सोशल मीडिया में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार कोई नई बात नहीं रह गई है। इसी में एक कड़ी और जुड़ गई है- बुल्ली बाई। बुल्ली बाई
से पहले भी सुल्ली बाई भी आया था। सांगठनिक रूप से महिलाओं को उनकी बात कहने के
बदले बकायदा अभियान चला कर ट्रोल किया जाता है। फकत संदेश इतना है कि वे अपना मुंह
और दिमाग बंद कर मूक दर्शक बनी रहें, इसी में उनकी
भलाई है। ...बोला नहीं कि उन्हें बदनाम करके उनका शीलहरण करने का कोई मौका नहीं
छोड़ेगे। भले ही वह मौका मौखिक या वर्चुअल ही क्यों न हो। जब बुल्ली बाई ऐप के
संचालकों पर कार्रवाई हो रही थी, तभी सोशल मैसेजिंग ऐप
टेलीग्राम पर एक खास चैनल को सोशल मीडिया पर सामने लाया गया, जहां महिलाओं की तस्वीर साझा करके उन्हें अपशब्द कहे जा रहे हैं। जिस पर
तुरंत कार्रवाई करते हुए आईटी मंत्री अश्विन वैष्णव ने चैनल को तत्काल बंद करा
दिया। यानी यह सिलसिला अनवरत जारी है...।
आश्चर्य की बात है कि जिन महिलाओं को सोशल
मीडिया में टार्गेट किया जाता है या किया जा रहा है वे कोई साधारण महिलाएं नहीं
हैं। इनमें से कुछ पत्रकार, कुछ सिनेमा में
काम करने वाली, कुछ सोशल वर्कर, कुछ
लेखिका, डाॅक्टर, इंजीनियर, छात्राएं यानी विभिन्न तरह के व्यवसायों से संबंध रखने वाली हैं। इन
महिलाओं को छोड़ दिया जाए तो इस बात का आश्चर्य होता है कि कुछ साल पहले लोकप्रिय
विदेश मंत्री स्व. सुषमा स्वराज और महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी को भी
इस तरह के लोगों ने अपने उद्देश्य के लिए निशाना बनाया था। जिसकी चहुंओर घोर निंदा
हुई थी। इन दोनों केंद्रीय मंत्रियों का अपराध बस इतना था कि उन्होंने जो कार्य
किया था वह दुर्व्यवहार करने वाले इन सोशल मीडिया हैंडल्स को पसंद नहीं आया। जून,
2018 को केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज को दस दिनों तक लोगों के
अपशब्दों का शिकार होना पड़ा, जब उन्होंने दो अलग मजहब वाले
दंपति को पासपोर्ट दिलाने में मदद कर दी थी, जो विवादों में
आ गया था। मामला इतना बढ़ गया था कि खुद केंद्रीय मंत्री के पति स्वराज कौशल को
सोशल मीडिया पर उतरना पड़ा।
सवाल उठता है कि यदि केंद्रीय मंत्री के साथ
सोशल मीडिया पर ऐसी घटना हो सकता है, तो फिर दूसरी
महिलाओं की क्या बिसात। सोशल मीडिया पर इस तरह के दुर्व्यवहार का शिकार होने वाली
सुषमा स्वराज ही पहली केंद्रीय मंत्री नहीं थीं, बल्कि इसी
तरह केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी को भी 2016 को हैशटैग
आयएमट्रोल्डहेल्प सर्विस लांच करने के दौरान बहुत कुछ सुनना पड़ा। इस हैशटैग के
जरिए मेनका गांधी ने महिलाओं से अपील की थी कि वे उन्हें ट्वीट और ई-मेल के जरिए
इस माध्यम पर उनके साथ हुए दुर्व्यवहार और छेड़छाड़ के बारे में शिकायत करें। उनकी
इसी पहल पर उन्हें जमकर ट्रोल किया गया। आखिरकार उन्हें इस हैशटैग के बारे में
सफाई देनी पड़ी। उन्होंने कहा कि इंटरनेट पर लिखने की आजादी पर रोकटोक नहीं होगी,
मंत्रालय तभी कार्रवाई करेगा जब बदतमीजी, प्रताड़ना
या घृणित काम की शिकायत आएगी। इसी तरह ब्रिटेन में भी महिला सांसदों को सोशल
मीडिया पर सुषमा स्वराज और मेनका गांधी की तरह कई तरह के दुर्व्यवहार का सामना आये
दिन करना होता है। वहां पर सबसे ज्यादा ट्रोलिंग का शिकार अश्वेत सांसद डाएन एबाॅट
हुईं। इसका कारण है कि उनके विचार कुछ खास लोगों को ज्यादा पसंद नहीं आते हैं। ऐसा
नहीं है कि सत्तासीन महिलाओं को देश में ही ऐसे अपमानजनक व्यवहार का सामना करना
पड़ा है, अमेरिका जैसे खुले विचारों वाले देश में आॅनलाइन
महिलाओं को गाली-गलौच, बदसलूकी का व्यवहार झेलना पड़ता है।
वहां की रिसर्च बताती है कि 40 फीसदी नागरिक ऐसी वाहियात
ट्रोलिंग का शिकार हर साल बनते हैं।
ये दोनों मामले बताते हैं कि सोशल मीडिया की
ताकत का किस तरह महिलाओं के मानसिक शोषण का जरिया बनाया जा रहा है। बुल्ली बाई ऐप
उसी की एक और कड़ी मात्र है। जहां मौखिक ही सही महिलाओं की नीलामी की जा रही थी।
अशोभनीय टिप्पणियों के जरिए यौन हिंसा की जा रही थी। इस समय देश-विदेश में सोशल
मीडिया पर महिलाओं की संख्या काफी बढ गई है। वे खुलकर हर मामले में अपने विचार
शेयर करती हैं। यह बात कुछ स्त्री विरोधी मानसिकता या वर्ग के लोगों को बर्दास्त
नहीं होती है और सांगठित रूप से ऐसी महिलाओं को सबक सिखाने के लिए उन पर टूट पड़ते
हैं। इसके लिए किसी भी हद से गुजर जाते हैं। अक्टूबर,
2020 में एक वैश्विक सर्वे ‘स्टेट आॅफ द
वल्र्डस गल्र्स रिपोर्ट’ में आया कि किस तरह बड़े विकसित
देशों में महिलाएं बड़े पैमाने में आॅनलाइन (फेसबुक, इंस्टाग्राम,
ट्वीटर, वाट्सअप, टिकटाॅक)
हिंसा का शिकार बनती हैं। बाइस देशों (भारत, ब्राजील,
नाइजीरिया, स्पेन, आस्ट्रलिया,
जापान, थाइलैंण्ड और यूएस) में हुए इस सर्वे
में 14,000 महिलाओं जिनकी उम्र 15-25
थी शामिल की गईं थीं। रिपोर्ट में पाया गया कि यूरोप में 63
फीसदी, लैटिन अमेरिका में 60 फीसदी,
एशिया पैसिफिक रीजन में 58 फीसदी, अफ्रीका में 54 फीसदी और दक्षिण अमेरिका में 52 फीसदी महिलाओं ने सोशल मीडिया पर हैरेसमेंट की रिपोर्ट की। उन पर रेसिस्ट
कमेंट किए गए, उनका आॅनलाइन पीछा किया गया, उन्हें यौन हिंसा की धमकी दी गई आदि इत्यादि। इस प्लेटफार्म पर उन्हें 47 फीसदी तक शारीरिक और यौन हिंसा की धमकी मिली जबकि 59 फीसदी महिलाओं को गाली-गलौच और अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया गया।
इस सर्वे में सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि इन
महिलाएं में ऐसे महिलाओं की संख्या अच्छी खासी थी जो हैरेस करने वाले पर्सन को
जानती थीं यानी रियल जिंदगी में वह सख्स उनसे ताल्लुक रखता था। 11 फीसदी महिलाओं ने स्वीकार किया कि उन्हें आॅनलाइन हैरेस करने वाला पूर्व
या वर्तमान का उनका पार्टनर भी था, जबकि 21 फीसदी ने स्वीकार किया ऐसे लोग उनके दोस्त भी थे, 23 फीसदी ने स्वीकार किया उन्हें वे स्कूल के दिनों से जानती थीं। अब इसे
क्या कहा जाए। इस सबके परिणाम स्वरूप क्या होगा, यह भी इसी
सर्वे रिपोर्ट में सामने आया। 42 फीसदी महिलाओं ने कहा कि
उन्हें मानसिक और इमोशनल तनाव हुआ और लगभग इतनी ही महिलाओं ने कहा कि उनका
आत्मसम्मान और आत्मविश्वास इस तरह के हैरेसमेंट से खो गया था। इस कारण से लगभग 19 फीसदी महिलाओं ने सोशल मीडिया को छोड़ दिया या आना-जाना कम कर दिया। और 12 फीसदी महिलाओं ने माना कि उन्होंने यहां अपनी अभिव्यक्ति के तरीके को बदल
दिया। यानी जरूरी मामलों पर उन्होंने चुप्पी अख्तियार कर ली। आखिर यही तो चाहते
हैं ऐसे लोग? यही पर आकर उनका उद्देश्य पूरा हो जाता है।
आखिर इसका इलाज क्या है? यहां सत्ताधारी से लेकर साधारण काॅलेज गोइंग लड़की तक लाचार हो जाती है। पहली
समस्या यह है कि इस तरह की हरकत करने वाले लोग गुमनाम या फर्जी नामों से अपना
एकांउट आॅपरेट करते हैं, यदि ऐसे अकाउंट्स पर लगाम लगाई जाए,
तो सोशल मीडिया को काफी साफ-सुथरा किया जा सकता है। केंद्रीय मंत्री के मामले में
जब एक्शन लिया गया, तब तक ऐसे फर्जी अकाउंट्स डिलीट करके जा
चुके थे। इनका कोई पुख्ता सबूत नहीं होने के कारण ही ऐसे लोग इतना साहस करते हैं।
अकाउंट्स यदि वेरिफाइड होने लगे तो आधी समस्या खुद ही समाप्त हो जाएगी। 2013
में दिल्ली उच्च न्यायालय ने केएन गोविंदाचार्य की याचिका पर आदेश
दिया था कि सोशल मीडिया अकाउंट का बेरीफिकेशन के साथ देश में शिकायत अधिकारी की
नियुक्ति की जानी चाहिए, इससे इस समस्या पर लगाम लगाई जा
सकती है। इसी तरह मद्रास हाईकोर्ट ने एक मामले में कहा था कि री-ट्वीट के लिए भी
जवावदेही तय की जानी चाहिए। एक्सपर्ट कहते हैं कि वास्तव में अभी तक देश में इस
तरह की ट्रोलिंग से निपटने के लिए अलग से कोई कानून नहीं है। फिर यदि सरकार चाहे
तो मौजूदा आईटी एक्ट के तहत सोशल मीडिया कंपनियों को बाध्य कर सकती है कि वे
ट्रोल्स पर कार्रवाई करें। कहीं न कहीं मसला हीला-हवाली और उपेक्षा का बनता है।
क्या हम बहु-बेटियों की सोशल मीडिया पर उपस्थिति और अभिव्यक्त को जरूरी नहीं समझते? इच्छा शक्ति से बहुत कुछ हो सकता है।
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