शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

हर स्त्री का रोजनामचा

कुछ पुस्तकें खुद को पढ़ाने की काबिलियत रखती हैं। ऐसी ही एक पतली सी पुस्तक पिछले दिनों हाथ में आयी। आदतन मजमून समझने के उद्देश्य से पेज पलटते-पलटते वह कब पढ़ते हुये समाप्त हो गयी, समाप्त होने के साथ समझ आया कि अच्छी पुस्तकें स्वयं को पढ़ाने की काबिलियत रखती हैं। यह खूबसूरत किताब है- रोजनामचा, एक कवि-पत्नी का।

किताब किसी रहस्य या रोमांच से भरी हुयी नहीं थी, इसमें चिलचस्पी की वजह बनती है इसकी सीधी और साधारण तरीके से दर्ज की गई जिंदगी की बातें। वैसी ही बातें जैसी हम अपने पड़ोसियों या जान-परिचय के साथ पांच या दस मिनट खड़े होकर कर लेते हैं और मन हल्का होने के साथ हम फिर अपनी जिंदगी में वापस आ जाते हैं। किताब रोजनामचा, एक कवि-पत्नी काऐसी ही रोजमर्रा की मन की बातें कहने वाली किताब हैं। इसमें
दिलचस्पी इस करण से भी बढ़ जाती हैं कि यह रोजनामचा एक ऐसी महिला ने दर्ज किया जो एक नामी लेखक
, कवि और साहित्यकार की पत्नी हैं। एक लेखक साहित्कार की पत्नियों के अपने जीवन में क्या संघर्ष होते हैं, यह जानने के लिये इस तरह की डायरीनुमा किताबों का अपना महत्व है। ऐसी रचनायें एक रचनात्मक व्यक्ति के सबसे करीब शख्स के माध्यम से आती हैं, तो उनकी विश्वनीयता अधिक स्थायी होती है और अनुभव अद्भुत है।

जानेमाने वरिष्ठ साहित्यकार रमाकांत शर्मा उद्भ्रांतकी पत्नी उषा शर्मा की यह डायरी है। जिसे उन्होंने अनियमित ही सही पर अपने अनुभवों को लिखा है। यह पुस्तक उषा शर्मा की मृत्यु के उपरांत उद्भ्रांत जी ने संपादित करके हम पाठकों के समझ प्रस्तुत किया है। डायरी में दर्ज घटनाएं बहुत लंबे समय तक की नहीं हैं। 1977 से 1983 तक ही उषा शर्मा लगातार लिख सकीं। आखिर उनकी अपनी व्यस्तताएं थीं, दूसरी बात किताब के संपादक जिन्होंने अपने प्राक्कथन में लिखा है कि उनके कहने पर ही वे लिखने को तैयार हुई थीं। इसलिये शायद समय के दबाव और संघर्ष के कारण वे इस तरह के काम को महत्व नहीं दे पायी होंगी। 18 मार्च 1983 को वे लिखती भी हैं- डायरी आज तो लिख रही हूं देखो कितने दिन लिख पाती हूं। रिंकी के इम्तहान भी होने वाले हैं। उसका टीवी में भी प्रोग्राम है। इच्छा तो हो रही है कि उसको भेज दूं। देखो क्या होता है।

इस रोजनामचा में लेखिका उषा शर्मा ने 30-40 शब्दों से लेकर लगभग एक हजार शब्दों में अपने मन-भावों को व्यक्त किया है। यह कोई घुमा-फिराकर लिखी गई साहित्यिक रचना नहीं हैं। एक पत्नी अपने घरेलू फ्रंट पर क्या संघर्ष करती है बस इसे साफ-साफ लिखा गया है। एक दंपति के बीच का प्यार और टकराहट, उनका मान और मनौव्वल, बच्चों का लालन-पालन, एक संयुक्त परिवार के आपसी टकराहटें, पति से उसकी अपेक्षायें, इन सबके बीच होने वाला सिर दर्द भी, सब कुछ बड़ी ही साफगोई से दर्ज कर दिया है लेखिका ने। 20 जुलाई, 1982 को वे लिखती हैं- काफी दिनों बाद आज लिखने बैठी हूं। बच्चे इतना तंग करते हैं। घर में किसी न किसी बात को लेकर झगड़ा हो जाता है। क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता है।

कई साहित्कार पत्नियों ने अपने साहित्कार पतियों के बारे में लिखा है। जिन्हें पढ़कर साहित्कारों के निजी जीवन की काफी जानकारियां मिलती है। लेकिन एक गैर साहित्कार पत्नी जब अपने साहित्कार पति और अपने निजी जीवन के बारे में साफगोई से लिखती है, तब एक समाज की सामाजिक और सांस्कृतिक बुनावट उद्घाटित होती है। एक गैर साहित्यिक पत्नी कैसे अपने पति से कम्युनिकेट करें यह भी समस्या होती है। इसी समस्या के बारे में लेखिका ने 12 जनवरी 1980 को भारी मन से लिखा है- समझ में नहीं आता कि किस तरह ये समझ पैदा करूं। राजू थोड़ी बातें करा करें, तो शायद आ जाए, लेकिन राजू चाहते हैं कि हम किताबें पढ़ के समझ पैदा करें।लेखिका की इतनी संक्षिप्त डायरी में ही हमारे समाज की स्त्रियों के जीवन के इतने पहलू समाहित हैं कि किताब में हर स्त्री को अपना जिया जीवन दिख जायेगा। ऐसा लगता है कि लेखिका यदि अपना यह लेखन जारी रख पाती तो हम उनके लेखक पति और स्वयं उनके लेखन की उत्कृटता के दूसरे पहलू जरूर देख पाते।

 

(समीक्षा युगवार्ता पत्रिका के जुलाई अंक में छपी है)

2 टिप्‍पणियां:

विकास नैनवाल 'अंजान' ने कहा…

पुस्तक रोचक लग रही है। पढ़ने की कोशिश रहेगी।

प्रतिभा कुशवाहा ने कहा…

पढ़ने और टिपण्णी करने के लिए धन्यवाद विकास जी