रविवार, 8 अगस्त 2021

महिलाओं के प्रति संवेदनशील होनी चाहिए पुलिस?

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने पिछले दिनों आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कारणों की वजह से महिला पीड़ितों के प्रति एक अलग रूख रखा जाता है। इसलिए महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा से संबंधित सभी मामलों में पुलिस को लैंगिक दृष्टिकोण से संवेदनशील होकर कार्य करने की जरूरत है। साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों से अधिक कारगर ढंग से निपटने के लिए पुलिस अधिकारियों में आवश्यक कौशल और रवैया विकसित करने के लिए यह जरूरी है कि सभी राज्यों के पुलिस संगठन सभी स्तरों पर पुलिसकर्मियों को संवेदनशील बनाने के लिए उपयुक्त पहल करें।

दरअसल यह कार्यक्रम और उपर्युक्त वक्तव्य राष्ट्रीय महिला आयोग और पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो की एक संयुक्त और बहुत ही आवश्यक पहल को लेकर था, जिसमें आयोग और ब्यूरो दोनों की सद्इच्छा है कि देश की पुलिस को महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा और अपराधों को अधिक संवेदनशीलता और बगैर किसी पूर्वाग्रह-पक्षपात के अपने कर्तव्यों को प्रभावी ढंग निभाने के लिए प्रशिक्षित करना है। इसी उद्देश्य के साथ राष्ट्रीय महिला आयोग ने लैंगिक समानता से जुड़े मुद्दों पर पुलिस अधिकारियों को संवेदनशील बनाने (विशेष रूप से लैंगिक आधार पर होने वाले अपराधों के मामलों में) के लिए देशभर में एक प्रशिक्षण शुरू करने का निर्णय लिया है।

हमारे देश की पुलिस का चेहरा कम संवेदनशील और अधिक असंवेदनशीलता का है। उसका पूरा ढांचा अंगेजों के जमाने से जैसा रचा और ढाला गया वैसा ही चला आ रहा है। सुधार की कितनी जरूरत है इसे समय-समय पर कई समितियों और आयोगों की सिफारिशें (धर्मवीर आयोग, पद्नाभैया समिति, सोली सोराबजी समिति आदि) के माध्यम से रखा गया है। तो यह सुधार क्यों नहीं हुए? इसके कई राजनीतिक पेंच और मजबूरियां हैं। खैर, बात यह है कि जो हो सकता है, वह किया जा रहा है। महिला आयोग ने यह बहुत ही महत्वपूर्ण कदम उठाया है। यह सर्वविदित तथ्य है कि महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा और अपराधिक घटनाएं (बलात्कार, छेड़खानी, मारपीट, घरेलू हिंसा, दहेज हत्या, अपहरण, वेश्यावृत्ति के लिए बेचना, मानव तस्करी आदि) दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की क्राइम इन इंडिया-2019 की रिपोर्ट की माने तो लगभग 4.05 लाख (4,05,861) आपराधिक केस दर्ज किये गये थे। यह साल 2018 के मुकाबले 7.3 फीसदी ज्यादा हैं। प्रति एक लाख महिलाओं पर होने वाले अपराधों की दर में भी बढोत्तरी हुई, जहां साल 2018 में 58.8 प्रतिशत थी, वहीं 2019 में बढ़कर 62.4 प्रतिशत पर पहुंच गई है। महिलाओं के प्रति होने वाले इन सभी अपराधों में से 31 प्रतिशत भाग पति या उसके संबंधियों द्वारा की गई क्रूरताओंका है। कुल रजिस्टर केस में से 08 प्रतिशत बलात्कार के केस हैं। गणना के हिसाब से औसतन 87 बलात्कार के केस 2019 में रोज दर्ज कराएं गए। यह कहानी तो दर्ज किए गए महिलाओं के प्रति किए गए अपराधों की है। क्या हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि इन आंकड़ों से महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों की सही तस्वीर पेश होती है। वजह है, हमारा समाज, हमारी पुलिस और कानून व्यवस्था। जिसका भी वास्ता इन सब चीजों से पड़ता है, वह अच्छी तरह से समझ जाता है कि यह व्यवस्था किसके लिए है और काम करती है। ऐसे में महिलाओं और बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों की विसात ही क्या।

इसकी सही तस्वीर और तस्तीक भी हम कर लेते हैं। जो पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो हर साल दर्ज अपराधों को एकसूत्र करता है, वह इन सभी दर्ज केसों पर क्या एक्शन लेता है, यह ज्यादा जरूरी है क्योंकि पुलिसिया कार्यवाही पर ही हमारी अदालतें काम करती हैं। हमारे देश में आॅल इंडिया चार्जशीट रेट (आईपीसी के अंतगर्त) 2019 में 67.2 प्रतिशत था, तो 2018 में 68.1 प्रतिशत था। जबकि इसी दौरान अपराध निस्तारण दर थोड़ा बढ़कर 50 से 50.4 तक रही। यह जानना जरूरी है कि आरोप पत्र की दर ही वह संख्या होती है, जो यह दर्शाती है कि पुलिस ने कितने दर्ज अपराधों का निस्तारण किया। किसी मामले में दोष सिद्धि इसी चार्जशीट पर निर्भर करती है। दोषसिद्धि दर कोर्ट द्वारा अपराध निस्तारण के आधार पर बनती है। इसी रोशनी पर जानते हैं कि महिलाओं के प्रति होने वाले दर्ज अपराधों के साथ क्या होता है?

2019 में बलात्कार के केस में चार्जशीट दर 81.5 प्रतिशत है, जबकि इसकी दोषसिद्धि दर 27.8 रही। केरल में जहां चार्जशीट दर राज्यों में सबसे अधिक 93.2 थी, वहीं दोषसिद्धि दर 13.4 प्रतिशत थी, जो कि राष्ट्रीय औसत 23.7 से भी काफी कम है। ऐसे ही 2019 में देश भर में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के लिए लगभग 44.75 लाख लोगों को गिरफ्तार किया गया, इनमें से 5.05 लाख चार्जशीट दाखिल की गईं, इसमें से 46,164 दोषी ठहराया गया, 13,896 आरोपमुक्त हुए और 1.61 लाख बरी हुए। अब इन आंकड़ों को देखने से ही पता चलता है कि चार्जशीट से दोषी ठहराये जाने के बीच कितना अंतर है? यह अंतर क्यों और कैसे है? खैर, इसके कई कारण हो सकते हैं और है भी। लेकिन प्राथमिक तौर पर पहली जिम्मेदारी पुलिस की ही होती है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है क्योंकि अपराध होने पर सबसे पहले पुलिस ही जांच करती है, इसलिए छोटी से छोटी बात मायने रखती है। क्या दोषसिद्धि तक पहुंचने में इन्हीं छोटी सी छोटी चीजों का हाथ तो नहीं होता है?

पुलिस सुधार के एजेंडे में हमेशा जांच-पूछताछ के तौर-तरीके, जांच विभाग को विधि व्यवस्था विभाग से अलग करने, पुलिस विभाग में महिलाओं की 33 फीसदी भागीदारी के अलावा पुलिस की निरंकुशता की जांच के लिए विभाग बनाने पर जोर दिया गया है। यह सब इसलिए कि पुलिस का चेहरा मानवीय और लोकतांत्रिक बने, जिससे वह अधिक संवेदनशीलता से काम कर सके। एक अच्छी पुलिस आम नागरिकों को न केवल सुरक्षा उपलब्ध कराती है, बल्कि उसके साथ हुई हिंसा या अपराध में न्याय दिलाने में सहायक भी होती है। इसलिए न्याय दिलाने की व्यवस्था में पुलिस जैसे महत्वपूर्ण और सबसे जरूरी अंग पर काफी विश्लेषण किया गया है। इंडियन जुडिशल रिपोर्ट-2019 में पुलिस की संख्या बल, पुलिस में विभिन्न धर्मों, जातियों, महिलाओं का प्रतिनिधित्व पर एक विस्तृत अध्ययन किया गया है। इंडियन जुडिशल रिपोर्ट-2019 की माने तो महिलाओं और बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों में बढोत्तरी और न्याय न मिल पाने की एक बहुत बड़ी वजह महिलाओं का पुलिस संख्या बल में न केवल कम होना है, बल्कि ऑफीसर रैंक में भी उचित प्रतिनिधित्व में न होना भी है। यानी इस रिपोर्ट के अनुसार हम पुलिस में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देकर भी उसे मानवीय चेहरा दे सकते हैं, तो देर किस बात की है? हमें यह भी जानना होगा।

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