बुधवार, 20 अगस्त 2025

शतरंज के खेल में महिला ‘अंडरडाॅग खिलाड़ी’यों की जीत


शतरंज में प्रतिभा का कोई लिंग नहीं होता है। लेकिन शतरंज के महान खिलाड़ी गैरी कास्परोव यह नहीं मान सके। उन्होंने ‘महिला शतरंज’ को असली शतरंज नहीं माना। उनके लिये ‘असली शतरंज’ और ‘महिला शतरंज’ में अंतर बना रहा। दिव्या देशमुख पहली भारतीय फिडे महिला चेस वर्ल्ड  कप चैंपियन बनने के साथ ग्रैंडमास्टर बनकर छा गई हैं। दिमाग के इस खेल में ‘अंडरडाॅग खिलाड़ी’ मानी जाने वाली महिलाओं का अब तक का यह सफर कैसा रहा, आइए जानते हैं...


अट्ठाइस जुलाई को शतरंज खिलाड़ी दिव्या देशमुख ने इतिहास रच दिया। जार्जिया के बतूमी में आयोजित फिडे महिला वर्ल्ड कप 2025 में खिताबी जीत के साथ भारतीय शतरंज के इतिहास में वे पहली महिला खिलाड़ी बन गई हैं, जिन्होंने यह खिताब अपने नाम किया। इस रोमांचकारी क्षण के लिये हम इस जीत से पहले ही आश्वस्त हो गये थे, क्योंकि फाइनल में दोनों खिलाड़ी भारतीय ही थीं। 19 वर्षीय दिव्या की जीत ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया, क्योंकि उनके मुकाबले में दिग्गज खिलाड़ी ग्रांडमास्टर 38 वर्षीय कोरेरू हम्पी थीं। इस जीत ने दिव्या को गै्रंड मास्टर का खिताब और 42 लाख की राशि का हकदार बना दिया है। साथ ही वे बेहद प्रतिष्ठित कैंडिडेट्स टूर्नामेंट के लिये क्वालीफाई कर गई हैं।

इस टूर्नामेंट को कई उपलब्धियों के लिये याद किया जायेगा। इसमें पहली बार देश  की नामीगिरामी चार भारतीय महिला खिलाड़ियों कोनेरू हम्पी, हरिका द्रोणवल्ली, आर. वैशाली और दिव्या देशमुख ने क्वार्टर फाइनल में जगह बनाई थी। यह हमारे लिये एक ऐतिहासिक उपलब्धि रही। सबसे बड़ी बात कि इस टूर्नामेंट ने चीन की दिग्गज खिलाड़ियों को हराते हुये फाइनल में दोनों भारतीय महिला खिलाड़ी आमने-सामने आ गईं। इस ‘चाइनीज वाॅल’ को तोड़ने में कोनेरू हंपी और दिव्या ने अपनी मुख्य भूमिका निभाई। महिला वर्ग में टॉप 100 में सबसे उपर चीन की खिलाड़ी हैं। चीन की 14 महिला खिलाड़ियों के बाद भारत की 9 महिला खिलाड़ी इस टॉप 100 में शामिल हैं। लेकिन इस फिडे वल्र्ड कप में कोनेरू और दिव्या ने इसी चीनी दिवार को तोड़ा और चीनी चुनौतियों खत्म करते हुये खिताब को देश की झोली में डाल दिया। 

सभी देशवासी दिव्या की यह उपलब्धि खूब चियर कर रहे हैं। शासन-प्रशासन भी आज उनकी इस कामयाबी में अपना हिस्सा ढूंढ़ रहा है। लेकिन यह दिव्या और कोनेरू ही बता पाएगीं कि वे यहां तक कैसे पहुंचीं। भारतीय महिला शतरंज खिलाड़ियों का सफर अन्य खेलों की तरह ही संघर्ष से भरा रहा है। यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि आज भी इसकी स्थिति विश्व स्तर से लेकर देश स्तर तक कमोवेश पुरूष खेलों की तुलना में कमतर ही है। चाहे वह खिलाड़ियों को मिलने वाली सुविधाएं हों या टूर्नामेंट जीत पर मिलने वाली धनराशि का सवाल हो, महिलाओं की योग्यताएं कमतर ही रखी गई हैं। शतरंज वैसे तो दिमाग का खेल माना जाता है, मगर शारीरिक रूप से कमतर मानने के साथ-साथ उन्हें दिमागी रूप से भी कमतर मानकर भेदभाव किया जाता है। विश्व से देश स्तर की महिला शतरंज खिलाड़ियों के अनुभव बहुत कुछ ऐसी ही कहानी कहते हैं।  

देश में महिला शतरंज खिलाड़ी की पहली दस्तक 1933 में ही मिल गई थी। जब मिस फातिमा ने ब्रिटिस चेस फेडरेशन के सहयोग से होने वाली ब्रिटिश महिला शतरंज चैंपियनशिप में न केवल भाग लिया, बल्कि जीता भी। मिस फातिमा से दिव्या देशमुख तक का यह सफर अभी तक चल रहा है। दिव्या देशमुख को मिलाकर अब तक देश में कुल चार महिला ग्रैंडमास्टर बन गईं हैं। कोनेरू हम्पी देश की पहली महिला ग्रैंडमास्टर बनीं, उनके बाद द्रोणावल्ली हरिका बनीं, तीसरी ग्रैंडमास्टर आर. वैशाली हैं और अब दिव्या देशमुख। कोनेरू हम्पी देश की एक उत्कृष्ट शतरंज खिलाड़ी हैं। वे विश्व की सबसे कम उम्र की ग्रैंडमास्टर बन गई थीं मात्र 15 वर्ष की उम्र में। उन्होंने सर्वोच्च रेटिंग प्राप्त महिला शतरंज खिलाड़ी जुडिट पोल्गार का रिकार्ड तोड़ दिया था, जब वे गैंडमास्टर बनीं, तब वे पोल्गार से तीन महीने छोटी थीं।

 वे कहती हैं कि लड़कियां को ‘अंडरडाॅग खिलाड़ी’ माना जाता है। वे सामान्य रूप से लड़कों और लड़कियों दोनों वर्गों में खेलती थीं। उन्होंने 1999 और 2000 में क्रमशः 12 और 13 साल की उम्र में एशियाई अंडर-12 और राष्ट्रीय अंडर-14 खिताब जीते, दोनों ही लड़कों के वर्ग में। उन्होंने अंडर 10, 12, 14 और 20 विश्व चैंपियनशिप में शीर्ष पुरस्कार जीते। जिस तेजी से वे सफलता की सीढ़ियां चढ़ रही थीं, वह सबके लिये सामान्य नहीं था। दिमाग के इस खेल में उनकी उत्कृष्टता कुछ लोगों को बर्दास्त नहीं हो रही थी। 2002 में ग्रैंडमास्टर बनने के बाद हम्पी का स्वतः चयन पुरुष राष्ट्रीय-ए टूर्नामेंट के लिये हुआ, जो कुछ पुरूष साथियों को स्वीकार नहीं हुआ। इसलिये खुद को और योग्य साबित करने के लिये उन्होंने क्वालीफायर टूर्नामेंट के पुरुष ड्राॅ में प्रवेश किया और दूसरे स्थान पर रहीं। सवाल है कि अगर शतरंज दिमाग का खेल है, तो भी महिलाएं बराबरी पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकतीं।

अब तक की सबसे सफल और सर्वोच्च रेटिंग वाली महिला खिलाड़ियों में से एक, जुडिट पोल्गर हैं, जिन्होंने अपने समय के कई दिग्गज पुरुष खिलाड़ियों को हराया। वे पुरुष प्रतिद्वंद्वी को हराने के लिये काफी चर्चित रहती थीं। गैरी कास्पारोव, अनातोली कार्पोव, व्लादिमीर क्रैमनिक और विश्वनाथ आनंद उनसे हार चुके हैं। शतरंज में गैरी कास्पारोव अब तक के सबसे महान खिलाड़ी माने जाते हैं, जुडिट ने 2002 में एक क्लासिकल गेम में हराकर इतिहास रच दिया था। जुडिट पोल्गार न केवल महिला शतरंज में बल्कि संपूर्ण शतरंज इतिहास में अद्वितीय स्थान रखती हैं। उन्होंने यह साबित किया कि शतरंज में प्रतिभा का कोई लिंग नहीं होता है। लेकिन गैरी कास्परोव यह नहीं मान सके। उन्होंने ‘महिला शतरंज’ को असली शतरंज नहीं माना। उनके लिये ‘असली शतरंज’ और ‘महिला शतरंज’ में अंतर था।

शतरंज के सभी स्तरों पर लैंगिक पूर्वाग्रह की समस्याएं व्याप्त हैं। यह विश्व स्तर पर है- प्रारंभ से लेकर मध्यवर्ती और पेशेवर खिलाड़ियों तक जारी है। उच्चतम स्तर पर महिला शतरंज खिलाड़ियों की संख्या पुरुष समकक्षों की तुलना में काफी कम है। 1,600 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय शतरंज ग्रैंडमास्टर्स में से केवल 37 महिलाएं हैं, यह संपूर्ण का लगभग दो फीसदी होता है। महिला शतरंज टूर्नामेंट की पुरस्कार राशि पुरुषों के टूर्नामेंटों की तुलना में काफी कम होती है। महिला विश्व शतरंज चैंपियनशिप, जो महिलाओं की सबसे बड़ी शतरंज प्रतियोगिता है, इसकी धनराशि विश्व शतरंज चैंपियनशिप की धनराशि से 10 फीसदी कम है।

हाल के वर्षों में, शतरंज में लैंगिक असमानता के बारे में चर्चाएं हो रही है। वेतन में अंतर, नेतृत्वकारी पदों पर महिलाओं की कम संख्या, खेल में लैंगिक भेदभाव और उत्पीड़न की समस्याओं को खिलाड़ियों और खेल संगठनों दोनों ने उजागर किया है और उनका समाधान भी किया है। शतरंज में लैंगिक विविधता और समावेशन को बढ़ावा देने के प्रयास जारी हैं, इस उम्मीद के साथ कि महिलाएं इस खेल में आगे बढ़ती रहेंगी और उनके योगदान को मान्यता और सम्मान मिलेगा।


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