(आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है। 30 मई, 1826 को जुगल किशोर शुक्ल ने ‘उदन्त मार्तण्ड’ नाम से हिंदी साप्ताहिक का प्रकाशन कलकत्ता से शुरू किया था। जुगल किशोर शुक्ल कानपुर के निवासी थे, यह हम सब कानपुर वासियों के लिये गर्व की बात है कि उनके प्रयासों से हिंदी का पहला पत्र प्रकाशित हुआ। आज हिंदी पत्रकारिता के 198 वर्ष हो चुके हैं। किसी घ
टना के लगभग दो सौ वर्ष पूरे होना अपने आप में एक बड़ी बात होती है। इसी परिप्रेक्ष्य में यह सोचने की बात है कि इन लगभग 200 वर्षों की हिंदी पत्रकारिता में हम कहां तक पहुंचे हैं। आज हिंदी पत्रकारिता की जो दशा और दिशा है, वह चिंता का विषय है।)
मुझ पर पत्रकार बनने का भूत सवार हुआ। सभी ने मुझे बहुत समझाया-‘पत्रकारिता में क्या रखा है, भूखे मरने की नौबत आ जाएगी।’ लेकिन मैंने पूरे जोश से पैरोकारी की। समाज सेवा की दुहाई दी। बड़े से बड़े पत्रकारों के नाम लिए, लेकिन सब बेकार। आखिर मैंने भी मूढ़ लोगों की बात न मानते हुए बगावत का बिगुल बजा दिया और झटपट पत्रकारिता के क्षेत्र में टांग अड़ा दी।
पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद ‘जंगे मैदान’ में आ डटी। मैंने अपनी कलम चारों दिशाओं में भांजी और कहा- अब समाज के दुश्मनों की छुट्टी हो जाएगी। और पूरे जोश के साथ पत्रकारिता के मंदिरों (समाचार पत्र के दफ्तरों) में माथा टेकने लगी। प्रसाद और आशीर्वाद की उम्मीद लिए मुझे कहीं-कहीं दर्शन मिलना भी मुश्किल हो गया।
परेशान होकर मैंने अपने कुछ पत्रकार मित्रों (जो अब तक पत्रकार रूपी जीव बन गए थे) से सम्पर्क साधा, पूछा- बंधुवर! ये बताइए कि मुझे कब इन समाचारायल रूपी मंदिरों में प्रवेश मिलेगा?
मेरी बात सुनकर वे थोड़ा मुस्कराएं, फिर सगर्व बोले- तुम्हारी कोई जान पहचान है?
इस प्रश्न पर मुझे आश्चर्य कम गुस्सा अधिक आ रहा था क्योंकि मेरी सात पुश्तों में किसी ने पत्रकारिता का नाम तक नहीं सुना था और अमा ये परिचय की बात कर रहे हैं। अतः मैंने ‘न’ में सिर हिलाया।
इस सिर हिलाऊ उत्तर पर उसने भी फिल्मी डाक्टर की तरह आजू-बाजू सिर हिलाकर कहा-‘तब तो तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता’। और मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह खून का घूट पी कर रह गयी।
खैर, इस घटना के बाद मैं बिल्कुल निराश नहीं हुयी। और एक राजनीतिक पार्टी की भांति मैंने तुरंत दावा किया कि इस बार मेरी ही सरकार बनेगी। और पूरे जोशोखरोश के साथ अपने अभियान में लग गयी। आखिर एक दिन मोनालिसा की मुस्कान मेरे चेहरे पर आ गयी क्योंकि काफी जद्दोजहद के बाद मुझे एक मंदिर में दर्शन के लिए बुला लिया गया। मंै पूरे साजो-सामान के साथ सम्पादक महोदय के सामने उपस्थित हुई और तुरंत ही अपनी सरकार बनाने का दावा पेश किया।
मैंने कहा, ‘श्रीमन् मैं लिखती हूं, जो थोड़ा बहुत यहां-वहां छपता रहता है’ यह कहते हुए मैंने अपने कार्य कौशल की थाथी उनके मेज पर खिसका दी।
लेकिन यह क्या?
उन्होंने किसी ‘अछूत कन्या’ की तरह मेरी फाइल को हाथ तक नहीं लगाया और सीधे सवाल दाग दिया- ‘आपने अभी तक क्या सीखा है?’
मैं भी कहां चुप रहने वाली, एक भाट की तरह अपने सारे छोटे-बड़े गुणों का बखान कर डाला।
लेकिन यह क्या? आफताब शिवदसानी की तरह उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं आए।
उन्होंने मुझसे दूसरा सवाल किया, ‘आप किस बीट पर काम करना चाहेंगी।’
मैंने तुरंत ही कहा- समाजिक एवं सांस्कृतिक।
‘तब तो आप ऐश-अभिषेक की न्यूज ला सकती है’ उन्होंने पूछा।
मैंने कहा, श्रीमन! यह तो किसी के निजी जीवन में दखलंदाजी है।
उन्होंने तीसरा प्रश्न किया, ‘आप कोई स्टिंग-विस्टिंग कर सकती हैं।’
मैंने कहा, नहीं! श्रीमन, यह झूठ और फरेब पर आधारित है, सच्ची पत्रकारिता के विरुद्ध है।
‘आप शिल्पा-गेरे जैसे प्रकरण की फोटो ला सकती है।’ उन्होंने चौथा प्रश्न किया।
मैंने कहा, श्रीमन! ‘यह कैसे हो सकता है? यह तो आप के पालिसी के विरुद्ध है।’
इस पर वे आंखे निकालते हुए बोले, अब तुम हमें हमारी पाॅलिसीज के बारे में बताओगी। महोदया! आप में पत्रकार वाले एक भी गुण नहीं है। जाइए, पहले कुछ सीखिए, फिर आइए।
और एक हारे हुए जुआरी की तरह मैं पत्रकारालय रूपी दफ्तर से निकल आयी। बाहर आने के बाद मैंने अपनी हार का ठीकरा अपने पत्रकारिता इंस्टीट्यूट के पर फोड़ दिया। जहां हमें गलत तरीके की शिक्षा दी गयी थी। अतः अब मैंने मीडिया दफ्तरों के चक्कर लगाने बंद कर दिए हैं। मैं अब ऐसे इंस्टीट्यूट की तलाश में हूं, जहां मुझे ‘सच्चा’ पत्रकार बनने के वास्तविक गुणों की शिक्षा दी जाए।
( उपर्युक्त व्यंग्यात्मक लेख की आज अनायास याद आ गई। यह लेख पत्रकारिता के संघर्ष के दौरान लिखा गया था। उन दिनों यह किसी बेवसाइट पर छपा भी था। इस में लिखी बातों को मेरी कथा व्यथा भी मान लिया गया था। इस बात पर मैं आज भी मुस्कुरा देती हूूं। वास्तव में यह मेरी तरह पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश करने वालों की व्यथा कथा आज भी बनी हुई है। )