शनिवार, 17 नवंबर 2018

चुटकी भर सिंदूर की कीमत

छठ त्यौहार
हिन्दू पौराणिक कथाओं में स्त्रियों के सौभाग्य का सूचक सिंदूर के बारे में ऐसी कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं। जिनके माध्यम इस बात को स्थापित करने की कोशिश की जाती है कि सौभाग्य यानी पति की लंबी आयु के लिए सिंदूर क्यों धारण किया जाता है। सिंदूर का संदर्भ केवल शादीशुदा महिलाओं से ही होता है, इसलिए गैर शादीशुदा स्त्री के लिए सिंदूर का कोई अर्थ नहीं होता है और विधवाओं के लिए सिंदूर का कोई अर्थ रह नहीं जाता। इसी बात से स्त्रीवादी महिलाओं को आपत्ति होती है। उनका शादीशुदा स्त्री के माथे पर सजा सिंदूर का अर्थ पुरुष की गुलामी, स्वामी भक्ति ही निकाला जाता है।

इसी आपत्ति के चलते साहित्यकार, हिन्दी अकादमी की उपाध्यक्ष, स्त्री मुद्दों पर खुलकर लिखने वाली प्रखर लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने छठ त्यौहार के दौरान बिहार की महिलाओं द्वारा नाक से लेकर माथे तक लगाए जानेवाले सिंदूर पर सवाल उठा दिए। सोशल मीडिया पर एक्टिव रहने वाली मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा कि छठ के त्यौहार में बिहार वासिनी स्त्रियां मांग माथे के अलावा नाक पर भी सिंदूर क्यों पोत लेती हैं? कोई खास वजह होती है क्या? उनका इतना पूछना ही था कि चारों तरफ से महिलाओं के सिंदूर धारण को लेकर प्रतिक्रियाएं आने लगी। यह प्रतिक्रियाएं इतनी तीखी थीं कि किसी अपमान-सम्मान की परवाह शेष नहीं बची रह गई थी। सिंदूरया सिंदूर जैसे दूसरे सुहाग चिन्हों को पहनने को लेकर औचित्य-अनौचित्य सिद्ध किए जाने लगे। मामले को तूल पकड़ते देखकर मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी टिप्पणी फेसबुक से हटा ली। हालांकि उन्होंने अपना पक्ष नहीं छोड़ा और लिखा कि सिंदूर की सुनहरी डिबिया संहाले रहीं यशोधरा और चले गए सिद्धार्थ। सीता ने सहेजा अशोक वाटिका तक सिंदूर, मिली अग्निपरीक्षा और फिर अपमानित निष्कासन। राज्य का सब कुछ लुट गया, बचा ली छोटी सी सिंदूरदानी तो भी नल-दमयंती को सोती हुई छोड़ गए तरू के नीचे…। कितनी सुहागिन स्त्रियों को बरबाद होने से बचा पाया है सिंदूर? मैंने नहीं किया विवाह सिंदूर की खातिर, नहीं सहेजी कभी सिंदूर की डिबिया, नहीं सजाई मांग सिंदूरी रंग से। उसको नहीं माना वर, सुहाग और पति परमेश्वर। वह मेरे सुख-दुख का साथी है, सहचर है। प्रेम मोहब्बत और विश्वास के साथ हम एक संग हैं।

यह विचार मैत्रेयी पुष्पा के अपने हैं, बहुत सी महिलाएं उनके इस तरह के विचारों से इत्तेफाक रखती होगीं। और जाहिर है कि वे अपने इन विचारों अपने ऊपर लागू भी करती होंगी, लेकिन सब लोग यही माने, यह तोजरूरी नहीं? व्यक्तिगत स्वतंत्रता तो यही कहती है। हम अपने लोक, संस्कृति या धर्म के विश्वास मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र हैं। इसलिए धर्म आस्था में विश्वास रखने वाली महिलाओं ने मैत्रेयी पुष्पा की सिंदूर पर प्रश्न उठाती इन बातों से इत्तेफाक न रखते हुए अपनी आस्थाओं पर अपना विश्वास दिखाया। और वे दिखाती आ भी रही हैं। उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि सुगाह चिन्हों को धारण करने से कोई ‘गुलाम या स्वामी भक्त’ हो जाता है। वे इसे पति के प्रति प्रेम ही मानती हैं। यह मानने के लिए वे स्वतंत्र भी हैं।

मैत्रेयी पुष्पा का सवाल आस्थाओं से जुड़ा सवाल था। आस्थाएं व्यक्तिगत होती हैं। आस्थाएं जन्म से जुड़ी भी होती हैं, जो इंसान के जन्म लेते उसके साथ हो लेती हैं। इसी तरह स्त्रियों के जन्म लेते ही कई तरह कीमान्यताएं उनसे स्वत: जुड़ जाती हैं, उसी तरह विवाह और विवाह से जुड़ी मान्यताएं और आस्थाएं हैं। अब यह कितनी भेदभाव वाली है भी, नहीं भी हैं, यह अलग-अलग मान्यताओं और आस्थाओं के चलते अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग हो सकती हैं। इसीलिए जब एक स्त्री के श्रृंगार को सुहाग और सौभाग्य से जोड़कर देखा जाता है, और इन पर आस्था न रखने वाली स्त्रियों को मानने के लिए बाध्य किया जाता है, तो प्रश्न उठते हैं। ये ‘मानना पड़ना’ ही सवाल उठाने को मजबूर करता है, फिर चाहे आप उन्हें कितनी ही वैज्ञानिक कारणों से जोड़कर बताइए-समझाइए। परंपरावादी यह कहकर इस प्रश्न से अलग नहीं हो सकते कि आप मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र है। आप चाहे तो शादी के बाद मंगलसूत्र या सिंदूर धारण न करें। पर क्या समाज के सिस्टम के अंदर रह रही एक स्त्री के लिए यह संभव हो सकता है? इसका जवाब हमें अपने आसपास तलाशना होगा।

महिलावादी स्त्रियों की अपनी आपत्तियां हैं। आज नेट पर जाने कितने लिंक इस बात के लिए मिल जाएंगे कि मांग में सिंदूर लगाने से कितने साइंसटिफिक लाभ एक स्त्री को हो सकते हैं। सवाल यह है कि जब इसके इतने अधिक लाभ हैं, तो समाज के हर व्यक्ति के लिए सिंदूर लगाना जरूरी होना चाहिए था? कुछ नहीं तो शादीशुदा पुरुष तो इसे लगा ही सकते हैं। उन्हें इसके लाभ से वंचित क्यों रखा गया? आज शरीर को अलंकृत करने वाले आभूषण तक पुरुष त्याग चुके हैं। कान में कुंडल और पैर के आभूषण कभी कोई भी पुरुष पहने हुए नहीं दिखता। बात सुविधा की है। इसलिए जो सुविधाजनक था, वह उन्होंने अपना लिया। पर यह छूट स्त्रियों को कहां हैं? बात साफ है कि चीजों को आस्था से जोड़ दीजिए, प्रश्न उठने की संभावना कम हो जाएगी। इन सब के बीच क्या इस बात को नजरअंदाज किया जा सकता है कि दूसरों की आस्थाओं का सम्मान न किया जाए?

…किया जाना चाहिए। आस्थाओं से ही परंपराएं पलती हैं और परंपराओं से संस्कृति बनती है। किसी की संस्कृति और आस्थाओं को ठेस पहुंचाने का हक किसी को नहीं होना चाहिए। मैत्रेयी पुष्पा प्रश्न करने का हक रखती हैं पर वे ‘सिंदूर पोतने’ जैसे शब्दों का प्रयोग करके कहीं अधिक ठेस पहुंचा जाती हैं। वे लेखिका हैं, संवेदनशील लेखिका हैं, शब्दों के चुनाव को बखूबी समझती हैं। साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा के सवाल पर दीप्ति गुप्ता नेकाफी अच्छे तरह से लिखा है कि आपकी तरह अन्य स्त्रियों को भी अपनी मान्यताओं, आस्थाओं और विश्वास को संजोने का हक है। आप किसी की आस्था पर प्रश्न चिन्ह मत लगाइए। याद रखिए कि आस्थाएं तर्कों से अधिक ताकतवर होती हैं और उनसे निकली प्रार्थनाएं अद्भुत परिणाम देती हैं। सो आस्थाओं को तोड़ना किसी के वश में नहीं है। उनकी नींव बड़ी गहरी होती है और उन पर टिका विश्वास सघन होता है।

सोशल मीडिया पर यह बहस अभी भी चल रही है और शायद अगले साल जब छठ पूजा फिर से मनाई जा रही हो, तब कोई फिर से सिंदूर या किसी और परंपरा पर सवाल उठा दे। लोग फिर इस बहस में शामिल होंगे, तर्क-वितर्क करेगें, दूसरे के विचारों को जानेगें-समझेगें और अपने-अपने काम में लग जाएंगे। जरूरी नहीं कि किसी बहस के बाद हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचें ही, लेकिन बहस के दौरान हम विचार-विमर्श तक जरूर पहुंच जाते हैं। विचार के लिए जरूरी तत्वों की खोज हो जाती है। रही बात किसी निष्कर्ष की, तो लोग अपनी-अपनी विचार ग्राह्य शक्ति से अपनी मंजिल तक पहुंच सकते हैं, इस बात की संभावना किसी भी बहस के अंत में पूरी होती है।

(पिछले वर्ष युगवार्ता सप्ताहिक में छठ पूजा के दौरान प्रकाशित एक लेख का अंश)

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