपराधों को एकसूत्र करता है, वह इन सभी दर्ज केसों पर क्या एक्शन लेता है, यह ज्यादा जरूरी है क्योंकि पुलिसिया कार्यवाही पर ही हमारी अदालतें काम करती हैं। हमारे देश में आॅल इंडिया चार्जशीट रेट (आईपीसी के अंतगर्त) 2019 में 67.2 प्रतिशत था, तो 2018 में 68.1 प्रतिशत था। जबकि इसी दौरान अपराध निस्तारण दर थोड़ा बढ़कर 50 से 50.4 तक रही। यह जानना जरूरी है कि आरोप पत्र की दर ही वह संख्या होती है, जो यह दर्शाती है कि पुलिस ने कितने दर्ज अपराधों का निस्तारण किया। किसी मामले में दोष सिद्धि इसी चार्जशीट पर निर्भर करती है। दोषसिद्धि दर कोर्ट द्वारा अपराध निस्तारण के आधार पर बनती है। इसी रोशनी पर जानते हैं कि महिलाओं के प्रति होने वाले दर्ज अपराधों के साथ क्या होता है?

2019 में बलात्कार के केस में चार्जशीट दर 81.5 प्रतिशत है, जबकि इसकी दोषसिद्धि दर 27.8 रही। केरल में जहां चार्जशीट दर राज्यों में सबसे अधिक 93.2 थी, वहीं दोषसिद्धि दर 13.4 प्रतिशत थी, जो कि राष्ट्रीय औसत 23.7 से भी काफी कम है। ऐसे ही 2019 में देश भर में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के लिए लगभग 44.75 लाख लोगों को गिरफ्तार किया गया, इनमें से 5.05 लाख चार्जशीट दाखिल की गईं, इसमें से 46,164 दोषी ठहराया गया, 13,896 आरोपमुक्त हुए और 1.61 लाख बरी हुए। अब इन आंकड़ों को देखने से ही पता चलता है कि चार्जशीट से दोषी ठहराये जाने के बीच कितना अंतर है? यह अंतर क्यों और कैसे है? खैर, इसके कई कारण हो सकते हैं और है भी। लेकिन प्राथमिक तौर पर पहली जिम्मेदारी पुलिस की ही होती है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है क्योंकि अपराध होने पर सबसे पहले पुलिस ही जांच करती है, इसलिए छोटी से छोटी बात मायने रखती है। क्या दोषसिद्धि तक पहुंचने में इन्हीं छोटी सी छोटी चीजों का हाथ तो नहीं होता है?

पुलिस सुधार के एजेंडे में हमेशा जांच-पूछताछ के तौर-तरीके, जांच विभाग को विधि व्यवस्था विभाग से अलग करने, पुलिस विभाग में महिलाओं की 33 फीसदी भागीदारी के अलावा पुलिस की निरंकुशता की जांच के लिए विभाग बनाने पर जोर दिया गया है। यह सब इसलिए कि पुलिस का चेहरा मानवीय और लोकतांत्रिक बने, जिससे वह अधिक संवेदनशीलता से काम कर सके। एक अच्छी पुलिस आम नागरिकों को न केवल सुरक्षा उपलब्ध कराती है, बल्कि उसके साथ हुई हिंसा या अपराध में न्याय दिलाने में सहायक भी होती है। इसलिए न्याय दिलाने की व्यवस्था में पुलिस जैसे महत्वपूर्ण और सबसे जरूरी अंग पर काफी विश्लेषण किया गया है। इंडियन जुडिशल रिपोर्ट-2019 में पुलिस की संख्या बल, पुलिस में विभिन्न धर्मों, जातियों, महिलाओं का प्रतिनिधित्व पर एक विस्तृत अध्ययन किया गया है। इंडियन जुडिशल रिपोर्ट-2019 की माने तो महिलाओं और बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों में बढोत्तरी और न्याय न मिल पाने की एक बहुत बड़ी वजह महिलाओं का पुलिस संख्या बल में न केवल कम होना है, बल्कि ऑफीसर रैंक में भी उचित प्रतिनिधित्व में न होना भी है। यानी इस रिपोर्ट के अनुसार हम पुलिस में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देकर भी उसे मानवीय चेहरा दे सकते हैं, तो देर किस बात की है? हमें यह भी जानना होगा।

शनिवार, 24 जुलाई 2021

कितना होगा महिला सशक्तिकरण


हालिया मंत्रिपरिषद विस्तार में सात महिलाओं को स्थान मिलने की खबर काफी चर्चा बटोर रही हैं। इन सात महिलाओं के शामिल होने के बाद अब
78 सदस्यीय मंत्रिपरिषद में महिलाओं की संख्या कुल जमा 11 हो गई है। इस तरह अब तक की गठित सरकारों में सर्वाधिक महिलाओं को इस मंत्रिपरिषद में प्रतिनिधित्व मिल गया है। मई, 2019 में जब एनडीए सरकार का गठन हुआ था, तब छह महिला नेत्रियों को मंत्रिपरिषद में जगह मिली थी। नवनियुक्त महिला मंत्रियों में दर्शना जरदोश, प्रतिमा भौमिक, शोभा कारंदलजे, भारती पवार, मीनाक्षी लेखी, अनुप्रिया पटेल और अन्नपूर्णा देवी हैं। इनमें अनुप्रिया पटेल ही ऐसी सांसद हैं, जो दूसरी बार मंत्री बनी है, जबकि शेष सभी पहली बार मंत्रिपरिषद में स्थान पाई हैं। इन सात महिला नेत्रियों के अलावा इस समय केंद्रीय मंत्रिपरिषद में निर्मला सीतारमण, स्मृति ईरानी और साध्वी निरंजन ज्योति और रेणुका सिंह सरूता पहले से ही मौजूद हैं। कुल मिलाकर मंत्रिपरिषद में महिला प्रतिनिधित्व और इस मंत्रिपरिषद विस्तार को लेकर फिर बहस छिड़ गई कि यह विस्तार माकूल है। क्या इतना प्रतिनिधित्व पर्याप्त है? या मात्र महिला वोटरों को आकर्षित करने के लिए ही महिला विस्तार दे किया गया है?

 

17वीं लोकसभा का चुनाव परिणाम इस मायनों में अनूठे थे कि इन चुनावों में महिला उम्मीदवारों ने भी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिखाया था। इस बार 16वीं लोकसभा के मुकाबले इनकी संख्या बढ़कर 78 हो गई थी। सर्वाधिक महिला सांसद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी से चुनकर आई थीं। इनकी संख्या उस समय 41 थी, जो इनके चुने गए कुल सांसदों यानी 303 में से 14 फीसदी को कवर करता था। 2019 की लोकसभा चुनाव के लिए 2014 के मुकाबले भारतीय जनता पार्टी ने ज्यादा महिलाओं को टिकट बांटे थे, जो कुल बांटे गए टिकटों में से मात्र 12 फीसदी ही थे। फिर भी कमाल की बात यह रही कि दिए गए इन 55 टिकटों पर लड़ी महिलाओं का प्रदर्शन 74 फीसदी रहा यानी कुल 41 महिला उम्मीदवारों ने अपनी जीत दर्ज की। इसके बावजूद मंत्रिपरिषद में 06 महिला नेत्रियों को जगह दी गई। इनमें से तीन निर्मला सीतारमण, स्मृति ईरानी और हरसिमरत कौर बादल को कैबिनेट में जगह दी गई थी।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली सरकार में महिला मंत्रियों की संख्या 11 थी, हालांकि यूपीए के दोनों कार्यकालों में अधिकतम 10 महिला सांसदों को ही मंत्री बनाया गया था। जबकि 2014 के कार्यकाल में भी 06 महिलाएं मंत्री पद तक पहुंची थी और इस 2019 के कार्यकाल में भी सिर्फ छह महिलाओं को मंत्री बनाया गया जबकि सर्वाधिक 78 महिलाएं चुनकर संसद तक पहुंची थीं। इस विरोधाभास का क्या कारण हो सकता है। अच्छे प्रदर्शन के बाद भी उचित प्रतिनिधित्व न दिए जाने पर सम्यक विकास की कल्पना कैसे की जा सकती है। इस मंत्रिपरिषद विस्तार के बाद केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने खुशी जाहिर करते हुए टृविटर के माध्यम से कहा कि भारत के इतिहास में सबसे कम उम्र की महिला मंत्रियों का महत्वपूर्ण प्रतिनिधित्व है... एक नए आत्मनिर्भर भारत की आकांक्षाएं।लेकिन सोचने वाली बात की एक आत्मनिर्भर भारत के लिए सत्ता में महिला भागीदारी की कितनी जरूरत है, इसे समझने में अभी कितना वक्त लगेगा?

प्हली बात तो यह है कि संसद में महिला प्रतिनिधित्व काफी कम है। इसीलिए महिला आरक्षण की बात की जाती है, जो सभी दलों की आपसी मौन सहमति से किसी ठंडे बस्ते में अब तक पड़ा हुआ है। इसके बरक्स राजनीतिक दलों को भी महिलाओं के वोट में अधिक दिलचस्पी रहती है पर उन्हें उचित प्रतिनिधित्व देने में कोई रुचि नहीं होती। इसलिए संसद तक की महिलाओं की दौड़ बहुत ही चिंताजनक है। 2019 तक वैश्विक स्तर पर महिला सांसदों का औसत 24.3 फीसदी है। हमारे पड़ोसी बांग्लादेश संसद में महिला प्रतिनिधित्व 21 फीसदी है। यहां तक रवाण्डा जैसे देश में यह प्रतिनिधित्व आधे से अधिक यानी 61 फीसदी है। विकसित देश यूके और अमेरिका में महिला सांसद क्रमशः 32 और 24 फीसदी है। अगर इन सांसदों को अहम जिम्मेदारी यानी मंत्रिमंडल और मंत्रिपरिषद में स्थान देने की बात की जाए तो भी हमारे मुकाबले कई देश आगे हैं। जून, 2018 को जब स्पेन के प्रधानमंत्री पेद्रो सांचेज अपने मंत्रिमंडल के 17 में से 11 अहम पदों के लिए महिलाओं को चुना, तो यह नया रिकाॅर्ड बन गया, जिसकी उन दिनों काफी चर्चा हुई थी। यह महिला प्रतिनिधित्व 61 फीसदी होता है।

2017 संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया भर की सरकारों पर एक अध्ययन किया था। इस अध्ययन रिपोर्ट में बताया गया कि उस दौरान किसी भी देश के मंत्रिमंडल में 52.9 फीसदी से ज्यादा महिलाएं नहीं थीं। सिर्फ छह देश ऐसे थे जहां मंत्रिमंडल में पचास फीसदी या उससे अधिक महिलाएं स्थान पा रही थीं। गौर करने वाली बात यह कि तेरह ऐसे देश भी थे जिनके मंत्रिमंडल में कोई महिला ही नहीं थी। महिलाएं अपनी योग्यता से संसद तक पहुंचने में अपनी जगह बना भी लेती है, तो उन्हें मंत्रिमंडल और मंत्रिपरिषद में स्थान मिलना इतना सहज नहीं होता है। हां, महिला वोटरों को आकर्षित करने के लिए महिला प्रतिनिधित्व का जो दबाव पड़ता है, उससे कहीं अच्छा होता कि महिला शक्ति का उपयोग बेहतर तरीके से आगे बढ़कर किया जाए। महिलाओं की योग्यता में कोई शक नहीं है, जहां इस मंत्रिपरिषद बदलाव में 12 मंत्रियों से इस्तीफे लिए गए उसमें से केवल एक महिला मंत्री थी।  

रविवार, 11 जुलाई 2021

महिला वैज्ञानिक की काम पर फिर वापसी

 

पिछले दिनों एक ऐसी बुकलेट से रूबरू हुई जिसमें सौ महिलाओं की कहानियां दी गई हैं। ये इन महिलाओं की कहानियों से अधिक इस समाज की समस्या को इंगित करती हुई संबोधित है। ये सभी महिलाएं विज्ञान-टेक्नाॅलजी में रची-बसी उच्च शिक्षित महिलाएं हैं जिन्हें शादी और परिवार की जिम्मेदारियों के चलते अपना फलता-फूलता कैरियर
पर विराम लगाना पड़ा। कुछ सालों बाद जब उन्हें लगा कि बाहर निकलकर अपनी योग्यता के अनुसार कुछ काम मिल जाए, तो उन्हें निराशा ही हाथ लगी। ऐसे में किरण ने इनकी जिस तरह से मदद की उसकी सराहना की जानी लाजिमी है। इस तरह की पहल से और दूसरी स्ट्रीम में काम कर रही महिलाओं के हौसले बुलंद होने की उम्मीद भी बन गई है। किरण जैसी दूसरी तरह की पहल होनी चाहिए जिससे महिलाएं एक कैरियर विराम के बाद अपना कैरियर फिर से शुरू कर सके और देश के ऐसे वेल एजुकेटेड रिसोर्स बरबाद होने से बच जाए। शायद सरकार इस ओर सोच रही है पर उसे जल्द-जल्द से अपना दायरा बड़ा भी करना होगा।

इस बुकलेट में दी गई कहानियों को हंड्रेड सक्सेज स्टोरी आॅफ वूमेन साइंसटिस्ट स्कीम शीर्षक से विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग यानी डीएसटी ने एकत्र किया है। डीएसटी का नॉलेज इंवॉल्वमेंट इन रिसर्च एडवांसमेंट थ्रू नर्चरिंग (किरन) प्रभाग है जिसने बीच में अपना करियर छोड़ देने वाली महिला वैज्ञानिकों का सहयोग किया। महिला वैज्ञानिक योजना के तहत इन महिलाओं को विज्ञान की तरफ लौटने में सहायता की। पुस्तिका में 100 महिला वैज्ञानिक योजना प्रशिक्षुओं के बारे में बताया गया है। इसमें इन महिलाओं की जिंदगी की दास्तान है कि कैसे उन्होंने अपने जीवन की बाधाओं को पार कर कामयाबी हासिल की। महिला वैज्ञानिकों का सफर दिखाने के अलावा, किताब में उनकी शैक्षिक योग्यता, विशेषज्ञता, वर्तमान रोजगार की स्थिति, अनुभव और बौद्धिक सम्पदा अधिकार में तकनीकी योग्यता के बारे में बताया गया है, जिसे इन महिला वैज्ञानिकों ने प्रशिक्षण पूरा करने के बाद हासिल किया है।

किताब में दी गई महिला वैज्ञानिकों के बारे में जानना अधिक रोचक है। किस तरह यह प्रशिक्षण महिलाओं के जीवन में परिवर्तन ला रहा है। केमिकल साइंस से पीएचडी डाॅ. अंजली जेटली ने इस प्रशिक्षण को प्राप्त कर खुद की अपनी फर्म खोल ली। अंजली ने अपनी परिवारिक  जिम्मेदारियों के चलते कैरियर में विराम ले लिया था। उन्होंने अपनी मैचमेट के साथ ही प्रशिक्षण पूरा होने के बाद फर्म खोल ली। उन्हें अपना खुद का व्यवसाय करने का जो उत्साह था वह उन्हें इस मुकाम तक लेकर आया। इसी तरह की कहानी डॉअंजली सिंह की है। उन्होंने केमेस्ट्री से पीएचडी करने के बाद अपना कैरियर बनाने की सोची, लेकिन एक बच्ची की मां बन जाने के बाद वे इस ओर अधिक नहीं सोच सकीं। डब्ल्यूओएस की ट्रेनिंग के बाद वे आज गुरूग्राम में एक प्रसिद्ध लाॅ फर्म में कंस्ल्टेंट के तौर काम कर रही हैं। लाइफ  साइंस से एमएससी अर्चना डोभाल ने भी इस ट्रेंनिंग को पूरा करने के बाद एक इंट्रेप्रिनेयोर बनकर उभरी हैं। उन्होंने अपनी एक आइपी फर्म खोल ली है। अपनी फर्म के जरिये वे सलाह देने के साथ-साथ विद्यार्थियों के लिए वर्कशाप और ट्रेनिंग भी देती हैं।

इस बुकलेट में अर्चना राघवेंद्र की कहानी काफी साहसिक और मार्मिक है। अर्चना इलेक्ट्रानिक्स से एमटेक हैं। शादी के बाद ने अपना अध्यापन का कैरियर छोड़कर पति के साथ कनाडा में बस गईं। सब कुछ अच्छा बीतने के साथ जब दुखों का पहाड़ उन पर टूटा तो वे वापस अपने देश लौटीं। अपने दो छोटे बच्चों, पति और सास-ससुर की देखभाल के लिए उन्हें फिर से आर्थिक रूप से मजबूत होना था। तब इस प्रशिक्षण ने उनकी मदद की। इस प्रशिक्षण के दौरान उन्हें जो स्टाइपेन मिला उन्हें उससे भी मदद मिली। ऐसी बहुत सी महिलाओं के बारे में इस किताब में दिया गया है।

कामोवेश देश में हर दूसरे घर की महिलाओं की कहानी ऐसी मिल जायेगी। कैरियर में ब्रेक किसी के लिए भी बीच रास्ते से पीछे लौटना होता है। चाहे यह परिवार की जिम्मेदारियों के चलते हो या किसी दुर्घटनावश। इसका सबसे ज्यादा भुक्तभोगी महिलाएं ही बनती हैं। सीएमआइइ की माने तो यह समस्या पूरे देश में है। वास्तव में यह समस्या मिड ऐज कैरियर में आती है। परिवारिक दबावों और सैलरी में अंतर के कारण 2.4 मिलियन महिलाओं ने 2017 में अपनी नौकरी छोड़ दी थी। कई भारतीय और अंतरराष्ट्रीय शोध और रिसर्च इस बात पर जोर देते है कि जीडीपी में बढोतरी के लिए महिलाओं को अधिक से अधिक रोजगार देना होगा। वल्र्ड बैंक ने एनएसएसओ के सहयोग से देश में एक सर्वे के दौरान पाया कि 2004-2012 के दौरान 20 मिलियन महिलाओ ने अपनी नौकरी छोड़ दी जिनमें से 65 से 75 फीसदी महिलाएं वापस अपनी नौकरी पर कभी नहीं लौटी। आखिर क्यों, क्योंकि उन्हें वह माहौल नहीं मिला जिनकी वे हकदार थीं। आखिरकार विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के किरण प्रभाग ने यह कदम उठाया है, तो यह महिलाओं के लिए आशा की किरण बन गई है।

शनिवार, 5 जून 2021

क्या महिलाएं अब बनेगीं कर्नल, ब्रिगेडियर और जनरल

 

हमारी सामाजिक व्यवस्था पुरुषों ने पुरुषों के लिए बनाई है, यहां समानता की बात झूठी है। सेना ने मेडिकल के लिए जो नियम बनाये हैं, वो महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करते हैं। महिलाओं को बराबर अवसर दिए बिना रास्ता नहीं निकल सकता। 25 मार्च को यह कड़ी टिप्पणी सुप्रीम अदालत की तब आई, जब गत वर्ष सेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन देने के लिए कहने के बावजूद भेदभावपूर्ण मापदंड के तहत कुछ महिला अधिकारियों को अयोग्य ठहरा दिया गया। 16 साल की लड़ाई लड़ने के बाद मिले अधिकारों को यूं भेदभावपूर्ण मापदंड की भेट न चढ़ने देने के लिए महिलाएं फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं और सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से भेदभाव करने के लिए सेना की आलोचना की। जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस एम.आर. शाह की पीठ ने कहा कि हमें सिक्के के दूसरे पहलू को भी देखना चाहिए। हम मानते हैं कि फौज में महत्वपूर्ण ओहदा हासिल करने के लिए शारीरिक रूप से दक्ष होना जरूरी है। ...सेना की नौकरी में तमाम तरह के टेस्ट होते हैं, तमाम तरह के उतार-चढ़ाव आते हैं और जब समाज महिलाओं पर बच्चे की देखभाल और घरेलू कामों की जिम्मेदारियां डालता है, तो यह और चुनौतीपूर्ण हो जाता है। फलतः सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित प्रक्रिया का पालन करते हुए दो महीने के भीतर स्थायी कमीशन देने का निर्देश दिया है।

क्या है शाॅर्ट सर्विस कमीशन

सेना में महिलाओं की सेवा देने का इतिहास आजादी से पहले का है। 1888 में जब अंग्रेज शासकों ने इंडियन मिलिट्री नर्सिंग सर्विस की शुरूआत की तब इसमें महिलाओं को रखा गया। इस सेवा में महिलाओं ने खुद को साबित भी किया। जंग के मैदान में इन महिला नर्सों को भी सेवा के लिए भेजा जाता था, जो किसी जंग से कम नहीं था। आजादी के बाद सेना में महिलाओं केा कुछ यूनिट्स में प्रवेश दिया गया था, पर शाॅर्ट सर्विस कमीशन के तहत। शाॅर्ट सर्विस कमीशन के तहत महिलाएं केवल 10 से 14 साल तक सेना में काम कर सकती थीं, इसके बाद वे सेवानिवृत्त हो जाती थीं। हां, एक नवंबर, 1958 को आर्मी मेडिकल काॅप्र्स में महिलाओं को स्थाई कमीशन दिया गया, जो पहली बार था। इसके बाद लीगल और एजूकेशन काॅप्र्स ने भी महिलाओं को स्थाई कमीशन दिया। कुल मिलाकर उन्हें गैर फौजी और गैर लड़ाकू किस्म के काम दिए गए वे भी शाॅर्ट सर्विस कमीशन के तहत। सेना में स्थाई कमीशन न मिलने के कारण महिलाएं जब सर्विस छोड़ती तो उन्हें पेंशन, ग्रेच्युटी, मेडिकल इंश्योरेंस और रिटायरमेंट के बाद की सुविधाएं नहीं मिलती, फलतः उन्हें भविष्य के लिए फिर से संघर्ष करना पड़ता। वहीं पुरूषों को पांच या दस साल की नौकरी के बाद स्थायी कमीशन दे दिया जाता था। इस तरह यह शाॅर्ट सर्विस कमीशन महिलाओं को सेना में जाने और एक कॅरियर के तौर पर इसे अपनाने के मामले में हतोत्साहित कर रहा था। इसलिए इसके तहत काम कर रही महिलाओं स्थायी कमीशन दिए जाने की मांग शुरू कर दी।

 

क्या था फैसला

स्थायी कमीशन को लेकर पहली याचिका साल 2003 में डाली गई थी। इसके बाद इंडियन नेवी की ग्यारह महिला अधिकारियों ने स्थायी कमीशन के लिए साल 2008 में फिर से दिल्ली हाई कोर्ट में केस दायर किया। दिल्ली हाई कोर्ट ने महिला अधिकारियों के हक में 2010 में फैसला सुनाया। 21 मार्च, 2010 को कोर्ट ने कहा कि आजादी के 63 साल बाद भी महिलाओं के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार हो रहा है, जो संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। साथ ही रक्षा मंत्रालय और भारतीय सेना को यह आदेश दिया कि महिलाओं को सेना में स्थायी कमीशन दिया जाए। लेकिन सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई। हालांकि इस फैसले को इंडियन नेवी और एयर फोर्स ने मान लिया था पर आर्मी इस बात को मानने को तैयार नहीं हुई। तब आता है फरवरी 2020 का वह दिन जब सुप्रीम कोर्ट ने भी महिला अधिकारियों के पक्ष में ही फैसला सुना दिया। सुप्रीम कोर्ट ने शार्ट सर्विस कमीशन की सभी महिलाओं को स्थायी कमीशन के लिए योग्य बताया, जो आमी की प्रत्येक सेवा पर लागू होगा। जो महिलाएं सेना में 14 वर्ष का समय पूरा कर चुकी हैं, व ेअब 20 साल तक सेना में रह सकती हैं और तमाम सुविधाओं की हकदार भी होंगी। कुल मिलाकर सेना में काम कर रहीं सभी महिलाएं पुरूषों की तरह पेंशन और दूसरी सेवाओं की हकदार होगीं। साथ ही कमांडिंग पोजीशन तक भी महिलाओं की पहुंच होगी। 17 फरवरी 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में भारतीय सेना की सभी 10 शाखाओं में शॉर्ट सर्विस कमीशन महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन देने की बात कही थी। ये शाखाएं हैं- आर्मी एयर डिफेंस (एएडी), सिग्नल्स, इंजीनियर्स, आर्मी एविएशन, इलेक्ट्रॉनिक्स एंड मैकेनिकल इंजीनियर्स (ईएमई), आर्मी सर्विस कॉर्प्स (एएससी), आर्मी ऑर्डिनेंस कॉर्प्स (एओसी) और इंटेलीजेंस कॉर्प्स।

 

कितनी है सेना में महिलाएं

फरवरी, 2021 में संसद में रक्षा राज्यमंत्री श्रीपद नाइक ने एक सवाल के जवाब में सेना में महिलाओं की उपस्थिति के बारे में बताया था। तीनों सेनाओं में महिला आॅफीसर के रूप में 9,118 महिलाएं अपनी सेवाएं दे रही हैं। इंडियन आर्मी में 12,18,036 पुरूषों की तुलना में 6,807 महिलाएं सेवारत हैं जो प्रतिशत के तौर पर 0.56 बैठता है। इसी तरह इंडियन एयर फोर्स में 1,46,727 पुरूषों की तुलना में 1,607 महिलाएं सेवारत हैं जो प्रतिशत के तौर पर 1.08 बैठता है। वहीं इंडियन नेवी में कुल पुरूषों की तुलना में उनकी संख्या 6.5 प्रतिशत तक है। सबसे ज्यादा महिला आॅफीसर्स इंडियन नेवी में सेवारत हैं, जो इस समय संख्या की दृष्टि से 704 हैं। वास्तव में ये आंकड़े उत्साहवर्द्धक नहीं हैं। सेना में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है। जबकि अमेरिका में महिलाओं की संख्या पुरूषों की तुलना में 20 फीसदी और ब्रिटेन में 09 फीसदी है। बाकी के देशों में भी महिला भागीदारी भारत से अच्छी है। निःसंदेह इस फैसले के बाद महिलाओं के बीच सेना ज्वाइन करने को लेकर उत्साह आ जायेगा। सरकार भी सेना में महिलाओं की भागीदारी के प्रति प्रतिबद्ध है।

इस फैसले से युवा लड़कियां अधिक प्रोत्साहित होगीं। वे सेना को भी अपने भविष्य के एक कॅरियर के तौर पर देख सकेगीं। सेना में अब महिलाओं के पास पूरे 54 साल की उम्र तक राष्ट्र सेवा करने का मौका होगा। महिला अधिकारियों को पदोन्नति के सभी रास्ते खुल गए हैं। अब तक वे शार्ट सर्विस कमीशन में ले. कर्नल से आगे नहीं जा पाती थीं। इसके लिए आवश्यक एडवांस लर्निंग कोर्सेज में भी जा सकेगी। जिसके बाद और अच्छा करने के तमाम अवसर खुल जाएंगे। साथ ही पदोन्नति के भी रास्ते खुलेंगे। कुल मिलाकर हम भविष्य में महिला कर्नल, ब्रिगेडियर और जनरल जल्द ही देखेंगे।

शनिवार, 22 मई 2021

‘गुरु को ईर्ष्या नहीं, असुरक्षा फील होती है’


फिल्म आवर्तनगुरु-शिष्य परंपरा बनी है जिसमें गुरु-शिष्य के बीच कई पीढ़ियों से चले आ रहे संबंधों को लेकर बनाया गया है। फिल्म की कहानी और निर्देशन दुर्बा सहाय का है। फिल्म में मुख्य भूमिका मशहूर कथक नृत्यांगना शोवना नारायण ने की है। हाल ही में फिल्म आवर्तनआईएफएफआई एवं आईएफएफटी दिखाई गई है। दुर्बा सहाय कहानी लेखन, पटकथा लेखक और थिएटर में एक जाना-पहचाना नाम है। उन्होंने फिल्म निर्देशन की शुरूआत दपेनसे की थी। इसके बाद कई शाॅर्ट फिल्में बनाई जिनमें से ऐन अननोन गेस्ट, द मैकेनिक, पेटल्स, पतंग जैसी फिल्मों ने लोगों का ध्यान खींचा। आवर्तनउनकी पहली फीचर फिल्म है। फिल्म को लेकर दुर्बा सहाय के अनुभव और रचना प्रक्रिया के बारे में बात की प्रतिभा कुशवाहा ने।

 

इस फिल्म को बनाने का ख्याल कैसे आया। क्या किसी प्रकार की कोई प्रेरणा काम कर रही थी।

हां, प्रेरणा तो थी ही। क्या होता है कि आइडियाज अचानक से आते हैं और चले भी जाते है। तुम इस पर कुछ लिखो या बनाओ। चूंकि मैं फिल्म मेकिंग से बहुत समय से जुड़ी हुई हूं, तो मुझे लगा कि गुरु-शिष्य परंपरा पर भी एक शाॅर्ट फिल्म बनाते हैं। तो जब लिखने लगी तो लिखते-लिखते लगा कि इस पर शाॅर्ट फिल्म नहीं बन सकती। यह फीचर फिल्म बनेगी क्योंकि कहानी चारों तरफ से अपने फंख फैला रही थी।

लीड रोल के लिए शोवना नारायण का ही चुनाव आपने क्यों किया। उनके साथ काम का कैसा अनुभव रहा आपका

गुरु-शिष्य परंपरा के लिए मैंने एक डांसर को ही चुना वैसे मैं किसी पेंटर, किसी सिंगर के गुरु को भी चुन सकती थी, पर मुझे डांस से बहुत अधिक लगाव है खासकर कथक से बहुत ज्यादा। तो जब मैं लिख रही थी तभी मुझे लगा कि शोवना जी से अच्छा कौन नृत्यांगना हो सकती हैं। शोवना जी मेरी मित्र भी है इसलिए कहानी देखते ही उन्होंने हां कर दिया। पर उनकी हां के बाद मुझे तो दस दिन तक नींद ही नहीं आई कि मैं उनसे एक्टिंग कैसे कराउंगी। फिर मैंने साहस बटोरा कि चलो, जिनको-जिनको लिया है,

उनसे रिहर्सल के द्वारा हम अपना लक्ष्य पा लेंगे। तो हम रोज ही रिहर्सल करते थे एक-एक डाॅयलाॅग पर काम करते थे कि कैसे करना है। फिर उसमें डांस कितना होगा। एक लेखक होने के नाते मेरा डर था कि फिल्म में डांस हाॅवी न हो जाए। कहानी कहीं छुप न जाए। तो इसे बैलेंस रखने के लिए मुझे बहुत काम करना पड़ा। तीन महीने हमने इन्हीं सब बातों में काम किया। फिर फिल्म की शूटिंग शुरू हुई। सुषमा सेठ ने फिल्म में शोवना जी के गुरु का रोल किया है। फिल्म में दो-चार पीढ़ी की गुरु शिष्य परंपरा को दिखाया गया है। सितारा देवी, गौहर जान सभी के फुटेज शामिल किये गये है। फिल्म की शुरूआत सितारा देवी को दिखाते हुए ही शुरू होती है।

यह फिल्म गुरु-शिष्य रिश्ते के चक्र को दर्शाती है। एक गुरु अपने शिष्य के संरक्षक के रूप में काम करता है यही कारण है कि शिष्य अपने गुरु पर आगाध विश्वास करते हैं। क्या यह संभव है कि एक गुरु के मन में अपने शिष्य की सफलता को लेकर ईर्ष्या हो जाए।

नहीं, ईर्ष्या नहीं होती है असुरक्षा फील होती है। इसे मानवीय स्वभाव कह सकते हैं, पर ऐसा नहीं है कि यह हमेशा के लिए हो। थोडे वक्त के बाद उतर जाता है। एक बार हंस संपादक राजेंद्र यादव जी से मैंने पूछा था कि आप जिन लोगों से इतना पीछे पड़कर लिखवाते हैं, जब वे आपसे अच्छा लिख लेते हैं तब आपको जलन नहीं होती है। वे बहुत देर के बाद सोचकर बोले कि ईर्ष्या तो नहीं होती है, हां असुरक्षा महसूस होती है। फिर भी हम उससे कहते है कि इससे भी अच्छा लिखो और अपने फंख फैलाकर उड़ जाओ। तो राजेंद्र जी की यह बात भी कहीं न कहीं मेरे दिमाग में बनी रही।

यह फिल्म अब तक कहां-कहां प्रदर्शित हो चुकी है।

यह फिल्म इंडियन पैनोरमा फीचर फिल्म सेक्शन के तहत 51वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव गोवा में और अभी हाल ही में 16वें थ्रिसुर (आईएफएफटी) गई थी। आगे यह कोलंबो में प्रदर्शित होगी। यह फेस्टिवल केवल महिला फिल्म निर्देशकों की फिल्मों पर होता है। साथ ही नेशनल अवार्ड के लिए भी भेज रखा है। 

आपने अभी तक काफी शार्ट मूवी बनाई है, यह आपकी पहली फीचर फिल्म है। इन दोनों माध्यमों को लेकर आपकी राय क्या है।

एक छोटी फिल्म बनाने में भी उतनी मेहनत है जितनी एक बड़ी फिल्म बनाने में। बल्कि छोटे स्पेस में अपनी बात कहना ज्यादा मुश्किल होता है। लांग स्टोरी और शार्ट स्टोरी में जो अंतर होता है, वही फिल्म निर्माण में होता है।

इस फील्ड में महिला-पुरुष निर्देशक के फिल्मांकन की संवेदनशीलता में कोई अंतर पाती हैं।

नहीं ऐसा नहीं है। पुरुष निर्देशक भी पूरी संवेदनशीलता से अपना काम करते हैं। 

आगे आप किन चीजों पर काम करने जा रही है।

-विचार तो कई चल रहे है। सोच रही हूं कि पहले कहानी लिखूं, बहुत दिन हो गए हैं कहानी लिखे। फिल्मों के बारे में फिर देखते हैं।

शनिवार, 8 मई 2021

‘मेरे पास मेरा अपना स्त्रीवाद है’

पांच दशकों से अपने लेखन से पाठकों का दिल जीतने वाली कथाकार-उपन्यासकार-व्यंग्यकार वरिष्ठ साहित्यकार सूर्यबाला को हाल ही में भारत भारती सम्मान से नवाजा गया है। भारत भारती उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का सबसे बड़ा पुरस्कार है। उत्तर प्रदेश के वाराणसी में जन्मीं सूर्यबाला को साहित्य जगत में पहचान मेरे संधि-पत्रसे मिली। उनकी कहानियों में एक मध्यमर्गीय स्वतंत्रचेता स्त्रियों का चित्रण बखूबी मिलता है। उनकी कहानियों की स्त्री स्वाभिमान और विवेक से लबरेज है। वह समाज से विद्रोह करती है, पर खुद के लिए नहीं, दूसरों के लिए। मुखर स्त्री विमर्श के इस दौर में सूर्यबाला का स्त्री विमर्श स्त्रीभाव से जुड़ा हुआ है। कथा लेखन के साथ-साथ उनकी कलम व्यंग्य लेखन में भी खूब चली है। कौन देस को वासी, वेणु के डायरीके बाद इस समय वे अपने संस्मरणात्मक लेखों पर काम कर रही हैं। पिछले दिनों उनके साहित्यिक अवदान पर उनसे बात की प्रतिभा कुशवाहा ने। प्रस्तुत है इसके महत्वपूर्ण अंश।


अपनी साहित्यिक यात्रा के बारे में कुछ बताएं। कैसे शुरू हुई आपकी लेखकीय यात्रा।

बहुत बचपन से ही मुझे लगने लगा था कि मेरे अंदर कुछ कविता सी बन रही है। घर लोगों को छंद-चैपाई कहते हुए सुनती थी तो लगा कि मैं भी कविता कह सकती हूं। बाद में स्कूल की पत्रिका में छपी मैं। उत्तर प्रदेश का एक पत्र था आज। उसमें मेरी किशोरवय की कविताएं और कहानियां प्रकाशित हुईं।

आपको पहचान दिलाने वाली रचना कौन सी थी।

शादी के बाद लिखना छूट गया और मैं अपनी गृहस्थी में डूब गई थी पर मेरा पढ़ना जारी था। मैं ढेर सारी पत्र-पत्रिकाएं मगाया करती थी। उनमें सारिका में एक कहानी पढ़ने के बाद मैंने प्रतिक्रिया लिखी और सारिका के संपादक कमलेश्वर जी को भेज दी। एक महीने बाद कमलेश्वर जी का लिखा पत्र आया। पत्र में लिखा था कि सूर्यबाला जी, आपकी रचना ;पत्रद्ध मिली और रचना में निहित व्यंग्य को पढ़कर लगा कि अगर आप लिखे तो हिन्दी को बहुत अच्छी रचनाएं मिल सकती हैं। इस पत्र ने मेरे लेखकीय जीवन के लिए एक लाइटहाउस का काम किया। मेरी जो अब तक आधी-अधूरी रचनाएं पड़ी हुई थीं, मैंने उन्हें बटोरा, और उनमें से एक को पूरा करके कमलेश्वर जी को भेज दिया। उन्होंने मेरी कहानी जीजीआगामी महिला कथाकार अंक के लिए स्वीकृत कर ली। यह 1972 की बात है। इसके तीन महीने बाद एक व्यंग्य धर्मयुग के होली अंक में प्रकाशित हुआ। इस तरह सिलसिला चल निकला।

 

आपकी कहानियों में आत्मचेतस और चेतना सम्पन्न स्त्रियों के कई रूप दिखते हैं, पर बहुत आधुनिक किस्म की महिलाओं की उपस्थिति बहुत कम है जबकि आप मुबंई जैसी मायानगरी में काफी समय से रह रही हैं।

मैं विचारों की आधुनिकता पर विश्वास करती हूं, खानपान, कपड़े, फैशन की आधुनिकता पर नहीं। अगर आप इस कसौटी पर मेरी कहानियों की स्त्रियों को कसेगीं, तो आपको निराश ही होना पड़ेगा। मेरी स्त्रियां बहुत स्वाभिमानी हैं। वे न कभी गलत चीज को स्वीकारती हैं, न गलत कदम उठाती हैं, न गलत समझौता करती हैं। वे सर्पण करती हैं, समझौता करती हैं, विद्रोह में खड़ी भी होती हैं, लेकिन अपने लिए नहीं दूसरों के लिए। वे लेने में नहीं देने में विश्वास करती हैं। मेरा मानना है कि हम देने का सुख भूल गए है। हमारे अंदर जो आनंद का स्रोत है वह देने में है। आज की दुनिया में प्राप्ति और लूट की होड़ मची है। आप जरा किसी के लिए कुछ करके देखिये। बहुत छोटी-छोटी चीजें, छोटी सी मदद, छोटी सी सहानुभूति फिर देखिए कि आपको कितना अच्छा लगता है। हमने वह खुशी गंवा दी है इस छंद्म आधुनिकता के लिए। मेरी कहानियों की स्त्रियों के बारे में लोग पूछते हैं कि ये आदमकद महिलाएं आपको कहां मिलीं। मुझे अपने जीवन में मिली हैं ऐसी महिलाएं। अभी भी मेरे पास ऐसी स्त्रियां है कि जिनके बारे में मैं लिखूंगी तो लोग उन्हें विश्वसनीय नहीं मानेगें। धर्मयुग में प्रकाशित मेरा पहला उपन्यास संधिपत्र था, जिसके कारण मैं घर-घर जानी गई। तो उसकी नायिका शिवा के बारे में समीक्षकों का कहना था कि क्या स्त्री है एकदम दयनीय है, समझौते पर समझौता करती जा रही है। विद्रोह करना आता नहीं। तो यह वह बहुत ही बचकानी बात है। समझदार लोग कहते हैं कि शिवा का चरित्र बहुत ही सशक्त और समृद्ध है, वह स्वयं अपने निर्णय लेती है।

तो फिर आपके अनुसार एक स्त्री की स्वतंत्रता क्या है।

स्वतंत्रता बहुत सारे दायित्वों और कर्तव्यों से बंधी होती है। स्वतंत्रता की भावना बहुत ही मूल्यवान है। इसलिए उतनी ही सावधानी से रखनी होती है। इस स्वतंत्रता की रक्षा हमें खुद ही करनी है। हमें बहुत विवके और सावधानी से ख्याल रखना होगा कि कहीं हमारी स्वतंत्रता किसी दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा न बन जाए। यही असली स्वतंत्रता है।

एक लेखिका होने के नाते क्या आप खुद को महिलावादी मानती हैं।

मैं तो नहीं मानती हूं पर लोग मानते हैं। इससे मुझे कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि मेरे पास मेरा अपना स्त्रीवाद है। यह स्त्रीवाद स्त्री भाव से जुड़ा हुआ है। यह स्त्री की अस्मिता, गरिमा, विवेक स्त्री की वास्तविक शक्ति है। आज स्त्री अपनी इस वास्तविक शक्ति को भूला बैठी है। स्त्री बाहरी शक्ति की भूल-भुलैया में अपनी शक्ति और सामथ्र्य तलाश रही है वह अपनी आंतरिक शक्ति की राह से भटक गई है।

क्या दलित विमर्श की तरह स्त्री विमर्श जरूरी है?

बिलकुल जरूरी है। विमर्श से तमाम विचार आते है और इन विचारों से विमर्श आगे बढ़ता है। इससे हम परस्पर लाभान्वित होते हैं। एक सैधांतकीय भी बनती है पर समस्या तब आती है, जब हम एक विचार को बाजार दे देते हैं। जब हम विचार को ही बेचने लगते हैं, वहां परेशानी आती है।

क्या आपको लगता है कि आज स्त्रीविमर्श बाजारवाद के प्रभाव के चलते देह विमर्श तक सीमित होकर रह गया है?

बिलकुल। पर सब नहीं। क्या होता है कि गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। स्त्री लेखन तो बंग महिला के समय से हो ही रहा है। पर कोई चीज जब बहुत अधिक लोकप्रिय होने लगती है, तो उसकी डिमाण्ड बढ़ने लगती है, सप्लाई भी बढ़ती है। जब सप्लाई बहुत अधिक बढ़ने लगती है वह चीज प्रदूषित हो जाती है। तो यह विमर्श अपने रास्ते से भटक गया। इसलिए मैं डंके की चोट पर कहती हूं कि स्त्री विमर्श ने स्त्री लेखन को सीमित किया है। एक फ्रेम में जकड़ दिया है। स्त्री इतनी गहरी और जटिल है कि वहां तक पहुंचने की कोशिश होती तो ठीक होता। इसके कारण वह एक बने-बनाए घेरे में कैद होकर रह गया है। विमर्शो के आधार पर कहानियां लिखी जाने लगीं। सबसे ज्यादा घातक यह हुआ कि कहानियों पर विमर्श होने से ज्यादा विमर्शों पर कहानियां होने लगीं। एक बने-बनाए पैटर्न पर कहानियां लिखी जाने लगीं।

क्या आप स्त्री लेखन और पुरूष लेखन दृष्टि में कोई अंतर पाती हैं?

दो स्त्रियां लिखेगी, तो भी अंतर होगा। सामान्यतः रचनाकार रचनाकार होता है, स्त्री-पुरूष नहीं होता है। कोंकणी में दामोदर मौजो है जिन्होंने प्रसव वेदना पर लिखा है। मैं मानती हूं कि एक रचनाकार जब दूसरों के दुखों और सुखों की बावड़ी डूबता है तब लिखता है। हां, यहां आपका मतलब मूलतः स्त्री प्रकृत चीजों को कैसे पकड़ते हैं, तो उतना अंतर हो सकता है।

 

व्यंग्य लेखन के मामले में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम दिखता है।

नहीं, अब नहीं है ऐसा। अगर इसे बड़बोलापन न माना जाए तो मैं कहना चाहूंगी कि मेरे समय में मैं और एक अलका पाठक ही व्यंग्य लिख रही थीं।

क्या महिलाओं का रूझान कम है या क्या व्यंग्य लेखिका को पाठक समाज गंभीरता से नहीं लेता है।

आज पहले की तुलना में बहुत ज्यादा महिलाएं व्यंग्य लेखन कर रही हैं। फिर भी उनकी संख्या पुरूषों की तुलना में कम है। वे व्यंग्य लेखन में अपने पैर जमाने की कोशिश भी कर रही हैं लेकिन कर कितना पाती हैं यह भविष्य बताएगा।

अगर स्त्रियां व्यंग्य लेखन में उतरे तो क्या व्यंग्य लेखन में दूसरे आयाम सामने आएंगे। क्या महिला व्यंग्य लेखन की दृष्टि पुरूषों से अलग होगी।

हमारे समय में हुआ करता था पर अब जो लड़कियां लिख रही हैं उनको देखकर लगता है कि वे पुरूषों से अलग नहीं लिख रही है। हो सकता है कि मैं उतना पढ़ भी न पा रही हूं। पर व्यंग्य लेखन में स्त्री-पुरूष में थोड़ा अंतर तो होगा ही क्योंकि हम लोगों का कार्यक्षेत्र अलग है। वैसे बहुत ज्यादा अंतर नहीं हो सकता।

आप लगभग पांच दशक से लेखन कार्य कर रही हैं। तो आप आज की पीढ़ी की लेखिकाओं के लेखन को कैसे देखती हैं तुलनात्मक रूप से।

आज वे बहुत अच्छा लिख रही हैं। मैं कई बेविनार अटैण्ड करती हूं तो वहां मैं देखती हूं। उनका आत्मविश्वास और उनके कहानी कहने का ढंग अच्छा है। ये लेखिकाएं आज की समस्याओं, जटिलताओं से रूबरू है उनके बीच से होकर गुजर रही हैं। पर इनमें एकदम डूबकर और जुटकर लिखने वाली की जरूरत है। इसका कारण मैं समय को मानती हूं। ये जो समय चल रहा है उसे पकड़ने के लिए हमें भागना पड़ रहा है। लेखक भी जल्दबाजी में है और पाठक भी। इसके बावजूद बहुत अच्छी कहानियां वे लिख रही हैं।

अलविदा अन्ना और वेणु की डायरी दोनों ही प्रवासी भारतीयों पर है, अपनी सभ्यता संस्कृति से दूर होने के बाद कोई भी व्यक्ति खुद से ही खोने और पाने के अंतरद्वंद्व से ही संघर्ष करता रहता है। बहुत कुछ नास्टेल्जिया में ही फंसा रह जाता है। यहां आपने बहुत ही बारीक चित्रण किया है।

यह हर विस्थापित के साथ होता है। लेकिन यह विदेश में जाने वालों के साथ अधिक होता है। लेकिन यह उसके साथ होगा, जो संवेदनशील होगा। मैंने अपने उपन्यास में लिखा है कि वहां एक वर्ग ऐसा है जो बिलकुल वहां की चीजों से बहुत प्रभावित रहते हैं। जो संवेदनशील होते हैं वे संघर्ष करते हैं। और एक उम्र पर पहुंचकर यह अहसास और गहराने लगता है।

इस समय क्या नया लिख-पढ रही हैं। आपकी आगे की योजनाएं क्या हैं।

अरे, ऐसा कुछ नहीं। मैं तो खुद को बहुत ही बेपढ़ी-लिखी लेखिका समझती हूं। इस समय मैं ममता कालिया, चित्रा मुद्गल की नई किताबें पढ़ रही हूं। अलका सरावगी का एक उपन्यास कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिएपढ़ा है। मेरी बहुत ही पसंदीदा कथाकार हैं। मैंने अपने कुछ आत्म संस्मरण लिखे हुए है, जो करीब-करीब पूरा हो गया है। ये आत्मकथा नहीं है मेरे पाठकों का कहना था कि मैं अपनी एक आत्मकथा लिखूं। पर मैं तो कहती हूं कि मेरी आत्मकथा में कुछ होगा नहीं, जो उसे वेस्ट सेलर बना दे।

शनिवार, 3 अप्रैल 2021

‘बुद्धत्व तो स्त्रियों में होता ही है’

सुमधुर भाषिणी, स्त्री चेता कवयित्री अनामिका को उनकी रचना टोकरी में दिगंतः थेरी गाथा 2014 को हिंदी का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। साहित्कार अनामिका का हिंदी जगत में अपना एक मुकाम है। थेरी गाथाएं स्त्री अभिव्यक्ति का प्रारंभिक रूप है। उनके मन की वृत्तियां और शंकाओं को आधुनिक थेरियों के रूप इस रचना में अभिव्यक्त किया गया है। यहां उनकी कविताओं में स्त्रियां अपने पूरे स्त्रित्व के साथ उपस्थित हैं। यही उनका स्त्री विमर्श है। वे स्त्री-पुरूष को अलग-अलग मानते हुए उन्हें एक दूसरे से भिन्न नहीं मानती हैं। इस पुरस्कृत रचना के माध्यम से उन्होंने हर समाज और वर्ग की स्त्रियों को टटोलने की कोशिश की है। उनके रचना संसार पर हाल ही में अनामिका से बातचीत की प्रतिभा कुशवाहा ने। प्रस्तुत है इसके प्रमुख अंश-

 

कविता के लिए किसी महिला को पहली बार साहित्य अकादमी मिला है, क्या काफी देर हुई।

क्या कहूं! सबसे पहले हम स्त्रियां आपस में बैठकर बातचीत करतीं, उसके बाद बहुत सोच-समझकर उसे सार्वजनिक जीवन में लाते। हमें क्या छोड़ना है, क्या नहीं छोड़ना है, इस पर विचार करते हैं। जो लोग दबे-कुचले हैं वे लोग बहुत सहमकर सोच-समझकर बोलते हैं, फटाफट नहीं बोल पाते हैं। उन्हें लगता है कि हम जो बोले, वे सच्चाई के निकट हो। तो हो सकता है कि हमें अपनी बात कहने में थोड़ा वक्त लगा हो। पूर्वाग्रह जो होता है वह पत्थर से ज्यादा कठोर होता है। उसकी इको-सर्जरी बहुत धीरे-धीरे चलती है। तो हमने बहुत धीरे-धीरे यह सब किया है। हमने ममता से भरके विद्रोह किया है। हमने नफरत से भरके विद्रोह नहीं किया है। हमें जिनके माइंड सेट पर काम करना था, वह हमारे ही जाए हुए थे। ये वही लोग थे जिन्हें हम प्यार करते थे। जैसे हम अपनी संतान को समझाना पड़ता है जैसे उसके धीरे से उनके बाल झाड़ने होते हैं, हम बड़ी धीरज से जैसे धूल झाड़ते हैं। उसी धीरज से हम सबने मिलकर अपनी बात कही है। तो साथ जुड़ते-जुड़ते, सभी को साथ लेते-लेते, इकट्ठा होते-होते समय लग गया। लेकिन कोई बात नहीं, देर आयद, दुरूस्त आयद।

 

थेरी कथाओं को आपने आज की महिलाओं की व्यथा कथा कहने के लिए चुना, क्या कोई खास वजह थी।

इसकी एक खास वजह थी। पहली बार यह हुआ था कि समाज की सभी श्रेणियों से स्त्रियां बाहर आईं। कोई राजकुमारी की बेटी थी, कोई सेनापति की विधवा थी, कोई गणिका की पुत्री थी, कोई छाता बनाने वाली की पत्नी थी, दलित स्त्रियां भी थीं, तो वे कहां अपना निर्वाण ढूढतीं। पहले तो बुद्ध ने न ही कहा था। उन्होंने बुद्ध को अपने तर्को से आश्वस्त किया। चूंकि मैं वैशाली क्षेत्र से ही हूं, तो मेरे अंदर यह बात बहुत समय से धंसी थी। जब मैं दिल्ली यूनीवर्सिटी के हाॅस्टल में आई, तो यहां विस्थापित लड़कियों को देखकर लगा कि ये सभी थेरियां ही तो हैं। ये सभी अलग-अलग जगहों से आकर यहां बसी हैं। अपना-अपना अलग-अलग काम करती हुई, मुक्ति की राह ढूंढ रही हैं, तो मुझे यह सभी थेरी कथाएं ही लगीं। उनको अपना कोई बुद्ध नहीं मिल रहा है। उनके अंदर जो कल्पना का बुद्ध है, उससे वे सवाल रखती हैं। वे उससे दार्शनिक निदान भी पाती और व्यवहारिक निदान भी। तो मैंने कल्पना की, ये अलग-अलग तरह की मार्डन, आपकी तरह और मेरी तरह, कुछ कलाकार भी, मजदूर-कामगार स्त्रियों के भीसंवाद हैं। साथ ही दंगों और युद्ध क्षेत्र की पीड़ित स्त्रियां भी हैं। इन सभी स्त्रियों के मन में जो प्रश्न थे, वे बुद्ध से एक मित्र की तरह अपने प्रश्नों का निदान चाहती हैं। यह जनतंत्र है, सभी एक दोस्त की तरह गपशप करते हुए बात करती हैं। अपनी कल्पना में अपनी आसपास की स्त्रियों के बारे में मैं जितना सोच सकती, मैंने लिखा। तो इस तरह यह रचना बन गई।

 

क्या इसके माध्यम से आप सबाल्टर्न भाव बोध तलाश रही थी कि स्त्रियों का इतिहास फिर से लिखा जाना चाहिए।

बेसिकली सबाल्टर्न ही है, या टाइम ट्रवलिंग भी है। कुछ वही है और कुछ नया भी जुड़ गया है। हम स्त्रियों के कल्पना का साथी कोई बुद्ध जैसा व्यक्ति ही होता है, जो हमें अपने आसपास नहीं दिखता है। क्योंकि हमें हाइपर मैस्क्युलिंग आदमी नहीं चाहिए, क्योंकि हमें हाइपर फेमिनिन नहीं बनना है हमें बैलेंस चाहिए है। बुद्ध की जो सम्यक दृष्टि है, जो डाॅयलाग के लायक हो, प्यार करने के लायक हो, ऐसे लोगों का समाज चाहिए हमें।

 

क्या आपकी यह रचना स्त्रियों में बुद्धत्व की तलाश है।

वास्तव में बुद्धत्व तो स्त्रियों में होता ही है। वे मूल्यतः अहिंसक होती हैं। स्त्री आंदोलन एक ऐसा आंदोलन है जिसमें एक बूंद खून नहीं बहाया। और ममता से प्रतिरोध किया है। न्याय का करूणा से जो रिश्ता बनता है, वही हमारे स्त्री विमर्श का रिश्ता बनता है। इसलिए हमने डाॅयलाॅग का माध्यम अपनाया। हम नहीं सोचते कि उनमें बुद्धत्व के बीज नहीं हैं, हम उन बीजों को चटकाना चाहते है। कम से कम नई पीढी के पुरूषों से ऐसी उम्मीद रखते हैं। जो पुरूष हमें गढ़ने हैं वे स्त्रीवाद के गर्भ से ही जन्मतें हैं। मैं हमेशा बाॅयलाॅजिकल मदरहुड से आगे जाना चाहती हूं। वही नहीं होता जो हम गर्भ में धारण करते हैं, हमारी मानस संततियां हमारे आगे आने वाले पुरुष हैं, पीछे का तो हम कुछ सुधार नहीं सकते हैं न। हमें तो हमेशा आगे सोचना है।

 

क्या थेरी गाथाएं भारत में स्त्री प्रतिरोध की पहली आवाज थीं?

मान सकते हैं। हालांकि उल्लेख है कि कुछ ऋषिकाएं प्रश्न करती हैं। मैत्रेयी भी प्रश्न करती हैं। वे पितृसत्ता पर सवाल उठाती हैं। इस तरह का फुटकर उल्लेख मिलता है, लेकिन थेरी गाथाओं जैसा जहां बहुत सारी स्त्रियां सभी वर्णों और समाज की है, मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है।

 

आपने इस किताब की भूमिका में कही लिखा है कि बुद्ध को अविश्वास स्त्रियों पर नहीं, पुरूषों के निग्रह पर था, यानी स्त्रियों को नाकाबिल नहीं, बल्कि स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों को प्रशिक्षित करना अधिक जरूरी समझते थे।

कोमलता के प्रति पुरुषों का आग्रह कुछ ज्यादा एग्रेसिव हो जाता है। वे कब्जा करना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि वे उनकी प्रशंसा करके उनको छोड़ दें। अगर उन्हें कोई सुंदर खिला हुआ फूल मिल जाए, तो वे उसे तोड़कर अपने कोट की बटन में लगाना चाहेंगे। यह पजैसिव वाला स्वभाव है न, वह एक जिंदा आदमी पर नहीं चल पाता। हम कोई वस्तु नहीं है न। तो असल में सुधरना तो उन्हीं को ही है, हमें थोडी ही।

 

क्या आज के परिप्रेक्ष में इसे स्त्री के प्रति हिंसा, बलात्कार, योनि हिंसा के रूप में देख सकते हैं, जबकि प्रशिक्षण देने की जरूरत पुरुषों को है ना कि स्त्रियों को। जिन पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगाए जाते है कि ऐसा करो, ऐसा न करो।

ये ब्लेमिंग गेम होता है कि तुमने ऐसा किया और ऐसा हो गया। अरे, पहले तुम तो सुधर जाओ। मीरा भी कहती थी कि ‘अपने सर पे पर्दा कर ले, मैं अबला बौरानी।’

 

क्या वैश्विक शांति में महिलाओं की कोई प्रभावी भूमिका हो सकती है? जबकि आज के इस वैश्विक समाज में चारों तरफ हिंसा, वर्चस्व, सत्ताओं का बोलबाला है।

हम लोग प्रतिस्पर्धा-प्रतियोगिता में नहीं, सहयोग और सहभागिता में विश्वास करते हैं। हम स्त्रियों को यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि हर व्यक्ति किसी न किसी तरह से विशिष्ट है। एक फोटोग्राफर कहता है कि एक चेहरा किसी न किसी कोण से सुंदर होता ही है। एक चरित्र कहीं न कहीं से कोमल-वैशिष्ठ होता ही है। हमें इस वैशिष्ठ को उभारने की जरूरत है और एक मां ही उस वैशिष्ठ को उभारने का काम कर सकती है। अपने बच्चे के बारे में मां से अधिक उसका वैशिष्ठ कोई नहीं जानता, एक मां इसे उभारने का काम जरूर करती है।

 

स्त्री चेतना को आप कैसे देखती है या किन चीजों में तलाशती हैं?

न्याय से ऊपर है करुणा। हम अपने साथ हुए अन्याय को माफ कर सकते हैं, बातचीत कर सकते हैं। पर कहीं जब किसी के साथ अन्याय होता देखते हैं, तो हम तुरंत आवाज उठाएंगे। तब हम यहां करुणा की तरफ नहीं देखेगें। अगर करुणा करेंगे तो उस आदमी पर कि कहीं वह पशु न बन जाए। हम अपने बच्चों को कैसे अनुशासित करते हैं। हमें भेड और भेड़ियों का समाज नहीं बनाना है न।

 

पुरुष-स्त्री बराबरी आपके लिए क्या है, क्या यह संभव है?

साधन हम सभी को बराबरी के ही चाहिए। जो साधन हमें पढ़ाई-लिखाई, नौकरी-पेशा के लिए चाहिए, वह मिलना ही चाहिए। मैं नहीं चाहती कि स्त्रियां पुरुष बन जाए। हमारे गुण जो सहिष्णुता और करुणा वाले हैं, उनका भी सम्यक बंटवारा होना चाहिए। वे हमारे ही हिस्से में नहीं होने चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि धीरज जैसे गुणों को हमें छोड़ देना चाहिए। हमारी कोशिश तो यह होनी चाहिए कि पुरुष इसे अपनाएं। हम एक देश के नागरिक है, गणतंत्र में हम एक-दूसरे से कमतर नहीं रह सकते।

 

स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम को कैसे परिभाषित करेगीं।

यह तो नैसर्गिक आकर्षण है ही, पर इसका मूल है आदर। उसकी (प्रेम) उपस्थिति में हमें अपनापन लगे, कोई तनाव न होना चाहिए।

 

अभिव्यक्ति के लिए कविता आपका सहज माध्यम है?

-कविता मुझे बहुत अच्छी लगती है और इससे मुझे बहुत ताकत मिलती है, पर जब मेरे पास बहुत से माध्यमों से ढेर सारे सवाल इकट्ठे हो जाते हैं, तो मैं गद्य में लिखती हूं।

 

आपके अंदर कविता का अंकुर कब फूटा था?

पिताजी के साथ अंतराक्षरी खेलते हुए। बस ऐसे ही कुछ लाइनें तत्काल रचकर बोलती थी मैं।

 

आप बहुतों की प्रिय कवयित्री हैं, आप किनकी कविताओं को पसंद करती हैं?

बहुत से कवि है जिनकी बहुत सी कविताएं मैं काफी पसंद करती हूं। मेरे पिता जी की कविताएं भी मुझे काफी प्रिय हैं।

 

आप अपनी साहित्यिक यात्रा से संतुष्ठ हैं?

अभी तो लगता है, शुरूआत हुई है। बहुत कुछ करना है, अभी तक तो बच्चों को बड़ा करने और नौकरी में व्यस्त रही। लगता है कि जंगल में जाकर एकांत में बैठकर कुछ रचा जाए। देखिए, कब होता है।

मंगलवार, 23 मार्च 2021

संकटकाल में महिलायें कैसे करती हैं नेतृत्व


नेतृत्वकर्ता के रूप में महिलाओं देखा जाना आज भी संदेह के दायरे में ज्यादा आता है, उन्हें शंका की निगाह से देखा जाता है, नापा-तौला जाता है, कही कहीं नकारा भी जाता है। फिर भी आज बहुत से क्षेत्रों में महिलाएं अपने कुशल नेतृत्व से टिकी हुईं है और दूसरी महिलाओं और लड़कियों को प्रेरित कर रही हैं। सबसे अच्छी बात यह रही कि इस साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को नेतृत्व में महिलाएंके रूप में मनाए जाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्रसंघ ने कर दी है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वुमिन इन लीडरशिपः अचीविंग एन इक्वल फ्यूचर इन ए कोविड-19 वल्र्ड का नाम दिया है। प्रश्न है कि आखिर संयुक्त राष्ट्र संघ इस महामारी के बीच महिला नेतृत्व को सम्मानित करना या याद करना क्यों चाह रहा है। क्या अब समय आ गया है कि महिलाओं के नेतृत्व को एक पहचान और विश्वास मिलना चाहिए। या फिर इस पहचान और विश्वास से विश्व और विश्व समाज को क्या हासिल होने वाला है। और सबसे बड़ा सवाल कि महिला नेतृत्व किस मायने में पुरूष नेतृत्व से भिन्न और प्रभावशाली है, जिसके कारण यह और भी अपरिहार्य हो जाता है।

2020 कोरोना जैसी बीमारी के नाम हो चुका है और इसका कुछ अंश इस वर्ष भी हम झेलने के लिए मजबूर होंगे। इस पूरी महामारी के दौरान हम कोरोना योद्धाओं की सेवाओं के आगे नतमस्तक रहे। उनकी मानवीयता को आने वाला समय हमेशा याद रखेगा। इन अग्रिम पंक्ति के कोरोना योद्धाओं में बड़ी संख्या में महिलाओं ने अपना योगदान दिया। चाहे वह एक डाॅक्टर के रूप में हो, या फिर नर्स के रूप में, या फिर एक सफाईकर्मी के रूप में, यह सब हम लोगों ने काफी नजदीक से देखा। जिस कुशलता से इन महिलाओं ने अपने फर्ज का निर्वाह किया, उसी को संयुक्त राष्ट्र संघ याद कर रहा है। लेकिन कोरोना महामारी में फ्रंटलाइन योद्धाओं के अतिरिक्त देश केा नेतृत्व प्रदान कर रहीं विश्व की दूसरी नेतृत्वकर्ता महिलाओं ने खूब सुर्खियां बटोरी। और बटोरती भी क्यों नहीं, जिस कुशलता से इन महिलाओं ने अपने देश के नागरिकों को कोरोना की मार से बचाया, वह उनके कुशल नेतृत्व के कारण ही था। हर पूर्वाग्रह को धता बताते हुए इन नेतृत्वकर्ता महिलाओं ने बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। अपने देश में केरल राज्य की स्वास्थ्य मंत्री केके सैलजा की तारीफ कौन नहीं करना चाहेगा। इंटरपार्लियामेंट्रीय यूनियन की माने तो दुनिया में 70 फीसदी महिलाएं स्वास्थ्य क्षेत्र में अपनी सेवाएं दे रही हैं।

इस समय 22 देशों को महिला नेतृत्व मिला हुआ है, यानी राजनीतिक प्रमुख के तौर पर इन 22 देशों को महिलाएं चला रही हैं। यह आंकड़ा विश्व में पुरूष नेतृत्व के मुकाबले सिर्फ सात फीसदी बैठता है, पर कोरोना महामारी के खिलाफ लड़ी गई लड़ाई में उनका रिकाॅर्ड बेहतर रहा। अब सवाल उठता है कि महिलाओं के नेतृत्व में ऐसी क्या बात है कि कोरोना महामारी के विरूद्ध लड़ाई में उन्हें ज्यादा कामयाबी मिली। न्यूजीलैंड से लेकर जर्मनी तक, ताइवान से लेकर नार्वे तक दुनिया के ऐसे देश हैं, जहां देश की कमान महिलाओं के हाथों में थी, जब कोरोना अपने क्रूर रूप में था। आंकड़े बताते है कि इन देशों में कोरोना से होने वाली मृत्यु दर दूसरे देशों की अपेक्षा काफी कम रही। इसी बात के लिए इनकी तारीफ हो रही है। जब बड़े-बड़े देशों के प्रमुख कोरोना को साधारण फ्लू या जुकामबताकर मजाक बना रहे थे, तब ये महिलाएं गंभीरता से कोरोना से लड़ने के लिए अपनी तैयारी में मशगूल थीं, जिसका परिणाम हम सभी ने देखा भी। इस संबंध में कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं। आइसलैंड की प्रधानमंत्री कैटरीन जैकब्स्डोटिर ने बहुत जल्द ही कोरोना टेस्ट कराने का फैसला किया और तमाम जरूरी कदम उठाए। ताइवान की राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन ने समय रहते महामारी नियंत्रण केंद्र की स्थापना की और वायरस संक्रमण रोकने के लिए ट्रैंकिंग और ट्रेसिंग की रणनीति पर काम किया। इसी तरह न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने खासा सख्त रूख अख्तियार करके संक्रमण के मामलों को लगभग स्थिर कर दिया। न्यूजीलैंड ने तभी लाॅकडाॅउन लगा दिया था जब उनके यहां कोरोना मरीजों की संख्या केवल छह थी।

आलोचक यह भी कह सकते हैं कि यह विकसित और काफी कम जनसंख्या वाले देश हैं और यहां की स्वास्थ्य सेवाएं दूसरे देशों की अपेक्षा चाक-चैबंद हैं, तो संभालना कोई मुश्किल बात नहीं हैं। इस संबंध में सुप्रिया गरिकीपति और उमा कंभांपति ने एक स्टडी पेपर तैयार किया है जिसमें 194 देशों में उपलब्ध कोरोनाकाल के आंकड़ों का अध्ययन किया गया है, जिनमें से 19 देशों को महिला नेतृत्व मिला हुआ है। सुप्रिया और उमा ने पुरूष और महिला नेतृत्व के लिए एक समान पृष्ठभूमि वाले पड़ोसी देशों की आर्थिक दशाओं और सोसियो-डेमोग्राफिक फैक्टर का तुलनात्मक अध्ययन करके कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं। जैसे उन्होंने जर्मनी, न्यूजीलैंड और बांग्लादेश की तुलना पुरूष नेतृत्व वाले निकटतम पड़ोसी देश ब्रिटेन, आयरलैंड और पाकिस्तान से की है। रिपोर्ट में पिछले साल 20 अगस्त तक के आंकड़ों के माध्यम से बताया गया है कि जर्मनी में 9,000 कोरोना के कारण मृत्यु हुई थी जबकि ब्रिटेन में उस समय तक 41,000 लोगों की मृत्यु कोरोना से हो चुकी थी। इसी तरह न्यूजीलैंड में 22, जबकि उसके निकटतम पड़ोसी आयरलैंड में 1,700 लोगों की मृत्यु हो गई थी। इसी तरह से विकासशील देश बांग्लादेश में इस समय तक 3,500 जबकि पाकिस्तान में 6,000 लोग कोरोना के कारण कालकल्पित हो चुके थे। इन दोनों ने अपने रिसर्च पेपर में काफी गहनता से इस बात का अध्ययन किया है कि कैसे महिलाएं संकटकाल में काम करती हैं। रिसर्च पेपर इस बात का उत्तर सजगता और नीतियों के प्रति उनकी सामंजस्ताकाम करती है। ये दोनों महिलाएं यूनीवर्सिटी आॅफ लीवरपूल और यूनीवर्सिटी आॅफ रीडिंग से संबद्ध हैं। सुप्रिया अपनी रिसर्च में कहती हैं कि हमारे निष्कर्ष इस बात की ओर इशारा करती है कि महिला नेता संभावित विपत्तियों का सामना कहीं अधिक जल्दी और दृढ़ता से करती हैं। अधिकांश मामलों में महिला नेतृत्वकर्ताओं ने पुरूष नेतृत्वकर्ताओं की अपेक्षा पहले ही लाॅकडाॅउन लगाकर जरूरी इंतजाम कर लिए थे। यद्यपि लाॅकडाउन से आर्थिक गतिविधियों के रूक जाने से आर्थिक संकट आने और भविष्य में राजनीतिक तौर पर अलोकप्रिय होने की पूरी संभावना थी, फिर भी उन्होंने जोखिम उठाया।

आंकड़ों की माने तो विश्व में सार्वजनिक रूप से महिलाओं की सहभागिता बढ़ रही है। फिर भी समानता अभी दूर की कौड़ी ही है। वैश्विक रूप से महिलाएं 21 फीसदी मंत्री पदों पर सुशोभित हैं, केवल तीन देशों में 50 फीसदी या उससे अधिक महिलाएं संसद में है, केवल 22 देशों को हेड महिलाएं कर रही हैं। 2018 में 153 निर्वाचित राष्ट्राध्यक्षों के चुनाव में केवल 10 महिलाएं ही अपने देशों के नेतृत्वकर्ता के तौर पर चुनी गईं। जिस दर से निर्णयात्मक मामलों में महिला सहभागिता की रफ्तार है, उसमें हमें 130 वर्ष लग जाएंगे समानता के स्तर पर पहुंचने पर। संभवता यूएन इसीलिए चिंतित है। सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की प्रभावी सहभागिता और निर्णयात्मक क्षमता के विकास के द्वारा ही उनके जीवन से हिंसा हटाने, लिंगात्मक समानता बढ़ाने और वुमन इमपावरमेंट की ओर बढ़ सकते है। यूएन का मानना है कि जिस भी टेबल पर बैठकर निर्णय लिए जा रहे हैं, हमें उस हर टेबल पर महिलाओं की जरूरत है ताकि सभी को समान अधिकार और अवसर मिल सके। संयुक्त राष्ट्र की इस मुहिम को इस बात से और भी अच्छे से समझा जा सकता है। कोरोना के संदर्भ में महिला नेतृत्व को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की उपमहासचिव अमीना जे. मोहम्मद की अध्यक्षता में विभिन्न क्षेत्रों की नेतृत्वकर्ता महिलाओं के साथ एक बैठक हुई। इसमें मोजाम्बीक की पूर्व मंत्री ग्रासा मशेल ने कहा कि इस संकट से ऐसा सच सामने आया है जिसे नकारा नहीं जा सकता है। कहीं अधिक कारगार ढंग से दुनिया को सृजित करने में महिलाओं का नेतृत्व बेहद अहम है...जो कहीं अधिक मानवाधिकारिक, ज्यादा बराबरी वाला होता है, जिससे सामाजिक न्याय सुनिश्चित होता है।