आज आजादी के
इतने सालों में सुप्रीमकोर्ट में तीन महिला जजों की नियुक्तियां ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया है। इस समय सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस इंदिरा बनर्जी की नियुक्ति मीडिया जगत की सुर्खियां बन रही हैं। देश के इतिहास में
यह पहला अवसर है, जब देश के सर्वोच्च न्यायालय में तीन-तीन महिला
जज होगीं। जस्टिस आर. भानुमति, जस्टिस इंदु
मल्होत्रा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी। जस्टिस इंदिरा मद्रास हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस थीं।
यह भी एक तथ्य है कि आजादी के बाद अब तक सर्वोच्च न्यायालय में जस्टिस इंदिरा बनर्जी
समेत आठ महिला जज ही बन पाई हैं। सबसे पहले यह मुकाम जस्टिस फातिमा बीबी ने पाया था।
इसके बाद जस्टिस सुजाता मनोहर, जस्टिस रूमा पाल, जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा और जस्टिस रंजना देसाई सुप्रीम कोर्ट की जज बनीं। हाल ही में जस्टिस आर. भानुमति
और इंदु मल्होत्रा के बाद अब इंदिरा बनर्जी सुप्रीम कोर्ट की जज बनी हैं। 1950
में सुप्रीम कोर्ट के गठन के बाद 39 सालों तक कोई
महिला जज सुप्रीम कोर्ट में नहीं थी।
देश में 24 उच्च न्यायालय हैं, जहां महिला जजों का अनुपात पुरुष जजों के मुकाबले बिलकुल भी अच्छा नहीं कहा
जा सकता है। अप्रैल 2017 को जब इंदिरा बनर्जी मद्रास हाईकोर्ट
की मुख्य न्यायाधीश बनाई गईं, तब उस समय 24 हाईकार्ट में से चार बड़े और महत्वपूर्ण राज्यों की हाईकोर्ट में चार महिला
मुख्य न्यायाधीशों हो गई थीं, यह भी इतिहास बन गया था। इंदिरा
बनर्जी के अतिरिक्त उस समय जस्टिस मंजुला चेल्लूर, निशिता म्हात्रे
और जी. रोहणी दूसरे राज्यों में मुख्य न्यायाधीश के रूप में काम
कर रही थीं। और हाल ही में जब जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में जस्टिस
गीता मित्तल को राज्य हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश और सिंधु शर्मा को न्यायाधीश बनाया
गया तब यह जम्मू-कशमीर के इतिहास में 90 साल के बाद महिलाओं की इस तरह की कोई नियुक्तियां हुईं। जम्मू-कश्मीर हाईकार्ट की स्थापना 1928 में हुई थी। इस दौरान
यहां 107 जज रह चुके हैं। 1 अप्रैल
2018 तक देश के हाईकोर्ट में 669 जज सभी राज्यों
में काम कर रहे थे, इनमें से महिला जजों की संख्या मात्र
75 है, प्रतिशत के हिसाब से यह आंकड़ा महज
11 फीसदी बैठता है।
प्रश्न है कि हमें इस पर जश्न मनाना चाहिए या बैठकर इस बात पर
विचार करना चाहिए कि जहां देश की महिलाएं कई फ्रंट पर अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं, वहीं यह
क्षेत्र उनसे अछूता क्यों है अब तक? जबकि इस क्षेत्र की संवेदनशीलता
और महिलाओं और बच्चों पर बढ़ते अपराधों के कारण इस क्षेत्र में महिलाओं के दखल की अधिक
मांग होनी चाहिए थी। ऐसा नहीं है कि देश के सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में ही यह
स्थिति है, वास्तव में निचली अदालतों में भी कामोबेश यही स्थिति
है। यह बात जहां लिंग असमानता दिखाती है, वहीं हमारी लोकतंत्र
की असफलता भी दर्शाती है। विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के एक अध्ययन से पता चलता है
कि निचली अदालतों में महिला जजों की संख्या पुरुषों के मुकाबले 28 फीसदी ही है और यह संख्या ऊपरी आदलतों की तरफ क्रमश: घटती जाती है। इस साल फरवरी में आई इस रिपोर्ट के अनुसार निचली आदालतों में
15,806 जज हैं, जिनमें से सिर्फ 4,409 महिला जज हैं।
विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के टिल्टिंग द स्केल: जेंडर
इंबैलेंस इन द लोवर ज्यूडीसियरी की इस रिपोर्ट में राज्यवार महिला जजों की संख्या का
अध्ययन किया गया है। इसे देखकर पता चलता है कि सभी राज्यों में 40 फीसदी से कम ही महिला जज नियुक्त हैं। यह हाल तब है, जब विभिन्न राज्यों में महिला जजों के लिए आरक्षण की विभिन्न तरह की व्यवस्थाएं
की गई हैं। झारखंड, कर्नाटक, राजस्थान,
तेलंगाना, बिहार में महिलाओं को आरक्षण मिला हुआ
है। इसके बावजूद बिहार और झारखंड के लोवर कोर्ट में महिला जज न के बराबर हैं,
वहीं तेलंगाना में यह संख्या 44 फीसदी है। तो प्रश्न
है कि कमी कहां है? क्या महिलाएं जज नहीं बनना चाहती हैं?
या महिलाएं इस काबिल नहीं हैं? या सरकारें इस तरह
की नीतियां मात्र दिखावे के लिए बनाकर भूल गईं?
विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी इसके कारणों पर भी प्रकाश डालती
है। देश में लोवर कोर्ट के तीन स्तर हैं, पहला डिस्ट्रिक जज, दूसरा
सिविल जज (सीनियर डिविजन), तीसरा सिविल
जज (जूनियर डिविजन)। इन तीन स्तरों में
राज्यों के अनुसार विभिन्न पदानाम हैं। इन तीनों लेवलों के पदों पर जजों की नियुक्ति
सीधी भर्ती और मेरिट के आधार पर प्रमोट करके की जाती है। इस संदर्भ में भेदभाव क्षमताओं
के पूर्वाग्रह के चलते किया जाता है। प्रमोशन में इस तरह के भेदभाव की शिकायत होती
रहती है। यह रिपोर्ट यह भी कहती है कि इस क्षेत्र में इस तरह के भेदभाव को दिखाने वाला
कोई भी व्यवस्थित आंकड़ा मौजूद नहीं है। इन आंकड़ों के जरिए इस बात को अधिक साफतौर
पर समझा जा सकता था कि देश में लॉ स्नातक और ज्यूडीसियरी एक्जाम को कितनी महिलाएं पास
करके आ रही हैं। और वे कहां और किस रूप में काम कर रही हैं। इस प्रकार के आंकड़ों की
कमी इस तरह के अध्ययन के कारणों को खोजने में बाधा खड़ी कर रही है। इस क्षेत्र में
महिलाओं की कम संख्या में काम करने के कारणों में इस क्षेत्र में महिलाओं का शोषण और
अन्य तरह की सहायक ढांचागत कमी भी प्रमुख है। इसलिए काफी महिलाएं कॉरपोरेट सेक्टर में
जाना पसंद कर रही हैं।
न्यायिक क्षेत्र में महिलाओं
की कमी के कारणों की खोज के अनुसंधान की भारी कमी महसूस की जा रही है। बहुत से नेता
और न्यायविद् इस तरह की कमी पर चिंता व्यक्त करते रहते हैं। पिछले दिनों राष्ट्रीय
कानून दिवस पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी न्यायिक क्षेत्र में लिंग और जातीय भेदभाव
की बात मानी थी। और इसे दूर करने के लिए निवेदन किया था कि ज्यूडीसियरी में महिलाओं
की संख्या बढ़ाने के लिए उनका कोटा निर्धारित किया जाना चाहिए। इन तमाम चिंताओं के
बीच यह देश की आधी आबादी के लिए खुशी की बात है कि देश की सर्वोच्च न्यायालय में इस
समय महिला जज पहली बार तीन की ऐतिहासिक संख्या में हैं।
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