गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

किसी सैंटा का इंतजार नहीं है इन्हें!!

आज 25 दिसबंर को
दिल्ली के सबसे षानदार चर्च के सामने
घूम रहे है छोटे-छोटे ईसा मसीह
किसी सैंटा की खोज में नहीं
ग्राहको की खोज में....
...सैंटा की टोपी बेच रहे हैं वे
मखमली सुर्ख लाल गोल टोपी
बिलकुल उनके चेहरों की तरह
दीदी, भैया, आंटी-अंकल
सबसे इसरार कर रहे हैं
हाथ में पकड़ी हुई टोपियों को
दिखा रहे हैं-
हमारी आंखों से आखें मिला रहे हैं
ताकि हम जान सके कि क्यूं खरीदनी है हमें
वे टोपियां...!

000       000      000

पर वे नहीं जानते
इतनी सर्दी में
वे क्यूं बेच रहे हैं
सैंटा की टोपियां
कौन है सैंटा?
इन्होंने वह कहानी भी नहीं सुनी
जिसमें रात को चुपके से
उनके मोजों में छुपा जाता है कोई उपहार
उनके लिए सैंटा तो बस यही टोपियां हैं
जो रात को
भर सकेगा उनका पेट!




शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

स्त्री का कोई देश नहीं होता!!

‘अपने देश बंग्लादेश  में, मेरे अपने पश्चिम बंगाल में, मैं एक निषिद्ध नाम हूं, एक विधि बहिष्कृत औरत, एक वर्जित किताब!’ इस एक वाक्य में लेखिका ने अपना दर्द बयां कर दिया है। एक स्वीकृत हार से उपजी हताशा  की बेकायली में उनके अंर्तमन से भारत देष के बारे में यह जो शब्द निकलते हैं वह एक सहिष्णु देश की धरती के कई परतो को उघारने का मद्दा रखता है। जब वह कहती है कि दुःस्वप्न में भी मुझे ऐसा कभी भी नहीं लगा था कि भारत में भी मुझे बांग्लादेष के जैसा ही भुगतना होगा। ‘बांग्लादेष के जैसा’ क्या यह साधारण वाक्य है? किस आषा से वह भारत में आईं, क्या सोच-समझकर उन्होंने इस देश पर विश्वास किया था? और इसे अपना निवास बनाया, ‘घर’ बनाने के सपने बुने। किस कारण? क्या गलती थी तसलीमा नसरीन की? कि उन्होंने सच बोला और लिखा। कट्टरपंथियों के आगे नहीं झुकी। जिसका परिणाम हुआ दंडस्वरूप ‘निर्वासन।’
इस भारत वर्ष ने, यहां की सभ्यता ने, इस इक्कीसवीं शताब्दी ने, एक लेखक को ग्रहण किया था, और क्षण भर मेें ही उसे वर्जित कर दिया, इस देष के बचकाने धर्म और निष्ठुर राजीनति ने। इस कारण से वे हमारे लोकतंत्र पर ही सवाल उठा देती है- मैं जानती हूं लोगों ने मुझे निर्वासन का दंड नहीं दिया है। यदि लोगों की राय ली जाती, तो अधिकांष लोग ही चाहते कि मैं बंगाल में ही रहूं, पर क्या लोगों की राय पर लोकतंत्र चलता है। लोकतंत्र चलाते शासक लोग, अपनी सुविधा के हिसाब से।
तसलीमा नसरीन की आत्मकथा ‘निर्वासन’ एक सच बोलने वाली स्त्री का दिल दहला देने वाला दस्तावेज है जिसमें वह अपने घर बंग्लादेश, फिर कोलकाता में षरणागत और बाद में मौलवादियों के दबाव के चलते कोलकाता समेत भारत से ही जबरन निवार्सित कर दिए जाने का दुखद वर्णन है। इस दौरान लेखिका ने अपने मन-दर्पण के दर्द, घुटन और संघर्ष को शब्दों के मार्फत चित्रित कर हमारे समक्ष रखा हंै। अपनी अभिव्यक्ति के प्रति स्वतंत्रता हासिल करने के मार्ग में उनसे  धर्म, राजनीति और साहित्य की दुनिया से जुड़े लोग टकराते है। लेखिका एक चेहरे में कई चेहरों को देखकर चकित रह जाती है। इस किताब में लेखिका ने ऐसे चेहरों से नकाब खीच लिया है। और पाठक यह सब देखकर किंकरबिमूढ है। सच के विरोध में धर्म, राजनीति और साहित्य की दुनिया की गजब की लामबंदी और जुगलबंदी के लिए ‘निर्वासन’ को जरूर पढ़ना चाहिए। यह किताब आपके कई भ्रमों को तहस-नहस करने का दम रखती है।
़किताब में उस समय की चर्चा है जब पष्चिम बंगाल सरकार ‘द्विखंडितो’ पर प्रतिबंध लगा देती है। इस किताब में ऐसे कई लेखकों के चेहरों से नकाब उतरती है जिनके लिखने और व्यवहार करने का अलग-अलग मापदंड होते है। सैयद षम्सुल हक, हुमायंू आजाद, नीमा हक, आजिजुल हक, षीर्षेंन्दु मुखोपाध्याय सभी के सुर बदल जाते है,  सुबोध सरकार ने तो द्विखंडितो को ‘सेक्स बम’ की संज्ञा दे देते है। जो कभी तारीफ करते थे-असद चैधरी, गौतम घोष भी। ‘लेखक किताब बैन कर रहे है, लेखक ही लेखक के विरूद्ध मामला कर रहे है।’ किताब विरोध के इस पूरे अभियान के संचालक सुप्रसिद्ध बंगाली लेखक सुनील गंगोपाध्याय से लेखिका प्रष्न करती है कि उनको लेकर ऐसी कोई बात नहीं लिखी गयी है किताब में, तो वे क्यों इतना नाराज है। ‘षायद इस डर से कि कहीं अपनी अगली किताबों में जिक्र न कर दूं।’ कामोवेष कई नारीवादी लेखिकाओं का भी दो-मुहा रवैया सामने आता है। सलमान रूष्दी के बारे में एक खुलासा काफी रोचक है। लेखिका से संबंधित विवाद के कारण उनकी प्रसिद्धि को भुनाने वाले प्रकाषक के भी एक दो प्रसंग है।
बांग्लादेष में लेखिका की लज्जा सहित पांच किताबें प्रतिबंधित है और भारत में एक हुई थी-द्विखंडितो। पर गौर करने लायक यह बात है कि दोनों देषों ने किताबों को प्रतिबंधित करने का का ही कारण ‘धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना’ बताया। लेखिका ने इस्लाम में सुधार के प्रश्न साहस से उठाया था। न केवल इस्लाम में स्त्रियों और गैर-मुस्लिमों की स्थिति, बल्कि मत-स्वतंत्रता और खुले विमर्श की कमी का प्रश्न भी। तसलीमा ने कुरान में पूर्ण सुधार की बात कही। यही कहने पर उलेमा ने मौत का फतवा जारी कर दिया। और इसे नाम दिया गया ‘धार्मिक भावानाओं को ठेस पहुंचाना।’ देष में लेखिका द्विखंडितो से अपने तीन पेज वापस ले लेती है। तब भी कट्टरपंथियों का रोष कम नहीं होता है। वजह ‘सच कहने के जुर्म में मुझे कितनी और सजा देगे धर्मवादी और धर्म का व्यवहार कर वोट चाहने वाले राजनेता?’ कट्टरपंथ्यिों के हाथ का खिलौना बनी भारतीय राजनीति ‘तुम जबान दो कि तुम भारत में नहीं रहोगी, तभी तुम्हें भारत में रहने का वीजा देंगे’ षर्त रख देती है। अपनी चिंगारियों से भरी रचनाओं की वजह से तसलीमा नसरीन को स्वदेष एवं दूसरे मुस्लिम देषों में मौलवादियों के हमलों का सामना करना पडत़ा है, परन्तु दुनिया के एक धर्मनिरपेक्ष बहु-संस्कृतिवादी, एक बड़े लोकतांत्रिक देष भारत में उनके लिए इस अनुभव का स्वाद निष्चित ही बहुत तरहों से अलग था।
व्यक्ति को अगर तोड़ना हो तो उसे तन्हाई की सजा सुना देा। अंग्रेजी राज के समय भारतीयों के लिए कालापानी की सजा एक ऐसी ही सजा थी। तसलीमा को भी तोड़ने के लिए नजरबंद कर दिया गया, किसी से मिलने नहीं दिया जाता था। किससे मिलना है, क्यूं मिलना है? ‘खिड़की की दराजों से बादल और धूप’ देख कर ‘मनुष्य विहीन’ जीवन गुजारना पड़ेगा। ‘मिथ्या बोलने से तुम्हें निर्वासन से मुक्ति मिलेगी, तुम्हें देष मिलेगा, बहुत से दोस्त मिलेंगे, हाथ-पैरों की जंजीरें खोल दी जाएगी, तुम रोषनी और आकाष देख सकोगी।’ हैदराबाद में एक साहित्यिक कार्यक्रम के दौरान लेखिका पर हमला होता है। इसी क्षण से सुरक्षा के नाम पर ‘चार महीने गृहबंदी कलकत्ता में। तीन महीने से दिल्ली में।’ दिल्ली में-तीन महीनों से मुझे अज्ञातवास में रखा गया है। मेरी इच्छा के मुताबिक, मुझे कहीं, किसी के साथ मिलने नहीं दिया गया। क्या कारण है इसका? एक ही कारण है इसका? ...मुझे समझाना कि हम तुम्हें नहीं चाहते हैं। इंसान समाज के बिना कैसे जिन्दा रह सकता है।....कैसे जिन्दा रह सकता है आजादी के बगैर, कितने दिन! एक न एक दिन तो मै परेषान हो ही जाउंगी।...एक न एक दिन बोलंूगी ही अब और नहीं सह पा रही हूं। ‘सरकारी हिफाजत में कैसा रहा जा सकता है? जितने दिन वैसे हिफाजत में रहने का अनुभव न हो, समझा नहीं जा सकता है। सरकार जब किसी को सीमा पार कराने के उद्देष्य से हिफाजत में रखती है, तो वह हिफाजत बहुत भयंकर होती है।’ यूरोप में बारह बरस बिताने के बाद भी उसे अपना देष नहीं मान पायी। भारत में एक साल भी नहीं काटना पड़ा, इसे अपना देष मानने के लिए। ‘मैं अपना फैसला सुना देती हूं कि मैं भारत छोड़ूंगी।’
तसलीमा ने अपने उपन्यास ‘लज्जा’ में बंगलादेश में हिन्दुओं की दुर्दशा का बेबाक चित्रण किया है। इसी पाप के लिए भारत का हिन्दू सेक्यूलर-वामपंथी उन्हें क्षमा नहीं कर सका! वह आतंकवादी मुहम्मद अफजल, कसाब और इशरत जहाँ के पक्ष में खड़ा हो सकता है, किंतु तसलीमा नसरीन के पक्ष में हरगिज नहीं। क्योंकि तसलीमा ने हमारे उदारवादियों के शुतुरमुर्गी पाखंड को उघाड़ कर रख दिया, इसीलिए वे उस से रुष्ट हैं। क्योंकि उत्पीडि़त हिन्दुओं के लिए बोलना सो-काल्ड सेक्यूलर-वामपंथी-उदारवादियों में निषिद्ध है। तसलीमा मानवतावादी रही हैं, केवल आत्म-प्रचार चाहने वाली ‘मानवाधिकारवादी’ नहीं। उन्होंने अपने विचारों और सत्यनिष्ठा के लिए कष्ट सहा और आज भी उस का परिणाम भुगत रही हैं। कोई उनसे चाहे कितनी घृणा करे, उनका चाहे जितना बहिष्कार किया जाये पर उनका कहना है कि ‘मैं इसी तरह हूं और यही रास्ता चुना है मैंने।’

किताब-निर्वासन/लेखिका-तसलीमा नसरीन/प्रकाषन-वाणी प्रकाषन/पृष्ठ संख्या-256/मूल्य-200










शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

जीवन में सपने!

बगैर 
सपनों की नींद नहीं होती, 
बगैर नींद के 
सपने नहीं होते। 
कोई कितना भी दावा करे, 
कि उसकी  नींद में
सपने नहीं होते। 
अगर नींद है तो 
सपने भी निहित है। 
..........................................
यह इसी तरह
सच है 
जैसे  
जीवन है,
तो सपने है,
सपने है 
तो जीवन है।। 

शनिवार, 13 सितंबर 2014

श्राद्ध से अधिक श्रद्धा की जरूरत

हाल ही में मेरी एक परिचिता अपने लिए कुछ नये कपड़े खरीद कर ले आयी। शाम को जब उसके पति ने कपड़े देखे तो उसकी डांट लगा दी। कारण था कि पितृपक्ष आरम्भ हो चुके है अतः खरीदारी नहीं करनी चाहिए। अब चूकिं कपड़े खरीदकर आ चुके थे और जरूरी भी था इसलिए इस समस्या का हल निकाला गया कि रस्मीतौर पर किसी दूसरे व्यक्ति कपड़े पहनाकर पुराना मानकर हम इस्तेमाल करे। इससे पितृपक्ष  दोष  नहीं लगेगा। तो इस तरह उक्त  ‘कठोर नियम’ का हल बड़ी चतुराई से सरलीकरण कर दिया गया। जब मैंने यह पूरा वाकया सुना तो अनायास ओठो पर मुस्कान तैर गई। लगा कि अगर उनके पुरखों ने किंचित यह सब  देख लिया तो उन पर क्या बीतेगी यह तो किसी गया के पंडे से जाकर पूछना पड़ेगा।
शास्त्रो के अनुसार पितरों का प्रतिनिधित्व करने वाले तीन जीव माने जाते है-कौआ, श्वान और गाय। मान्यता है कि अपने भोजन को तीन हिस्सो में बाटकर इन तीनों को भोजन दान किया जाए। यह हमारे पितरों का प्रतिनिधित्व करते है। भौतिक विलासता से दूर रहकर सात्विक दिनचर्या का पालन करना आवश्यक है। इन  दिनों सभीे समाचार पत्रों के धर्मिक पृश्ठ पर किसी न
किसी रूप में पाठकों को पितृपक्ष में अचार-व्यवहार के बारे में बाताया जा रहा है। इन कर्मकाण्डों के बीच फंसे व्यक्ति खासकर युवा असहज महसूस करते है। पर उन्हें यह सब मानने और पालन करने के लिए बाध्य किया जाता  है।
दूसरी तरफ इन अनुष्ठान के इतर जब हम अपने आसपास अपने बुजुर्गो की उपेक्षा होते देखते है। तो लगता है कि इस श्राद्ध  का क्या अर्थ है जब हमें अपने बुजुर्गो के प्रति श्रद्धा ही नहीं है। जबकि देश मे बूढे माता-पिता की जिम्मेदारी अधिक पुख्ता बनाने की कोशिश की जा रही है। बिहार में तो बकायदा कानून बना कर बेटों से माता -पिता की देखभाल कराने के प्रावधान बना दिये गए हैं  जिसके अनुसार जो भी व्यक्त्ति अपने असहाय माता-पिता के  भरण-पोषन  की जिम्मेदारी नहीं उठाएगा उसे जेल की सजा मिल सकती है। भारतीय संस्कृति की श्राद्ध परम्परा से आज हम ‘सजा के प्रावधान’ तक पहुंच चुके है। हम मर चुके पूर्वजों की चिंता करते तो दिख जातेे है पर जो जिंदा है उनकी चिंता गैरजरूरी समझते है। हम अपने इस धार्मिक अनुष्ठान का मर्म नहीं समझते। लकीर के फकीर होकर सब कुछ  मानते चले जाते है। यहीं हमारी समस्या है।
वास्तव में अपने बुर्जुगों का सम्मान हम इस सीमा तक करे कि उनकी मृत्यु के बाद भी हम उनके योगदान के लिए अभार व्यक्त करे। इस बात को न समझकर कर्मकाण्डों को पूरा करके अपनी इतिश्री समझ लेते है। जबकि श्राद्ध से अधिक उन्हें हमारी श्रद्धा की जरूरत है।

शनिवार, 6 सितंबर 2014

कार्टून की दुनिया और बच्चे

एक कॉमिक्स पात्र 'नागराज' का मॉडल रूप  
कंप्यूटर युग में बच्चों से किताबें पढने की उम्मीद कोई नहीं करता है। सभी यह शिकायत करते हुए मिल जाते है कि बच्चे किताबें नहीं पढ़ते हैं। बच्चों में किताबें पढ़ने की रूचि नहीं हैं पर मुझे लगता है कि हम लोग ही बच्चों को किताबों तक नहीं पहुंचने देते है। इस बार दिल्ली पुस्तक मेला में राजा पाॅकेट बुक और डायमंड काॅमिक्स के स्टाॅल लगे थे जिसमें बच्चों की उमड़ी भीड़ देखकर नहीं कहा जा सकता कि कार्टून चैनल आ जाने के बाद बच्चे कॉमिक्स पढ़ना नहीं चाहते है, वह भी दिल्ली जैसे महानगर के बच्चे। ‘काॅमिक्स मंहगी है’ कह कर कई माता-पिता बच्चों को दूसरी चीजें खरीदवाने को उत्सुक थे। जबकि डायमंड वाले पचास प्रतिशत छूट पर काॅमिक्स बेच रहे थे। मुझे याद है कि मेरे मम्मी-पापा कभी काॅमिक्स जैसी मनोरंजक किताबें खरीदने के पक्ष में नहीं होते थे, उन्हें फिजूलखर्ची लगती थी क्योंकि एक बार पढ़ लेने के बाद वह बेकार हो जाती थी। पर किराये पर लाकर पढ़ सकते थे वो भी छुट्टियो के दिनों में। कामोवेश हम सभी के बचपन की यही कहानी हो सकती है। उस समय काॅमिक्स और बाल साहित्य की पत्रिकाएं पढ़कर ही हमारे अंदर पढ़ने की आदत विकसित हुई, इस बात से एकदम इंकार नहीं किया जा सकता है। पुस्तक मेला में यह देखकर अच्छा लगा कि काॅमिक्स जैसी चित्रकथाओं में बच्चों की रूचि बची हुयी है, बस अगर रूचि पैदा करनी है तो वह बड़ों में।








रविवार, 31 अगस्त 2014

सपनों की उड़ान


पिजड़े के अंदर 
कैद थी एक बुलबुल!

उसकी हर फड़फड़ाहट के साथ
उसकी हर बेचैनी के साथ
उसकी हर बेताबी के साथ
उसकी हर कोशिश के बाद
टूट कर रह जाते थे 
उसके मजबूत पर
पिजड़े के अंदर।

पिजड़े के अंदर 
कैद थी एक बुलबुल!

पर 
पिजड़े के अंदर! 
नहीं कैद थी बुलबुल की 
उड़ने की आकांक्षा,
उड़ने के सपने,
उड़ने की तत्परता
उड़ने की कोशिशें ।


टूटें हुए परो के रूप में 
पिजड़े के अंदर से 
उसके उड़ान के सपने
उड़ रहें थे हवा के साथ
दूर बहुत दूर तक।

कैद थी एक बुलबुल
पिजड़े के अंदर।
कबूतर पालने वाले कबूतर के पर क़तर देते है ताकि वे उड़ न सके। ऐसा ही एक कबूतर हमारी छत पर आया। 

रविवार, 3 अगस्त 2014

थैंक्स दोस्त!!

एक दिन
उदासी
बिन बुलाए
मेहमान की तरह आ धमकती है।
एक मुस्कान के साथ
‘हैलो‘ बोल
बगल में बैठ जाती है
हम डरते हैं, आंख चुराते हैं
वह हमारा हाल-चाल पूछती है।

औपचारिकतावश
हम भी
चाय-पानी पूछ ही लेते है।
वह बेशर्म की तरह
घुल-मिल कर बात
करती जाती है...
करती ही जाती है...।

पता नहीं उसे
इतना कुछ कैसे
मालूम होता है हमारे बारे में
पर उसे मालूम होता है सब कुछ
हमारा तिनका तिनका
जर्रा जर्रा...
उसकी सौबत में
कुछ ही देर में
हमारी सांसें
जोर से चलने लगती है
सीने पर पत्थर पड़ने लगते है
दम फूलने के साथ
सांसें छूटती-सी मालूम पड़ती हैं।

तभी
मोबाइल बज उठता है
स्क्रीन पर नाम चमकता है ‘दोस्त’
अरे, कितने दिनों बाद याद किया कमबख्ता ने!
एक मद्धिम सी मुस्कुराहट के साथ
उससे शुरू हुई बातें
ठहाको में बदलने लगती है
इधर पहलू में बैठी उदासी
बोर होने लगती है।

अब
उदासी
चुपके से
बगैर दरवाजा खोले ही
दरवाजे के नीचे से निकलने की
कोशिश में है।
मुझे विदा करने उसे
दरवाजे तक नहीं जाना पड़ा।

चंद लम्हों बाद
वह दूर जाती दिखती है।
थैंक्स दोस्त!!

सॉरी दोस्त!
दोस्ती में
थैंक्स-सॉरी
नहीं होता।

शनिवार, 26 जुलाई 2014

एक 'बीमार' से मिलते हुए!!!

वह बहुत बीमार चल रही हैं
हालत काफी गंभीर हैं!
उन्होंने बताया था-
तुम बात कर लेना,
तुम्हें याद करती हैं।

शब्दों के चुनाव मे फंसी मैं
कैसे करूंगी अपनी भावनाओं को व्यक्त!!

मोबाइल पर उनका नंबर डायल करने से पहले
बहुत से शब्दों को  मन ही मन
रटकर मैंने कहा-हैलो!

एक खनकती सी आवाज कानों में  घुल गई
वे ऐसे चहकी मानो पिजड़े में कैद चिड़िया
किसी को देख कर चहकती है -

कैसी हो? पूछती है वे
प्रत्युत्तर में मैंने पूछा-
पहले आप बताइये कैसी हैं?

शब्दों का इशारा शायद समझ गई।
तुरंत ही बोल पड़ी-
पता है तुम्हें, मुझे यहां
डाक्टरों ने बांध् रखा है,
कुछ नहीं हुआ है मुझे।
वे ऐसे बोली गर....
एक बच्चा शिकायत कर रहा हो!

अब तक की गई बातों में मेरी उनसे
तीसरी बातचीत थी यह,
पर ....बन गई थी एक लंबी बातचीतनुमा 'मुलाकात।'
इस बातचीत में
उन्होंने दे दिया मुंबई आने का निमंत्रण,
हाथ का बना खााना खाने का 'लजीज' प्रस्ताव भी,
पता नहीं और क्या -क्या
उनका उत्साह देखकर मैं भूल गई
वह सारे शब्द जो एक बीमार का
हालचाल लेते समय कहे
और सुने जाते है।

मैं सुने जा रही थी उनकी हंसी
बस प्यारी हंसी
और मधुर आवाज।

क्या मैं बीमार महिला से बात कर रही थी?

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

दुुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं!

उनकी  गजलें और हमारे जज्बात आपस में बातें करते हैं। इतनी नजदीकियां  शायद हम किसी से ख्वाबों में सोचा करते हैं। उनकी मखमली आवाज के दरमियां जब अल्फाज मौसिकी का दामन पकड़ती है, तब हम खुदाओं की जन्नतों से बड़ी जन्नत की सैर करते हैं। हम बात कर रहे है महरूम पर हमारे दिलों मे जिंदा मेहदी हसन साहब की।
फोटो गूगल के सहयोग से 
बुलबुल ने गुल से, गुल ने बहारों से कह दिया, एक चौदहवीं के चांद ने तारों से कह दिया, दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं, एक दिलरुबा है दिल में तो हूरों से कम नहीं।’ उनके गले से निकले यह शब्द हर प्यार करने वाले की आवाज बन जाते हैं। प्यार की दुनियां शायद यही हुआ करती है-रफ़्ता-रफ़्ता वो मेरी हस्ती का समां हो गये...। किसी से अपनी मन की बात कहनी हो तो बड़ी मुश्किल होती है... उफ! कैसे?...बात करनी मुझे, मुष्किल कभी ऐसे तो न थे-...। मिलना है तो बिछुड़ना भी कहीं न कही है- अब के हम बिछडे़, तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें। महबूब से इल्तजा करने मेँ भी उनका जवाब नही...एक बार चले आओ, फिर आकर चले जाना, सूरत तो दिखा जाओ, तुझे मेरे गीतों का संगीत बुलाता है...। उनके  गीत-संगीत की तासीर से कोई अंजान नहीं। प्रेमियों की तड़प् की बात करें तो ...रंजिश  ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ जा। या फिर... हमको गम नहीं था, गमे आशिकी से पहले...। प्यार की इंतहां भी देख सकते है... मैं रोज कहता हूं कि भूल जाऊ तुझे, रोज यह बात भूल जाता हूं...। फिर भी कहता हूं कि मुझे तुम नजर से गिरा तो रहे हो, मुझे तुम कभी भी भुला न सकोगे...।
'और भी गम है' की तर्ज पर कहे तो मेहदी साहब की गजलों में दुनियावी सच्चाई को उसी खूबी से कहते रहे और हम सुनते हैं-शिकवा न कर गिला न कर, ये दुनिया है प्यारे, यहां गम के मारे तड़पते रहे, यहां तेरे अशकों की कीमत नहीं है... रहम करना दुनिया की आदत नहीं है। किसी ने नहीं देखा, यहां खून के आंसू ढलकते रहे। यहां का दस्तूर  है खामोश रहना, जो गुजरी है वह किसी से न कहना...
शिकवा न कर गिला न कर...।
उनकी गजलों ने जैसे लोगों के अंदर का खालीपन पहचान कर बड़ी खूबी से उस खालीपन को भर दिया- न किसी की आंख का नूर हूं, न किसी के दिल का करार हूं। जो किसी की काम न आ सके, मैं वो एक मुस्ते-गुब्बार हूं...। कहते कहते एक बड़ी बात कह जाते हैं- तन्हा तन्हा मत सोचाकर, मर जावेगा...मर जावेगा मत सोचाकर...। चलो हम नहीं सोचते है हसन साहब! जीने के लिए आप को तो सुन सकते है न!!

रविवार, 13 जुलाई 2014

जिंदगी में कविता

जिंदगी के हर बिखरे हर्फ को सजाती हूँ
दरख्तों के बीच से आती धूप को सम्हालती हूँ
दरवाजें की ओट से रास्ता निहारती हूँ
आँखों में आये खारे पानी को छुपाती हूँ मैं !!



गुरुवार, 3 जुलाई 2014

सामाजिक संघर्ष के 'करोड़पति'

'किसी से भीख मत मांगो, सरकार से भी नहीं मांगो। नौकरी क्यों करना चाहते हो, अपना काम करो। अपने शहर में तुम्हें दिक्कत आ सकती है क्योंकि सब तुम्हें जानते हैं। दूसरे एरिया में काम करो। वहां तुम्हारी जाति कोई नहीं जानता।’ यह बातें सविताबेन कोलसावाला या कोयलावाली के नाम से गुजरात में मशहूर सविताबेन देवजीभाई परमार ने कही। घर-घर कोयला बेचने से शुरूआत करने वाली सविताबेन आज कोयला नहीं बेचती है, उनकी कंपनी स्टर्लिग सेरेमिक प्राइवेट लिमिटेड अहमदाबाद के पास घरों के फर्श पर लगने वाली टाइल्स बनाती है। इस कंपनी की सलाना टर्न ओवर 50 करोड़ रू तक है। सविताबेन के पति अहमदाबाद म्युनिसिपल टांसपोर्ट सर्विस में कंडक्टर की नौकरी से इतना नहीं कमा पाते थे कि उनके संयुक्त परिवार का भरण पोषण हो सके। इसलिए सविताबेन ने परिवार की मदद के वास्ते कुछ करने की सोची। ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी इसलिए नौकरी नहीं मिल सकी। तब उन्होंने खुद का काम करने की सोची। उनके माता-पिता कोयला बेचने का धंधा करते थे इसलिए उन्होंने काले कोयले से ही अपनी किस्मत चमकाने की सोची। सविताबेन कहती है कि उन्हें दोहरी मुश्किल का सामना करना पड़ा। वे महिला थी और दलित भी। दलित होने के कारण व्यापारी उनसे कारोबार नहीं करते थे। सविता बेन के बारे में कोयला व्यापारियों की राय थी कि ये दलित महिला है, कल को माल लेकर भाग गई तो हम क्या करेंगे? जीवन का यही कटु अनुभव करोड़ों का कारोबार करने वाली सबिताबेन अपने दलित साथियों को सीख देती है कि कारोबार करे, पर अपने शहर में नहीं जहां आप को लोग जानते है।
सविताबेन की यह कहानी मिलिंद खांडेकर द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘दलित करोड़पति, 15 प्रेरणादायक कहानियां’ में बड़े विस्तार से दी गई है। जब इसके शीर्षक ‘दलित करोड़पति’ पर निगाह गई तो प्रश्न उठा कि ‘दलित करोड़पति’ इसका शीर्षक लेखक ने क्यों रखा। एकबारगी लगा कि पाठकों का ध्यान खींचने के लिए किया होगा। पर जैसे जैसे किताब पढ़ती गई और दलित उद्यमियों की कहानी से दो-चार होती गई तब समझ में आया कि उन उद्यमियों का संघर्ष  केवल सिफर से शिखर तक नहीं जैसा हम टाटा, बिड़ला या अंबानियों के बारे सुनते और पढ़ते आये है बल्कि इससे भी कहीं ज्यादा उनका सामाजिक संघर्ष  था। जिसको इन उद्यमियों ने पग-पग पर झेला है। इसके लिए हमें लेखक मिलिंद खांडेकर का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने अपने समाज से ऐसे हुनरमंद साहसिक लोगों का परिचय हमसे कराया।
लेखक  ने रोड़ से करोड़ तक के सफर की दलित कहानी इकोनाॅमी के हर सेक्टर से बताई है। कल्पना सरोज ने बंद पड़ी मुंबई की कमानी ट्यूब्स को मुनाफे में ला दिया। वहीं अषोक खाड़े की कंपनी दास आॅफशोर बाॅम्बे हाई में तेल निकालने वाले कुएं के प्लेटफार्म बनाती है। तो आगरा के हरी किशन पिप्पल अस्पताल चलाते है, वहीं देवकीनंदन सोन का आगरा में ताज महल के पास होटल है। भावनगर के देवजीभाई मकवाना फलामेंट यार्न बनाते हैं। लुधियाना  के मलकित चंद टी-सर्ट बनाते है। आगरा के हर्ष भास्कर के कोटा ट्यूटोरियल्स में पढ़कर पिछले दस साल में कुछ सौ बच्चे आईआईटी में पहुंच गए हैं तो जापान में अतुल पासवान की इंडो सकूरा साॅफ्टवेर बना रही है, जबकि साॅफ्टवेयर के क्षेत्रा पर हमेशा ब्राह्मणों का कब्जा रहा है।
बिजनेस को दलित के नजरिये से देखने के बारे में लेखक कहते है कि बिजनेस की कोई जाति नहीं होती, लेकिन आप दलित है तो मुकाबला सिर्फ बाजार में ही नहीं होता, आपको समाज के भेदभाव का सामना भी करना पड़ता है। दलित कारोबारियों को जोड़ने वाली संस्था दलित चेंबर आॅफ काॅमर्स का अनुमान है कि देश में दलित बिजनेसमैन सरकार को 1700 करोड़ रू टैक्स चुकाते हैं। इनका कुल टर्न ओवर 20 हजार रू है। ये पांच लाख लोगों को रोजगार देते हैं। दलित बिजनेसमैन कहते है कि ये धरणा गलत है कि हम सिर्फ सरकार से मांगते ही हैं, हम करोड़ टैक्स चुका रहे हैं। हम केवल नौकरी मांग नहीं रहे, अब हम नौकरी दे भी रहे हैं।
1975 में आगरा के हरी किशन ने बैंक से पंद्रह हजार का कर्ज लेकर अपनी मेहनत ने केवल अपनी जिंदगी बदली बल्कि हजारों और की बदल दी। आज उनके पीपुल्स ग्रुप का आगरा में अस्पताल, जूते एक्सपोर्ट करने वाली फैक्टरी, हांेडा की डीलरशिप और एक पब्लिकेशन हाउस है। सालाना कारोबार करीब 90 करोड़ रुपये  का है। जब हरी किशन से लेखक ने यह सवाल किया कि जाति को लेकर आपको कभी कोई कठिनाई आई तो उनका कहना था कि हां, आई थी, अस्पताल का मैनेजमेंट संभाला तो डाॅक्टरों ने काम करने में आनाकानी की। फिर रेलवे में मेरे अस्पताल के खिलाफ झूठी शिकायत की गई। अस्पताल को पैनल से हटा दिया गया।इसमें कथित उची जाति के अधिकारी और आगरा के एक दूसरे अस्पताल की साजिश थी।
समाज में सम्मान पाने के लिए अतुल पासवान डाॅक्टर बनना चाहते थे, पर मेढक न काट पाने के कारण वे डाक्टर नहीं बन सके। पर आज अतुल इंडो-सकूरा साॅफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के प्रेसीडेंट और सीईओ हैं।  जापान में टोक्यो के पास चीबा और भारत में बेंगलुरू में इसके आॅपिफस है। ये कंपनी साॅफ्टवेयर बनाती है। करोड़ों का टर्नओवर है। 2015 तक इंडो सकूरा जापान की 10 बड़ आईटी कंपनियों में पहुंचाने का लक्ष्य है। जाति के कारण अतुल पासवान को अपना बिजनेस खड़ा करने में जापान में तो कोई परेशानी नहीं हुई पर हाल में वे एक घटना का जिक्र करते है कि हम एक बड़ी कंपनी की वेंडर लिस्ट में हैं। पर वहां से काम नहीं मिल रहा था। इसका कारण मुझे समझ में नहीं आया। तब मेरे मित्रा ने मुझे बताया कि तुम्हें जानबूझकर नजरअंदाज किया जा रहा है। पर जाति के कारण बचपन में कई अनुभव है। कथित बड़ी जाति के कुछ बच्चे स्कूल के दिनों में ऐसी फीलिंग रखते थे, आज वे सब गांव में रह गए है।
  कुछ अलग करने की चाहत रखने वाले जेएस फुलिया नौकरी करके ही संतुश्ट नहीं थे। इसलिए उन्हेंाने 2004 में अपना बिजनेस करने की ठानी। जिसका परिणाम है कि आज दिल्ली में उनकी सिग्नेट फंट एक्सप्रेस प्राइवेट लिमिटेड नाम से उनकी कंपनी है। उनकी अपनी कंपनी, जो दुनिया के किसी भी कोने में हवाई जहाज से, पानी के जहाज या सड़क के रास्ते से सामान मंगा सकती है। उनका ज्यादा कारोबार भारत की कंपनयिों के लिए सामान मंगवाने या इंपोर्ट करने का है। फुलिया अपने बारे में एक दिलचस्प किस्सा बयां करते हैं। वे कहते है कि बिजनेस में भी वो दिक्कत आती रही जो जाति को लेकर नौकरी में आती थी। 2006 में दिल्ली के नेहरू प्लेस में एक कंपनी से उनको दस लाख रूपए लेने थे। कंपनी मालिक आनाकानी कर रहा था। सिग्नेटप्रेफट इस कंपनी का काम पूरा कर चुका था फिर भी तीन लाख रू काट लिया, बाकी पैसे भी किस्तों में दिए। मैं जब कंपनी के मालिक से मिलने गया तो उसका पहला सवाल था, ‘तुम्हारी कास्ट कौन-सी है?’ मैंने जवाब दिया ‘चौधरी।’ उसने कहा कि चौधरी तो कोई जाति नहीं होती। फुलिया समझ गए कि इस तरह तो पैसे नहीं निकलने वाले, तो उन्होंने थोड़ी चालाकी से काम लिया। फुलिया ने उसी व्यक्ति से फिर संपर्क किया और काम मांगा और कहा कि जो हो चुका है उसे भूल जाओ, नया काम दो। उनकी चाल कामयाब रही और काम मिल गया। कंपनी का कार्गो कोलकाता पोर्ट पर पहुंच गया। माल सिग्नेटप्रेफट के बिना पोर्ट से बाहर आ नहीं सकता था। फुलिया ने शर्त रख दी कि बाकाया के तीन लाख दे जाओ और माल ले जाओ। कंपनी के मालिक ने पुलिस की  धौंस दी। पर फुलिया नही दबे और उक्त कंपनी से अपना बकाया ले कर ही माने। फुलिया कहते है कि अगर मैं पैसे नहीं वसूल पाता तो हौसला टूट जाता। संविधान में सबको बराबरी का दर्जा मिला है,समाज से भेदभाव को समाप्त करने में वक्त लगेगा। हिंदू धर्म की पारंपरिक वर्ण व्यवस्था में दलितों को पढ़ने-लिखने नहीं दिया जाता था। पढ़ने लिखने का अधिकार ब्राह्मणों को था। आजाद भारत में सबको बराबरी का अधिकार मिला। नतीजा सबके सामने है।
ऐसी बहुत सी कथा-व्यथा इस किताब में लेखक ने बताई है। जिन्हें पढ़ाकर लेखक हमें अपने समाज को आइना दिखाना चाहता है। इस किताब की भूमिका में मिलिंद खंाडेकर लिखते है कि दलित बिजनेसमैन की कामयाबी जनरल कैटेगरी या कथित उची जाति के एक बड़े तबके की धारणा को तोड़ती है कि रिजर्वेशन उनका हक छीन रहा है और सरकार की मदद से दलित आगे बढ़ रहे हैं। इन 15 करोड़पतियों में से मुष्किल से तीन-चार को किसी एडमीशन या नौकरी में रिजर्वेशन का फायदा हुआ। यह किताब अपने संपूर्ण रूप में कई वाजिब सवाल करती है जिनका उत्तर हम सभी को तलाशना है।

(उक्त लेख का एडिट भाग साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के जून- 2014 अंक में प्रकाशित)

मंगलवार, 24 जून 2014

मैं उसे खोजता हूं जो आदमी है!!


पता नहीं क्यों एक जनवादी कवि के बारे में लिखने से पहले देश की राजनीति और लोकतंत्र के बारे में लिखना जरूरी लग रहा हैं। हाल ही में चुनाव संपंन हुये और भारी बहुमत से नरेंद्र मोदी की सरकार बन गई। विकास का वादा लेकर विकास करने के लिए जनता ने नरेंद्र दामोदरदास मोदी को अपना सब कुछ सौंप दिया। मोदी सरकार के पास पूरे पांच वर्ष है अपने आप को साबित करने के लिए। पर इन सबके बीच एक प्रष्न उठता है कि जब पफला व्यक्ति ने अपना वोट मोदी को दिया होगा तो उसके दिमाग में विकास का कौन सा कतरा अपना दिमाग के कोने में संजो रहा होगा? उसके दिमाग में विकास का कौन सा रूप आकार ले रहा होगा? जिस देश  की अधिसंख्य जनता आजादी के इतने सालों बाद भी अपनी मूल सुविधाओं को विकास का मापदंड मान रही हो और इसी खुशी में वह मोदी को जिता अपनी आपेक्षाओं को पूरा करना चाहती हो, ऐसे समय में भी जनवादी प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविताएं प्रासंगिक हो तो कवि की महत्ता बढ़ जाती है।
अपने घर-आँगन में बाबू जी 
‘कहे केदार खरी-खरी’ संग्रह से 'देश की छाती दरकते देखता हूँ!' शीर्षक से एक लम्बी कविता लिखी है। यह पूरी कविता तत्कालिक राजनीतिक एवं सामाजिक परिवर्तन के दोहरापन को रेखांकित करती है। जिसकी कुछ पंक्तियां इस तरह से है- देश की छाती दरकते देखता हूँ!/कौंसिलों में कठपुतलियों को भटकते/ राजनीतिक चाल चलते/रेत के कानून के रस्से बनाते देखता हूँ!/ वायुयानों की उड़ानों की तरह तकरीर करते/ झूठ का लम्बा बड़ा इतिहास गढ़ते/ गोखुरों से सिंधु भरते/ देश-द्रोही रावणों को राम भजते देखता हूँ!!
आज विाचारधरा और पुराने संस्कारों में परिवर्तन के कारण सारी राजनीति का यही हाल होता नजर आ रहा है। जनहित के स्थान पर स्वहित ही एकमात्र उद्देश्य  बन जाता है। राजनीति का कारपोरेट से गठबंधन  का जो नया तंत्र लोकतंत्र में सामने आया है, केदारनाथ ऐसी पूंजी का विरोध् करते रहे- थैलीशाहों की यह संस्कृति/ महामृत्यु है! कुत्ता बिल्ली से बढ़कर है/ मानवता को खा जाती है/ बेचारी धरती  रोती हैंै। स्पष्ट है कि केदार की कविता मानवता विरोधी पूंजीपतियों की संस्कृति का विरोध् करने वाली कविता है। इस संस्कृति की हरकतें बिल्ली-कुत्तों से भी आगे है। केदारनाथ व्यवसाय से वकील थे। इस कारण इनकी कविताओं की संरचना में एक सहज तर्क-प्रणाली रहती है। विशेष बात यह है कि उनके तर्क के सारे उपकरण लोक जीवन के सामान्य बोध् पर निर्भर करते हैं।
प्रगतिशील कविता की सबसे प्रखर धरा के कवि केदारनाथ अग्रवाल माने जाते है। निराला की काव्य परंपरा की सबसे सशक्त कड़ी हैं केदारनाथ अग्रवाल और उनके बाद के सबसे बड़े महाप्राण कवि भी। केदारनाथ अग्रवाल उत्तर प्रदेश के बांदा जिले कमासिन गांव से संबंध् रखते है। उनकी कर्मभूमि हमेशा बांदा रही। बांदा की कचहरी में अपनी जीविका के चलते उन्होंने बांदा और केन को अपने मन और कर्म से जिया। वकालत में उनका मन कभी नहीं लगा, इसे मात्रा जीविका का साधन बनाया। हां, जीविका के इस साधन  ने उन्हें लोगों के इतना नजदीक ला दिया कि वे उनकी समस्याओं से दो चार होते रहे और अपनी कविता में उतारते रहे।
अपने गांव कमासिन, वहां के लोग, उनका ठेठ देहातीपन, खेत-खलिहान सभी के बारे में उन्होंने खूब लिखा। बांदा में आने के बाद आमजनों की समस्याओं, उनके हित के प्रति अपने लगाव को अपनी लेखनी में उतारते रहें। केदारनाथ की सामाजिक चेतना के बारे में डाॅ. राम विलास शर्मा ने लिखा है कि तार सप्तक के अनेक कवियों के पास कम्युनिष्ट  विचार-बोध् तो था, लेकिन जुझारू किसान या मजदूर का भाव-बोध् नहीं था। इसके अभाव में उनके पैर उखड़ गये ओर केदार अपने पैर जमाएं रहे।’ उन्होंने अपने कविताओं के माध्यम से व्यक्ति की चेतना जगाने का काम किया। अपने वैचारिक एवं आम आदमी के पक्ष में किये गये सृजन को लेखकीय दायित्व की तरह लिया। वे लिखते है- मैं लड़ाई लड़ रहा हुं/ मोर्चे पर/ लेखनी की षक्ति से/ मैं कलेजा फाड़ता हूं/ मिल-मालिकों को/ अर्थ पैशाचकों को/ भूमि को हड़पे हुए/ धरणी धरों को/ मैं प्रलय से/ साम्यवादी आक्रमण से मारता हूं।
विचारमग्न बाबू जी 
केदारनाथ की कविता का उद्देष्य हमेशा से अपने पाठक की सही और यर्थाथपरक सोच को स्थापित करना था। जिससे पाठक मानवता विरोधी सभ्यता और संस्कृति का विरोध् आसानी से कर सके। देश को आजादी मिली लेकिन आजादी के नये माहौल में व्यक्तियों को उनका हक-हुकूक नहीं मिला। यह सब केदारनाथ उस समय देख और समझ रहे थे। शायद इसीलिए इन सबके प्रति वे अधिक सतर्क थे औार अपना विरोध् दर्षाते थे। आज भी यही स्थिति कामोवेश बनी हुयी है। म्ंात्राी बनते ही नेताओं के सामंती स्वभाव पर अच्छा व्यंग्य करते हुए उन्होंने ‘मंत्राी-मास्टर संवाद’ कविता में लिखा-रेल सफर मंे चलता हूं तो होती है बाधा / एक बार की यात्रा में ही हो जाता हूं आध/ इसलिए तो वायुयान की प्रिय है मुझे सवारी/ धरती  में चलने-फिरने से होती है बीमारी। अपने वकालत के पेशे  में उन्होंने बड़ी नजदीक से सत्य को झूठ में बदलते देखा है-सच ने/ जीभ नहीं पायी है/ वह तो कैसे/ असली बात कहे तो कैसे/ झूठ मरे तो कैसे।
यद्यपि केदारनाथ प्रकृति प्रेमी कवि थे। उन्होंने प्रकृति और प्रेम के बारे खूब लिखा है। पर अपने समय से वे समझौता नहीं कर सके। उनकी कविताएं समय से दो-दो हाथ करती रही। वे लिखते है- हिन्दी की कविता न रस की प्यासी है, न अलंकार की इच्छुक और न संगीत की, न तुकांत पदावली की भूखी है, भगवान अब उसके लिए व्यर्थ है, अब वह किसान और मजदूर की वाणी चाहती है।
कुल मिलाकर केदारनाथ की कविताओं की विशेषता उनकी प्रासंगिता ही है। प्रासंगिता इसलिए है कि ये मानवीय संवेदनाओं से जुड़ी है, उनकी ही बात करती हैं। उनकी पक्षधरता करती हैं। यही उनकी रचना धुरी  है। इसलिए वे लिखते भी है- मैं उसे/ खोजता हूं/जो आदमी है/और अब भी आदमी है/ तबाह होकर भी आदमी है/ चरित्र पर खड़ा/ देवदार की तरह बड़ा। केदार की यह चिंता वाकई बड़ी और सामायिक है।

रविवार, 18 मई 2014

च’ से चरखा

नाम मोहित बताया उसने। शरमाते लजाते उसके चेहरे पर मेरे सवालों से बचने की जल्दबाजी दिख रही थी।। मैंने पूछा कि कहां से सीखा? कोई जवाब न मिला। पर मेरा दूसरा प्रश्न  तैयार था। ‘कहां से आए हो?’ मैंने पूछा।  ‘गांध्ी हिन्दुस्तानी से।’ अपना समान समेटते हुये उसने बताया। और अपने बड़े दो सहोदरों के साथ हो लिया। मेरी दिलचस्पी दो घंटे तक चले एक कार्यक्रम के दैारान कम हो
गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, राजघाट 
ने लगी जब वह छोटा बच्चा मंच पर अपने चरखा कातने का समान जमाने लगा। पांच वर्श की छोटी से अवस्था में चरखा कातने के काम को वह कुषलता से अंजाम दे रहा था। वह किसी प्रशिक्षित कारीगर से कम नहीं था। पर अभी उसमें एक कुशल कारीगरी की कमी थी इसलिए उसका ताना-बाना पल दर पल पर टूट जाता। वह बड़े नफासत से ताने को लेकर बगैर गांठ पड़े कातने लगता। पर कच्ची उमर का असर कच्चे सूत पर तारी था, ताना पल-पल टूट जाता। पर सीखने वाली इस उमर में मोहित हर टूटन से सीख रहा था। जो मुझे साफ दिखाई दे रहा था।
म्ुाझे अच्छे से याद है। बचपन में हमारे घर पर एक लोहे की तकली हुआ करती थी। उसमें सूत काता जाता रहा होगा। ‘रहा होगा’ इसलिए क्यांेकि मेरे बचपन का समय घर पर सूत कातने वाला समय नहीं था और  कभी मैने किसी को तकली पर सूत कातते भी नहीं देखा। घर पर वह कहां से और क्यों लाई गई इसका भी स्मरण नहीं है। हो सकता है बड़े-बुर्जुगों के समय खरीद कर लाई गयी हो और उससे सूत भी काता जाता रहा हो। ऐसा मेंरा अनुमान है। सो उपेक्षित पड़ी उस तकली पर बचपन की उत्सुकता सूत कातना सीखना चाहती थी। इस काम में पिताजी ने सहयोग दिया और मेरे अभ्यास का दौर भी चलने लगा। मेरे खाली समय के खेल में वह तकली भी शामिल हो गई। काफी समय तक वह तकली मेरे पास रही। पर न मैं तकली की हो सकी न तकली मेरी। अप्रयोज्य वस्तु जिस अर्थ में कबाड़ होती है तकली हमारे घर में कबाड़ ही थी। और एक दिन कब वह चुपके से कबाड़ में चली गई। मुझे क्या किसी को याद नहीं। वास्तव में हम में से किसी को उसकी जरूररत नहीं थी। बढि़या से बढि़या सूत बाजार में पैसे देकर मिल जाता था। तो फिर उस हुनर को सीखने का तो सवाल ही नहीं था।
पर उस मोहित को देखकर लगा कि चरखा उसका होकर रहेगा। पर रोबोट युग का यह बच्चा चरखा कातना क्यों सीख रहा था। क्या उसके पास खेलने या सीखने के दूसरी चीजें नहीं थी। या पिफर किसी अनुपलब्ध् विकल्प के कारण वह चरखा कातना सीख रहा था। यह सब मैं उससे पूछना चाहती थी। मोहनदास करमचंद गांध्ी के आजादी की लड़ाई का शस्त्र चरखा ही था। उन्होंने चरखे में स्वालंबन को देखा, बुना और जिया। चरखे की इसी प्रासंगिकता को वह नन्हा बच्चा सिखा रहा है। नही ंतो आज का समय इतना निर्दयी है कि हमारी वर्णमाला की किताब से च’ से ‘चरखा’ पढ़ाने की भी प्रासंगिता नहीं बची है। अपनी नर्सरी की किताब की वह बाल कविता ‘तकली रानी, तकली रानी! नाच रही कैसी मनमानी!!! अब किसी को भी याद नहीं आती। ये मोहित का चरखा कैसी चुनौती दे रहा है, मुझे और आने वाले समय को कि देखना एक दिन मै चांद में बैठी बुड्ढी़ दादी के सन जैसे बालों की तरह सफेद और चमकीला सूत कातकर दिखा दूंगा।

('अंतिम जन' के अप्रैल अंक मे प्रकाशित लेख का एक अंश )

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

शहर कविता विहीन नहीं हुआ

केन नदी और कवि  केदारनाथ अग्रवाल, बांदा शहर की दो बड़ी पहचान है। आज  केदारनाथ जी का जन्मदिवस है । केदार जी की जन्म शताब्दी के दौरान जब बांदा जाना हुआ तब मुझे केदार जी के घर जाने का अवसर मिला । जिसकी कुछ तस्वीरें यहाँ  दे रही हु। इस समय कवि की कुटिया जीर्ण-शीर्ण अवस्था मे है। फिलहाल इसे केदारनाथ शोध पीठ न्यास  घोषित कर दिया गया है, इसके सचिव नरेंद्र पुंडरीक जी है। वे ही इस कवि कुटिया की देखभाल करते है। कुछ साहित्यिक गतिविधियों के कारण कभी- कभी इसके दरवाजे खोले जाते है...... वरना अधिकांश समय यह बंद ही रहता है ...फिर भी हम बांदा वासियों के लिए इसका बचा हुआ अस्तित्व मायने रखता है....कि शहर कविता विहीन नहीं हुआ है ....



कवि केदारनाथ अग्रवाल का निवास स्थान 


इस घर को अब केदारनाथ शोध पीठ के कामकाज के लिए प्रयोग मे लाया जा रहा है 

घर का एक मात्र कमरा जो सही सलामत बचा हुआ है 

केदारनाथ शोध पीठ के सचिव नरेंद्र पुंडरीक जी  
कवि कुटिया का आँगन, फिलहाल बीरान 

बस इतना ही शेष है, घर का बहुत सा हिस्सा ढह गया है 

एक ही कमरे मे सब कुछ सहेजने की कोशिश 
  

मंगलवार, 11 मार्च 2014

सावन में आना और खूब बरसना!

रात के ग्यारह बज चुके है, रात अपनी रवानी में होनी चाहिए, लेकिन नहीं सारी नीरवता गरजते-बरसते बादल खत्म कर रहे हैं। ठंडी हवा के साथ पानी खिड़की-दरवाजों से होकर कमरे के अंदर आने की कोशिश में.... सिरहन पैदा करने वाली ठंडी हवा कमरे से कहीं अधिक मेरे मन के अंदर प्रवेश कर रही है! मार्च के इस महीने हम सुहानी रातों के अभ्यस्त रहे हैं। पर चुनाव का मौसम देखकर यह बादल आमजन की तरह विद्रोही होता जा रहा है। शायद अपना गुस्सा दिखाने का यह बेबस तरीका ही बादल को पसंद आया हो।
ऐसा नहीं है कि मौसम का यह बदलाव दिल्ली में ही हो, पूरे देश  में ही ऐसी ही बयार बह रही है। यह बयार कहीं न कहीं विक्षोभ का दवाब पैदा करके जहां तहां अपनी मन-मानी कर रही है। और परिणाम.... बेमौसम आंधी, ओला और बरसात..... सब एक साथ..... तुम चलो हम आते है कि तर्ज के साथ।
दिल्ली मे बैठ कर न जाने क्यूँ लगता है कि मौसम की यह साजिश दिल्ली से रची जा रही है। दिल्ली मे रह रहे लोगो मे यह भ्रांति आ जाती है कि सब कुछ दिल्ली से ही संचालित है। हो सकता है इसी कारण मुझे लग रहा हो। हो सकता है खामखयाली हो !!
 दिल्ली सत्ता का केंद्र है और वर्षों से है, किसी को कोई आपत्ति भी नहीं है। पर मौसम का केंद्र
अपनी धुन मे भींगता बचपन 
दिल्ली नहीं होनी चाहिए। जिस आशंका मे मैं घिरती जा रही हूँ।  मेरी चिंता बस सत्ता को अपने ढ़ग से चलाने और नियंत्रित करने वालों से है। आखिर इस होड़ में नुकसान हमारा और आपका होना निश्चित होगा। इसलिए नही चाहती कि इस व्रष्टि का केंद्र दिल्ली बने।


अमूमन मुझे बरसात बहुत अच्छी लगती है, इतनी अच्छी कि हमेषा बारिस में भीगने का कारण ढूढती रहती हूं। सबसे अनोखी लगती है जनवरी महीने में होने वाली बारिस किसानी भाषा में कहे तो 'महावट'। जिसके बारे में पापा हमेशा  कहा करते थे कि यह बारिस नहीं, बूंद के रूप में  अनाज बरस रहा है। इसलिए मैं इसे अनोखी बरसात मानती आई हूं। बचपन में हमेशा  जनवरी-फरवरी की आंधी-पानी के बाद पेड़ में लगे बेर गिर जाया करते थे और हम बारिस थमने का इंतजार करके तुरंत पेड़ के पास पहुंच कर कीचड़ की परवाह  किये, बेर बटोरने में लग जाते थे, बगैर किसी मेहनत के  अपनी फ्राक भर कर घर आ जाया करते थे। पर इस बार!!!
 मुझे महसूश हो रहा है कि इस बार केवल बेर नहीं गिर रहे होगे बल्कि खेतों में कहीं न कहीं किसानों के अरमान, आशा, मेहनत भींग और सूख रही होगी। जिसको समेटने की हिम्मत किसी के हाथों में नहीं होगी। इसलिए बादलों से मेरी गुजारिश  है कि किसी का गुस्सा किसी पर मत निकालों!!! बस  बहुत हो गया.... फागुन में रंग बरसने दो....सावन में आना और खूब बरसना!!!



रविवार, 23 फ़रवरी 2014

एक दबाव ग्रुप के रूप में उभरें महिलाएं

पिछले दिनों वार्षिक ब्लॉग मीट-2014 यानि "Annual Bloggers Meet, 2014" में जाना हुआ, जहां एक बहुत ही अनोखा और उत्सावर्द्धक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। अनोखा इसलिए था कि इस बार हम ‘ब्लॉग मीट’ में हम ब्लॉग या किसी वैकल्पिक मीडिया के बारे में चर्चा करने के लिए इकटठे नहीं हुए थे जैसे कि अमूमन हम ब्लॉगर अक्सर इकट्ठा होकर रायशुमारी करते रहते थे, बल्कि इस ब्लॉग मीट में हम ऐसी समस्याओं या मुद्दों पर चर्चा करने के लिए एकजुट हुए थे जो देष की आजादी से लेकर अभी तक हमें परेषान किये हुए हैं। हम सभी ब्लॉगर मित्रों को प्रमुख रूप से चार विषय चर्चा करने के लिए दिये गये। ये चार विषय थे- पहला, सांप्रदायिक सौहार्द कैसे बनाए, युवा शक्ति दोहन और उत्थान, महिला की सामाजिक और राजनीतिक भागीदारी, सरकार के कामकाज में पारदर्षिता। आपसी चर्चा के बाद अपने अपने विचार भी देने को कहा गया, जो इस बात को आगे बढाये कि इन सभी समस्याओं से हम कैसे उबर सकते हैं। या फिर हम इन मुद्दों से निपटने के लिए क्या निवारक उपाय अपना सकते है। वैसे यह विशिष्ट कार्यक्रम "A Billion Ideas" की तरफ से आयोजित था।
मैंने इन सभी मुद्दों में से चर्चा के लिए ‘महिलाओं की सामाजिक और राजनीतिक भागीदारी’ को चुना। यह भागीदारी घर, समाज और देश के नागरिक के तौर पर महिलाओं को किस सीमा तक मिली हुई है और वह इसका उपयोग किस हद तक कर रही हैं? यदि नहीं कर पा रही हैं तो क्या कारण हैं? ऐसी बाध्यताओं को कैसे दूर किया जा सकता है। ऐसे कई सवालों पर अपने सभी ब्लॉग मित्रों से हम सबने चर्चा की। चर्चा काफी सार्थक और उपयोगी रही। हम सभी ने अपने आसपास, घर-पड़ोस, देष-विदेष की महिलाओं की स्थिति को अपनी बातचीत में षामिल भी किया। जिसके बाद काफी ऐसी चीजें सामने आई जिन पर हम अधिक सोचते भी नहीं थे। सर्वाधिक हमारा खुद का घर, जहां महिलाएं हमारे साथ पत्नी, बेटी या बहन के रूप में हमसे दिन-रात टकराती रहती है। उनकी आजादी, अधिकार और सरोकार के बारे में हम कितना सोचते है? या कितना दे पाते हैं? यह प्रश्न  सबसे ज्यादा मथ गया हम सभी को! इसलिए हम सभी इस बात पर सहमत हुए कि षुरूआत हमें अपने घरों से करनी पड़ेगी क्योंकि हमारे समाज में लैंगिंग असमानता हमारे घरों से निकल कर सभी जगहों में फैलती है। इसलिए पहले घर में सुधार हो। तब बात बनें!
महिलाओं की समाज में भागीदारी सुनिष्चित करने के संदर्भ में मैं दो बातों पर अधिक जोर देना चाहूंगी- पहली कि महिलाओं को एक प्रतीकात्मक स्थिति से बचाना होगा, दूसरा उनकी राजनीतिक भागीदारी।
   महिलाओं को एक प्रतीकात्मक रूप दे देने के कारण वह महज षो पीस बन कर रह जाती है। इसलिए हमारे खासतौर पर हिंदू समाज मंे महिला या तो देवी होती है या सबसे निकृश्ट प्राणी। जिसे पैदा करने से पहले कई बार सोचा जाता है इसलिए उन्हें कोख में ही मौत की नींद सुला दिया जाता है। महिलाओं को जब पुरुषों की तरह का एक प्राणी मात्र मान लिया जाय और किसी प्रतीक के तौर पर उन्हें प्रस्तुत न किया जाए तब ही मां-बाप से लेकर समाज उनके बारे में सोचेगा। तो पहले हमें इस बात को भली-भांति समझ लेना है।
दूसरा महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी। इस समय संसद में महिला आरक्षण को लेकर काफी राजनीति चल रही हैं।  देर-सबेर महिलाओं को संसद में आरक्षण मिल भी जाएगा। पर प्रष्न यह है कि इसके बाद भी क्या महिलाओं की समाज और राजनीति में भागीदारी सुनि
वार्षिक ब्लॉग मीट-2014
ष्चित हो जाएगी? क्या वे निर्णय लेने में सहभागी होगी? षायद नहीं? असल में राजनीतिक सहभागिता दो तरह से होती है- सहयोग व असहयोग। महिला आरक्षण के बाद हम राजनीति में सहभागी तो जाएगें, हम वहीं राजनीति करेंगे जो स्थापनाएं अभी तक पुरूषों ने राजनीतिक क्षेत्र में खड़ी की हैं। भारत में महिलाएं भी एक लोकतांत्रिक देश की तरह रह रही हैं, उनके लिए भी संवैधानिक अधिकार संविधान ने दिए है। फिर भी आज तक वे अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए कहीं नजर नहीं आती हैं? वोट भी वे अपने परिवार या पति के कहने पर दे आतीं हैं। यह राजनीतिक सहभागिता नहीं है। किसी भी तरह की जानकारी और सूचना हासिल करना, राजनीतिक कार्यो में पारदर्षिता की मांग, सामाजिक मुद्दों पर बहस व संगोष्ठि करना, विभिन्न सामाजिक गतिविधियों के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करना, प्रतिनिधियों और जनता के बीच संवाद कायम करना आदि कार्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा होते है, इन सभी में महिलाओं को बढ़-चढ़ कर योगदान करना चाहिए। घर में बैठकर इंतजार नहीं करना चाहिए। जिससे समाज में आधी आबादी का एक दवाब समूह तैयार हो सके। जिसके पास यह क्षमता हो कि वह अपने हित में सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी परिवर्तन कर सके। ऐसे ग्रुप सामाजिक और राजनीतिक दोनों रूपों में बेहतर काम कर सकते हैं।
आज भी हमारे यहां एक महिला और बाल कल्याण मंत्रालय होता है। महिलाओं को हम हमेशा उनके बच्चों से जोड़कर देखने के हम आदी हो गये है। वजह है महिलाओं को पुरुषों के बराबर समान नागरिक नहीं समझा जाता। जबकि हमारे पास संवैधानिक अधिकार है। उनके घरेलू श्रम को आज भी मान्यता प्रदान नहीं की जा रही हैं। समग्र राष्ट्रीय आय में उसका क्या योगदान है, यह पता किया जाना जरूरी है। कहने का अर्थ है कि महिलाओं को डिसीजन मेंकिंग के काबिल बनाने से पहले उन्हें आधी आबादी के रूप में मान्यता देनी होगी। जिस दिन यह हो जाएगा, वे अपने डिसीजन खुद लेंगी और दूसरों के बारे में भी।


शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

इस वसंत में

प्रेम जानने के लिए
खरीद लाई
प्रेम विशेषांक
प्रेम के सभी महाविशेषांक
प्रेम में पकी कविताएं
प्रेम पर लिखी सभी कहानियों के
हर शब्द को
पढ़ा मैंने
गुना मैंने
चखा मैंने
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फिर भी
पैदा नहीं  कर पाई
कोई प्रेम विज्ञान
-----------------
पर आज
एक बच्चे की
मासूम मुस्कान ने
फूलों से सिंचे रस जैसा
शहद  बना दिया
मेरे गाँव से एक बच्ची की  मनमोहक मुस्कान युक्त तस्वीर 
मेरे ओठों पर
बगैर किसी
मधुमास के।