इमरजेंसी के दौर में जब साधारण सी बातें बगैर सेंसर के छप नहीं पा रही थीं, तब ‘चार कौए उर्फ चार हौए’ जैसी कविता लोगों तक पहुंची कैसे। दरअसल, यही कहानी काफी दिलचस्प है। भवानी प्रसाद मिश्र ने अपनी आपातकाली कविताओं की किताब ‘त्रिकाल संध्या’ छपने के दौरान इसका खुलासा किया था। यह कविता सबसे पहले साप्ताहिक हिन्दुस्तान में बच्चों के पृष्ठ पर छपने के लिये भवानी प्रसाद जी ने भेजी थी। कविता के स्वीकृति होने के बाद कवि ने बच्चों के विभाग की संपादिका को एक पत्र लिखकर इस कविता के ‘असली मर्म’ के बारे में लिखकर भेज दिया, ताकि उन पर अंजाने में कोई संकट न आ जाए। हश्र वही हुआ, जो होना चाहिए था। कविता नहीं छापी गई। लेकिन कविता की ‘सुगंध’ सुगबुगाहट कई जगह पहुंच गई। इसके बाद यह कविता अंडरग्राउण्ड पत्रों में छापी गई, क्योंकि सरकार के विरोध उस समय प्रतिनिधि अखबारों में कुछ खास नहीं छप पा रहा था। वहीं से यह ऐसी चर्चित हुई, कि हर आजादी पसंद आंदोलनकारियों के जुबान पर आ गई।
इमरजेंसी के दौरान तो यह कविता लोकप्रिय रही ही, इमरजेंसी के बाद भी यह कविता जगह-जगह पढ़ी जाती रही। भवानी प्रसाद जी कहते हैं कि ‘आपातकाल उठने पर तो सब बहादुर हो गए। टेलीविजन ने मुझसे यह कविता पढ़वाई- आपातकाल में तो मैंने रेडियो और टेलीविजन पर जाना बंद कर दिया था।’ टेलीविजन प्रसारण के बाद ही इस कविता की लोकप्रियता की वजह से भवानीप्रसाद जी की इमरजेंसी की कविताएं संग्रह के रूप में ‘त्रिकाल संध्या’ नाम से आज हम सब जानते हैं। इस व्यंग्यात्मक कविता के विषय में खुद भवानी प्रसाद जी कहते हैं कि ‘इसमें जो चार कौए उर्फ चार हौए हैं, उनमें तब मैंने प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, कांग्रेस अध्यक्ष और श्री संजय को गिना था।’
‘त्रिकाल संध्या’ में कुल 96 कविताएं हैं। जिसमें इमरजेंसी के दौरान लिखी गई यानी 26 जून, 1975 से लेकर 1 अगस्त, 1975 तक की रचनाओं का समावेश किया गया है। इसमें राजनीति और सामाजिक ताने-बाने को दृष्टिगत रखते हुये विभिन्न विषयों का समावेश किया गया है। वैसे तो भवानी प्रसाद को गांधीवादी कवि कहा जाता है। वे न केवल स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि गांधीवादी चिंतन से पूरा सरोकार भी रखते थे। इसी के चलते उन्होंने ‘गांधी पंचशती’ की रचना भी की। लेकिन इमरजेंसी ने उन्हें इतना उद्द्वेलित किया, कि ‘त्रिकाल संध्या’ की रचनाओं का स्वरूप इन सबके विपरीत तीखा और मारक बन पड़ा हैं, जो समय -परिस्थिति के अनुकूल भी हैं।
इमरजेंसी लोकतंत्र पर हमला थी, फासीवाद व अधिनायकवादी राजनीति का बीजारोपण था। ऐसे काल में जब चारों ओर भय का वातावरण हो, खौफ, आतंक और डर व्याप्त हो, ऐसे में एक हिंन्दी साहित्य का कवि अपनी कलम की पक्षधरता जिस ओर रखता है, उसे आज याद किया जाना चाहिए। इसलिए भवानी प्रसाद की कविताओं का यह संग्रह ‘त्रिकाल संध्या’ पर बात की जानी चाहिए, क्योंकि इसकी उम्र भी आपातकाल जितनी हो चुकी है, और आज भी उतना ही प्रासंगिक भी है। वह इसलिए भी, क्योंकि इसमें सच्चाई है।
देश में इमरजेंसी के दौरान कलमप्रेमियों को जिस तरह से डरा-धमका कर चुप करा दिया गया था, वजह वही इमरजेंसी का अनकहा सेंसरशिप। चोरी-छिपे अंडरग्राउंड पत्रों और परचों में कुछ बहुत छप रहा था। बड़े अखबारों और पत्रिकाओं की बहुत हिम्मत नहीं थी कि वे बगैर किसी सेंसर के कुछ भी छापकर संकट मोल ले सके। भावानी प्रसाद मिश्र लिखते हैं- ‘किस किस महारथी का नाम लूं। साधारण साधारण कविताएं नहीं छापी, यांे तो मांग-मांगकर छापते थे। तो कविताएं ‘भूमिगत’ पत्रकों में छपने लगीं-नाम देने पर मेरा आग्रह रहता था। और उजागर छपीं अहमदाबाद के गुजराती पत्र ‘भूमिपुत्र’ में। इस पत्र ने इन कविताओं और अपने संपादकीय आदि के कारण कष्ट भी भरपूर भोगा। हमारे हिंदी पत्र तब भी मलाई खाते रहे और अब भी खाने में होड़ लगा रखी है।’
इमरजेंसी में जयप्रकाश नारायण सरीखे नेताओं को बंदी बना दिया गया और उनकी खबर न मिल पाने से कवि सहित जनता काफी संशय में थी। उनकी किसी भी प्रकार की खबर न अखबारों से मिल पा रही है और न उनसे मिलकर जाने वालों से कुछ पता लग पा रहा है। जयप्रकाश नारायण को लेकर भवानी प्रसाद जी के मन में जैसे विचार आ-जा रहे थे, उन सबके बारे में ‘तुम भीतर बंद हो और हम बाहर’ कविता में काफी विस्तार से लिखा है। ‘त्रिकाल संध्या’ संग्रह में यह कविता भी लगभग 350 लाइनों में दर्ज है। यह कविता 25 जुलाई को लिखनी शुरू हुई और पूरी हुई 28 जुलाई, 1975 तक। अब तक इमरजेंसी का एक महीना पूरा हो चुका था।
यहां इस कविता का जिक्र जरूरी है, क्योंकि इस लंबी एक कविता के माध्यम से आसानी से एक महीने में ही देश के इमरजेंसी के हालात को समझा जा सकता है। बहुत ही बारीकी से डायरीनुमा अंदाज में बातें दर्ज हुई हैं। दिन-ब-दिन क्या घट रहा था, कैसे हो रहा था, इसे एक मात्र कविता के माध्यम से जाना जा सकता है, कि अभिव्यक्ति का गला कैसे पकड़ा गया था। यहां कविता के कुछ अंश इस प्रकार हैं- तुम बंद हो हम बाहर हैं, तुम हमारी बात घुमा रहे हो मन में, और हम सोचते हैं, क्या जाने कैसे हो तुम भीतर.... अखबार तो तुम्हारा नाम तक, नहीं छापते, तुम्हारी खबरें कैसे छापेंगे, फिर आदमी एक जगह, चार से ज्यादा इकट्ठा नहीं किए जा सकते....भीष्मों ने चुप्पी साध ली है, द्रोणों ने सिर झुका लिया है, कृपाचार्य बीमार हैं, और भी दो चार हैं, जिन्होंने कोशिश की थी, कहने की, मगर वे जहां जिस आसन पर बैठे हैं, वहां बैठे रहने की जरूरत, उन्हें हर सत्य से बड़ी लग रही है, छिन जाएगी सच कहने से वह गादी....वैसे नयी बात नहीं थी, संघर्षों में पक्ष कई बार बदल लेते हैं लोग, मगर यहां उससे कुछ अधिक हुआ, एक शब्द का सहारा, तुम्हें बंद कर रखने का तर्क बन गया....आज नहीं तो कल सारी दुनिया के लोग, उन्हें उनके सही रूप में देखेंगे, वे उन्हें किन्हीं सिद्धांतों की नहीं, उनकी काली करतूतों की धूप में देखेंगे... और खबरें क्या कहंे, खबरें तो आती नहीं हैं अफवाहें आती हैं, .....देश अफवाहों के बीच जी रहा है....पुराने शाह थे सुल्तान थे, अब राष्ट्रपति हैं प्रधानमंत्री हैं, धर्म को रखकर ताक पर घंटा झालर बजा दो... तमगों की तरह लटकाए फिरती है वह, अनीति क्रूरता और अत्याचार को, विचार को थमा देती है नारे, फिरते हैं बेचारे विचार, सड़कों पर मारे मारे नारों को धरे ओंठ पर।