गुरुवार, 3 जुलाई 2014

सामाजिक संघर्ष के 'करोड़पति'

'किसी से भीख मत मांगो, सरकार से भी नहीं मांगो। नौकरी क्यों करना चाहते हो, अपना काम करो। अपने शहर में तुम्हें दिक्कत आ सकती है क्योंकि सब तुम्हें जानते हैं। दूसरे एरिया में काम करो। वहां तुम्हारी जाति कोई नहीं जानता।’ यह बातें सविताबेन कोलसावाला या कोयलावाली के नाम से गुजरात में मशहूर सविताबेन देवजीभाई परमार ने कही। घर-घर कोयला बेचने से शुरूआत करने वाली सविताबेन आज कोयला नहीं बेचती है, उनकी कंपनी स्टर्लिग सेरेमिक प्राइवेट लिमिटेड अहमदाबाद के पास घरों के फर्श पर लगने वाली टाइल्स बनाती है। इस कंपनी की सलाना टर्न ओवर 50 करोड़ रू तक है। सविताबेन के पति अहमदाबाद म्युनिसिपल टांसपोर्ट सर्विस में कंडक्टर की नौकरी से इतना नहीं कमा पाते थे कि उनके संयुक्त परिवार का भरण पोषण हो सके। इसलिए सविताबेन ने परिवार की मदद के वास्ते कुछ करने की सोची। ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी इसलिए नौकरी नहीं मिल सकी। तब उन्होंने खुद का काम करने की सोची। उनके माता-पिता कोयला बेचने का धंधा करते थे इसलिए उन्होंने काले कोयले से ही अपनी किस्मत चमकाने की सोची। सविताबेन कहती है कि उन्हें दोहरी मुश्किल का सामना करना पड़ा। वे महिला थी और दलित भी। दलित होने के कारण व्यापारी उनसे कारोबार नहीं करते थे। सविता बेन के बारे में कोयला व्यापारियों की राय थी कि ये दलित महिला है, कल को माल लेकर भाग गई तो हम क्या करेंगे? जीवन का यही कटु अनुभव करोड़ों का कारोबार करने वाली सबिताबेन अपने दलित साथियों को सीख देती है कि कारोबार करे, पर अपने शहर में नहीं जहां आप को लोग जानते है।
सविताबेन की यह कहानी मिलिंद खांडेकर द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘दलित करोड़पति, 15 प्रेरणादायक कहानियां’ में बड़े विस्तार से दी गई है। जब इसके शीर्षक ‘दलित करोड़पति’ पर निगाह गई तो प्रश्न उठा कि ‘दलित करोड़पति’ इसका शीर्षक लेखक ने क्यों रखा। एकबारगी लगा कि पाठकों का ध्यान खींचने के लिए किया होगा। पर जैसे जैसे किताब पढ़ती गई और दलित उद्यमियों की कहानी से दो-चार होती गई तब समझ में आया कि उन उद्यमियों का संघर्ष  केवल सिफर से शिखर तक नहीं जैसा हम टाटा, बिड़ला या अंबानियों के बारे सुनते और पढ़ते आये है बल्कि इससे भी कहीं ज्यादा उनका सामाजिक संघर्ष  था। जिसको इन उद्यमियों ने पग-पग पर झेला है। इसके लिए हमें लेखक मिलिंद खांडेकर का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने अपने समाज से ऐसे हुनरमंद साहसिक लोगों का परिचय हमसे कराया।
लेखक  ने रोड़ से करोड़ तक के सफर की दलित कहानी इकोनाॅमी के हर सेक्टर से बताई है। कल्पना सरोज ने बंद पड़ी मुंबई की कमानी ट्यूब्स को मुनाफे में ला दिया। वहीं अषोक खाड़े की कंपनी दास आॅफशोर बाॅम्बे हाई में तेल निकालने वाले कुएं के प्लेटफार्म बनाती है। तो आगरा के हरी किशन पिप्पल अस्पताल चलाते है, वहीं देवकीनंदन सोन का आगरा में ताज महल के पास होटल है। भावनगर के देवजीभाई मकवाना फलामेंट यार्न बनाते हैं। लुधियाना  के मलकित चंद टी-सर्ट बनाते है। आगरा के हर्ष भास्कर के कोटा ट्यूटोरियल्स में पढ़कर पिछले दस साल में कुछ सौ बच्चे आईआईटी में पहुंच गए हैं तो जापान में अतुल पासवान की इंडो सकूरा साॅफ्टवेर बना रही है, जबकि साॅफ्टवेयर के क्षेत्रा पर हमेशा ब्राह्मणों का कब्जा रहा है।
बिजनेस को दलित के नजरिये से देखने के बारे में लेखक कहते है कि बिजनेस की कोई जाति नहीं होती, लेकिन आप दलित है तो मुकाबला सिर्फ बाजार में ही नहीं होता, आपको समाज के भेदभाव का सामना भी करना पड़ता है। दलित कारोबारियों को जोड़ने वाली संस्था दलित चेंबर आॅफ काॅमर्स का अनुमान है कि देश में दलित बिजनेसमैन सरकार को 1700 करोड़ रू टैक्स चुकाते हैं। इनका कुल टर्न ओवर 20 हजार रू है। ये पांच लाख लोगों को रोजगार देते हैं। दलित बिजनेसमैन कहते है कि ये धरणा गलत है कि हम सिर्फ सरकार से मांगते ही हैं, हम करोड़ टैक्स चुका रहे हैं। हम केवल नौकरी मांग नहीं रहे, अब हम नौकरी दे भी रहे हैं।
1975 में आगरा के हरी किशन ने बैंक से पंद्रह हजार का कर्ज लेकर अपनी मेहनत ने केवल अपनी जिंदगी बदली बल्कि हजारों और की बदल दी। आज उनके पीपुल्स ग्रुप का आगरा में अस्पताल, जूते एक्सपोर्ट करने वाली फैक्टरी, हांेडा की डीलरशिप और एक पब्लिकेशन हाउस है। सालाना कारोबार करीब 90 करोड़ रुपये  का है। जब हरी किशन से लेखक ने यह सवाल किया कि जाति को लेकर आपको कभी कोई कठिनाई आई तो उनका कहना था कि हां, आई थी, अस्पताल का मैनेजमेंट संभाला तो डाॅक्टरों ने काम करने में आनाकानी की। फिर रेलवे में मेरे अस्पताल के खिलाफ झूठी शिकायत की गई। अस्पताल को पैनल से हटा दिया गया।इसमें कथित उची जाति के अधिकारी और आगरा के एक दूसरे अस्पताल की साजिश थी।
समाज में सम्मान पाने के लिए अतुल पासवान डाॅक्टर बनना चाहते थे, पर मेढक न काट पाने के कारण वे डाक्टर नहीं बन सके। पर आज अतुल इंडो-सकूरा साॅफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के प्रेसीडेंट और सीईओ हैं।  जापान में टोक्यो के पास चीबा और भारत में बेंगलुरू में इसके आॅपिफस है। ये कंपनी साॅफ्टवेयर बनाती है। करोड़ों का टर्नओवर है। 2015 तक इंडो सकूरा जापान की 10 बड़ आईटी कंपनियों में पहुंचाने का लक्ष्य है। जाति के कारण अतुल पासवान को अपना बिजनेस खड़ा करने में जापान में तो कोई परेशानी नहीं हुई पर हाल में वे एक घटना का जिक्र करते है कि हम एक बड़ी कंपनी की वेंडर लिस्ट में हैं। पर वहां से काम नहीं मिल रहा था। इसका कारण मुझे समझ में नहीं आया। तब मेरे मित्रा ने मुझे बताया कि तुम्हें जानबूझकर नजरअंदाज किया जा रहा है। पर जाति के कारण बचपन में कई अनुभव है। कथित बड़ी जाति के कुछ बच्चे स्कूल के दिनों में ऐसी फीलिंग रखते थे, आज वे सब गांव में रह गए है।
  कुछ अलग करने की चाहत रखने वाले जेएस फुलिया नौकरी करके ही संतुश्ट नहीं थे। इसलिए उन्हेंाने 2004 में अपना बिजनेस करने की ठानी। जिसका परिणाम है कि आज दिल्ली में उनकी सिग्नेट फंट एक्सप्रेस प्राइवेट लिमिटेड नाम से उनकी कंपनी है। उनकी अपनी कंपनी, जो दुनिया के किसी भी कोने में हवाई जहाज से, पानी के जहाज या सड़क के रास्ते से सामान मंगा सकती है। उनका ज्यादा कारोबार भारत की कंपनयिों के लिए सामान मंगवाने या इंपोर्ट करने का है। फुलिया अपने बारे में एक दिलचस्प किस्सा बयां करते हैं। वे कहते है कि बिजनेस में भी वो दिक्कत आती रही जो जाति को लेकर नौकरी में आती थी। 2006 में दिल्ली के नेहरू प्लेस में एक कंपनी से उनको दस लाख रूपए लेने थे। कंपनी मालिक आनाकानी कर रहा था। सिग्नेटप्रेफट इस कंपनी का काम पूरा कर चुका था फिर भी तीन लाख रू काट लिया, बाकी पैसे भी किस्तों में दिए। मैं जब कंपनी के मालिक से मिलने गया तो उसका पहला सवाल था, ‘तुम्हारी कास्ट कौन-सी है?’ मैंने जवाब दिया ‘चौधरी।’ उसने कहा कि चौधरी तो कोई जाति नहीं होती। फुलिया समझ गए कि इस तरह तो पैसे नहीं निकलने वाले, तो उन्होंने थोड़ी चालाकी से काम लिया। फुलिया ने उसी व्यक्ति से फिर संपर्क किया और काम मांगा और कहा कि जो हो चुका है उसे भूल जाओ, नया काम दो। उनकी चाल कामयाब रही और काम मिल गया। कंपनी का कार्गो कोलकाता पोर्ट पर पहुंच गया। माल सिग्नेटप्रेफट के बिना पोर्ट से बाहर आ नहीं सकता था। फुलिया ने शर्त रख दी कि बाकाया के तीन लाख दे जाओ और माल ले जाओ। कंपनी के मालिक ने पुलिस की  धौंस दी। पर फुलिया नही दबे और उक्त कंपनी से अपना बकाया ले कर ही माने। फुलिया कहते है कि अगर मैं पैसे नहीं वसूल पाता तो हौसला टूट जाता। संविधान में सबको बराबरी का दर्जा मिला है,समाज से भेदभाव को समाप्त करने में वक्त लगेगा। हिंदू धर्म की पारंपरिक वर्ण व्यवस्था में दलितों को पढ़ने-लिखने नहीं दिया जाता था। पढ़ने लिखने का अधिकार ब्राह्मणों को था। आजाद भारत में सबको बराबरी का अधिकार मिला। नतीजा सबके सामने है।
ऐसी बहुत सी कथा-व्यथा इस किताब में लेखक ने बताई है। जिन्हें पढ़ाकर लेखक हमें अपने समाज को आइना दिखाना चाहता है। इस किताब की भूमिका में मिलिंद खंाडेकर लिखते है कि दलित बिजनेसमैन की कामयाबी जनरल कैटेगरी या कथित उची जाति के एक बड़े तबके की धारणा को तोड़ती है कि रिजर्वेशन उनका हक छीन रहा है और सरकार की मदद से दलित आगे बढ़ रहे हैं। इन 15 करोड़पतियों में से मुष्किल से तीन-चार को किसी एडमीशन या नौकरी में रिजर्वेशन का फायदा हुआ। यह किताब अपने संपूर्ण रूप में कई वाजिब सवाल करती है जिनका उत्तर हम सभी को तलाशना है।

(उक्त लेख का एडिट भाग साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के जून- 2014 अंक में प्रकाशित)