सोमवार, 24 दिसंबर 2018

एकल महिलाओं का संघर्ष

single woman
वैसे तो हमारी सामाजिक और धार्मिक व्यवस्थाएं यही हैं कि किसी भी स्त्री को एकल जीवन न जीना पड़े। फिर भी कुछ महिलाएं आजीवन अविवाहित रह जाती हैं, कुछ शादी ही नहीं करती हैं। कुछ महिलाएं शादी के बाद छोड़ दी जाती हैं तलाकशुदा हो जाती हैं। कुछ महिलाओं के पति शहरों में दूसरी शादी करने के बाद पहली पत्नी को यूं ही छोड़ देते हैं। जबकि कुछ महिलाएं पतियों के साथ तालमेल न बैठने के कारण स्वेच्छा से अलग हो जाती हैं। कुछ महिलाओं के पतियों की मृत्यु हो जाने और दूसरी शादी न होने के कारण अकेली रह जाती हैं। ये तमाम तरह की महिलाएं जो किसी न किसी कारण से एक परिवार के बगैर अपना जीवन व्यतीत करती हैं, उनकी गिनती एकल महिलाओं के रूप में होती है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 71.4 मिलियन एकल महिलाएं हैं, जो कुल महिला जनसंख्या के मुकाबले 12 फीसदी बैठता है। यह आंकड़ा 2001 की जनगणना के आंकड़ों से (51.2 मिलियन) 39 फीसदी अधिक है। यानी एकल महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है।

महिलाओं की सामाजिक स्थिति दोयम होने के कारण उन्हें कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अगर महिलाएं परिवार से अलग हो जाती हैं, तो उन्हें और भी कई दूसरी समस्याओं का सामना करना पड़ जाता है। इसका पता इस तथ्य से चलता है कि जहां साथी की मृत्यु और तलाक होने के बाद पुरुषों को दूसरा जीवनसाथी आसानी से मिला जाता है, वहीं महिलाएं इस मामले में भेदभाव का शिकार हो जाती हैं। आंकड़े कहते हैं कि जहां इस प्रकार के पुरुषों की संख्या देश में 1 करोड़ 39 लाख है, वहीं इस तरह की महिलाओं की संख्या लगभग साढ़े चार करोड़ है। इस कारण ऐसी महिलाएं दूसरों के भरोसे अपना जीवन व्यतीत बिताने के लिए मजबूर होना पड़ता हैं।

वास्तव में पुरुष प्रधान समाज में एकल महिलाओं की स्थिति अधिक सोचनीय हो जाती है। अधिकांश एकल महिलाओं को शारीरिक हिंसा, शोषण, उपेक्षा, तिरस्कार, मुफ्त में कार्य करने के अतिरिक्त सबसे ज्यादा यौन शोषण का दंश झेलना पड़ता है। समाज में ऐसी महिलाओं पर लोगों की बुरी नजर होती है। कई बार ये महिलाएं अपवाह का भी शिकार हो जाती हैं। ऐसी महिलाओं के चरित्र पर न केवल उंगली उठाई जाती है, बल्कि उनकी इमेच एक चरित्रहीन स्त्री की भी बना दी जाती है। कहीं-कहीं ग्रामीण इलाकों में इन्हें डायन तक घोषित करके मौत के घाट उतार दिया जाता है। अगर शहरों की बात की जाए, तो उन्हें किराये पर मकान तक मिलना कठिन हो जाता है। कई जगह क्लब की सदस्यता तक नहीं दी जाती है। यात्रा के दौरान होटल और गेस्ट हाउस में ठहरने के लिए मुश्किल का सामना करना पड़ता है।
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समाज में एकल महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा नहीं मिलती है। कई बार शादी न करने के कारण महिलाओं को अपने पिता की संपत्ति और घर में हिस्सा भी नहीं दिया जाता है। इसी तरह विधवा महिलाएं भी अपने ससुराल में पति की संपत्ति में अपने अधिकार के लिए बोल तक नहीं पाती हैं। ऐसे में प्रश्न है कि 71.4 मिलियन एकल महिलाओं का भविष्य कैसा होगा? उनकी समस्याओं का निदान क्या हो सकता है? क्या उनकी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए केंद्र और राज्य सरकारें क्या कुछ कर रही हैं? केंद्र और राज्य सरकारें जो योजनाएं चला रही हैं, वे किस हद तक उनके लिए लाभप्रद हो रही हैं। इस समय एकल महिलाओं के अधिकारों के लिए कई संगठन काम कर रहे हैं। उनका कहना है कि विभिन्न तरह की सामाजिक सुरक्षा वाली योजनाओं से एकल महिलाएं प्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित नहीं हो पा रही हैं। सामाजिक सुरक्षा के नाम पर दी जाने वाली पेंशन (कहीं-कहीं सिर्फ 300 रुपये प्रति महीने) भी काफी कम होती हैं और यह भी प्रत्येक महीने नहीं मिल पाती है, बल्कि कई-कई महीनों बाद एक साथ मिलती है। और दूसरी बात कि इस तरह की सहायता में व्याप्त विसंगतियां और भ्रष्टाचार इन महिलाओं की समस्याओं को और बढ़ा देता है।

ऐसे समय में देश में एकल महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों में से एक संगठन नेशनल फोरम फॉर सिंगल वूमन’स राइट्स (एनएफएसडब्ल्यूआर) ने मांगों की एक लिस्ट बनाई है जिससे आने वाले बजट में इस संदर्भ में अलग से आवंटन किया जा सके। उनकी मांगों में एकल महिलाओं के लिए पेंशन और उनके देखभालकर्ताओं को सहायता मिल सकें। एनएफएसडब्ल्यूआर का मानना है कि एकल महिलाओं में समस्या केवल ज्यादा उम्र की महिलाओं के साथ ही नहीं है, बल्कि कई तरह की समस्याएं सभी उम्र की विधवाओं, अविवाहित, तलाकशुदा, पतियों से विलग महिलाएं एवं परित्यक्त महिलाओं में भी है। इस संगठन ने न केवल केंद्र सरकार बल्कि राज्य सरकारों से लगभग तीन हजार रुपये तक की मासिक पेंशन सभी प्रकार की एकल महिलाओं के लिए निश्चित करने की मांग की है। देश भर में इस संगठन की 1.3 लाख महिला सदस्य हैं।

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

देश का पहला महिला मॉल

केरल के कोझीकोड जिले के बीचोबीच स्थापित पांच मंजिला कुदुंबश्री महिला मॉल की विशेषता यह है कि यहां महिलाओं से संबंधित सभी प्रकार की वस्तुएं और सेवाएं उपलब्ध होंगी। और इनको उपलब्ध कराने वाली सभी महिला कर्मचारी ही होंगी। बताने वाली सबसे बड़ी खूबी यह भी है कि इतने बड़े उद्यम को खड़ा करने वाली भी सभी दस महिलाएं ही हैं। कुदुंबश्री महिला मॉल कोझीकोड कॉरपोरेशन कुदुंबश्री का प्रोजेक्ट था जिसे कोझीकोड डिस्ट्रिक कुदुंबश्री मिशन के सहयोग से पूरा किया गया है। कोझीकोड कॉरपोरेशन कुदुंबश्री के तहत उन दस महिलाओं के साहस को धन्यवाद देना चाहिए जिन्होंने इतनी बड़ी योजना के बारे न केवल सोचा, बल्कि उसे मूर्तरूप भी दिया। इस मॉल की परिकल्पना में 36 हजार स्क्वायर फीट की जगह पर 60 दुकानें हैं, जहां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कम से कम 300 महिलाओं को रोजगार मिलेगा। इस मॉल की देखभाल और प्रशासन महिलाओं के हाथों में ही रहेगा। मॉल का सारा स्टॉफ भी महिला होंगी। इस मॉल में सुपर मॉर्केट, फूडकोर्ट, ड्राई क्लीनिंग, कार वॉशिंग, हैंडीक्रॉफ्ट, बेबी केयर, विभिन्न घरेलू सामान और बुक स्टॉल होंगे। इन सबके अतिरिक्त यहां भविष्य में कांफ्रेंस रूम, ट्रेनिंग सेंटर और कार पार्किंग की सुविधाएं देने की योजना भी हैं।
देश की महिलाओं के लिए यह एक उत्साहवर्द्धक खबर है, इसलिए नहीं कि देश में एक ऐसा मॉल है जहां महिलाओं से संबंधित सभी तरह का सामान और सेवाएं उपलब्ध होंगी और देरसबेर ऐसा मॉल हमारे आसपास भी खुल जाएगा, जहां हम जा सकेंगी। वास्तव में महिलाओं के लिए यह खबर इसलिए उत्साहवर्द्धक है कि यह एक ऐसा मॉल या उद्यम है जिसे न केवल महिलाओं ने मिलजुल कर स्थापित किया है, बल्कि उसे चलाने और आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी भी संभाल रही हैं। यही बात इस खबर में निहित है, जिसे महिलाओं को समझना होगा। देश में महिलाएं अपना खुद का बिजनेस खोलने और चलाने के लिए ज्यादा उत्सुक नहीं रहती हैं। इसके बहुत से सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत कारण हो सकते हैं। अगर ग्रामीण स्तर पर बात की जाए तो कृषि और पशुपालन के जरिए अपनी घरेलू आमदनी बढ़ाने तक सीमित हो जाता है। शहरों में महिला उद्यमियों की बात की जाए तो वे अपने घरों में कुछ सेवाएं देने का काम शुरू कर देती हैं। वास्तव में हमारी सामाजिक संरचना के चलते महिलाएं भी अपना बिजनेस खड़ा करने से अधिक एक निश्चित घंटों के लिए जॉब पर जाना अधिक पसंद करती हैं।ऐसी परिस्थतियों में बिजनेस करना उनके लिए अधिक जोखिम वाला हो जाता है। एक बिजनेस उनका अधिक समय और समर्पण मांगता है। हमारी सामाजिक संरचना में जहां महिलाओं को घरेलू जिम्मेदारी के लिए भी फुल टाइम जिम्मेदार माना जाता है, वहां महिलाएं इस तरह का जोखिम उठाने के लिए खुद को असमर्थ पाती हैं।
केरल महिला साक्षरता और महिला उद्यमियों की दृष्टि से संवर्द्धक राज्य है। पर देश के बहुत से इलाकों में महिलाएं अपना उद्यम लगाने के बारे में सोचती तक नहीं हैं। हां, उन्हें अपने कॅरियर की दृष्टि और आर्थिक परेशानी होने पर वे कहीं नौकरी कर पैसे कमाने के बारे में ज्यादा उत्सुक रहती हैं। जिस तरह महिला अपने कॅरियर के बारे में सोचें और उस पर अमल भी करें, यह बात भारतीय परिवेश में जुदा बात होती है, उसी तरह महिलाएं अपना उद्यम खोले और चलाएं यह भी समाज के लिए अनोखी बात होती है। सवाल है कि महिला उद्यमशीलता पर इतना जोर क्यों दिया जाना चाहिए? विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संथानों का मानना है कि यदि देश की श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर हो जाए, तो देश की जीडीपी में ढाई प्रतिशत तक का उछाल देखा जा सकेगा। जीडीपी के अतिरिक्त महिलाओं की इस तरह भागीदारी सामाजिक चेतना का भी निर्माण करती है, जो देश को समग्र रूप से आगे ले जाने का काम करेगी। पिछले साल इन्हीं दिनों यानी नवंबर, 2017 को महिला उद्यमियों के बारे में देश में शीटवर्क डॉट कॉम ने एक शोध किया। इसके अनुसार महिलाएं उद्यमी हों, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपके यहां महिला कितनी शिक्षित और जागरुक हैं। इसके अध्ययन से पता चलता है कि देश के दक्षिण के राज्य जैसे आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल,पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में सबसे अधिक लघु और मध्यम तरह की महिला उद्यमियों को देखा गया है। इसका कारण यहां महिला शिक्षा की उच्च दर और महिला सशक्तिकरण बताया गया।
इसी तरह नार्थ-ईस्ट के राज्यों जैसे अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और नागालैंड में भी अन्य राज्यों की तुलना में महिला उद्यमी कम, पर पुरुषों के मुकाबले यहां महिला उद्यमी अधिक पाई गईं। इसी तरह इस शोध से यह भी पता लगाया कि लगभग 80 फीसदी महिला उद्यमियों ने अपना बिजनेस अपने पैसों से खकेरल के कोझीकोड जिले के बीचोबीच स्थापित पांच मंजिला कुदुंबश्री महिला मॉल की विशेषता यह है कि यहां महिलाओं से संबंधित सभी प्रकार की वस्तुएं और सेवाएं उपलब्ध होंगी। और इनको उपलब्ध कराने वाली सभी महिला कर्मचारी ही होंगी। बताने वाली सबसे बड़ी खूबी यह भी है कि इतने बड़े उद्यम को खड़ा करने वाली भी सभी दस महिलाएं ही हैं। कुदुंबश्री महिला मॉल कोझीकोड कॉरपोरेशन कुदुंबश्री का प्रोजेक्ट था जिसे कोझीकोड डिस्ट्रिक कुदुंबश्री मिशन के सहयोग से पूरा किया गया है। कोझीकोड कॉरपोरेशन कुदुंबश्री के तहत उन दस महिलाओं के साहस को धन्यवाद देना चाहिए जिन्होंने इतनी बड़ी योजना के बारे न केवल सोचा, बल्कि उसे मूर्तरूप भी दिया। इस मॉल की परिकल्पना में 36 हजार स्क्वायर फीट की जगह पर 60 दुकानें हैं, जहां प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कम से कम 300 महिलाओं को रोजगार मिलेगा। इस मॉल की देखभाल और प्रशासन महिलाओं के हाथों में ही रहेगा। मॉल का सारा स्टॉफ भी महिला होंगी। इस मॉल में सुपर मॉर्केट, फूडकोर्ट, ड्राई क्लीनिंग, कार वॉशिंग, हैंडीक्रॉफ्ट, बेबी केयर, विभिन्न घरेलू सामान और बुक स्टॉल होंगे। इन सबके अतिरिक्त यहां भविष्य में कांफ्रेंस रूम, ट्रेनिंग सेंटर और कार पार्किंग की सुविधाएं देने की योजना भी हैं।
देश की महिलाओं के लिए यह एक उत्साहवर्द्धक खबर है, इसलिए नहीं कि देश में एक ऐसा मॉल है जहां महिलाओं से संबंधित सभी तरह का सामान और सेवाएं उपलब्ध होंगी और देरसबेर ऐसा मॉल हमारे आसपास भी खुल जाएगा, जहां हम जा सकेंगी। वास्तव में महिलाओं के लिए यह खबर इसलिए उत्साहवर्द्धक है कि यह एक ऐसा मॉल या उद्यम है जिसे न केवल महिलाओं ने मिलजुल कर स्थापित किया है, बल्कि उसे चलाने और आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी भी संभाल रही हैं। यही बात इस खबर में निहित है, जिसे महिलाओं को समझना होगा। देश में महिलाएं अपना खुद का बिजनेस खोलने और चलाने के लिए ज्यादा उत्सुक नहीं रहती हैं। इसके बहुत से सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत कारण हो सकते हैं। अगर ग्रामीण स्तर पर बात की जाए तो कृषि और पशुपालन के जरिए अपनी घरेलू आमदनी बढ़ाने तक सीमित हो जाता है। शहरों में महिला उद्यमियों की बात की जाए तो वे अपने घरों में कुछ सेवाएं देने का काम शुरू कर देती हैं। वास्तव में हमारी सामाजिक संरचना के चलते महिलाएं भी अपना बिजनेस खड़ा करने से अधिक एक निश्चित घंटों के लिए जॉब पर जाना अधिक पसंद करती हैं।ऐसी परिस्थतियों में बिजनेस करना उनके लिए अधिक जोखिम वाला हो जाता है। एक बिजनेस उनका अधिक समय और समर्पण मांगता है। हमारी सामाजिक संरचना में जहां महिलाओं को घरेलू जिम्मेदारी के लिए भी फुल टाइम जिम्मेदार माना जाता है, वहां महिलाएं इस तरह का जोखिम उठाने के लिए खुद को असमर्थ पाती हैं।
केरल महिला साक्षरता और महिला उद्यमियों की दृष्टि से संवर्द्धक राज्य है। पर देश के बहुत से इलाकों में महिलाएं अपना उद्यम लगाने के बारे में सोचती तक नहीं हैं। हां, उन्हें अपने कॅरियर की दृष्टि और आर्थिक परेशानी होने पर वे कहीं नौकरी कर पैसे कमाने के बारे में ज्यादा उत्सुक रहती हैं। जिस तरह महिला अपने कॅरियर के बारे में सोचें और उस पर अमल भी करें, यह बात भारतीय परिवेश में जुदा बात होती है, उसी तरह महिलाएं अपना उद्यम खोले और चलाएं यह भी समाज के लिए अनोखी बात होती है। सवाल है कि महिला उद्यमशीलता पर इतना जोर क्यों दिया जाना चाहिए? विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संथानों का मानना है कि यदि देश की श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर हो जाए, तो देश की जीडीपी में ढाई प्रतिशत तक का उछाल देखा जा सकेगा। जीडीपी के अतिरिक्त महिलाओं की इस तरह भागीदारी सामाजिक चेतना का भी निर्माण करती है, जो देश को समग्र रूप से आगे ले जाने का काम करेगी। पिछले साल इन्हीं दिनों यानी नवंबर, 2017 को महिला उद्यमियों के बारे में देश में शीटवर्क डॉट कॉम ने एक शोध किया। इसके अनुसार महिलाएं उद्यमी हों, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपके यहां महिला कितनी शिक्षित और जागरुक हैं। इसके अध्ययन से पता चलता है कि देश के दक्षिण के राज्य जैसे आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल,पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में सबसे अधिक लघु और मध्यम तरह की महिला उद्यमियों को देखा गया है। इसका कारण यहां महिला शिक्षा की उच्च दर और महिला सशक्तिकरण बताया गया।
इसी तरह नार्थ-ईस्ट के राज्यों जैसे अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और नागालैंड में भी अन्य राज्यों की तुलना में महिला उद्यमी कम, पर पुरुषों के मुकाबले यहां महिला उद्यमी अधिक पाई गईं। इसी तरह इस शोध से यह भी पता लगाया कि लगभग 80 फीसदी महिला उद्यमियों ने अपना बिजनेस अपने पैसों से खड़ा किया या बहुत कम स्तर पर सरकारी स्कीमों, जो महिला उद्यमियों को अपना बिजनेस खड़ा करने में मदद देती हैं, की मदद से खड़ा किया। इस कारण शायद इन योजनाओं के बारे में बहुत कम जानकारी होना था। साथ ही इसमें यह भी बताया गया कि देश में गोवा, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, राजस्थान और पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य हैं, जहां सबसे अधिक योजनाएं इस संदर्भ में बनाई गई। जिसका परिणाम आज हमें दिख भी रहा है। इसलिए कहना न होगा कि देश में महिला उद्यमियों की अधिक संख्या हम देखना चाहते हैं तो शिक्षा जागरुकता के साथ-साथ महिला उद्यमियों को प्रेरित करने वाली नीतियों की जरुरत हैं। तभी देश के हर कोने में महिला मॉल जैसी योजनाएं मूर्तरूप में दिखेगीं।


मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

उड़ान भरने की बेकरारी

कोई भी वाहन चलाना वैसे ही महिलाओं के लिए जोखिम वाला काम माना जाता हैऐसे में हवा में कुलांचे भरने को क्या कहा जाए। इसे आश्चर्य ही कहा जाएगा कि देश में महिला पायलटों की संख्या विश्व में सबसे अधिक हो गई है। इस पर हमें गर्व होना चाहिए कि यह संख्या महिला पायलटों के वैश्विक औसत से भी अधिक है। अमेरिकाब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों में जहां हमारे देश की तुलना में उड्डयन अधिक विस्तृत हैवहां की तुलना में हमारी महिला पायलटों की अधिक संख्या होना एक दूसरी कहानी कहता है।

हाल ही में इंटरनेशनल सोसायटी ऑफ विमिन एयरलाइन पायलट्स ने पायलटों के संदर्भ में अपने नवीन आंकड़ें जारी किए हैं। इससे पता चलता है कि देश में कुल 8,797 पायलट हैंइनमें से1,092 महिला पायलट हैं। इन महिला पायलटों में से 385 कैप्टन के पद पर हैं। विश्व में हमारी महिला पायलटों की हैसियत का अंदाजा आकड़ों के विश्लेषण से और अधिक चलता है। विश्व में कुल 1.5 लाख पायलट हैंजिनमें से 8,061 महिला पायलट हैं। पुरुषों की तुलना में महिला पायलटों की यह संख्या 12.4 फीसदी बैठती है जिसमें भारतीय महिला पायलटों का प्रतिशत 5.4 है। देश में महिला पायलटों की संख्या पिछले चार सालों में लगभग दोगुनी हो चुकी है। 2014 में घरेलू विमानन कंपनियों के 5,050 पायलटों में 586 महिला पायलट थीं। देश की एक बड़ी विमान कंपनी इंडिगो एयरलाइन में जहां 2013 में महिला पायलटों की संख्या सिर्फ 69 थीवह आज 300 पार कर गई है। कामोबेश आज स्पाइसजेटगो एयरवेज और जेट एयरवेज के महिला पायलटों की संख्या में कई गुना वृद्धि हो चुकी है। एयर इंडिया में भी पिछले चार-पांच वर्षों में 25 से 35 फीसदी के लगभग महिला पायलटों की संख्या में वृद्धि हुई है।
महिलाओं का किसी वाहन को चलाना देश-दुनिया में आश्चर्य का विषय रहा है। चाहे वह साइकिल होस्कूटर होबस होरेल होया फिर हवाई जहाज। आज मैट्रो सिटीज और छोटे शहरों में निजी वाहन चलाना आमतौर पर देखा जाता हैपर आज भी किसी सार्वजनिक वाहन चलाती एक स्त्री को देखना कइयों को सुखद आश्चर्य दे जाता है। समय के साथ महिलाओं का विभिन्न क्षेत्रों में जितना हस्ताक्षेप बढ़ा है, उसमें महिलाओं का किसी लड़ाकू विमान का उड़ाना भी आश्चर्य का विषय नहीं होना चाहिए। फिर भी महिला चालकों को शक की निगाह से देखा जाता है। उन पर उतना भरोसा नहीं किया जाता है, जितना पुरुष चालकों पर किया जाता है। प्रीति कुमारी पश्चिम रेलवे की पहली महिला ड्राइवर हैं। जब उन्हें 2010 में मुंबई की लाइफलाइन कही जाने वाली शहरी रेल सेवा में ट्रेनें दौड़ाने की जिम्मेदारी दी गईतब उन्होंने एक बात कही कि मुझे अन्य चालकों से अधिक मेहनत करनी होगी, ताकि कभी कोई यह न कह सके कि वे महिला थीं, इसलिए गड़बड़ी हो गई। इसी तरह मुंबई की 45 वर्षीय मुमताज एमकाजी जिन्हें एशिया की पहली महिला डीजल इंजन चालक होने का गौरव प्राप्त हो चुका हैउन्हें एक रेलवे ड्राइवर बनने के लिए खुद अपने पिता का विरोध झेलना पड़ा। जबकि उनके पिता स्वयं एक वरिष्ठ रेलवे कर्मचारी थे। तो मुद्दा महिलाओं पर विश्वास करने का है।
इन सबके बावजूद सेना में महिलाएं को लड़ाकू विमान उड़ाने की अनुमति मिल गई है। इंडियन एयरफोर्स में इस वक्त करीब एक सैकड़ा महिला पायलट मौजूद हैं। यहां महिलाओं को हेलीकॉप्टर और ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट उड़ाने की ही अनुमति है। इसी तरह नेवी में भी पुरुष वर्चस्व तोड़कर महिलाएं नौसेना में टोही विमानों में तैनात हो रही हैं। पर वे जंग में नहीं जा सकेंगी। धीरे-धीरे ही सही महिलाएं ऐसे क्षेत्रों में अपनी भूमिका मजबूत करने की ओर बढ़ रही हैंजहां कभी पुरुषों का वर्चस्व माना जाता था। यह क्या कम है कि आज महिलाएं ऐसे सपने देखने के लिए स्वतंत्र हैं, जहां जाने के लिए कभी वे सपने भी नहीं देख सकती थीं।

शनिवार, 17 नवंबर 2018

चुटकी भर सिंदूर की कीमत

छठ त्यौहार
हिन्दू पौराणिक कथाओं में स्त्रियों के सौभाग्य का सूचक सिंदूर के बारे में ऐसी कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं। जिनके माध्यम इस बात को स्थापित करने की कोशिश की जाती है कि सौभाग्य यानी पति की लंबी आयु के लिए सिंदूर क्यों धारण किया जाता है। सिंदूर का संदर्भ केवल शादीशुदा महिलाओं से ही होता है, इसलिए गैर शादीशुदा स्त्री के लिए सिंदूर का कोई अर्थ नहीं होता है और विधवाओं के लिए सिंदूर का कोई अर्थ रह नहीं जाता। इसी बात से स्त्रीवादी महिलाओं को आपत्ति होती है। उनका शादीशुदा स्त्री के माथे पर सजा सिंदूर का अर्थ पुरुष की गुलामी, स्वामी भक्ति ही निकाला जाता है।

इसी आपत्ति के चलते साहित्यकार, हिन्दी अकादमी की उपाध्यक्ष, स्त्री मुद्दों पर खुलकर लिखने वाली प्रखर लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने छठ त्यौहार के दौरान बिहार की महिलाओं द्वारा नाक से लेकर माथे तक लगाए जानेवाले सिंदूर पर सवाल उठा दिए। सोशल मीडिया पर एक्टिव रहने वाली मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा कि छठ के त्यौहार में बिहार वासिनी स्त्रियां मांग माथे के अलावा नाक पर भी सिंदूर क्यों पोत लेती हैं? कोई खास वजह होती है क्या? उनका इतना पूछना ही था कि चारों तरफ से महिलाओं के सिंदूर धारण को लेकर प्रतिक्रियाएं आने लगी। यह प्रतिक्रियाएं इतनी तीखी थीं कि किसी अपमान-सम्मान की परवाह शेष नहीं बची रह गई थी। सिंदूरया सिंदूर जैसे दूसरे सुहाग चिन्हों को पहनने को लेकर औचित्य-अनौचित्य सिद्ध किए जाने लगे। मामले को तूल पकड़ते देखकर मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी टिप्पणी फेसबुक से हटा ली। हालांकि उन्होंने अपना पक्ष नहीं छोड़ा और लिखा कि सिंदूर की सुनहरी डिबिया संहाले रहीं यशोधरा और चले गए सिद्धार्थ। सीता ने सहेजा अशोक वाटिका तक सिंदूर, मिली अग्निपरीक्षा और फिर अपमानित निष्कासन। राज्य का सब कुछ लुट गया, बचा ली छोटी सी सिंदूरदानी तो भी नल-दमयंती को सोती हुई छोड़ गए तरू के नीचे…। कितनी सुहागिन स्त्रियों को बरबाद होने से बचा पाया है सिंदूर? मैंने नहीं किया विवाह सिंदूर की खातिर, नहीं सहेजी कभी सिंदूर की डिबिया, नहीं सजाई मांग सिंदूरी रंग से। उसको नहीं माना वर, सुहाग और पति परमेश्वर। वह मेरे सुख-दुख का साथी है, सहचर है। प्रेम मोहब्बत और विश्वास के साथ हम एक संग हैं।

यह विचार मैत्रेयी पुष्पा के अपने हैं, बहुत सी महिलाएं उनके इस तरह के विचारों से इत्तेफाक रखती होगीं। और जाहिर है कि वे अपने इन विचारों अपने ऊपर लागू भी करती होंगी, लेकिन सब लोग यही माने, यह तोजरूरी नहीं? व्यक्तिगत स्वतंत्रता तो यही कहती है। हम अपने लोक, संस्कृति या धर्म के विश्वास मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र हैं। इसलिए धर्म आस्था में विश्वास रखने वाली महिलाओं ने मैत्रेयी पुष्पा की सिंदूर पर प्रश्न उठाती इन बातों से इत्तेफाक न रखते हुए अपनी आस्थाओं पर अपना विश्वास दिखाया। और वे दिखाती आ भी रही हैं। उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि सुगाह चिन्हों को धारण करने से कोई ‘गुलाम या स्वामी भक्त’ हो जाता है। वे इसे पति के प्रति प्रेम ही मानती हैं। यह मानने के लिए वे स्वतंत्र भी हैं।

मैत्रेयी पुष्पा का सवाल आस्थाओं से जुड़ा सवाल था। आस्थाएं व्यक्तिगत होती हैं। आस्थाएं जन्म से जुड़ी भी होती हैं, जो इंसान के जन्म लेते उसके साथ हो लेती हैं। इसी तरह स्त्रियों के जन्म लेते ही कई तरह कीमान्यताएं उनसे स्वत: जुड़ जाती हैं, उसी तरह विवाह और विवाह से जुड़ी मान्यताएं और आस्थाएं हैं। अब यह कितनी भेदभाव वाली है भी, नहीं भी हैं, यह अलग-अलग मान्यताओं और आस्थाओं के चलते अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग हो सकती हैं। इसीलिए जब एक स्त्री के श्रृंगार को सुहाग और सौभाग्य से जोड़कर देखा जाता है, और इन पर आस्था न रखने वाली स्त्रियों को मानने के लिए बाध्य किया जाता है, तो प्रश्न उठते हैं। ये ‘मानना पड़ना’ ही सवाल उठाने को मजबूर करता है, फिर चाहे आप उन्हें कितनी ही वैज्ञानिक कारणों से जोड़कर बताइए-समझाइए। परंपरावादी यह कहकर इस प्रश्न से अलग नहीं हो सकते कि आप मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र है। आप चाहे तो शादी के बाद मंगलसूत्र या सिंदूर धारण न करें। पर क्या समाज के सिस्टम के अंदर रह रही एक स्त्री के लिए यह संभव हो सकता है? इसका जवाब हमें अपने आसपास तलाशना होगा।

महिलावादी स्त्रियों की अपनी आपत्तियां हैं। आज नेट पर जाने कितने लिंक इस बात के लिए मिल जाएंगे कि मांग में सिंदूर लगाने से कितने साइंसटिफिक लाभ एक स्त्री को हो सकते हैं। सवाल यह है कि जब इसके इतने अधिक लाभ हैं, तो समाज के हर व्यक्ति के लिए सिंदूर लगाना जरूरी होना चाहिए था? कुछ नहीं तो शादीशुदा पुरुष तो इसे लगा ही सकते हैं। उन्हें इसके लाभ से वंचित क्यों रखा गया? आज शरीर को अलंकृत करने वाले आभूषण तक पुरुष त्याग चुके हैं। कान में कुंडल और पैर के आभूषण कभी कोई भी पुरुष पहने हुए नहीं दिखता। बात सुविधा की है। इसलिए जो सुविधाजनक था, वह उन्होंने अपना लिया। पर यह छूट स्त्रियों को कहां हैं? बात साफ है कि चीजों को आस्था से जोड़ दीजिए, प्रश्न उठने की संभावना कम हो जाएगी। इन सब के बीच क्या इस बात को नजरअंदाज किया जा सकता है कि दूसरों की आस्थाओं का सम्मान न किया जाए?

…किया जाना चाहिए। आस्थाओं से ही परंपराएं पलती हैं और परंपराओं से संस्कृति बनती है। किसी की संस्कृति और आस्थाओं को ठेस पहुंचाने का हक किसी को नहीं होना चाहिए। मैत्रेयी पुष्पा प्रश्न करने का हक रखती हैं पर वे ‘सिंदूर पोतने’ जैसे शब्दों का प्रयोग करके कहीं अधिक ठेस पहुंचा जाती हैं। वे लेखिका हैं, संवेदनशील लेखिका हैं, शब्दों के चुनाव को बखूबी समझती हैं। साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा के सवाल पर दीप्ति गुप्ता नेकाफी अच्छे तरह से लिखा है कि आपकी तरह अन्य स्त्रियों को भी अपनी मान्यताओं, आस्थाओं और विश्वास को संजोने का हक है। आप किसी की आस्था पर प्रश्न चिन्ह मत लगाइए। याद रखिए कि आस्थाएं तर्कों से अधिक ताकतवर होती हैं और उनसे निकली प्रार्थनाएं अद्भुत परिणाम देती हैं। सो आस्थाओं को तोड़ना किसी के वश में नहीं है। उनकी नींव बड़ी गहरी होती है और उन पर टिका विश्वास सघन होता है।

सोशल मीडिया पर यह बहस अभी भी चल रही है और शायद अगले साल जब छठ पूजा फिर से मनाई जा रही हो, तब कोई फिर से सिंदूर या किसी और परंपरा पर सवाल उठा दे। लोग फिर इस बहस में शामिल होंगे, तर्क-वितर्क करेगें, दूसरे के विचारों को जानेगें-समझेगें और अपने-अपने काम में लग जाएंगे। जरूरी नहीं कि किसी बहस के बाद हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचें ही, लेकिन बहस के दौरान हम विचार-विमर्श तक जरूर पहुंच जाते हैं। विचार के लिए जरूरी तत्वों की खोज हो जाती है। रही बात किसी निष्कर्ष की, तो लोग अपनी-अपनी विचार ग्राह्य शक्ति से अपनी मंजिल तक पहुंच सकते हैं, इस बात की संभावना किसी भी बहस के अंत में पूरी होती है।

(पिछले वर्ष युगवार्ता सप्ताहिक में छठ पूजा के दौरान प्रकाशित एक लेख का अंश)

गुरुवार, 8 नवंबर 2018

क्या महिलाओं का कोई धर्म नहीं?

sabarimala ayyappa temple
देश की सबसे बड़ी अदालत ने प्रतिबंधित उम्र ग्रुप की महिलाओं को असमानाता, महिलाओं की गरिमा के खिलाफ को आधार बनाकर सबरीमाला में दर्शन की अनुमति प्रदान कर दी, तो स्वयं महिलाएं ही आंदोलन में उतर आईं। सड़क पर उतरीं इन महिलाओं ने न केवल मंदिर में प्रवेश लेने को उत्सुक महिलाओं की समझाइस की, बल्कि येनकेन प्रकारेण उन्हें रोकने की कोशिश में सफल भी रहीं। वे ऐसा करती भी क्यों न, आखिर महिलाओं ने ही इस परंपरा को लिखित-अलिखित रूप से अपनी बेटियों के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाया हैं। और इनका इरादा भी इसे आगे ले जाने का है। बगैर इस बात को जाने-समझे कि देश के अनगिनत समुदायों में मासिक धर्म पूजने और उत्सव मनाने कारण है, अपवित्रता का नहीं।

सदियां बीतने के साथ महिलाओं की उर्वरक शक्ति अपवित्रता, छुआछूत में कब बदल जाती है, कि इसे लेकर महिलाओं के अंदर शर्म, झिझक, डर जैसे तत्व प्रवेश कर गए। इस बात को सबरीमाला में प्रवेश को लेकर महिलाओं का विरोध स्वयं बताता है। सबरीमाला जैसा पवित्र स्थान ही क्यों, इस अपवित्रता के चलते घर में स्थित पूजा घर, व्रत-त्योहारों में महिलाएं प्रतिबंधित या सीमित हो जाती हैं। कामोबेश अधिकतर धर्मां में इस अवस्था में पवित्र स्थानों पर जाने की मनाही होती है। ऐसा नहीं है कि यह अपवित्रता ही महिलाओं को तमाम धार्मिक कार्य करने से रोकती है। वास्तव में ऐसी अनगिनत परंपराएं हैं जिन्हें आधार बनाकर धर्म के अधिकांश कार्यों से उन्हें वंचित कर दिया जाता है।

कहते हैं कि सबरीमाला वाले भगवान अयप्पा ब्रम्हचारी हैं, इसलिए 10 से 50 वर्ष की उम्र वाली महिलाओं को उनसे दूर रहना चाहिए। केरल के ही पद्मनाथ स्वामी मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी है। विश्व के सबसे धनी इस मंदिर के बारे में यह माना जाता है कि महिलाओं के इस हिस्से में प्रवेश से मंदिर के खजाने को बुरी नजर लग जाएगी। अहमदाबाद स्थित शनि शिंगनापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के प्रतिबंध के संबंध में कहा जाता था कि मूर्ति के सामने आने पर हानिकारक तरंगें निकलती हैं, अत: महिलाओं को यहां प्रवेश नहीं करना चाहिए। इसी तरह कोल्हापुर स्थित 1400 साल पुराने महालक्ष्मी मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी थी। जिसे आंदोलन के बाद समाप्त किया गया। यही समस्या नासिक के त्रंयबकेश्वर मंदिर में भी है। इस मंदिर में शिव लिंग की पूजा का अधिकार महिलाओं को नहीं है। इसकी वजह गर्भगृह में निकलने वाला विकिरण बताया जाता हैं, जो महिलाओं के लिए नुकसानदेह हैं। नासिक के कपालेश्वर मंदिर में निचली जाति की महिलाओं का गर्भगृह में प्रवेश पर प्रतिबंध था। देश के तमाम मंदिरों और पवित्र स्थलों में अलग-अलग कारणों से पूर्ण या आंशिक प्रतिबंध महिलाओं पर लगा हुआ है। इस क्रम में पुणे के म्हस्कोबा मंदिर, असम का पटबौसी सत्र मंदिर, बीड का मारूती मंदिर, पुष्कर का कार्तिकेय मंदिर, रनकपुर के जैन मंदिर या देश की राजधानी दिल्ली में स्थिति निजामुद्दीन औलिया जैसी अन्य दरगाहों में महिलाओं का किसी न किसी रूप में प्रवेश निषिद्ध है।

सबरीमाला मंदिर विवादकिसी भी धर्म में पैगम्बर महिला नहीं हैं। गौतम बुद्ध ने बहुत विचार-विमर्श के बाद मठों में महिलाओं को प्रवेश दिया था। मंदिर में पुजारी महिला नहीं दिखती हैं। (अपवादस्वरूप किन्हीं देवस्थानों में हैं। जैसे मनकामेश्वर मंदिर, लखनऊ की महंत दिव्यागिरि हैं।) किसी भी मंदिर का समस्त कामकाज पुरुष पुजारियों के हवाले रहता है। चाहे वह देवीस्थान ही क्यों न हो। कई मस्जिदों में महिलाएं नमाज पढ़ने नहीं जा सकती। देश में निजामुद्दीन औलिया, अजमेर शरीफ और श्रीनगर के हजरतबल की दरगाह के मकबरों तक महिलाओं का प्रवेश निषिद्ध है। रोमन कैथोलिक महिलाएं पादरी नहीं बन सकतीं। पारसी महिलाएं गैर धर्म में विवाह के बाद अपने सभी धार्मिक अधिकारों से वंचित कर दी जाती हैं, जबकि पुरुषों अधिकार उसी तरह से जायज होते हैं। (पारसी समुदाय की गुलरुख के. गुप्ता ने इस संदर्भ में एक लंबी लड़ाई लड़कर हाल ही में जीती है।) पारसी पुरुष के शादी करने वाली महिला भी फायर टेम्पल में प्रवेश नहीं कर सकती है, जबकि पुरुष कर सकता है। इस बात को हाल ही में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने बयां किया, जिन्होंने एक पारसी समुदाय के व्यक्ति जुबिन ईरानी से विवाह किया है।

इन सब उदाहरणों से समझा जा सकता है कि इन सभी बड़े और चर्चित देवस्थानों पर प्रतिबंधों का अपना एक इतिहास है, जो बगैर किसी तर्कशास्त्र के बदस्तूर जारी है। जिसे कुछ मुट्ठीभर लोग आस्था के नाम पर संचालित कर रहे हैं। किसी भी पवित्र स्थान में लगे ये प्रतिबंध को किसी न किसी अनहोनी से जोड़कर लोगों को डराया जाता है। हाल ही केरल में जब बाढ़ ने तबाही मचाई, तब इसे भगवान अयप्पा के क्रोध से जोड़ दिया गया। प्रश्न है कि किसी न किसी बहाने से इन तमाम तरह के पवित्र स्थानों पर महिलाओं के प्रवेश को इतना प्रतिबंधित क्यों किया गया है? क्या महिलाएं कम धार्मिक हैं या वे धर्म के अनुष्ठानों और व्याख्यानों को समझने में असमर्थ हैं? क्या उनमें श्रद्धा कम है? या इन सबसे अलग कोई कारण है, जिससे आस्था में उनकी बेदखली जारी है। कहीं धर्म पुरुष सत्तात्मक तो नहीं है जो किसी न किसी बहाने आधी आबादी को इससे दूर रखना चाहता है, जिससे धर्म पर उसकी सत्ता कायम रहे।

सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

#मीटू : आखिरकार गुबार फूट ही पड़ा

central minister menka gandhi
तनुश्री और नाना के विवाद ने बहुत सी महिलाओं को यह हिम्मत दी कि यही सबसे ठीक समय है, जब वे अपनी घुटन से छुटकारा पा सकती हैं। तनुश्री से हिम्मत लेकर लेखिका और निर्देशिका विंता नंदा ने जब अभिनेता और संस्कारी बाबूजी के नाम से लोकप्रिय आलोकनाथ के बारे में विस्तार से लिखा, तो लोगों का आश्चर्यचकित हो जाना लाजिमी था। बीस साल पहले हुए विंता के यौन उत्पीड़न के बाद जिस तरह से एक के बाद एक मामले सामने आए, उससे आलोक नाथ की एक दूसरी छवि ही लोगों ने देख ली। इसी तरह तनुश्री के माध्यम से समाजसेवी नाना पाटेकर एक दूसरा स्वरूप लोगों के सामने आया। तनुश्री के समर्थन में कंगना ने जब विकास बहल पर अपनी बात रखी, तब ‘क्वीन’ जैसी वुमेन ओरिएंटेड फिल्म बनाने वाले व्यक्ति का एक और ही चेहरा सामने आया। इसी क्रम में पत्रकारिता के क्षेत्र से एक प्रमुख नाम एम.जे. अकबर का आया है। अब तक उन पर 15 महिला पत्रकारों ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है। टेलीग्राफ, एशियन ऐज और इंडिया टुडे के शीर्ष पदों पर रहने के बाद आज वे केंद्र सरकार में विदेश राजमंत्री भी हैं।

गौर करने वाली बात है कि जिन पर भी आरोप लग रहे हैं, वे सब अपने-अपने क्षेत्रों में एक बड़ा नाम है। इन सभी पर जो आरोप लगे हैं, वे कई-कई साल पुराने हैं। जिसका अब खुलासा किया जा रहा है। इसी कारण कथित पीड़ितों से यह सवाल किया जा रहा है कि वे उस समय चुप क्यों रहीं? सवाल वाजिब भी है। फिर भी प्रश्न यह है कि हमने महिलाओं को कभी ऐसी सुविधा और माहौल दिया ही नहीं कि वे अपनी बात घर या समाज में सभी के सामने बेखौफ रख सकें। हमारे समाज में संभ्रात घरों की महिलाएं तो कुछ दशकों पहले ही काम पर निकली हैं। खेतों पर, कारखानों में महिलाओं का एक बड़ा वर्ग काम करता रहा है। वहां उनके साथ यौन उत्पीड़न से लेकर आर्थिक शोषण बड़ी आम बात रही है। बॉलीवुड में ‘मिर्च मसाला’ जैसी कुछ ही फिल्मों में इस बात को बखूबी चित्रण किया गया है। आज भी पुरुष सत्ता घर हो या बाहर, महिलाओं के श्रम और शरीर पर अपना ही नियंत्रण चाहता है। इसके लिए कई तरह के जाल बुने जाते रहे हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि फिल्म, राजनीति, खेल, अकादमी, कला, कॉरपोरेट जैसे तमाम क्षेत्रों में ख्याति अर्जित करने वाले मठाधीश बहुत कुछ कंट्रोल करने की हैसियत रखते हैं। वे किसी का कुछ बना भी सकते हैं और किसी का कुछ बिगाड़ भी सकते हैं। मीटू इंडिया आंदोलन पर केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने एक सवाल के जवाब पर कहा कि ताकतवर पदों पर बैठे पुरुष अक्सर ऐसा करते हैं। यह बात मीडिया, राजनीति और यहां तक कि कॉरपोरेट के वरिष्ठ अधिकारियों पर भी लागू होती है। यही बात हॉलीवुड के मीटू अभियान पर प्रसिद्ध अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने कही थी, वह भी गौर करने वाली है। उन्होंने कहा था कि ऐसी बहुत सी कहानियां हमारे सामने आने वाली हैं, क्योंकि यह सिर्फ सेक्सुअलिटी या सेक्स की बात नहीं है, यह पॉवर की बात है। इस पॉवर के तहत हमारी इंडस्ट्री में किसी भी औरत को काम के लिए कम्प्रोमाइज करने को कहा जाता है। अगर वह इसके लिए राजी नहीं होती है, तो उसे डराया जाता है। हॉलीवुड में #मीटू अभियान के बाद जब हार्वे वाइंस्टीन को गिरफ्तार कर लिया गया, तब इस मामले में अदालत में अभियोजन पक्ष ने स्पष्ट कहा कि वाइंस्टीन ने युवतियों को राजी करने के लिए अपनी हैसियत और ताकत का इस्तेमाल इस तरह से किया कि वह उनका यौन शोषण कर सकें।

दिल्ली के निर्भया कांड के बाद जिस मुखरता से देश में यौन हिंसा और उत्पीड़न के विरोध में अवाजें उठीं, उसके बाद कानूनी रूप से महिलाएं काफी मजबूत हुई हैं। बिशाखा गाइड लाइंस के बाद सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वीमन एट वर्कप्लेस एक्ट भी बना। पर इससे उन पर होने वाली यौन और दूसरी हिंसा कम हुई हो, ऐसा नहीं है। आंकड़े इसी बात की चुगली भी करते हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार देश में 2010 में 22,000 बलात्कार के केस दर्ज हुए, वहीं 2014 में बढ़कर 36,000 हो गए यानी 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। एनसीआरबी ने ही 2016 में बताया कि बलात्कार के 95.5 केस में पीड़िता रेपिस्ट को जानती थी। ताजा आंकड़ों में 2016 में ही 4,437 बलात्कार के केस दर्ज हुए थे। इसी से समझा जा सकता है कि महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न, शारीरिक हमले, विदेश में लड़कियां भेजना, पति और संबंधियों द्वारा हिंसा, अपहरण के बाद बलात्कार और हत्या के सभी प्रकार के मामले मिलाकर कितने होंगे?

भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं का योगदान महज 27 (2012 में) फीसदी ही है। भारत विकास रपट मई-2017 में विश्व बैंक ने देश को सुझाव दिया कि अगर विकास दर सात फीसदी से अधिक चाहिए, तो महिलाओं की भागीदारी बढ़ाएं। विश्व बैंक का मानना है कि ऐसा करने पर देश की विकास दर पर एक फीसदी का इजाफा हो सकता है। पर हम हैं कि महिलाओं को काम करने का एक स्वच्छ माहौल ही नहीं दे सकें हैं। जून, 2016 को एसोचैम ने अपने एक अध्ययन में बताया कि पिछले एक दशक में संपूर्ण श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी 10 फीसदी घटकर निचले स्तर पर पहुंच गई है। दूसरी तरफ यूएन इकोनॉमिक एंड सोशल कमीशन फॉर एशिया एंड पैसेफिक का अध्ययन बताता है कि महिला श्रम बल भागीदारी दर में 10 फीसदी वृद्धि से ही जीडीपी में 0.3 फीसदी का उछाल मिल सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि देश में महिलाओं का श्रम बल अनुपात बढ़ाने के लिए नीतियां और कार्यक्रम लागू किए जाए। पर नहीं, हम महिला श्रम का शोषण करने में भी बहुत आगे हैं। देश में महिलाओं को मिलने वाला वेतन पुरुषों के मुकाबले औसतन 18.8 फीसदी कम हैं। यह कमी वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा है। ये अध्ययन तो कॉरपोरेट जैसे संगठित क्षेत्र में किया गया, असंगठित क्षेत्रों में क्या हाल होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसे में मीटू के जरिए अपनी कहानी बताने वाली महिलाओं से सवाल पूछना कहा तक उचित है कि पहले क्यों नहीं बताया?

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

तनुश्री से सवाल पूछने से पहले

#metoo campaign
नो एक शब्द ही नहीं, अपने आप में पूरा वाक्य है योरऑनर। इसे किसी तर्क, स्पष्टीकरण या व्याख्या की जरूरत नहीं है। ‘न’ का मतलब ‘न’ ही होता है योरऑनर। ’
‘न मैं नाना पाटेकर हूं और न तनुश्री, तो मैं आपके सवाल का जवाब कैसे दे सकता हूं।’

ऊपर लिखी यह दोनों लाइनें फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन ने बोली हैं। पहली लाइन फिल्म ‘पिंक’ में एक बलात्कार की शिकार लड़की का केस लड़ते हुए और दूसरी लाइन अभिनेत्री तनुश्री और नाना पाटेकर विवाद पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कही। मामला एक ही तरह का है, पर रील और रियल लाइफ का अंतर है। वास्तव में रील और रियल लाइफ में यही फर्क होता है। अगर तनुश्री और नाना पाटेकर विवाद रियल लाइफ में न होकर सिनेमा के लिए फिल्माया गया एक दृश्य जैसा होता तो? तो सदी के महानायक पुरजोर वकालत करके यह केस जीत लेते और फिल्म ‘हिट’ हो जाती। चूंकि मामला फिल्म का नहीं है, इसलिए वे बड़े ही ‘बेशर्म’ तरीके से इस सवाल से बच निकलते हैं। खैर, सदी के महानायक की छोड़िए, दरियादिल सलमान खान की बात कर लें। जब एक प्रेस कांफ्रेंस में महिला पत्रकार ने इस विवाद पर सलमान की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तब ‘आप किस इवेंट में आई हैं मैडम।’ कहकर न केवल महिला पत्रकार का उपहास किया, बल्कि इस मामले को हल्का कर दिया।

हमारी हीरो और नायकों वाली इंडस्ट्री के ‘हीरो’ सिर्फ फिल्मों में ही गरीब, मजलूमों और महिलाओं के लिए लड़ते दिखते हैं, फिल्म से बाहर वे उतने ही साधारण व्यक्ति होते हैं, जितने हमारे आसपास का कोई सामान्य इंसान। इसलिए तनुश्री जैसी किसी भी अभिनेत्री को सदी के महानायक और दरियादिल सलमान खान से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। न ही उन लोगों से कोई उम्मीद होनी चाहिए, जो यह कहते नजर आ रहे हैं कि उसी समय क्यों नहीं बोलीं। या यह प्रसिद्धि पाने का एक आसान तरीका है। अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब तेलुगू अभिनेत्री श्री रेड्डी को कास्टिंग काउच और अपने साथ हुए यौन शोषण के विरोध में सरेआम निर्वस्त्र होकर प्रोटेस्ट करना पड़ा। तब भी यही सवाल चारों तरफ तैरतें नजर आए। आखिरकार श्री रेड्डी के मामले के सामने आने के बाद कई और अभिनेत्रियों ने अपना मुंह खोला और सब कुछ ढका-छिपा क्रिस्टल की तरह साफ नजर आने लगा। यही हाल आज इस बॉलीवुड का है। सब कुछ ढका-छिपा है। अगर कोई अपना मुंह खोलता भी है, तो बजाए उसकी गंभीरता के समझने के, उल्टा उसी का ट्रायल शुरू हो जाता है। कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। इस मामले में भी सवाल तनुश्री से ही किए जा रहे हैं, नाना से नहीं।

हमें तनुश्री की इस बात की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने अपने साथ हुए उस वाकये पर न उस समय चुप रहीं और न आज चुप हैं। आज वे जिस आत्मविश्वास के साथ मुखर होकर अपनी बात मीडिया में रख रही हैं, उस हिम्मत को पाने में उन बीते दस साल का योगदान भी है, जिसे उन्होंने इस दर्द के साथ जिया है। आज तनुश्री पर वैसे ही हमले हो रहे हैं, जैसा श्री रेड्डी पर हुए थे। पर इस समाज की महिलाओं के प्रति जड़ता और माइंडसेट को क्या कहा जाए, जो सारे सवाल तनुश्री से ही कर रहा है। तनुश्री से ही गवाह और सुबूत मांग रहा है। तनुश्री को ही सिद्ध करना पड़ रहा है कि ज्यादती उसके साथ हुई है। यह एक सभ्य समाज की निशानी कैसे हो सकती है जहां पीड़िता को ही सिद्ध करना पड़े कि उसके साथ कुछ गलत हुआ था। इस मामले पर केद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि ‘पहले क्यों नहीं कहा’ का सवाल लोगों ने तब भी पूछा था, जब हॉलीवुड निर्देशक हार्वे विंस्टीन के खिलाफ बोला गया था। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पीड़तिा कब सामने आती है। मैं जानती हूं कि जब आपके शरीर पर हमला होता है, तो यह आपको हमेशा याद रहता है।

बॉलीवुड महिला और महिला चरित्रों को लेकर स्टीरियो टाइप रहा है। हर इंडस्ट्री की तरह बॉलीवुड भी पुरुष प्रधान है। आज भी यहां महिलाओं को पेमेंट से लेकर रोल तक में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। आज भी इस इंडस्ट्री में महिला निर्देशक गिनती की हैं। उनका अनुभव बताता है कि कैसे उन्हें ‘जज’ किया जाता है। पहले भी और आज भी फिल्मों और मॉडलिंग के क्षेत्र को लड़कियों के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। सवाल है कि ऐसा क्यों है? जब इस क्षेत्र में पढ़े-लिखे जहीन लोग काम कर रहे हैं, तो महिला के काम को खराब क्यों समझा जाता है? कहीं सामान्य लोगों की यही समझ बॉलीवुड में काम करने वालों की भी तो नहीं है। दुर्भाग्य है कि ऐसा ही है। तभी वह इस इंडस्ट्री में काम करने वाली महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से नहीं देख पाते हैं। वे उनके अस्तित्व को उसी तरह स्वीकार करने की स्थिति में नहीं होता है, जिस तरह वे अपनी घर की महिलाओं के बारे में सोचते हैं। यहीं अंतर ही इस इंडस्ट्री में काम करने वाली महिलाओं को यौन उत्पीड़न और काटिंग काउच के रूप में भुगतना पड़ता है।

हमारा सिनेमा (बॉलीवुड) शताब्दी पार कर गया है। यहां महिलाओं (अभिनेत्रियों और दूसरे काम करने वाली महिलाएं) के शोषण का इतिहास भी इतना ही पुराना हो चुका है। भारतीय सिनेमा में महिलाओं के लिए द्वार खोलने वाली बांग्ला स्टार अभिनेत्री कानन देवी ने अपनी आत्मकथा में सेक्सुअल हैरेसमेंट और दुर्व्यहार के बारे में लिखा है। बाद में इन्होंने महिला कलाकारों की मदद के लिए एक संस्था महिला शिल्पी महल की स्थापना भी इसी वजह से की। लीजेंड गजल गायिका बेगम अख्तर की कहानी तो अत्यंत दर्दभरी है। बिहार के एक राजा ने किशोरावस्था में ही उनकी कला की प्रशंसा के बहाने उनका बलात्कार किया। जिसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव उन पर ताउम्र रहा। ये कुछ ऐसी सच्चाइयां हैं, जो लोगों के सामने आ पाई। वरना ऐसी बहुत सी कहानियां इस इंडस्ट्री में दफ्न पड़ी हैं। यह केवल तनुश्री की लड़ाई नहीं है, यह बॉलीवुड की बहुत सी तनुश्रीयों की लड़ाई है, जिसे उन्हें खुद ही लड़नी पड़ेगी। इस मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी की बात ठीक लगती है कि भारत में भी हमें हैशटैग मीटू जैसा अभियान शुरु करने की जरूरत है।

रविवार, 7 अक्तूबर 2018

यौन अपराधियों का तैयार होगा निजी रिकार्ड

metooमहिलाओं की सुरक्षा एक अहम मामला है। मामला अहम इसलिए भी है क्योंकि देश में महिलाओं, किशोरियों और बच्चियों के खिलाफ अपराधों में किसी भी स्तर पर कमी नहीं आई है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया। इसकी काफी समय से चर्चा भी चल रही थी। सरकार यौन अपराधियों का निजी रिकॉर्ड बनाकर एक डेटाबेस तैयार कर रही है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने नेशनल रजिस्टर ऑफ सेक्सुअल ऑफेंडर्स यानी एनआरएसओ को हरी झंडी दिखा दी है। अब यौन अपराधियों से जुड़ी निजी व बॉयोमेट्रिक जानकारियों का एक डेटाबेस तैयार किया जाएगा। इस डेटाबेस में यौन अपराधियों का नाम, उनकी फोटो, पता, उंगलियों की छाप, डीएनए के साक्ष्य और उनका आधार व पैन नंबर शामिल किया जाएगा। इन सारी जानकारियों से लैस इस डेटाबेस से किसी भी यौन अपराधी की सभी जानकारी पलक झपकते प्राप्त हो जाया करेंगी। इस डाटा को रजिस्टर करने का काम राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी कर रहा है। फिलहाल इसका उपयोग जांच एजेंसियां ही कर सकेंगी।

इस डेटाबेस को तैयार करने के लाभ क्या होंगे? इस आपराधिक रिकॉर्ड में फिलहाल बलात्कार, गैंगरेप, बच्चों के साथ यौन अपराध करने वाले और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करने वाले लगभग 4,40,000 लोगों की जानकारी रखी जाएगी। जब इस डेटाबेस में शामिल कोई भी अपराधी फिर से अपराध में लिप्त पाया जाएगा, तो वह इसके माध्यम से तुरंत पहचान में आ जाएगा। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यौन अपराध में शामिल कई व्यक्ति जमानत पर छूटने या जेल से बाहर आने के बाद फिर से वही अपराध करते पकड़े गए हैं। देश में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में वृद्धि ही हो रही है। इसे एनसीआरबी की वार्षिक रिपोर्ट-2016 से समझा जा सकता है। एनसीआरबी की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि महिलाओं के खिलाफ 2015-16 में हुए अपराधों में 2.9 फीसदी की वृद्धि हुई। जहां 2015 में महिलाओं के खिलाफ 3,29,243 अपराध के मामले हुए, वहीं 2016 में 3,38,954 अपराध दर्ज किए गए। इस तरह के अपराधों में महिलाओं के खिलाफ होने वाले हर किस्म के अपराध और हिंसा शामिल हैं। इसी तरह केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजीजू ने जुलाई में राज्य सभा में बताया था कि देश में 2016 में 38,947 बलात्कार के मामले दर्ज हुए। वहीं 2015 में 34,651 केस और 2014 में 36,735 बलात्कार के केस दर्ज किए गए। कुल मिलाकर 2014-16 तक देश में 1,10,333 यौन हिंसा के केस दर्ज किए गए।

यौन अपराधियों का इस तरह का डेटाबेस तैयार करने वाला भारत दुनिया का नौवां देश बन गया है। अपने देश के अतिरिक्त दुनिया में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड, कनाडा, आयरलैंड, दक्षिण अफ्रीका और त्रिनिदाद टोबैगो में भी यौन अपराधियों का डेटाबेस रखा जाता है। देश में इस तरह की नेशनल रजिस्टर ऑफ सेक्सुअल ऑफेंडर्स बनाने के लिए चेंज डॉट ऑर्ग नामक वेबसाइट में एक याचिका लगाकर अभियान भी तीन साल पहले शुरू हुआ था। इस अभियान को शुरू करने वाली मडोना रुजेरियो जेनसन का मानना था कि यदि भारत में इस तरह के यौन अपराधियों के डाटा को एक जगह पर इकट्ठा कर लिया जाता है, तो पुलिस के लिए सीरियल अपराधियों को पकड़ना कहीं अधिक सरल हो जाएगा। इस याचिका को अब तक 90,671 लोगों का समर्थन मिला है। अब जब सरकार ने इस काम को आगे बढ़ा दिया है, तो इस तरह के छोटे-छोटे प्रयासों की अहमियत बढ़ जाती है।

इस अच्छे फैसले के खिलाफ कुछ सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यही कि इससे यौन अपराध में शामिल व्यक्तियों को सजा भुगतने के बाद जीवनयापन में कठिनाई आ सकती है या उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। दूसरा यह कि इस तरह के डेटाबेस तैयार करने के बाद महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कितनी कमी आ सकेगी? यह डेटाबेस तभी उपयोगी होगा, जब एक ही व्यक्ति पुन: अपराध करे। एनसीआरबी की वार्षिक रिपोर्ट-2016 बताती है कि फिर से अपराध करने वालों की संख्या 6.4 फीसदी है। यह आंकड़ा सभी प्रकार के अपराधों में से निकाला गया है। इसमें यौन अपराधियों का प्रतिशत कितना होगा, इसका अलग से विवरण उपलब्ध नहीं है। इसलिए अपर्याप्त आंकड़ों के प्रकाश में इस तरह के डेटाबेस का महत्व बहुत अधिक नहीं दिख पा रहा है। एक पक्ष यह भी है कि महिलाओं के खिलाफ यौन या दूसरों अपराधों में उनके जान-पहचान और करीबी रिश्तेदार शामिल होते हैं जिनकी या तो रिपोर्ट दर्ज ही नहीं कराई जाती है या फिर दर्ज होती है, तो डेटाबेस में नाम रजिस्टर होने के डर से परिजनों पर दबाव और भी बढ़ सकता है। संभावना है कि इस तरह के मामले दर्ज होने में और भी कठिनाई न आ जाए। इन सब शंकाओं के बावजूद इसे महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम माना जाना चाहिए।

शनिवार, 29 सितंबर 2018

#अपना मुंह बंद करो

#VaayaMoodalCampaign
#VaayaMoodalCampaign यानी #शट योर माउथ कंपेन यानी #अपना मुंह बंद करो। यह मुंह बंद कराने का अभियान केरल में चलाया गया, जिसका परिणाम भी तुरंत दिखा। #मी टू कंपेन में जहां महिलाओं से अपना मुंह खोलने की अपील की गई थी, इसके बरक्स #सट योर माउथ कंपेन में ऐसे व्यक्तियों को अपना मुंह बंद करने को कहा गया, जो महिलाओं पर आपत्तिजनक टिप्पणियां कर रहे हैं। वैसे यह कंपेन जिसके कारण अस्तित्व में आया वे ‘महाशय’ और कोई नहीं, बल्कि केरल के निर्दलीय विधायक पीसी जॉर्ज हैं। मामला, जालंधर के बिशप फ्रैंको मुलक्कल पर रेप और यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली एक नन का है। यह इस समय मीडिया में छाया हुआ है। इस मामले को लेकर पीसी जॉर्ज ने कहा कि ‘नन वेश्या’ है। उसने पहली बार ही शिकायत क्यों नहीं की? (इसके अतिरिक्त जॉर्ज ने कई और आपत्तिजनक बातें कहीं।) उक्त नन के बिशप मुलक्कल पर यौन उत्पीड़न के आरोप के बाद बिशप पर कई और नन ने इसी तरह के आरोप लगाए। इन सभी ननों ने बिपश की गिरफ्तारी और मामले की जांच के लिए धरना और प्रदर्शन भी किया। इस बात पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए पीसी जॉर्ज ने यह आपत्तिजनक बातें कही थीं, इसी की प्रतिक्रिया पर #सट योर माउथ कंपेन सामने आया।

जॉर्ज के इस बयान के दो दिन बाद 10 सितंबर को कलाकार, एक्टिविस्ट और पर्यावरणविद् आयशा महमूद ने फेसबुक पर #शट योर माउथ कंपेन छेड़ दिया। उन्होंने अपील की कि आप लोग जॉर्ज को सेलो टेप भेजकर उनका मुंह बंद करने में मदद करें। उनकी इस अपील का असर तुरंत दिखा। उनका साथ देने के लिए कई लोग सामने आए। केरल और केरल से बाहर की कई हस्तियों ने आयशा की इस मुहिम को आवाज दी। इसके बाद सोशल मीडिया पर पीसी जॉर्ज के मुंह पर टेप लगी कई तस्वीरें हैशटैग सट योर माउथ के साथ तैरने लगीं। इस प्रकरण पर आयशा का कहना है कि उन्हें (पीसी जॉर्ज) अपनी जीभ पर कंट्रोल रखने में समस्या आती है। इसलिए उन्हें हमारी सहायता की जरूरत है। ये बात आयशा व्यंग्य में जरूर कहती हैं, पर इसके अर्थ व्यापक है।

महिलाओं पर ऐसी टिप्पणी करने वाले क्या केवल पीसी जॉर्ज हैं? पीसी जॉर्ज जैसे कई बयानवीर हैं, जो महिलाओं को लेकर ऐसी टिप्पणियां या बयान आए दिन देते रहते हैं। क्या इन सभी के मुंह पर टेप नहीं लगना चाहिए? चाहे राजनीतिज्ञ हों, सेलीब्रिटीज हों, इस तरह के बयान देने से पहले वे क्यों नहीं सोचते? अगर मामला महिला से जुड़ा हो, तो वे उसे ‘वेश्या’ घोषित करने में समय नहीं गंवाते हैं। चारित्रिक प्रमाणपत्र बांटना वे अपना ‘धर्म’ समझते हैं। पीसी जॉर्ज को हाल ही में सीसीटीवी फुटेज में टोल कर्मियों से मारपीट करते हुए देखा गया। पर ऐसे कृत्यों के बावजूद उन्हें चारित्रिक प्रमाणपत्र देने की हिम्मत किसी में नहीं है। एक जिम्मेदारी वाले पद पर बैठे जॉर्ज जैसे व्यक्ति जब ऐसी बातें खुले आम करते हैं, तो इसका समाज में गलत संदेश जाता है। पीसी जॉर्ज पीड़ित नन को ‘वेश्या’ घोषित करने में दिक्क्त नहीं होती है, पर आरोपी बिशप मुलक्कल के लिए कुछ नहीं कहते। क्या पीसी जॉर्ज नहीं जानते कि वेश्याएं बनती कैसे हैं और उन्हें आबाद कौन करता है। ये ऐसे लोग हैं, जो सीधे महिलाओं का चरित्र हनन करना अपना ‘मौलिक कर्तव्य’ मानते हैँ।

जॉर्ज जैसे व्यक्तियों को अपनी गलती का अहसास तब और नहीं होता है, जब उनके इस तरह के बयानों का कोई विरोध नहीं होता। तब ऐसे लोगों की हिम्मत और बढ़ जाती है। और चूंकि हमारे समाज का माइंडसेट भी ऐसी ही कथनों के अनुकूल बना हुआ है, इसलिए हम जैसों को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। और हमें फर्क नहीं पड़ता है, तो जॉर्ज जैसों को कोई फर्क नहीं पड़ता। अंतत: वे और बड़े बयानवीर बनकर उभरते हैँ, जैसा कि पीसी जॉर्ज के मामले में देखा जा सकता है। यह उनका आखिरी और पहला बयान नहीं था।

1996 में केरल के इदुक्की जिले के सूर्यनेल्ली में एक किशोरी के साथ सामूहिक बलात्कार कांड में जब 2013 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केस दोबारा ओपन किया गया और पीड़िता ने पूर्व राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरियन को पुन: आरोपी बनाए जाने के संबंध में शिकायत की, तब यह राजनीतिक रूप से काफी गर्म हो गया। ऐसे में पीड़ित लड़की को कांग्रेस सांसद के. सुधाकरन ने ‘बाल वेश्या’ जैसा बताया। उन्होंने कहा कि वह पैसे लेती थी और गिफ्ट लेती थी। 1996 के इस मामले में किशोरी का अपहरण करके 40 दिनों तक राज्य के अलग-अलग जगहों पर ले जाकर बलात्कार किया गया। विशेष अदालत ने 2000 में इस मामले में 36 में से 35 लोगों को दोषी मानते हुए कड़ी सजा सुनाई, पर हाईकोर्ट ने सभी को बरी कर दिया। तब पीड़िता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। किशोरी के इतने सालों के संघर्ष के बावजूद एक ‘जिम्मेदार नेता’ की ऐसी शर्मनाक सोच को क्या कहा जाए?

2013 में पश्चिम बंगाल में लघु-मझोले उद्योग मंत्री स्वप्न देबनाथ ने एक रैली में सीपीएम की महिला नेताओं को लेकर एक शर्मनाक टिप्पणी कर दी। उन्होंने कहा कि सीपीएम की कुछ महिला नेता इतनी गिरी हुई हैं कि वे खुद अपना ब्लाउज फाड़ लेती हैं और हम पर छेड़छाड़ का आरोप लगा देती हैं। जिस पार्टी की मुखिया और राज्य की नेत्री एक महिला (ममता बनर्जी) हों, तब उनकी ही सरकार के एक मंत्री के इस तरह के बयान को क्या समझा जाए। यह किस प्रकार असंवेदनशीलता है, या वहीं माइंडसेट? इसी तरह टीएमसी के नेता तापस पॉल ने विरोधी दल की महिला नेताओं को धमकी देते हुए ‘फर्माया’ था कि वे लड़के (यानी गुंडे) भेजकर रेप करवा देंगे।

ऐसा नहीं है कि यह व्यवहार केवल मजलूम सी महिलाओं के साथ होता है। वास्तविकता यह है कि यह सशक्त कही जाने वाली महिलाओं के साथ भी उसी तत्पर्यता होता है, जैसा उक्त नन और किशोरी के साथ हुआ। इसकी बानगी मशहूर गायक अभिजीत भट्टाचार्य के ट्वीटर अकाउंट के स्थगन से समझा जा सकता है। महिलाओं पर अपनी अभद्र टिप्पणियों को लेकर कुख्यात मशहूर सिंगर अभिजीत भट्टाचार्य ने अरुंधती राय, शेहला राशिद और स्वाति चतुर्वेदी (सभी जानीमानी महिलाएं) को लेकर सोशल मीडिया पर लिखा यानी चारित्रिक हनन करने की कोशिश की। इसके कारण उनका ट्वीटर अकांउट सस्पेंड कर दिया गया। फिर भी अभिजीत कहते रहे कि उन्हें फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि पूरा देश उनके साथ है। (पूरा देश तो नहीं पता, पर हां, उनका यह आत्मविश्वास कि उनके जैसे लोग उनके साथ अवश्य है, तो यह गलत नहीं है। वास्तव में ऐसा है। उनके आत्मविश्वास का आधार हमारे समाज में ही मौजूद है।) माननीयों की इस तरह की और बानगी लोकतंत्र के मंदिर संसद भवन में भी देखी जाती है। महिला आरक्षण की बहस में दिग्गज नेता शरद यादव का ‘परकटी औरतें’ और बाद में ‘गोरी चमड़ी’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया। जिस पर संसद में ठहाके लगे। यह ठहाके तब भी लगे जब प्रधानमंत्री ने शूर्पनखा की हंसी वाली बात कहीं। इसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का संघ की आलोचना के लिए महिलाओं को शॉर्ट्स में देखने वाली बात।

कमोबेश यह ट्रेल काफी लंबी है। इसके लिए #सट योर माउथ कंपेन मात्र एक छोटी, पर महत्वपूर्ण पहल हो सकती है। यह एक ऐसा रास्ता है, जो महिलाओं को अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए मजबूत आधार प्रदान करेगा। किसी भी आपत्तिजनक टिप्पणियों पर चुप न रहने की, बल्कि चुप कराने पर जोर देने का वक्त है।

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

शादी की उम्र को लेकर अंतर क्यों?

Family Law
यह कैसा विरोधाभास है कि 18 साल की उम्र में सरकार चुन सकते हैं पर जीवनसाथी नहीं। इस मामले में शायद महिलाएं भाग्यशाली हैं कि वे 18 साल होने के बाद अपने लिए जीवनसाथी चुन सकती हैं, पर पुरुष नहीं। उन्हें महिला की तुलना में तीन साल और इंतजार करना पड़ता है। यही हमारे देश का कानून है- विभिन्न कानूनों के तहत शादी की न्यूनतम आयु महिलाओं के लिए 18 साल और पुरुषों के लिए 21 साल। शादी के लिए पुरुष और महिला की आयु का अंतर क्यों रखा जाता है? इस अंतर का क्या वैज्ञानिक या सामाजिक आधार है? क्या यह इस विचार को पोषित करता है कि पत्नी पति से उम्र में छोटी होनी चाहिए? इन प्रश्नों का कोई माकूल और तर्कशील उत्तर हमारे पास नहीं है। शायद इसीलिए विधि आयोग ने सुझाव दे दिया कि क्यों न पुरुषों की शादी की न्यूनतम आयु महिला के सामान 18 कर दी जाए।

बलवीर सिंह चौहान की अध्यक्षता वाली विधि आयोग ने हाल ही में ‘परिवार कानून में सुधार’ पर अपने परामर्श पत्र में पुरुषों की शादी की न्यूनतम उम्र महिला के बराबर 18 वर्ष करने का सुझाव दिया है। वैसे विधि आयोग इस सुझाव को उलट ढंग से भी कह सकता था। यानी महिला की शादी की न्यूनतम आयु पुरुषों के बराबर 21 वर्ष कर देनी चाहिए। लेकिन पुरुषों को महिला के बराबर शादी की न्यूनतम आयु निर्धारित करने का सुझाव देने से आशय लैंगिक असमानता की तरफ ध्यान खींचना से ज्यादा है। ‘पति और पत्नी के लिए उम्र में अंतर करने का कोई कानूनी आधार नहीं है, क्योंकि शादी कर रहे दोनों लोग हर तरह से बराबर हैं और उनकी साझेदारी बराबर वालों के बीच वाली होनी चाहिए।’ विधि आयोग का यह कथन समाज में व्याप्त उस नजरिए पर चोट करता है जिसमें शादी के लिए निर्धारित मापदंडों में लड़की को हर लिहाज से छोटा या कमतर होना ही चाहिए। कानूनी रूप से शादी के लिए निर्धारित उम्र में महिला और पुरुष का भेद नहीं होना चाहिए। इसीलिए विधि आयोग आगे जोड़ता है कि ‘अगर बालिग होने की सार्वभौमिक उम्र (18 वर्ष) को मान्यता है, जो सभी नागरिकों को अपनी सरकारें चुनने का अधिकार देती हैं, तो निश्चित रूप से, उन्हें अपना जीवनसाथी चुनने में सक्षम समझा जाना चाहिए।’

विधि आयोग का यह सुझाव आज मौजू हो सकता है। जिस बात का कोई वैज्ञानिक आधार ही न हो, उसे कानूनी जामा क्यों पहनाया जाए? शादी के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताएं चाहे कुछ भी हों, कम से कम कानूनी रूप से तो शादी के लिए महिला और पुरुष की आयु में अंतर नहीं करना चाहिए। सामाजिक रूप से हमारे अंदर लिंग भेद काम करता है, इसलिए हम बाल विवाह जैसा गैर कानूनी काम भी बड़े पैमाने पर करते हैं। यहीं कारण है कि देश में 33 प्रतिशत बाल बधुएं हैं, यानी हर तीसरी बालिका वधु हमारे ही देश की है। हमारा समाज और कानून एक लड़की को 18 की उम्र में ही शादी के लिए परिपक्व मान लेता है, जबकि लड़कों को नहीं। ऐसा कैसे हो सकता है? जबकि दोनों की परवरिश एक ही समय और समाज हो रही होती है। अगर थोड़ी सक्रीयता और सूक्ष्मता से इस बात की पड़ताल की जाए, तो अपने आसपास ही हम इस बात को बढ़ावा देते नजर आते हैं कि एक लड़की शादी के लिए जल्दी परिपक्व हो जाती है। एक बच्ची के पैदा होते ही हम उसकी तुलना उसी के हमउम्र बच्चे (लड़के) करते हुए यह जरूर कहते हैं कि बच्ची छह महीने में ही चलने लगती हैं, बच्ची काफी चंचल होती हैं, बच्ची बहुत जल्दी मुस्कुराने लगती हैं, इस तरह की तमाम तरह की दूसरी बातें भी। हमें जानकर हैरानी होती है कि इन सब बातों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता है। ये सभी लोकमान्यताएं हैं। और इसी के प्रभाव में आकर हम बहुत सी गलत बातों को ठोस आधार प्रदान कर देते हैं।


Gender Bias
2014 में मद्रास हाईकोर्ट ने लड़कियों की मानसिक परिपक्वता के संबंध में कुछ जरूरी सवाल किए थे और उनकी शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाने के सुझाव दिया था। घर से गायब हुई एक लड़की के संबंध में दायर की गई बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका की सुनवाई में कोर्ट ने कहा था कि लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम आयु 21 वर्ष है, जबकि लड़कियों के लिए 18 है। 17 साल की उम्र तक दोनों एक जैसे ही वातावरण में बड़े होते हैं, तो फिर लड़कियों को 18 वर्ष की उम्र में लड़कों के मुकाबले अधिक परिपक्व कैसे माना जा सकता है? इसी क्रम में उन्होंने आगे कहा था कि 18 वर्ष की उम्र में लड़कियां स्कूटर चला सकती हैं या नौकरी पा सकती हैं, पर इसकी तुलना शादी के लिए आवश्यक मानसिक परिपक्वता से नहीं की जा सकती है। इसी तरह फरवरी, 2017 में राष्ट्रीय जनसंख्या स्थिरीकरण विधेयक में महिलाओं की शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 करने का प्रस्ताव किया गया था। यह एक निजी विधेयक था, जिसे तृणमूल कांग्रेस के विवेक गुप्ता ने राज्य सभा में पेश किया था। वहीं बिहार के तत्कालिक मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने विवाह की उम्र 25 वर्ष करने की पैरवी की थी। जनता की अदालत में पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा था कि मुझे लगता है कि सदियों पुरानी आश्रम प्रणाली परंपरा के अनुसार महिला और पुरुष दोनों की विवाह की आयु 25 वर्ष देनी चाहिए। (भारतीय परंपरा में 25 वर्ष के बाद गृहस्थ आश्रम में प्रवेश को उचित माना गया है।) इसके पीछे पूर्व मुख्यमंत्री का मानना था कि विवाह की उम्र को बढ़ाकर 25 वर्ष कर देने से समाज में महिलाओं और बच्चों में व्याप्त खराब स्वास्थ्य और कुपोषण जैसी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है।

लड़कियों की शादी की उम्र कम रखे जाने से आधी आबादी का भारी नुकसान तो होता ही है, साथ ही समाज का स्वस्थ और विकसित निमार्ण में बाधा आती है। पिछले साल जारी एक्शन एड इंडिया संस्था की रिपोर्ट की माने तो देश में 18 साल से कम उम्र में होने वाली 10.3 करोड़ भारतीयों में से करीब 8.52 करोड़ की संख्या लड़कियों की है। इससे लड़कियों का स्वास्थ्य, शिक्षा तो खराब होता ही है, आने वाली हमारी भावी पीढ़ी पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। उनकी आने वाली संतानें न केवल कुपोषण का शिकार होती हैं, बल्कि वे अपना और अपने परिवार का जीवन स्तर उठाने में नाकामयाब रहती हैं। शिशु एवं मातृ मुत्यु दर में इजाफा के मूल में कम उम्र में विवाह एक बड़ा कारण है। इसी रिपोर्ट की माने तो बालिकाओं के बाल विवाह रोकने से तकरीबन 27 हजार नवजातों, 55 हजार शिशुओं की मौत और 1,60,000 बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है।

देश में लड़कियों  की शादी की उम्र 18 साल निर्धारित है, पर आज भी करीब 10.3 करोड़ भारतीयों की शादी अठारह साल से पहले हो जाती है। ऐसे में समझा जा सकता है कि समस्या की जड़ कहां है। अमूमन विश्व भर में लड़कियों और लड़कों की शादी की न्यूनतम आयु में अंतर रखा गया है। कुछ देशों में दोंनों की विवाह की उम्र बराबर है तो कुछ में पुरुषों की आयु महिला की तुलना में अधिक रखी गई है। देश जैसे भूटान, म्यांमार, आस्ट्रेलिया इजरायल, इराक, फ्रांस आदि में महिला और पुरुष की शादी की न्यूनतम आयु बराबर रखी गई है। चीन में महिला और पुरुष की शादी की न्यूनतम आयु क्रमश: 20 और 22 रखी गई है। इस तरह समझा जा सकता है कि शादी को लेकर यह भेदभाव विश्वव्यापी है। अब जब विधि आयोग ने इस तरह की सिफारिश की है, तो इस पर गंभीरता से सोचने और लैंगिक भेदभाव को दूर करने के साथ-साथ इसके कई अच्छे परिणामों पर विचार करने के अवसर के रूप में देखना आवश्यक है।

सोमवार, 20 अगस्त 2018

न्याय की देवियों की कम हिस्सेदारी


आज आजादी के इतने सालों में सुप्रीमकोर्ट में तीन महिला जजों की नियुक्तियां ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया है। इस समय सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस इंदिरा बनर्जी की नियुक्ति मीडिया जगत की सुर्खियां बन रही हैं। देश के इतिहास में यह पहला अवसर है, जब देश के सर्वोच्च न्यायालय में तीन-तीन महिला जज होगीं। जस्टिस आर. भानुमति, जस्टिस इंदु मल्होत्रा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी। जस्टिस इंदिरा मद्रास हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस थीं। यह भी एक तथ्य है कि आजादी के बाद अब तक सर्वोच्च न्यायालय में जस्टिस इंदिरा बनर्जी समेत आठ महिला जज ही बन पाई हैं। सबसे पहले यह मुकाम जस्टिस फातिमा बीबी ने पाया था। इसके बाद जस्टिस सुजाता मनोहर, जस्टिस रूमा पाल, जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा और जस्टिस रंजना देसाई सुप्रीम कोर्ट की जज बनीं। हाल ही में जस्टिस आर. भानुमति और इंदु मल्होत्रा के बाद अब इंदिरा बनर्जी सुप्रीम कोर्ट की जज बनी हैं। 1950 में सुप्रीम कोर्ट के गठन के बाद 39 सालों तक कोई महिला जज सुप्रीम कोर्ट में नहीं थी।
देश में 24 उच्च न्यायालय हैं, जहां महिला जजों का अनुपात पुरुष जजों के मुकाबले बिलकुल भी अच्छा नहीं कहा जा सकता है। अप्रैल 2017 को जब इंदिरा बनर्जी मद्रास हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश बनाई गईं, तब उस समय 24 हाईकार्ट में से चार बड़े और महत्वपूर्ण राज्यों की हाईकोर्ट में चार महिला मुख्य न्यायाधीशों हो गई थीं, यह भी इतिहास बन गया था। इंदिरा बनर्जी के अतिरिक्त उस समय जस्टिस मंजुला चेल्लूर, निशिता म्हात्रे और जी. रोहणी दूसरे राज्यों में मुख्य न्यायाधीश के रूप में काम कर रही थीं। और हाल ही में जब जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में जस्टिस गीता मित्तल को राज्य हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश और सिंधु शर्मा को न्यायाधीश बनाया गया तब यह जम्मू-कशमीर के इतिहास में 90 साल के बाद महिलाओं की इस तरह की कोई नियुक्तियां हुईं। जम्मू-कश्मीर हाईकार्ट की स्थापना 1928 में हुई थी। इस दौरान यहां 107 जज रह चुके हैं। 1 अप्रैल 2018 तक देश के हाईकोर्ट में 669 जज सभी राज्यों में काम कर रहे थे, इनमें से महिला जजों की संख्या मात्र 75 है, प्रतिशत के हिसाब से यह आंकड़ा महज 11 फीसदी बैठता है।
प्रश्न है कि हमें इस पर जश्न मनाना चाहिए या बैठकर इस बात पर विचार करना चाहिए कि जहां देश की महिलाएं कई फ्रंट पर अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं, वहीं यह क्षेत्र उनसे अछूता क्यों है अब तक? जबकि इस क्षेत्र की संवेदनशीलता और महिलाओं और बच्चों पर बढ़ते अपराधों के कारण इस क्षेत्र में महिलाओं के दखल की अधिक मांग होनी चाहिए थी। ऐसा नहीं है कि देश के सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में ही यह स्थिति है, वास्तव में निचली अदालतों में भी कामोबेश यही स्थिति है। यह बात जहां लिंग असमानता दिखाती है, वहीं हमारी लोकतंत्र की असफलता भी दर्शाती है। विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के एक अध्ययन से पता चलता है कि निचली अदालतों में महिला जजों की संख्या पुरुषों के मुकाबले 28 फीसदी ही है और यह संख्या ऊपरी आदलतों की तरफ क्रमश: घटती जाती है। इस साल फरवरी में आई इस रिपोर्ट के अनुसार निचली आदालतों में 15,806 जज हैं, जिनमें से सिर्फ 4,409 महिला जज हैं।
विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के टिल्टिंग द स्केल: जेंडर इंबैलेंस इन द लोवर ज्यूडीसियरी की इस रिपोर्ट में राज्यवार महिला जजों की संख्या का अध्ययन किया गया है। इसे देखकर पता चलता है कि सभी राज्यों में 40 फीसदी से कम ही महिला जज नियुक्त हैं। यह हाल तब है, जब विभिन्न राज्यों में महिला जजों के लिए आरक्षण की विभिन्न तरह की व्यवस्थाएं की गई हैं। झारखंड, कर्नाटक, राजस्थान, तेलंगाना, बिहार में महिलाओं को आरक्षण मिला हुआ है। इसके बावजूद बिहार और झारखंड के लोवर कोर्ट में महिला जज न के बराबर हैं, वहीं तेलंगाना में यह संख्या 44 फीसदी है। तो प्रश्न है कि कमी कहां है? क्या महिलाएं जज नहीं बनना चाहती हैं? या महिलाएं इस काबिल नहीं हैं? या सरकारें इस तरह की नीतियां मात्र दिखावे के लिए बनाकर भूल गईं?
विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी इसके कारणों पर भी प्रकाश डालती है। देश में लोवर कोर्ट के तीन स्तर हैं, पहला डिस्ट्रिक जज, दूसरा सिविल जज (सीनियर डिविजन), तीसरा सिविल जज (जूनियर डिविजन)। इन तीन स्तरों में राज्यों के अनुसार विभिन्न पदानाम हैं। इन तीनों लेवलों के पदों पर जजों की नियुक्ति सीधी भर्ती और मेरिट के आधार पर प्रमोट करके की जाती है। इस संदर्भ में भेदभाव क्षमताओं के पूर्वाग्रह के चलते किया जाता है। प्रमोशन में इस तरह के भेदभाव की शिकायत होती रहती है। यह रिपोर्ट यह भी कहती है कि इस क्षेत्र में इस तरह के भेदभाव को दिखाने वाला कोई भी व्यवस्थित आंकड़ा मौजूद नहीं है। इन आंकड़ों के जरिए इस बात को अधिक साफतौर पर समझा जा सकता था कि देश में लॉ स्नातक और ज्यूडीसियरी एक्जाम को कितनी महिलाएं पास करके आ रही हैं। और वे कहां और किस रूप में काम कर रही हैं। इस प्रकार के आंकड़ों की कमी इस तरह के अध्ययन के कारणों को खोजने में बाधा खड़ी कर रही है। इस क्षेत्र में महिलाओं की कम संख्या में काम करने के कारणों में इस क्षेत्र में महिलाओं का शोषण और अन्य तरह की सहायक ढांचागत कमी भी प्रमुख है। इसलिए काफी महिलाएं कॉरपोरेट सेक्टर में जाना पसंद कर रही हैं।
न्यायिक क्षेत्र में महिलाओं की कमी के कारणों की खोज के अनुसंधान की भारी कमी महसूस की जा रही है। बहुत से नेता और न्यायविद् इस तरह की कमी पर चिंता व्यक्त करते रहते हैं। पिछले दिनों राष्ट्रीय कानून दिवस पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी न्यायिक क्षेत्र में लिंग और जातीय भेदभाव की बात मानी थी। और इसे दूर करने के लिए निवेदन किया था कि ज्यूडीसियरी में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के लिए उनका कोटा निर्धारित किया जाना चाहिए। इन तमाम चिंताओं के बीच यह देश की आधी आबादी के लिए खुशी की बात है कि देश की सर्वोच्च न्यायालय में इस समय महिला जज पहली बार तीन की ऐतिहासिक संख्या में हैं। 

सोमवार, 30 जुलाई 2018

ये लड़कियों, सुनो तो जरा

इन दिनों फिल्म अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा का एक वीडियो काफी चर्चित हो गया। इस वीडियो में प्रियंका बगैर किसी मेकअप के कैमरे को फेस कर रही हैं। इस दो मिनट, 18 सेकेंड के वीडियों में प्रियंका लड़कियों और महिलाओं से खुद पर संदेह करने को लेकर सवाल करती नजर रही हैं। वे इस बात पर सवाल खड़ा कर रही है कि महिलाएं अपने बाहरी एपीरेंस के प्रति संदेह के स्तर तक सजग क्यों रहती हैं? वे कैसी दिख रही हैं, उन्हें कैसा दिखना चाहिए, और इसके लिए क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए, जैसे सवालों में ही उलझी रहती हैं। जबकि इसके विपरीत पुरुषों को इन सभी सवालों से बहुत लेना-देना नहीं होता है। महिलाओं को प्राकृतिक रूप से मिली अपनी शरीरिक रूप-रेखा पर विश्वास होने के कारण वे मेकअप, सौंदर्य उपचार, जीरो फिगर के लिए एक हद से आगे गुजर जाती हैं। वे अपनी बाहरी रूप-रेखा के प्रति इतनी चिंतित होती हैं कि अपनी सेल्फी भी फिल्टर या फोटोशाप करके शेयर करने में विश्वास करती हैं। प्रियंका इसका कारण युगों से चली रही महिलाओं की कंडीसनिंग को मानती हैं। इस सामाजिक कंडीसनिंग ने वर्षों से यही सिखाया है कि एक महिला होने के नाते हमें कैसे रहना है, कैसे दिखना है। और सौंदर्य के विभिन्न मापदंडों पर कैसे खरा उतरना है। हमें ऐसा क्यों करना पड़ता है क्योंकि हम दोयम दर्जे के नागरिक हैं। तो जब आप को एक-दो घंटे में बाथरूम जाकर खुद के लुक को चेक करने की जरूरत महसूस हो, तो इस बारे में ठहर कर जरूर सोचें। आप जैसे भी हैं, खुद से प्यार करना सीखें।
खुद पर संदेह करना, कमजोर आत्मविश्वास को दिखाता है। लड़कियों और स्त्रियों के मामलों अगर यह दिखता है, तो इसे सिमोन बाउवार के इस कथन से समझा जा सकता है कि स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि बना दी जाती है। पिछले साल सोशल मीडिया पर सेल्फी विदआउट मेकअप नाम से अभियान चलाया गया। यह अभियान ईश्वर प्रदत या प्राकृतिक सौंदर्य को मान्यता देने के लिए था। इस अभियान में महिलाओं ने बगैर किसी मेकअप के अपनी तस्वीर सोशल मीडिया पर शेयर कीं। इस पूरे अभियान में यह दिखा कि हमें ईश्वर की तरफ से दिए गए उपहार रूपी रूप-सौंदर्य पर शक क्योंकर होना चाहिए। विभिन्न तरह के मेकअप से सौंदर्य मापदंडों की पूर्ति के लिए क्यों पागलपन की हद तक पागल रहना? क्या इस अभियान के बाद मेकअप करना बंद हो गया या मेकअप कंपनियां बंद हो गईं? यह सोचना एक मजाक से ज्यादा कुछ नहीं होगा। वर्षों की कंडीसनिंग ऐसे नहीं जाती।
सौंदर्य के प्रति सजगता के पागलपन को बहुत कुछ ग्लैमर जगत बढ़ाते नजर आते हैं या इसे दूसरे ढंग से कहें तो लोग सौंदर्य के लिए पागल हैं, इसलिए ये जगत उसे केवल भुना रहा होता है। टीवी, अखबार, सोशल मीडिया पर आने वाले सौंदर्य प्रसाधनों के विज्ञापनों पर एक नजर रखने से ही पता चल जाता है कि यह कितने हास्यास्पद हैं। ये विज्ञापन किसी भी सौंदर्य मापदण्ड के होने पर हमारे मन में घृणा के स्तर तक घृणा भर देते हैं। चाहे वे किशोरावस्था में चेहरे पर आएं मुहासे हों, शरीर से निकलने वाला पसीना, या फिर त्वचा का कालापन, या फिर एक समय के बाद सफेद हुए बाल या चेहरे की झुर्रियां। ये सौंदर्य प्रसाधनों के विज्ञापन इन शारीरिक अवश्याम्भी परिवर्तनों को भी भुना ले जाते हैं। अगर ऐसा होता, तो योग से सभी समस्याओं का हल बताने वाले बाबा रामदेव सौंदर्य प्रसाधनों की एक लंबी रेंज लांच करते। यूं ही नहीं ग्लोबल कॉस्मेटिक्स मार्केट 2009 के भयंकर मंदी के बाद निरंतर बढ़ ही रहा है। 2017 में एसोचैम और रिसर्च एजेंसी एमआरएसएस ने एक अध्ययन के बाद बताया कि देश में कॉस्मेटिक और ग्रूमिंग मार्केट का साइज बढ़कर 2035 तक 35 बिलियन डॉलर हो जाएगा। यह इसलिए क्योंकि किशोरावस्था में ही बच्चे अपने लुक्स के प्रति सजग हो रहे हैं। यह सर्वे यह भी कहता है कि 68 फीसदी युवा इस बात में विश्वास करते हैं कि इन चीजों के प्रयोग से उनका आत्मविश्वास बढ़ जाता है।  बाजार विशेषज्ञों की माने तो इसमें यह वार्षिक वृद्धि 25 प्रतिशत की दर से बढ़कर 2025 में 20 बिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है। यह वृद्धि यूं ही नहीं है।
कुछ दिन पहले वास्तविक सौंदर्य के संदर्भ में अभिनेत्री सोनम कपूर ने विस्तार से बात की थी। सोशल मीडिया में वायरल इस वीडियो में अभिनेत्री एक ग्लैमरस सोनम कपूर के बनने की प्रक्रिया को दिखाती हैं। एक अभिनेत्री या मॉडल इतनी ग्लैमरस कैसे दिखती हैं, इसमें कितना बनावटीपन होता है, यह समझाने की भरपूर कोशिश सोनम ने की थी। जब ग्लैमर जगत नकली सौंदर्य या मापदंडों को नकारता है, तो यह आमजन में एक समझ पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है। इस मामले में ग्लैमरस जगत की प्रियंका जैसी सीनियर अभिनेत्री की ऐसी बातें ज्यादा प्रभाव पैदा करने वाली हो सकती हैं। इस मामले में और भी ग्लैमरस पर्सनालिटी के इस तरह के वक्तव्य की दरकार हो सकती है।