मंगलवार, 18 सितंबर 2018

शादी की उम्र को लेकर अंतर क्यों?

Family Law
यह कैसा विरोधाभास है कि 18 साल की उम्र में सरकार चुन सकते हैं पर जीवनसाथी नहीं। इस मामले में शायद महिलाएं भाग्यशाली हैं कि वे 18 साल होने के बाद अपने लिए जीवनसाथी चुन सकती हैं, पर पुरुष नहीं। उन्हें महिला की तुलना में तीन साल और इंतजार करना पड़ता है। यही हमारे देश का कानून है- विभिन्न कानूनों के तहत शादी की न्यूनतम आयु महिलाओं के लिए 18 साल और पुरुषों के लिए 21 साल। शादी के लिए पुरुष और महिला की आयु का अंतर क्यों रखा जाता है? इस अंतर का क्या वैज्ञानिक या सामाजिक आधार है? क्या यह इस विचार को पोषित करता है कि पत्नी पति से उम्र में छोटी होनी चाहिए? इन प्रश्नों का कोई माकूल और तर्कशील उत्तर हमारे पास नहीं है। शायद इसीलिए विधि आयोग ने सुझाव दे दिया कि क्यों न पुरुषों की शादी की न्यूनतम आयु महिला के सामान 18 कर दी जाए।

बलवीर सिंह चौहान की अध्यक्षता वाली विधि आयोग ने हाल ही में ‘परिवार कानून में सुधार’ पर अपने परामर्श पत्र में पुरुषों की शादी की न्यूनतम उम्र महिला के बराबर 18 वर्ष करने का सुझाव दिया है। वैसे विधि आयोग इस सुझाव को उलट ढंग से भी कह सकता था। यानी महिला की शादी की न्यूनतम आयु पुरुषों के बराबर 21 वर्ष कर देनी चाहिए। लेकिन पुरुषों को महिला के बराबर शादी की न्यूनतम आयु निर्धारित करने का सुझाव देने से आशय लैंगिक असमानता की तरफ ध्यान खींचना से ज्यादा है। ‘पति और पत्नी के लिए उम्र में अंतर करने का कोई कानूनी आधार नहीं है, क्योंकि शादी कर रहे दोनों लोग हर तरह से बराबर हैं और उनकी साझेदारी बराबर वालों के बीच वाली होनी चाहिए।’ विधि आयोग का यह कथन समाज में व्याप्त उस नजरिए पर चोट करता है जिसमें शादी के लिए निर्धारित मापदंडों में लड़की को हर लिहाज से छोटा या कमतर होना ही चाहिए। कानूनी रूप से शादी के लिए निर्धारित उम्र में महिला और पुरुष का भेद नहीं होना चाहिए। इसीलिए विधि आयोग आगे जोड़ता है कि ‘अगर बालिग होने की सार्वभौमिक उम्र (18 वर्ष) को मान्यता है, जो सभी नागरिकों को अपनी सरकारें चुनने का अधिकार देती हैं, तो निश्चित रूप से, उन्हें अपना जीवनसाथी चुनने में सक्षम समझा जाना चाहिए।’

विधि आयोग का यह सुझाव आज मौजू हो सकता है। जिस बात का कोई वैज्ञानिक आधार ही न हो, उसे कानूनी जामा क्यों पहनाया जाए? शादी के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताएं चाहे कुछ भी हों, कम से कम कानूनी रूप से तो शादी के लिए महिला और पुरुष की आयु में अंतर नहीं करना चाहिए। सामाजिक रूप से हमारे अंदर लिंग भेद काम करता है, इसलिए हम बाल विवाह जैसा गैर कानूनी काम भी बड़े पैमाने पर करते हैं। यहीं कारण है कि देश में 33 प्रतिशत बाल बधुएं हैं, यानी हर तीसरी बालिका वधु हमारे ही देश की है। हमारा समाज और कानून एक लड़की को 18 की उम्र में ही शादी के लिए परिपक्व मान लेता है, जबकि लड़कों को नहीं। ऐसा कैसे हो सकता है? जबकि दोनों की परवरिश एक ही समय और समाज हो रही होती है। अगर थोड़ी सक्रीयता और सूक्ष्मता से इस बात की पड़ताल की जाए, तो अपने आसपास ही हम इस बात को बढ़ावा देते नजर आते हैं कि एक लड़की शादी के लिए जल्दी परिपक्व हो जाती है। एक बच्ची के पैदा होते ही हम उसकी तुलना उसी के हमउम्र बच्चे (लड़के) करते हुए यह जरूर कहते हैं कि बच्ची छह महीने में ही चलने लगती हैं, बच्ची काफी चंचल होती हैं, बच्ची बहुत जल्दी मुस्कुराने लगती हैं, इस तरह की तमाम तरह की दूसरी बातें भी। हमें जानकर हैरानी होती है कि इन सब बातों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता है। ये सभी लोकमान्यताएं हैं। और इसी के प्रभाव में आकर हम बहुत सी गलत बातों को ठोस आधार प्रदान कर देते हैं।


Gender Bias
2014 में मद्रास हाईकोर्ट ने लड़कियों की मानसिक परिपक्वता के संबंध में कुछ जरूरी सवाल किए थे और उनकी शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाने के सुझाव दिया था। घर से गायब हुई एक लड़की के संबंध में दायर की गई बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका की सुनवाई में कोर्ट ने कहा था कि लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम आयु 21 वर्ष है, जबकि लड़कियों के लिए 18 है। 17 साल की उम्र तक दोनों एक जैसे ही वातावरण में बड़े होते हैं, तो फिर लड़कियों को 18 वर्ष की उम्र में लड़कों के मुकाबले अधिक परिपक्व कैसे माना जा सकता है? इसी क्रम में उन्होंने आगे कहा था कि 18 वर्ष की उम्र में लड़कियां स्कूटर चला सकती हैं या नौकरी पा सकती हैं, पर इसकी तुलना शादी के लिए आवश्यक मानसिक परिपक्वता से नहीं की जा सकती है। इसी तरह फरवरी, 2017 में राष्ट्रीय जनसंख्या स्थिरीकरण विधेयक में महिलाओं की शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 करने का प्रस्ताव किया गया था। यह एक निजी विधेयक था, जिसे तृणमूल कांग्रेस के विवेक गुप्ता ने राज्य सभा में पेश किया था। वहीं बिहार के तत्कालिक मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने विवाह की उम्र 25 वर्ष करने की पैरवी की थी। जनता की अदालत में पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा था कि मुझे लगता है कि सदियों पुरानी आश्रम प्रणाली परंपरा के अनुसार महिला और पुरुष दोनों की विवाह की आयु 25 वर्ष देनी चाहिए। (भारतीय परंपरा में 25 वर्ष के बाद गृहस्थ आश्रम में प्रवेश को उचित माना गया है।) इसके पीछे पूर्व मुख्यमंत्री का मानना था कि विवाह की उम्र को बढ़ाकर 25 वर्ष कर देने से समाज में महिलाओं और बच्चों में व्याप्त खराब स्वास्थ्य और कुपोषण जैसी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है।

लड़कियों की शादी की उम्र कम रखे जाने से आधी आबादी का भारी नुकसान तो होता ही है, साथ ही समाज का स्वस्थ और विकसित निमार्ण में बाधा आती है। पिछले साल जारी एक्शन एड इंडिया संस्था की रिपोर्ट की माने तो देश में 18 साल से कम उम्र में होने वाली 10.3 करोड़ भारतीयों में से करीब 8.52 करोड़ की संख्या लड़कियों की है। इससे लड़कियों का स्वास्थ्य, शिक्षा तो खराब होता ही है, आने वाली हमारी भावी पीढ़ी पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। उनकी आने वाली संतानें न केवल कुपोषण का शिकार होती हैं, बल्कि वे अपना और अपने परिवार का जीवन स्तर उठाने में नाकामयाब रहती हैं। शिशु एवं मातृ मुत्यु दर में इजाफा के मूल में कम उम्र में विवाह एक बड़ा कारण है। इसी रिपोर्ट की माने तो बालिकाओं के बाल विवाह रोकने से तकरीबन 27 हजार नवजातों, 55 हजार शिशुओं की मौत और 1,60,000 बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है।

देश में लड़कियों  की शादी की उम्र 18 साल निर्धारित है, पर आज भी करीब 10.3 करोड़ भारतीयों की शादी अठारह साल से पहले हो जाती है। ऐसे में समझा जा सकता है कि समस्या की जड़ कहां है। अमूमन विश्व भर में लड़कियों और लड़कों की शादी की न्यूनतम आयु में अंतर रखा गया है। कुछ देशों में दोंनों की विवाह की उम्र बराबर है तो कुछ में पुरुषों की आयु महिला की तुलना में अधिक रखी गई है। देश जैसे भूटान, म्यांमार, आस्ट्रेलिया इजरायल, इराक, फ्रांस आदि में महिला और पुरुष की शादी की न्यूनतम आयु बराबर रखी गई है। चीन में महिला और पुरुष की शादी की न्यूनतम आयु क्रमश: 20 और 22 रखी गई है। इस तरह समझा जा सकता है कि शादी को लेकर यह भेदभाव विश्वव्यापी है। अब जब विधि आयोग ने इस तरह की सिफारिश की है, तो इस पर गंभीरता से सोचने और लैंगिक भेदभाव को दूर करने के साथ-साथ इसके कई अच्छे परिणामों पर विचार करने के अवसर के रूप में देखना आवश्यक है।

3 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

एकदम सही बात
कानून एक जैसा होना ही चाहिए सबके लिए
एकतरफ तो कहा जाता है लड़का-लड़की भी कोई भेद नहीं करना, दोनों बराबर हैं, दूसरी तरफ अलग-अलग कानून
बहुत अच्छी जागरूक प्रस्तुति
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं

Monika Manik ने कहा…

Sach me sochne ka vishay hai ye.

प्रतिभा कुशवाहा ने कहा…

धन्यवाद कविता जी