नेतृत्वकर्ता के रूप में महिलाओं देखा जाना आज भी संदेह के दायरे में ज्यादा आता है, उन्हें शंका की निगाह से देखा जाता है, नापा-तौला जाता है, कही कहीं नकारा भी जाता है। फिर भी आज बहुत से क्षेत्रों में महिलाएं अपने कुशल नेतृत्व से टिकी हुईं है और दूसरी महिलाओं और लड़कियों को प्रेरित कर रही हैं। सबसे अच्छी बात यह रही कि इस साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को ‘नेतृत्व में महिलाएं’ के रूप में मनाए जाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्रसंघ ने कर दी है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वुमिन इन लीडरशिपः अचीविंग एन इक्वल फ्यूचर इन ए कोविड-19 वल्र्ड का नाम दिया है। प्रश्न है कि आखिर संयुक्त राष्ट्र संघ इस महामारी के बीच महिला नेतृत्व को सम्मानित करना या याद करना क्यों चाह रहा है। क्या अब समय आ गया है कि महिलाओं के नेतृत्व को एक पहचान और विश्वास मिलना चाहिए। या फिर इस पहचान और विश्वास से विश्व और विश्व समाज को क्या हासिल होने वाला है। और सबसे बड़ा सवाल कि महिला नेतृत्व किस मायने में पुरूष नेतृत्व से भिन्न और प्रभावशाली है, जिसके कारण यह और भी अपरिहार्य हो जाता है।
2020 कोरोना जैसी बीमारी के नाम हो चुका है और इसका कुछ अंश इस वर्ष भी हम
झेलने के लिए मजबूर होंगे। इस पूरी महामारी के दौरान हम कोरोना योद्धाओं की सेवाओं
के आगे नतमस्तक रहे। उनकी मानवीयता को आने वाला समय हमेशा याद रखेगा। इन अग्रिम
पंक्ति के कोरोना योद्धाओं में बड़ी संख्या में महिलाओं ने अपना योगदान दिया। चाहे
वह एक डाॅक्टर के रूप में हो, या फिर नर्स के रूप में,
या फिर एक सफाईकर्मी के रूप में, यह सब हम
लोगों ने काफी नजदीक से देखा। जिस कुशलता से इन महिलाओं ने अपने फर्ज का निर्वाह
किया, उसी को संयुक्त राष्ट्र संघ याद कर रहा है। लेकिन
कोरोना महामारी में फ्रंटलाइन योद्धाओं के अतिरिक्त देश केा नेतृत्व प्रदान कर
रहीं विश्व की दूसरी नेतृत्वकर्ता महिलाओं ने खूब सुर्खियां बटोरी। और बटोरती भी
क्यों नहीं, जिस कुशलता से इन महिलाओं ने अपने देश के
नागरिकों को कोरोना की मार से बचाया, वह उनके कुशल नेतृत्व
के कारण ही था। हर पूर्वाग्रह को धता बताते हुए इन नेतृत्वकर्ता महिलाओं ने बहुत
कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। अपने देश में केरल राज्य की स्वास्थ्य मंत्री
केके सैलजा की तारीफ कौन नहीं करना चाहेगा। इंटरपार्लियामेंट्रीय यूनियन की माने
तो दुनिया में 70 फीसदी महिलाएं स्वास्थ्य क्षेत्र में अपनी
सेवाएं दे रही हैं।
इस समय 22 देशों को महिला नेतृत्व
मिला हुआ है, यानी राजनीतिक प्रमुख के तौर पर इन 22 देशों को महिलाएं चला रही हैं। यह आंकड़ा विश्व में पुरूष नेतृत्व के
मुकाबले सिर्फ सात फीसदी बैठता है, पर कोरोना महामारी के
खिलाफ लड़ी गई लड़ाई में उनका रिकाॅर्ड बेहतर रहा। अब सवाल उठता है कि महिलाओं के
नेतृत्व में ऐसी क्या बात है कि कोरोना महामारी के विरूद्ध लड़ाई में उन्हें ज्यादा
कामयाबी मिली। न्यूजीलैंड से लेकर जर्मनी तक, ताइवान से लेकर
नार्वे तक दुनिया के ऐसे देश हैं, जहां देश की कमान महिलाओं
के हाथों में थी, जब कोरोना अपने क्रूर रूप में था। आंकड़े
बताते है कि इन देशों में कोरोना से होने वाली मृत्यु दर दूसरे देशों की अपेक्षा
काफी कम रही। इसी बात के लिए इनकी तारीफ हो रही है। जब बड़े-बड़े देशों के प्रमुख
कोरोना को ‘साधारण फ्लू या जुकाम’ बताकर
मजाक बना रहे थे, तब ये महिलाएं गंभीरता से कोरोना से लड़ने
के लिए अपनी तैयारी में मशगूल थीं, जिसका परिणाम हम सभी ने
देखा भी। इस संबंध में कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं। आइसलैंड की प्रधानमंत्री
कैटरीन जैकब्स्डोटिर ने बहुत जल्द ही कोरोना टेस्ट कराने का फैसला किया और तमाम
जरूरी कदम उठाए। ताइवान की राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन ने समय रहते महामारी नियंत्रण
केंद्र की स्थापना की और वायरस संक्रमण रोकने के लिए ट्रैंकिंग और ट्रेसिंग की
रणनीति पर काम किया। इसी तरह न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने खासा
सख्त रूख अख्तियार करके संक्रमण के मामलों को लगभग स्थिर कर दिया। न्यूजीलैंड ने
तभी लाॅकडाॅउन लगा दिया था जब उनके यहां कोरोना मरीजों की संख्या केवल छह थी।
आलोचक यह
भी कह सकते हैं कि यह विकसित और काफी कम जनसंख्या वाले देश हैं और यहां की
स्वास्थ्य सेवाएं दूसरे देशों की अपेक्षा चाक-चैबंद हैं, तो संभालना कोई मुश्किल
बात नहीं हैं। इस संबंध में सुप्रिया गरिकीपति और उमा कंभांपति ने एक स्टडी पेपर
तैयार किया है जिसमें 194 देशों में उपलब्ध कोरोनाकाल के
आंकड़ों का अध्ययन किया गया है, जिनमें से 19 देशों को महिला नेतृत्व मिला हुआ है। सुप्रिया और उमा ने पुरूष और महिला
नेतृत्व के लिए एक समान पृष्ठभूमि वाले पड़ोसी देशों की आर्थिक दशाओं और
सोसियो-डेमोग्राफिक फैक्टर का तुलनात्मक अध्ययन करके कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष
निकाले हैं। जैसे उन्होंने जर्मनी, न्यूजीलैंड और बांग्लादेश
की तुलना पुरूष नेतृत्व वाले निकटतम पड़ोसी देश ब्रिटेन, आयरलैंड
और पाकिस्तान से की है। रिपोर्ट में पिछले साल 20 अगस्त तक
के आंकड़ों के माध्यम से बताया गया है कि जर्मनी में 9,000
कोरोना के कारण मृत्यु हुई थी जबकि ब्रिटेन में उस समय तक 41,000 लोगों की मृत्यु कोरोना से हो चुकी थी। इसी तरह न्यूजीलैंड में 22,
जबकि उसके निकटतम पड़ोसी आयरलैंड में 1,700
लोगों की मृत्यु हो गई थी। इसी तरह से विकासशील देश बांग्लादेश में इस समय तक 3,500 जबकि पाकिस्तान में 6,000 लोग कोरोना के कारण
कालकल्पित हो चुके थे। इन दोनों ने अपने रिसर्च पेपर में काफी गहनता से इस बात का
अध्ययन किया है कि कैसे महिलाएं संकटकाल में काम करती हैं। रिसर्च पेपर इस बात का
उत्तर ‘सजगता और नीतियों के प्रति उनकी सामंजस्ता’ काम करती है। ये दोनों महिलाएं यूनीवर्सिटी आॅफ लीवरपूल और यूनीवर्सिटी
आॅफ रीडिंग से संबद्ध हैं। सुप्रिया अपनी रिसर्च में कहती हैं कि हमारे निष्कर्ष
इस बात की ओर इशारा करती है कि महिला नेता संभावित विपत्तियों का सामना कहीं अधिक
जल्दी और दृढ़ता से करती हैं। अधिकांश मामलों में महिला नेतृत्वकर्ताओं ने पुरूष
नेतृत्वकर्ताओं की अपेक्षा पहले ही लाॅकडाॅउन लगाकर जरूरी इंतजाम कर लिए थे।
यद्यपि लाॅकडाउन से आर्थिक गतिविधियों के रूक जाने से आर्थिक संकट आने और भविष्य
में राजनीतिक तौर पर अलोकप्रिय होने की पूरी संभावना थी, फिर
भी उन्होंने जोखिम उठाया।
आंकड़ों
की माने तो विश्व में सार्वजनिक रूप से महिलाओं की सहभागिता बढ़ रही है। फिर भी
समानता अभी दूर की कौड़ी ही है। वैश्विक रूप से महिलाएं 21 फीसदी मंत्री पदों पर
सुशोभित हैं, केवल तीन देशों में 50 फीसदी
या उससे अधिक महिलाएं संसद में है, केवल 22 देशों को हेड महिलाएं कर रही हैं। 2018 में 153
निर्वाचित राष्ट्राध्यक्षों के चुनाव में केवल 10 महिलाएं ही अपने देशों के नेतृत्वकर्ता के तौर पर चुनी गईं। जिस दर से
निर्णयात्मक मामलों में महिला सहभागिता की रफ्तार है, उसमें हमें 130 वर्ष लग जाएंगे समानता के स्तर पर पहुंचने पर। संभवता यूएन इसीलिए चिंतित
है। सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की प्रभावी सहभागिता और निर्णयात्मक क्षमता के
विकास के द्वारा ही उनके जीवन से हिंसा हटाने, लिंगात्मक
समानता बढ़ाने और वुमन इमपावरमेंट की ओर बढ़ सकते है। यूएन का मानना है कि जिस भी
टेबल पर बैठकर निर्णय लिए जा रहे हैं, हमें उस हर टेबल पर महिलाओं
की जरूरत है ताकि सभी को समान अधिकार और अवसर मिल सके। संयुक्त राष्ट्र की इस
मुहिम को इस बात से और भी अच्छे से समझा जा सकता है। कोरोना के संदर्भ में महिला
नेतृत्व को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की उपमहासचिव अमीना जे. मोहम्मद की अध्यक्षता
में विभिन्न क्षेत्रों की नेतृत्वकर्ता महिलाओं के साथ एक बैठक हुई। इसमें
मोजाम्बीक की पूर्व मंत्री ग्रासा मशेल ने कहा कि इस संकट से ऐसा सच सामने आया है
जिसे नकारा नहीं जा सकता है। कहीं अधिक कारगार ढंग से दुनिया को सृजित करने में
महिलाओं का नेतृत्व बेहद अहम है...जो कहीं अधिक मानवाधिकारिक, ज्यादा बराबरी वाला होता है, जिससे सामाजिक न्याय
सुनिश्चित होता है।
2 टिप्पणियां:
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