कविता
के लिए किसी महिला को पहली बार साहित्य अकादमी मिला है, क्या
काफी देर हुई।
क्या
कहूं! सबसे पहले हम स्त्रियां आपस में बैठकर बातचीत करतीं, उसके
बाद बहुत सोच-समझकर उसे सार्वजनिक जीवन में लाते। हमें क्या छोड़ना है, क्या नहीं छोड़ना है, इस पर विचार करते हैं। जो लोग
दबे-कुचले हैं वे लोग बहुत सहमकर सोच-समझकर बोलते हैं, फटाफट
नहीं बोल पाते हैं। उन्हें लगता है कि हम जो बोले, वे सच्चाई
के निकट हो। तो हो सकता है कि हमें अपनी बात कहने में थोड़ा वक्त लगा हो।
पूर्वाग्रह जो होता है वह पत्थर से ज्यादा कठोर होता है। उसकी इको-सर्जरी बहुत
धीरे-धीरे चलती है। तो हमने बहुत धीरे-धीरे यह सब किया है। हमने ममता से भरके
विद्रोह किया है। हमने नफरत से भरके विद्रोह नहीं किया है। हमें जिनके माइंड सेट
पर काम करना था, वह हमारे ही जाए हुए थे। ये वही लोग थे
जिन्हें हम प्यार करते थे। जैसे हम अपनी संतान को समझाना पड़ता है जैसे उसके धीरे
से उनके बाल झाड़ने होते हैं, हम बड़ी धीरज से जैसे धूल झाड़ते
हैं। उसी धीरज से हम सबने मिलकर अपनी बात कही है। तो साथ जुड़ते-जुड़ते, सभी को साथ लेते-लेते, इकट्ठा होते-होते समय लग गया।
लेकिन कोई बात नहीं, देर आयद, दुरूस्त
आयद।
थेरी
कथाओं को आपने आज की महिलाओं की व्यथा कथा कहने के लिए चुना, क्या कोई खास वजह थी।
इसकी
एक खास वजह थी। पहली बार यह हुआ था कि समाज की सभी श्रेणियों से स्त्रियां बाहर
आईं। कोई राजकुमारी की बेटी थी, कोई सेनापति की विधवा थी,
कोई गणिका की पुत्री थी, कोई छाता बनाने वाली
की पत्नी थी, दलित स्त्रियां भी थीं, तो
वे कहां अपना निर्वाण ढूढतीं। पहले तो बुद्ध ने न ही कहा था। उन्होंने बुद्ध को
अपने तर्को से आश्वस्त किया। चूंकि मैं वैशाली क्षेत्र से ही हूं, तो मेरे अंदर यह बात बहुत समय से धंसी थी। जब मैं दिल्ली यूनीवर्सिटी के
हाॅस्टल में आई, तो यहां विस्थापित लड़कियों को देखकर लगा कि
ये सभी थेरियां ही तो हैं। ये सभी अलग-अलग जगहों से आकर यहां बसी हैं। अपना-अपना
अलग-अलग काम करती हुई, मुक्ति की राह ढूंढ रही हैं, तो मुझे यह सभी थेरी कथाएं ही लगीं। उनको अपना कोई बुद्ध नहीं मिल रहा है।
उनके अंदर जो कल्पना का बुद्ध है, उससे वे सवाल रखती हैं। वे
उससे दार्शनिक निदान भी पाती और व्यवहारिक निदान भी। तो मैंने कल्पना की, ये अलग-अलग तरह की मार्डन, आपकी तरह और मेरी तरह,
कुछ कलाकार भी, मजदूर-कामगार स्त्रियों के भीसंवाद हैं। साथ ही दंगों और युद्ध क्षेत्र की पीड़ित स्त्रियां भी हैं। इन सभी
स्त्रियों के मन में जो प्रश्न थे, वे बुद्ध से एक मित्र की
तरह अपने प्रश्नों का निदान चाहती हैं। यह जनतंत्र है, सभी
एक दोस्त की तरह गपशप करते हुए बात करती हैं। अपनी कल्पना में अपनी आसपास की
स्त्रियों के बारे में मैं जितना सोच सकती, मैंने लिखा। तो
इस तरह यह रचना बन गई।
क्या
इसके माध्यम से आप सबाल्टर्न भाव बोध तलाश रही थी कि स्त्रियों का इतिहास फिर से
लिखा जाना चाहिए।
बेसिकली
सबाल्टर्न ही है, या टाइम ट्रवलिंग भी है। कुछ वही है और कुछ
नया भी जुड़ गया है। हम स्त्रियों के कल्पना का साथी कोई बुद्ध जैसा व्यक्ति ही
होता है, जो हमें अपने आसपास नहीं दिखता है। क्योंकि हमें
हाइपर मैस्क्युलिंग आदमी नहीं चाहिए, क्योंकि हमें हाइपर
फेमिनिन नहीं बनना है हमें बैलेंस चाहिए है। बुद्ध की जो सम्यक दृष्टि है, जो डाॅयलाग के लायक हो, प्यार करने के लायक हो,
ऐसे लोगों का समाज चाहिए हमें।
क्या
आपकी यह रचना स्त्रियों में बुद्धत्व की तलाश है।
वास्तव
में बुद्धत्व तो स्त्रियों में होता ही है। वे मूल्यतः अहिंसक होती हैं। स्त्री
आंदोलन एक ऐसा आंदोलन है जिसमें एक बूंद खून नहीं बहाया। और ममता से प्रतिरोध किया
है। न्याय का करूणा से जो रिश्ता बनता है, वही हमारे स्त्री
विमर्श का रिश्ता बनता है। इसलिए हमने डाॅयलाॅग का माध्यम अपनाया। हम नहीं सोचते
कि उनमें बुद्धत्व के बीज नहीं हैं, हम उन बीजों को चटकाना
चाहते है। कम से कम नई पीढी के पुरूषों से ऐसी उम्मीद रखते हैं। जो पुरूष हमें
गढ़ने हैं वे स्त्रीवाद के गर्भ से ही जन्मतें हैं। मैं हमेशा बाॅयलाॅजिकल मदरहुड
से आगे जाना चाहती हूं। वही नहीं होता जो हम गर्भ में धारण करते हैं, हमारी मानस संततियां हमारे आगे आने वाले पुरुष हैं, पीछे
का तो हम कुछ सुधार नहीं सकते हैं न। हमें तो हमेशा आगे सोचना है।
क्या
थेरी गाथाएं भारत में स्त्री प्रतिरोध की पहली आवाज थीं?
मान
सकते हैं। हालांकि उल्लेख है कि कुछ ऋषिकाएं प्रश्न करती हैं। मैत्रेयी भी प्रश्न
करती हैं। वे पितृसत्ता पर सवाल उठाती हैं। इस तरह का फुटकर उल्लेख मिलता है,
लेकिन थेरी गाथाओं जैसा जहां बहुत सारी स्त्रियां सभी वर्णों और
समाज की है, मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है।
आपने
इस किताब की भूमिका में कही लिखा है कि बुद्ध को अविश्वास स्त्रियों पर नहीं,
पुरूषों के निग्रह पर था, यानी स्त्रियों को नाकाबिल
नहीं, बल्कि स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों को प्रशिक्षित करना अधिक जरूरी समझते
थे।
कोमलता
के प्रति पुरुषों का आग्रह कुछ ज्यादा एग्रेसिव हो जाता है। वे कब्जा करना चाहते
हैं। ऐसा नहीं है कि वे उनकी प्रशंसा करके उनको छोड़ दें। अगर उन्हें कोई सुंदर
खिला हुआ फूल मिल जाए, तो वे उसे तोड़कर अपने कोट की बटन में
लगाना चाहेंगे। यह पजैसिव वाला स्वभाव है न, वह एक जिंदा
आदमी पर नहीं चल पाता। हम कोई वस्तु नहीं है न। तो असल में सुधरना तो उन्हीं को ही
है, हमें थोडी ही।
क्या
आज के परिप्रेक्ष में इसे स्त्री के प्रति हिंसा, बलात्कार,
योनि हिंसा के रूप में देख सकते हैं, जबकि
प्रशिक्षण देने की जरूरत पुरुषों को है ना कि स्त्रियों को। जिन पर तमाम तरह के
प्रतिबंध लगाए जाते है कि ऐसा करो, ऐसा न करो।
ये
ब्लेमिंग गेम होता है कि तुमने ऐसा किया और ऐसा हो गया। अरे, पहले तुम तो सुधर जाओ। मीरा भी कहती थी कि ‘अपने सर पे पर्दा कर ले, मैं
अबला बौरानी।’
क्या
वैश्विक शांति में महिलाओं की कोई प्रभावी भूमिका हो सकती है? जबकि आज के इस
वैश्विक समाज में चारों तरफ हिंसा, वर्चस्व, सत्ताओं का बोलबाला है।
हम
लोग प्रतिस्पर्धा-प्रतियोगिता में नहीं, सहयोग और सहभागिता
में विश्वास करते हैं। हम स्त्रियों को यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि हर
व्यक्ति किसी न किसी तरह से विशिष्ट है। एक फोटोग्राफर कहता है कि एक चेहरा किसी न
किसी कोण से सुंदर होता ही है। एक चरित्र कहीं न कहीं से कोमल-वैशिष्ठ होता ही है।
हमें इस वैशिष्ठ को उभारने की जरूरत है और एक मां ही उस वैशिष्ठ को उभारने का काम
कर सकती है। अपने बच्चे के बारे में मां से अधिक उसका वैशिष्ठ कोई नहीं जानता,
एक मां इसे उभारने का काम जरूर करती है।
स्त्री
चेतना को आप कैसे देखती है या किन चीजों में तलाशती हैं?
न्याय
से ऊपर है करुणा। हम अपने साथ हुए अन्याय को माफ कर सकते हैं, बातचीत कर सकते हैं। पर कहीं जब किसी के साथ अन्याय होता देखते हैं,
तो हम तुरंत आवाज उठाएंगे। तब हम यहां करुणा की तरफ नहीं देखेगें।
अगर करुणा करेंगे तो उस आदमी पर कि कहीं वह पशु न बन जाए। हम अपने बच्चों को कैसे
अनुशासित करते हैं। हमें भेड और भेड़ियों का समाज नहीं बनाना है न।
पुरुष-स्त्री
बराबरी आपके लिए क्या है, क्या यह संभव है?
साधन
हम सभी को बराबरी के ही चाहिए। जो साधन हमें पढ़ाई-लिखाई, नौकरी-पेशा
के लिए चाहिए, वह मिलना ही चाहिए। मैं नहीं चाहती कि
स्त्रियां पुरुष बन जाए। हमारे गुण जो सहिष्णुता और करुणा वाले हैं, उनका भी सम्यक बंटवारा होना चाहिए। वे हमारे ही हिस्से में नहीं होने
चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि धीरज जैसे गुणों को हमें छोड़ देना चाहिए। हमारी
कोशिश तो यह होनी चाहिए कि पुरुष इसे अपनाएं। हम एक देश के नागरिक है, गणतंत्र में हम एक-दूसरे से कमतर नहीं रह सकते।
स्त्री-पुरुष
के बीच के प्रेम को कैसे परिभाषित करेगीं।
यह
तो नैसर्गिक आकर्षण है ही, पर इसका मूल है आदर। उसकी (प्रेम)
उपस्थिति में हमें अपनापन लगे, कोई तनाव न होना चाहिए।
अभिव्यक्ति
के लिए कविता आपका सहज माध्यम है?
-कविता
मुझे बहुत अच्छी लगती है और इससे मुझे बहुत ताकत मिलती है, पर
जब मेरे पास बहुत से माध्यमों से ढेर सारे सवाल इकट्ठे हो जाते हैं, तो मैं गद्य में लिखती हूं।
आपके
अंदर कविता का अंकुर कब फूटा था?
पिताजी
के साथ अंतराक्षरी खेलते हुए। बस ऐसे ही कुछ लाइनें तत्काल रचकर बोलती थी मैं।
आप
बहुतों की प्रिय कवयित्री हैं, आप किनकी कविताओं को पसंद
करती हैं?
बहुत
से कवि है जिनकी बहुत सी कविताएं मैं काफी पसंद करती हूं। मेरे पिता जी की कविताएं
भी मुझे काफी प्रिय हैं।
आप
अपनी साहित्यिक यात्रा से संतुष्ठ हैं?
अभी
तो लगता है, शुरूआत हुई है। बहुत कुछ करना है, अभी तक तो बच्चों को बड़ा करने और नौकरी में व्यस्त रही। लगता है कि जंगल
में जाकर एकांत में बैठकर कुछ रचा जाए। देखिए, कब होता है।