शनिवार, 8 मई 2021

‘मेरे पास मेरा अपना स्त्रीवाद है’

पांच दशकों से अपने लेखन से पाठकों का दिल जीतने वाली कथाकार-उपन्यासकार-व्यंग्यकार वरिष्ठ साहित्यकार सूर्यबाला को हाल ही में भारत भारती सम्मान से नवाजा गया है। भारत भारती उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का सबसे बड़ा पुरस्कार है। उत्तर प्रदेश के वाराणसी में जन्मीं सूर्यबाला को साहित्य जगत में पहचान मेरे संधि-पत्रसे मिली। उनकी कहानियों में एक मध्यमर्गीय स्वतंत्रचेता स्त्रियों का चित्रण बखूबी मिलता है। उनकी कहानियों की स्त्री स्वाभिमान और विवेक से लबरेज है। वह समाज से विद्रोह करती है, पर खुद के लिए नहीं, दूसरों के लिए। मुखर स्त्री विमर्श के इस दौर में सूर्यबाला का स्त्री विमर्श स्त्रीभाव से जुड़ा हुआ है। कथा लेखन के साथ-साथ उनकी कलम व्यंग्य लेखन में भी खूब चली है। कौन देस को वासी, वेणु के डायरीके बाद इस समय वे अपने संस्मरणात्मक लेखों पर काम कर रही हैं। पिछले दिनों उनके साहित्यिक अवदान पर उनसे बात की प्रतिभा कुशवाहा ने। प्रस्तुत है इसके महत्वपूर्ण अंश।


अपनी साहित्यिक यात्रा के बारे में कुछ बताएं। कैसे शुरू हुई आपकी लेखकीय यात्रा।

बहुत बचपन से ही मुझे लगने लगा था कि मेरे अंदर कुछ कविता सी बन रही है। घर लोगों को छंद-चैपाई कहते हुए सुनती थी तो लगा कि मैं भी कविता कह सकती हूं। बाद में स्कूल की पत्रिका में छपी मैं। उत्तर प्रदेश का एक पत्र था आज। उसमें मेरी किशोरवय की कविताएं और कहानियां प्रकाशित हुईं।

आपको पहचान दिलाने वाली रचना कौन सी थी।

शादी के बाद लिखना छूट गया और मैं अपनी गृहस्थी में डूब गई थी पर मेरा पढ़ना जारी था। मैं ढेर सारी पत्र-पत्रिकाएं मगाया करती थी। उनमें सारिका में एक कहानी पढ़ने के बाद मैंने प्रतिक्रिया लिखी और सारिका के संपादक कमलेश्वर जी को भेज दी। एक महीने बाद कमलेश्वर जी का लिखा पत्र आया। पत्र में लिखा था कि सूर्यबाला जी, आपकी रचना ;पत्रद्ध मिली और रचना में निहित व्यंग्य को पढ़कर लगा कि अगर आप लिखे तो हिन्दी को बहुत अच्छी रचनाएं मिल सकती हैं। इस पत्र ने मेरे लेखकीय जीवन के लिए एक लाइटहाउस का काम किया। मेरी जो अब तक आधी-अधूरी रचनाएं पड़ी हुई थीं, मैंने उन्हें बटोरा, और उनमें से एक को पूरा करके कमलेश्वर जी को भेज दिया। उन्होंने मेरी कहानी जीजीआगामी महिला कथाकार अंक के लिए स्वीकृत कर ली। यह 1972 की बात है। इसके तीन महीने बाद एक व्यंग्य धर्मयुग के होली अंक में प्रकाशित हुआ। इस तरह सिलसिला चल निकला।

 

आपकी कहानियों में आत्मचेतस और चेतना सम्पन्न स्त्रियों के कई रूप दिखते हैं, पर बहुत आधुनिक किस्म की महिलाओं की उपस्थिति बहुत कम है जबकि आप मुबंई जैसी मायानगरी में काफी समय से रह रही हैं।

मैं विचारों की आधुनिकता पर विश्वास करती हूं, खानपान, कपड़े, फैशन की आधुनिकता पर नहीं। अगर आप इस कसौटी पर मेरी कहानियों की स्त्रियों को कसेगीं, तो आपको निराश ही होना पड़ेगा। मेरी स्त्रियां बहुत स्वाभिमानी हैं। वे न कभी गलत चीज को स्वीकारती हैं, न गलत कदम उठाती हैं, न गलत समझौता करती हैं। वे सर्पण करती हैं, समझौता करती हैं, विद्रोह में खड़ी भी होती हैं, लेकिन अपने लिए नहीं दूसरों के लिए। वे लेने में नहीं देने में विश्वास करती हैं। मेरा मानना है कि हम देने का सुख भूल गए है। हमारे अंदर जो आनंद का स्रोत है वह देने में है। आज की दुनिया में प्राप्ति और लूट की होड़ मची है। आप जरा किसी के लिए कुछ करके देखिये। बहुत छोटी-छोटी चीजें, छोटी सी मदद, छोटी सी सहानुभूति फिर देखिए कि आपको कितना अच्छा लगता है। हमने वह खुशी गंवा दी है इस छंद्म आधुनिकता के लिए। मेरी कहानियों की स्त्रियों के बारे में लोग पूछते हैं कि ये आदमकद महिलाएं आपको कहां मिलीं। मुझे अपने जीवन में मिली हैं ऐसी महिलाएं। अभी भी मेरे पास ऐसी स्त्रियां है कि जिनके बारे में मैं लिखूंगी तो लोग उन्हें विश्वसनीय नहीं मानेगें। धर्मयुग में प्रकाशित मेरा पहला उपन्यास संधिपत्र था, जिसके कारण मैं घर-घर जानी गई। तो उसकी नायिका शिवा के बारे में समीक्षकों का कहना था कि क्या स्त्री है एकदम दयनीय है, समझौते पर समझौता करती जा रही है। विद्रोह करना आता नहीं। तो यह वह बहुत ही बचकानी बात है। समझदार लोग कहते हैं कि शिवा का चरित्र बहुत ही सशक्त और समृद्ध है, वह स्वयं अपने निर्णय लेती है।

तो फिर आपके अनुसार एक स्त्री की स्वतंत्रता क्या है।

स्वतंत्रता बहुत सारे दायित्वों और कर्तव्यों से बंधी होती है। स्वतंत्रता की भावना बहुत ही मूल्यवान है। इसलिए उतनी ही सावधानी से रखनी होती है। इस स्वतंत्रता की रक्षा हमें खुद ही करनी है। हमें बहुत विवके और सावधानी से ख्याल रखना होगा कि कहीं हमारी स्वतंत्रता किसी दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा न बन जाए। यही असली स्वतंत्रता है।

एक लेखिका होने के नाते क्या आप खुद को महिलावादी मानती हैं।

मैं तो नहीं मानती हूं पर लोग मानते हैं। इससे मुझे कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि मेरे पास मेरा अपना स्त्रीवाद है। यह स्त्रीवाद स्त्री भाव से जुड़ा हुआ है। यह स्त्री की अस्मिता, गरिमा, विवेक स्त्री की वास्तविक शक्ति है। आज स्त्री अपनी इस वास्तविक शक्ति को भूला बैठी है। स्त्री बाहरी शक्ति की भूल-भुलैया में अपनी शक्ति और सामथ्र्य तलाश रही है वह अपनी आंतरिक शक्ति की राह से भटक गई है।

क्या दलित विमर्श की तरह स्त्री विमर्श जरूरी है?

बिलकुल जरूरी है। विमर्श से तमाम विचार आते है और इन विचारों से विमर्श आगे बढ़ता है। इससे हम परस्पर लाभान्वित होते हैं। एक सैधांतकीय भी बनती है पर समस्या तब आती है, जब हम एक विचार को बाजार दे देते हैं। जब हम विचार को ही बेचने लगते हैं, वहां परेशानी आती है।

क्या आपको लगता है कि आज स्त्रीविमर्श बाजारवाद के प्रभाव के चलते देह विमर्श तक सीमित होकर रह गया है?

बिलकुल। पर सब नहीं। क्या होता है कि गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। स्त्री लेखन तो बंग महिला के समय से हो ही रहा है। पर कोई चीज जब बहुत अधिक लोकप्रिय होने लगती है, तो उसकी डिमाण्ड बढ़ने लगती है, सप्लाई भी बढ़ती है। जब सप्लाई बहुत अधिक बढ़ने लगती है वह चीज प्रदूषित हो जाती है। तो यह विमर्श अपने रास्ते से भटक गया। इसलिए मैं डंके की चोट पर कहती हूं कि स्त्री विमर्श ने स्त्री लेखन को सीमित किया है। एक फ्रेम में जकड़ दिया है। स्त्री इतनी गहरी और जटिल है कि वहां तक पहुंचने की कोशिश होती तो ठीक होता। इसके कारण वह एक बने-बनाए घेरे में कैद होकर रह गया है। विमर्शो के आधार पर कहानियां लिखी जाने लगीं। सबसे ज्यादा घातक यह हुआ कि कहानियों पर विमर्श होने से ज्यादा विमर्शों पर कहानियां होने लगीं। एक बने-बनाए पैटर्न पर कहानियां लिखी जाने लगीं।

क्या आप स्त्री लेखन और पुरूष लेखन दृष्टि में कोई अंतर पाती हैं?

दो स्त्रियां लिखेगी, तो भी अंतर होगा। सामान्यतः रचनाकार रचनाकार होता है, स्त्री-पुरूष नहीं होता है। कोंकणी में दामोदर मौजो है जिन्होंने प्रसव वेदना पर लिखा है। मैं मानती हूं कि एक रचनाकार जब दूसरों के दुखों और सुखों की बावड़ी डूबता है तब लिखता है। हां, यहां आपका मतलब मूलतः स्त्री प्रकृत चीजों को कैसे पकड़ते हैं, तो उतना अंतर हो सकता है।

 

व्यंग्य लेखन के मामले में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम दिखता है।

नहीं, अब नहीं है ऐसा। अगर इसे बड़बोलापन न माना जाए तो मैं कहना चाहूंगी कि मेरे समय में मैं और एक अलका पाठक ही व्यंग्य लिख रही थीं।

क्या महिलाओं का रूझान कम है या क्या व्यंग्य लेखिका को पाठक समाज गंभीरता से नहीं लेता है।

आज पहले की तुलना में बहुत ज्यादा महिलाएं व्यंग्य लेखन कर रही हैं। फिर भी उनकी संख्या पुरूषों की तुलना में कम है। वे व्यंग्य लेखन में अपने पैर जमाने की कोशिश भी कर रही हैं लेकिन कर कितना पाती हैं यह भविष्य बताएगा।

अगर स्त्रियां व्यंग्य लेखन में उतरे तो क्या व्यंग्य लेखन में दूसरे आयाम सामने आएंगे। क्या महिला व्यंग्य लेखन की दृष्टि पुरूषों से अलग होगी।

हमारे समय में हुआ करता था पर अब जो लड़कियां लिख रही हैं उनको देखकर लगता है कि वे पुरूषों से अलग नहीं लिख रही है। हो सकता है कि मैं उतना पढ़ भी न पा रही हूं। पर व्यंग्य लेखन में स्त्री-पुरूष में थोड़ा अंतर तो होगा ही क्योंकि हम लोगों का कार्यक्षेत्र अलग है। वैसे बहुत ज्यादा अंतर नहीं हो सकता।

आप लगभग पांच दशक से लेखन कार्य कर रही हैं। तो आप आज की पीढ़ी की लेखिकाओं के लेखन को कैसे देखती हैं तुलनात्मक रूप से।

आज वे बहुत अच्छा लिख रही हैं। मैं कई बेविनार अटैण्ड करती हूं तो वहां मैं देखती हूं। उनका आत्मविश्वास और उनके कहानी कहने का ढंग अच्छा है। ये लेखिकाएं आज की समस्याओं, जटिलताओं से रूबरू है उनके बीच से होकर गुजर रही हैं। पर इनमें एकदम डूबकर और जुटकर लिखने वाली की जरूरत है। इसका कारण मैं समय को मानती हूं। ये जो समय चल रहा है उसे पकड़ने के लिए हमें भागना पड़ रहा है। लेखक भी जल्दबाजी में है और पाठक भी। इसके बावजूद बहुत अच्छी कहानियां वे लिख रही हैं।

अलविदा अन्ना और वेणु की डायरी दोनों ही प्रवासी भारतीयों पर है, अपनी सभ्यता संस्कृति से दूर होने के बाद कोई भी व्यक्ति खुद से ही खोने और पाने के अंतरद्वंद्व से ही संघर्ष करता रहता है। बहुत कुछ नास्टेल्जिया में ही फंसा रह जाता है। यहां आपने बहुत ही बारीक चित्रण किया है।

यह हर विस्थापित के साथ होता है। लेकिन यह विदेश में जाने वालों के साथ अधिक होता है। लेकिन यह उसके साथ होगा, जो संवेदनशील होगा। मैंने अपने उपन्यास में लिखा है कि वहां एक वर्ग ऐसा है जो बिलकुल वहां की चीजों से बहुत प्रभावित रहते हैं। जो संवेदनशील होते हैं वे संघर्ष करते हैं। और एक उम्र पर पहुंचकर यह अहसास और गहराने लगता है।

इस समय क्या नया लिख-पढ रही हैं। आपकी आगे की योजनाएं क्या हैं।

अरे, ऐसा कुछ नहीं। मैं तो खुद को बहुत ही बेपढ़ी-लिखी लेखिका समझती हूं। इस समय मैं ममता कालिया, चित्रा मुद्गल की नई किताबें पढ़ रही हूं। अलका सरावगी का एक उपन्यास कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिएपढ़ा है। मेरी बहुत ही पसंदीदा कथाकार हैं। मैंने अपने कुछ आत्म संस्मरण लिखे हुए है, जो करीब-करीब पूरा हो गया है। ये आत्मकथा नहीं है मेरे पाठकों का कहना था कि मैं अपनी एक आत्मकथा लिखूं। पर मैं तो कहती हूं कि मेरी आत्मकथा में कुछ होगा नहीं, जो उसे वेस्ट सेलर बना दे।

2 टिप्‍पणियां:

विकास नैनवाल 'अंजान' ने कहा…

बेहतरीन साक्षात्कार। मैम की संस्मरणों की किताब का इन्तजार रहेगा। मैम की इस बात से सौफीसदी सहमत की रचनाओं पर विमर्श होना चाहिए न कि विमर्श के हिसाब से रचना लिखी जानी चाहिए। मुझे यह भी लगता है कि अगर आप एक विमर्श के हिसाब से ही रचना करते हैं तो यह आपको बाँधकर रख देती है।

प्रतिभा कुशवाहा ने कहा…

विकास जी आपकी इस प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत शुक्रिया