सोमवार, 23 सितंबर 2013

हम कितने धर्मिक है!

आईटीओ के पुल से
गुजरते हुए देखा मैंने
एक आदमी को।

हाथ में दो थैले
तैयार था पुल से नीचे
यमुना नदी में फेंकने को
उस ‘पवित्र कूड़े’ को
जिसे अपने घर में
अपनी धर्मिक मान्यताएं
निभाने के बाद
झाड़-पोछकर
पानी में विर्सजन हेतु
तत्पर था पूरी धर्मनिष्ठा से
फेकने के लिए इस
पुल से।

000

सर,र,र
छप्प...छपाक्
नदी में गिरती हैं थैलियां
एक मिनट के
अंतराल में थैलियां
यमुना के दूसरे किनारे
से जा टकराती हैं
मुझे पता नहीं है कि
अभी कितनी और दूर
बहेगा पालीथीन में कैद
यह ‘पवित्र कूड़ा।’

पर सोचती हूं कि
कितना अच्छा होता
अगर उस अमुक ने
आजाद कर दिया होता
इस पैकेजिंग की संस्कृति से
इस कूड़े को,
तो ‘पवित्र कूड़ा’
कैसे हिल-मिलकर
बह रहा होता यमुना में
बगैर किसी संघर्ष के
और विलीन हो जाता
यमुना के संघर्षशील जल में
जैसे सदियों से
यमुना में विलीन होती आ रही थी
हमारी सभ्यताओं की मलिनताएं।

000

हां, अब तक
आप सही सोच रहे होगे कि
दिल्ली में यमुना साफ-सुथरी
थोड़े ही बह रही है?
इसमें मिली हैं कई किस्म की गंदगियां
तो फर?

क्या हुआ जो डाल दिया
इतना सा
‘पवित्र कूड़ा’?

शायद
कुछ नहीं
पर थोड़ा थोड़ा करके ही तो
बहुत कुछ हुआ है!
इससे तो आप सहमत होंगे ही।

000

एक चिंता है मेरी
पर पता नहीं
कितनी जायज है?
अभी गणेश उत्सव बीता है
नव दुर्गा आने वाली है
इन सभी पवित्र मूर्तियों का
जल प्रवाह, जल विसर्जन
इसी यमुना में तो किया जाएगा!
और हां, ‘छठ’ भी तो है ?

सच में
हम कितने धर्मिक है!!!


यमुना के किनारे नावों का रंगीन नजारा (वृन्दावन, मथुरा )

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

एक शाश्वत युद्ध

इन दस महीनों मेँ
कभी भी मैंने
तुम्हारा वास्तविक नाम जानने की
कोशिश नहीं की
तुम कहाँ की रहने वाली हो
इसमे भी मेरी कोई दिलचस्पी नहीं बनी
तुम्हारे भाई बहन कितने है ?
यह भी जानने की इच्छा
कभी नहीं पनपी
मन मेँ अगर कोई इच्छा थी
तो, बस यही
कि इंसाफ हो
तुम्हें इंसाफ मिले,
भरपूर इंसाफ
उस अन्याय के खिलाफ
जिसके विरुद्ध तुम
छेड़ कर गई हो
एक शाश्वत युद्ध
इस युद्ध को जिलाए
रखना है हमें
तुम्हारे जाने के बाद
अलाव मे एक चिंगारी
दबाये रखना है
किसी दामनी, निर्भया
या ज्योति के लिए!!

(13 सितंबर को रेयरेस्ट आफ द रेयर केस पर फैसला आने के बाद...)

शनिवार, 7 सितंबर 2013

ओस की बूंद

‘रात’ कभी भी
एक क्षण को भी
दम नहीं मारती।
जबकि सभी
उसकी गोद में
अपनी थकान लेकर
समा जाते है
बेसुध बेखबर।
और 'रात'....
पूरी रात मुस्तैदी से पहरा
बिठाए रखती है
इस कायनात में
कि कहीं
किसी के सपने में
खलल न पड़ जाए!

0000
सारी रात
सभी को
मीठे सपने
बुनने देने का
परिणाम होता हैं
सुबह घास के
तिनकों पर
बिखरी...
निर्मल, ठंडी
ओस की बूंदें
जैसे कोई किसान
अभी अभी
पसीना बहाकर
लौटा हो
खेत से।
मेरे गाँव 'पतरसा ' मे एक धूधली  शाम का चित्र 

रविवार, 1 सितंबर 2013

छज्जे जितनी जगह

घर पर
अपने छज्जे पर
आती थोड़ी सी
गुनगुनी धूप,
बादल की छांव,
बारिस की फुहार
बचाए रखना
चाहती हूँ
उन धूधली, विसूरती
खाली शामों
के लिए
रूखे पलों मे जब
मेरी आँखों में
नमी नहीं
बची रह सकेगी
तब बारिस की
इन फुहारों की तरह
बरस जाएगी आँखें मेरी
लौट आएगी
जिंदगी की नमी
इस खुशी के अंकुरण
के लिए
काफी होगी
मेरे छज्जे पर आती
गुनगुनी धूप
जिसकी गर्माहट में
अंकुर बनेगा वृक्ष
खुशी का एक
छायादार वृक्ष
इसकी बादलों जैसी
पारदर्शी छांव में
इस महानगर में
अपने लिए
एक छज्जे जितनी
जगह की
कल्पना में
इक पल के लिए
ऊंघ जाऊगी।