प्रत्येक शनिवार
हमारा शनिचर उतारने के लिए
मिल जायेगे, हर चौराहे और
रेड लाइट पर
अबोध, बुझे से, गंदे -फटे कपड़े में
बहुत से बचपन।
एक लोटे में
एक लोहे की मूर्ति ,
और थोड़े से कडुवे तेल के साथ
घूमते यह नन्हें
शनिचर हरता !
दीदी, भैया, आंटी कह कर
प्रगट हो जाते है एक देवता की तरह
और मारे डर के, एक -दो रुपये में
इस तत्काल प्रगट शनि से
पीछा छुडाते हम, एक चौराहे से
दुसरे चौराहे चले जाते।
पर हर चौराहे पर डटे
हे नन्हें शनिचर हरता!
तुम्हारा शनिचर कौन हरेगा?
कब हरेगा?
तुम्हारे लिए हर चौराहे
और रेड लाइट पर
कौन खड़ा होगा?
स्वयं शनि देवता
या खुद तुम!
पर कब???
शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010
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