रविवार, 15 अक्तूबर 2017

देवी पूजन : गुम होता बचपन


शक्ति पूजन भारतीय संस्कृति और धर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। देश के एक भाग में नहीं बल्कि पूरे देश में शक्ति के रूप में स्त्री रूप का ही पूजन होता है। नवरात्र इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इन्हीं नवरात्र के दौरान देश के कई मंदिरों में कई वर्षो या यूं कहें कई सौ, हजार वर्षों से शक्ति रूप में कई प्रकार की देवियों की अराधना की जा रही है। आज भी वे अपने पुराने रूप यानी परंपरा के रूप में मान्य हैं। हर परंपरा अपने समय-काल के अनुसार सही हो ऐसा जरूरी नहीं होता। ऐसी ही एक घटना प्रकाश में आई है। तमिलनाडु के मदुरै के वेल्लूर में येजहायकथा अम्मान मंदिर में एक धार्मिक परंपरा पूरा करने के लिए सात या उससे अधिक कुंवारी लड़कियों को देवी के रूप में सजाया जाता है। देवी के रूप में सजी इन लड़कियों की पंद्रह दिनों तक लोग इनकी पूजा-अर्चना करते हैं। यहां तक तो सब सामान्य बात है, पर इस समारोह की समाप्ति पर पांच लड़के इन लड़कियों के ऊपरी वस्त्रों को एक-एक कर हटाने का उपक्रम करते हैं और इसी टॉपलेस अवस्था में उन्हें मंदिर के समारोह में शामिल भी किया जाता है। जिससे आमलोग उनके दर्शन कर सकें। धार्मिक परंपरा के नाम लड़कियों के साथ ऐसा व्यवहार आज क्षम्य नहीं माना जा सकता है। मीडिया में जब यह खबर इस तरह की तस्वीरों के साथ रिपोर्ट हुईं और चारों तरफ आलोचना होने लगी तब प्रशासन भी चौकन्ना हुआ। और इस बात की तस्दीक की तथा अश्वासन दिया कि इन देवी बनी इन बच्चियों को उनके परिवार की निगरानी में रखा जाएगा। उनके साथ किसी तरह का दुर्व्यवहार नहीं होने दिया जाएगा।
मीडिया में खबरें आने के बाद यह मामला राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी अपने संज्ञान में लिया और राज्य सरकार को इस बावत पत्र लिखा। आयोग ने इस पूरे मामले को अमानवीय करार दिया। इस अमानवीय व्यवहार को लेकर तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश सरकार और पुलिस प्रमुखों को नोटिस जारी किए। आयोग का मानना है कि इन बच्चियों को कथिततौर से प्रतिबंधित देवदासी जैसी एक पुरानी प्रथा के तहत जबर्दस्ती मंदिरों में ले जाया जाता हैआयोग ने कहा कि इस परंपरा के जारी रहने के बारे में शिकायत के साथ ही मीडिया की ख़बरों में लगाए गए गंभीर आरोप हैं। इसलिए आयोग ने दोनों राज्यों के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशकों को नोटिस जारी करके चार सप्ताह में रिपोर्ट मांगी हैं। आयोग के अनुसार इन बच्चियों को उनके परिवारों के साथ नहीं रहने दिया जाता और उन्हें स्कूल से भी वंचित कर दिया जाता है। उन्हें मातम्मा मंदिर में ही रहने के लिए मजबूर किया जाता है, जहां उन्हें यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता हैआयोग ने कहा कि यदि आरोप सही हैं, तो ये मानवाधिकारों का उल्लंघन है आयोग ने एक बयान में कहा कि यह कथित रूप से देवदासी प्रथा के एक अन्य रूप है। आयोग की इन चिंताओं के बरक्स प्रशासन की माने तो उनका कहना है कि यह परंपरा सदियों से चलती आ रही है। इसके लिए लड़कियों का चुनाव उनके घरवालों की सहमति के बाद ही होता है। जबरदस्ती ऐसा किया जा रहा है, इस संबंध में हमें अब तक कोई शिकायत नहीं मिली है। वास्तविक तस्वीर आनी अभी शेष है, पर जो हुआ उसे मानवीय तो नहीं कहा जा सकता है। इस प्रथा का विरोध कर रहे समाजसेवी संगठनों का कहना है कि प्रशासन चाहे जो भी कहे, पर सच्चाई इसके उलट है। परंपरा के नाम पर सात से दस साल की सैकड़ों बच्चियां इस त्योहार के दौरान मंदिर में रहती हैं। इन लड़कियों को तमिलनाडु में मतम्मा कहा जाता है। आगे इन लड़कियों की शादी-ब्याह पर रोक लग जाती है, इन्हें अपनी जीविका नाच-गाकर चलानी पड़ती है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस 200 वर्ष पुरानी धार्मिक परंपरा को देवदासी का एक रूप मानकर इस मामले की तह तक जा रहा है। देवदासी प्रथा को 1982 और 1988 में कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में प्रतिबंधित कर दी गई है। लेकिन यहां आज भी इस प्रथा का प्रचलन हो रहा है। 2013 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने देश में करीब 4,50,000 संख्या में देवदासी होने की बात कही। वहीं 2015 में जस्टिस रघुनाथ राव की कमेटी ने तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में 80,000 देवदासी होने की बात कही। देवदासी प्रथा तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उडीशा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के कुछ इलाकों में चली आ रही है। इस प्रथा के अनुसार एक लड़की का विवाह भगवान से कर दिया जाता था। आजीवन वह लड़की भगवान की पत्नी या प्रेयसी के रूप में मंदिर में रहकर मंदिर की सेवा, पूजा-पाठ और देखरेख् करती है। उन्हें नाचने-गाने जैसी कई कलाओं को भी सिखाया जाता था। उनकी इस कला का प्रदर्शन मंदिर के कई समारोहों में किया जाता था। बदलते वक्त के साथ इन युवतियों का शारीरिक शोषण मुख्य उद्देश्य बन गया। यह प्रथा छठी और सातवीं शताब्दी पर अपने पूरे रूप में थी। यह प्रथा चोल, चेर और पांडया शासकों के शासनकाल में खूब फली-फूली। इस प्रथा का किसी न किसी रूप में अभी भी जारी रहना लड़कियों और महिलाओं के शोषण की कथा बयां कर रही है।
धार्मिक परंपरा के नाम छोटी बच्चियों को यूं मंदिरों में दान करना या मातम्मा मंदिर की हाल की घटना किसी भी अर्थ में मान्य नहीं कहा जा सकता है। इस धार्मिक संस्कार के नाम पर उन्हें सामान्य जीवन से वंचित कर देना एक अपराध और गैर मानवीय कर्म होता है। ऐसा नहीं है कि इस तरह की प्रथा हमारे देश में ही प्रचलित है। हमारे पड़ोसी देश नेपाल में भी कुमारी, कुमारी देवी या जीवित देवी के रूप में लगभग दो हजार साल से एक प्रथा प्रचलित है। इसमें एक ऐसी बच्ची को देवी घोषित कर दिया जाता है जिसने विशेष ग्रह-नक्षत्रों में जन्म लिया हो। जैसे की तिब्बत में लामा चुनने का काम होता है। बच्ची के विशेष गुणों की परीक्षा के बाद देवी के रूप में मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है। हाल ही में 28 सितंबर को तृष्णा शाक्य को नई कुमारी के रूप में देवी घोषित कर दिया गया हैं। घोषित कुमारी देवी को काठमांडू के नेवार समुदाय से संबंधित लोग तलाजू देवी का अवतार मानकर पूजते हैं। देवी घोषित होने के बाद ऐसी बच्ची को परिवार से दूर रहना होता है, उसे मात्र 13 बार ही विशेष अवसरों पर मठ को छोड़ने की अनुमति होती। देवी घोषित यह बालिका तब तक देवी रहती हैं, जब तक मासिकधर्म शुरू नहीं हो जाता। मासिकधर्म शुरू होने के बाद युवा मानकर इनकी जगह दूसरी कन्या का चयन देवी के रूप में कर लिया जाता है। देवी कुमारी को देवी की तरह साज-सज्जा के साथ एक देवी जैसा आचरण करना होता है। इस दौरान उन्हें धार्मिक शिक्षाएं भी दी जाती है। इन कुमारी देवी की असली मुसीबत तब शुरू होती है, जब इन्हें सामान्य जीवन में लौटना होता है। इन देवियों के संबंध में इस प्रकार की मान्यता भी प्रचलित है कि इनसे जो शादी करेगा, वह अल्पायु में ही मर जाएगा। इस कारण से इन देवी रह चुकी युवतियों से विवाह करने को कोई तैयार नहीं होता। इससे अधिकांश देवी रह चुकीं कुंवारियां कुंवारी ही रह जाती हैं। हालांकि इन्हें आजीवन पेंशन के रूप में कुछ धनराशि और रहने के लिए सरकारी आवास दिया जाता है।
सवाल उठता है कि सामान्य जीवन जीने तक के लिए मोहताज कर देने वाली इन धार्मिक प्रथाओं जारी रखने के पीछे क्या औचित्य है? सामाजिक रूप से मान्यता प्राप्त इन धार्मिक कृत्यों के पीछे क्या कारक हो सकते हैं? किन समाजों की लड़कियां इस तरह के कृत्यों को ढो रही हैं और क्यों? इस तरह के प्रश्नों से इतर यह परंपराएं बाल अधिकारों का हनन ज्यादा हैं। एक मानवीय दृष्टिकोण से आस्था का यह मामला सवालिया घेरे में ही आते हैं। मासूम बच्चियों का बचपन और समाजिकता छीन लेने वाले यह धार्मिक उपक्रम कब तक सामाजिक स्वीकृति पाते रहेंगे?



('युगवार्ता' सप्ताहिक में प्रकाशित)

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