
इसी तरह राजस्थान में बाड़मेर के देरासर गांव की भी यही
कहानी है। पत्नी के गर्भवती होते ही यहां पति दूसरी शादी कर लेता है। यह दूसरी
पत्नी घर के सारे काम करने के साथ-साथ घर की
प्रमुख जरूरत पानी लाने का काम भी करती है। यहां पानी लाने के लिए पांच से दस घंटे
का समय लगता है और कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर सिर पर कई बर्तन
रखकर चलना पड़ता है। यह काम गर्भवती स्त्री के लिए खतरनाक हो सकता है। इसलिए यहां
के पुरुष दूसरी शादी करके इस समस्या का ‘सस्ता’ हल निकाल लेते हैं। इन गांवों में ऐसी पत्नियों को ‘वाटर वाइब्स’ यानी ‘पानी की
पत्नियां’ या ‘पानी की बाई’ कहलाती हैं। अमूमन इन तथाकथित पत्नियों को पहली पत्नी की तरह अधिकार नहीं
मिलते हैं। ऐसी पत्नियां या तो गरीबी की मारी होती हैं या फिर विधवा या पतियों
द्वारा छोड़ी हुईं होती हैं। ये महिलाएं एक आसरे की आस में यह अमानवीय जीवन
स्वीकार लेती हैं। यहां का सरकारी महकमा भी सामाजिक स्वीकृति के कारण कुछ भी करने
में असमर्थ रहता है।
हमेशा से घरेलू काम महिलाओं के जिम्मे रहा है। खाना बनाने, घर सम्हालने जैसे काम के साथ जुड़ा पानी भरने, चूल्हा
जलाने के लिए लकड़ी का जुगाड़, जानवर के लिए चारा लाना जैसे
सभी काम महिलाओं के सिर ही आते हैं। खेती-बाड़ी और जानवर
पालने के काम भी घर की महिलाएं ही संभालती हैं। सुबह होते ही पानी के लिए महिलाओं
का संघर्ष शुरू हो जाता है। खासतौर पर गर्मियों के समय, जब
पानी की काफी किल्लत हो जाती है। महिलाओं का पानी के लिए यह संघर्ष कहीं कहीं पूरे
साल बना रहता है। सूखाग्रस्त जगहों में जहां पानी की कमी होती है, वहां पानी के लिए बच्चों की पढ़ाई और बचपन तक दांव पर लगा रहता है। उनकी
सुबह पानी के बर्तनों के साथ ही शुरू होती है। उन्हें पानी के लिए कई-कई किलोमीटर चलना पड़ता है और कई-कई घंटें बूंद-बूंद रिसते पानी को भरने का इंतजार भी करना पड़ता है। तब कहीं जाकर कुछ
लीटर पानी का जुगाड़ हो पाता है। ऐसी परिस्थिति में एक स्त्री की हैसियत पानी से भी
कम हो रह जाती है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं कही जा सकती।
समस्या पानी की है, तो क्या
इसका कोई दूसरा हल नहीं निकाला जा सकता था? यह प्रश्न सहज ही
उठता है। पर इसे क्या कहा जाए कि यहां इस ओर सोचा भी नहीं गया। इसका कारण क्या हो
सकता है? हमारे समाज में महिलाओं का श्रम इतनी सहजता और
मुफ्त में उपलब्ध है कि दो जून की रोटी के लिए वे किसी की ‘वाटर
वाइफ’ बन जाती है। यह विडंबना है कि दिन भर मेहनत करने के
बदले वे एक सम्मान की जिन्दगी की हकदार भी नहीं बन पाती हैं। जबकि दूसरी तरफ उनके
पति जो दूसरी जगहों पर काम पर निकल जाते हैं, पूरी मजदूरी
कमाने के बाद एक सम्मान के साथ घर लौटते हैं। हमारे समाज का यह अंतर (महिलाओं के श्रम को श्रम न समझना) समझने के लिए किसी
आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए। समाज में महिलाओं की दोयम स्थिति ही इस तरह की
समस्याओं की जड़ है। स्त्रियों की दोयम स्थिति तब और दोयम हो जाती है, जब सरकारें ऐसी समस्याओं के प्रति ध्यान नहीं देती हैं।
हमारे समाज में महिलाओं के श्रम की गिनती कहीं नहीं है। इसलिए खुद महिलाएं भी अपने श्रम को लेकर जागरुक नहीं होती हैं। उन्हें अपने श्रम के बदले जो कुछ मिल जाता है उसे ही सौभाग्य समझती हैं। इसके लिए अशिक्षा, लिंगात्मक भेदभाव, सरकारों का रवैया जैसे अनगिनत कारण गिनाये जा सकते हैं। इसलिए इस बात का बहुत अधिक आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए, कि कैसे एक महिला ‘वाटर वाइफ’ बन जाती है, और हमारा समाज पानी के लिए दूसरी, तीसरी शादी को मान्यता दे देती है।