देश की गुलामी के दौर में शिक्षा कुछ जातीय वर्गों
और जेंडर स्तर पर पुरुषों तक ही सीमित थी। ऐसे में जागरुकता और समाज सुधार की दृष्टि
से सभी में शिक्षा के प्रसार की आवश्यकता महसूस हुई। इसलिए इस दौर में स्त्री शिक्षा
की जरूरत को भी अत्यधिक बल दिया गया। यह सर्वसिद्ध तथ्य है कि एक शिक्षित मस्तिष्क
ही नये विचारों का वाहक हो सकता है। इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर बालिका और महिला
शिक्षा पर जोर देने के लिए सामाजिक-राजनीतिक ही नहीं पत्र-पत्रिकाओं के स्तर पर एक मुहिम छेड़ी गई। पत्र-पत्रिकाएं
यह बात अच्छी तरह से समझती थीं कि जब लोग शिक्षित होगें, तब ही
उनका महत्व और औचित्य निर्धारित हो सकता है। अनपढ़ों के बीच पत्र-पत्रिकाओं की क्या आवश्यकता? इसी फलसफे को समझते हुए
इस दौर की पत्रकारिता ने शिक्षा, पर कहीं अधिक स्त्री शिक्षा
पर बल दिया। आखिर सवाल आधी आबादी का भी था।
1884 में बंगदर्शन स्त्री शिक्षा की वकालत
कर रहा था। उसने लिखा कि ‘इस समय सब लोग स्वीकार स्वीकार करते
हैं कि लड़कियों को कुछ लिखाना-पढ़ाना अच्छा है, किंतु कोई यह नहीं सोचता कि स्त्रियां पुरुषों की तरह अनेक प्रकार के साहित्य,
गणित, विज्ञान, दर्शन आदि
की शिक्षा क्यों न प्राप्त करें?...कन्या भी पुत्र की तरह एमए
क्यों नहीं पास करेगी, इस प्रश्न को वे एक बार भी अपने मन में
स्थान नहीं देते।’ यह पत्र न केवल स्त्री शिक्षा की वकालत कर
रहा था, बल्कि स्त्री शिक्षा के साधन न होने पर उपाय भी बता रहा
था। पत्र इस बात की भी हिमाकत करता है कि ‘लड़कियों के स्कूल
न होने की स्थिति में उन्हें लड़कों के स्कूलों में भेजा जा सकता है।’ जब बंगदर्शन जैसे बहुत सी पत्र स्त्री शिक्षा के हिमायत जब लिख रहे थे,
तब से बहुत पहले ही 1848 में ज्योतिराव फुले ने
पूना में लड़कियों के लिए अपना पहला स्कूल खोलकर स्त्री शिक्षा की अलख जगा दी थी। उसी
वर्ष एल्फिंस्टन कालेज बंबई के छात्रों ने एक कन्या पाठशाला शुरू की तथा स्त्रियों
के लिए एक मासिक पत्रिका भी निकाली।
हिंदी पत्रकारिता में विशिष्ट स्थान रखने वाले
बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र 1867 में अपनी लेखनीय
और संपादन में स्त्री शिक्षा के पक्ष में जमकर लिख रहे थे। उन्होंने लिखा कि ‘पश्चिमोत्तर देश की कदापि उन्नति नहीं होगी, जब तक यहां
की स्त्रियों की शिक्षा न होगी, क्योंकि यदि पुरुष विद्वान होंगे
और उनकी स्त्रियां मूर्खा तो उनमें आपस में कभी स्नेह न होगा।’ स्त्री शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए उन्होंने केवल लेखन ही नहीं किया,
बल्कि जो युवतियां परीक्षा पास करती थीं उन्हें वे साड़ी भी भेंटस्वरूप
दिया करते थे। उन्होंने इसी क्रम में महिलाओं के लिए 1874 में
बाल बोधिनी पत्रिका भी निकाली।
इसके प्रभाव में स्त्री शिक्षा के लिए दरवाजे धीरे-धीरे ही सही खोले जा रहे थे। 1862 के मराठी पत्र इंदुप्रकाश
जो एक सामाजिक सुधार का पत्र समझा जाता था, ने ‘पूना में स्त्रियों के लिए हाई स्कूल’ में युवतियों की
उच्च शिक्षा विवाह में बाधा न बन जाए, इस पर चिंता प्रकट की।
उसने लिखा कि ‘शहरों में विद्यालयों की स्थापना कर स्त्रियों
को विद्या संपन्न बनाने का उत्तम कार्य वर्षों से चल रहा है और अंग्रेज सरकार भरपूर
आश्रय दे रही है।…सिर्फ एक कठिनाई है कि हाईस्कूल में पढ़ने वाली
लड़कियां उम्र में 18-19 साल की हो जाएंगी तो शादी करने में दिक्कत
आएगी, इसलिए शादीशुदा लड़कियां पढ़ना चाहे तो ससुराल से अनुमति
मिलना आवश्यक होगा।’ इसी तरह 1929 में हैदराबाद
से प्रकाशित महिलाओं की पत्रिका सफीना-ए-निस्वां जिसकी संपादिका सादिका कुरैशी थीं, पत्रिका पर्दे
का समर्थन तो करती थी, पर महिला शिक्षा पर भी बल देती थी।
स्त्री शिक्षा इस समय जोरों पर थी,
इसलिए लगभग हर भाषा के छोटे-बड़े पत्र स्त्री शिक्षा
को बढ़ावा दे रहे थे। रंगपुर वार्ता ने लिखा- ‘अब तक एक ऐसा वर्ग
भारत में तैयार हो गया है, जो स्त्री शिक्षा के महत्व को जान
चुका है। अल्पसंख्या में छपने वाले अल्पजीवी भाषाई पत्र भी स्त्री शिक्षा पर सामग्री
छापकर अपने हिस्से की भूमिकाएं निभाते हैं।’ बंगाल में बंगदर्शन
1884 में खुलकर स्त्री शिक्षा के बारे में लिख रहा था। लेकिन सब तरह
के पत्रों में ऐसा नहीं था, कुछ इसके विरोध में अपनी प्रतिक्रियाएं
दे रहे थे। 1880 से प्रकाशित पुणे वैभव के संपादक शंकर विनायक
केलकर स्त्री शिक्षा के विरोधी थे। उसमें छपे लेखों पर पुणे के शारदाश्रम की पंडिता
रमाबाई ने जब घोर आपत्ति जताई, तो पत्र को माफी भी मांगनी पड़ी।
इसी तरह मराठी पत्र ‘भाला’ ने स्त्री शिक्षा
का विरोध करते हुए लिखा कि कुछ लोग महिलाओं के लिए कलकत्ता में अस्पताल बनाने की या
नर्स बनाने की बात करते हैं। इसका विरोध होना चाहिए। इन्हीं सब बातों से महिलाओं में
शिक्षा और अशिक्षा के बीच भेद की चेतना जगी। फलत: महिलाएं लेखन
के प्रति सजग हुईं। और यह सिलसिला चल निकला, आज हम सब इसके साक्षी
हैं।
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