‘अपने देश बंग्लादेश में, मेरे अपने पश्चिम बंगाल में, मैं एक निषिद्ध नाम हूं, एक विधि बहिष्कृत औरत, एक वर्जित किताब!’ इस एक वाक्य में लेखिका ने अपना दर्द बयां कर दिया है। एक स्वीकृत हार से उपजी हताशा की बेकायली में उनके अंर्तमन से भारत देष के बारे में यह जो शब्द निकलते हैं वह एक सहिष्णु देश की धरती के कई परतो को उघारने का मद्दा रखता है। जब वह कहती है कि दुःस्वप्न में भी मुझे ऐसा कभी भी नहीं लगा था कि भारत में भी मुझे बांग्लादेष के जैसा ही भुगतना होगा। ‘बांग्लादेष के जैसा’ क्या यह साधारण वाक्य है? किस आषा से वह भारत में आईं, क्या सोच-समझकर उन्होंने इस देश पर विश्वास किया था? और इसे अपना निवास बनाया, ‘घर’ बनाने के सपने बुने। किस कारण? क्या गलती थी तसलीमा नसरीन की? कि उन्होंने सच बोला और लिखा। कट्टरपंथियों के आगे नहीं झुकी। जिसका परिणाम हुआ दंडस्वरूप ‘निर्वासन।’
इस भारत वर्ष ने, यहां की सभ्यता ने, इस इक्कीसवीं शताब्दी ने, एक लेखक को ग्रहण किया था, और क्षण भर मेें ही उसे वर्जित कर दिया, इस देष के बचकाने धर्म और निष्ठुर राजीनति ने। इस कारण से वे हमारे लोकतंत्र पर ही सवाल उठा देती है- मैं जानती हूं लोगों ने मुझे निर्वासन का दंड नहीं दिया है। यदि लोगों की राय ली जाती, तो अधिकांष लोग ही चाहते कि मैं बंगाल में ही रहूं, पर क्या लोगों की राय पर लोकतंत्र चलता है। लोकतंत्र चलाते शासक लोग, अपनी सुविधा के हिसाब से।
तसलीमा नसरीन की आत्मकथा ‘निर्वासन’ एक सच बोलने वाली स्त्री का दिल दहला देने वाला दस्तावेज है जिसमें वह अपने घर बंग्लादेश, फिर कोलकाता में षरणागत और बाद में मौलवादियों के दबाव के चलते कोलकाता समेत भारत से ही जबरन निवार्सित कर दिए जाने का दुखद वर्णन है। इस दौरान लेखिका ने अपने मन-दर्पण के दर्द, घुटन और संघर्ष को शब्दों के मार्फत चित्रित कर हमारे समक्ष रखा हंै। अपनी अभिव्यक्ति के प्रति स्वतंत्रता हासिल करने के मार्ग में उनसे धर्म, राजनीति और साहित्य की दुनिया से जुड़े लोग टकराते है। लेखिका एक चेहरे में कई चेहरों को देखकर चकित रह जाती है। इस किताब में लेखिका ने ऐसे चेहरों से नकाब खीच लिया है। और पाठक यह सब देखकर किंकरबिमूढ है। सच के विरोध में धर्म, राजनीति और साहित्य की दुनिया की गजब की लामबंदी और जुगलबंदी के लिए ‘निर्वासन’ को जरूर पढ़ना चाहिए। यह किताब आपके कई भ्रमों को तहस-नहस करने का दम रखती है।
़किताब में उस समय की चर्चा है जब पष्चिम बंगाल सरकार ‘द्विखंडितो’ पर प्रतिबंध लगा देती है। इस किताब में ऐसे कई लेखकों के चेहरों से नकाब उतरती है जिनके लिखने और व्यवहार करने का अलग-अलग मापदंड होते है। सैयद षम्सुल हक, हुमायंू आजाद, नीमा हक, आजिजुल हक, षीर्षेंन्दु मुखोपाध्याय सभी के सुर बदल जाते है, सुबोध सरकार ने तो द्विखंडितो को ‘सेक्स बम’ की संज्ञा दे देते है। जो कभी तारीफ करते थे-असद चैधरी, गौतम घोष भी। ‘लेखक किताब बैन कर रहे है, लेखक ही लेखक के विरूद्ध मामला कर रहे है।’ किताब विरोध के इस पूरे अभियान के संचालक सुप्रसिद्ध बंगाली लेखक सुनील गंगोपाध्याय से लेखिका प्रष्न करती है कि उनको लेकर ऐसी कोई बात नहीं लिखी गयी है किताब में, तो वे क्यों इतना नाराज है। ‘षायद इस डर से कि कहीं अपनी अगली किताबों में जिक्र न कर दूं।’ कामोवेष कई नारीवादी लेखिकाओं का भी दो-मुहा रवैया सामने आता है। सलमान रूष्दी के बारे में एक खुलासा काफी रोचक है। लेखिका से संबंधित विवाद के कारण उनकी प्रसिद्धि को भुनाने वाले प्रकाषक के भी एक दो प्रसंग है।
बांग्लादेष में लेखिका की लज्जा सहित पांच किताबें प्रतिबंधित है और भारत में एक हुई थी-द्विखंडितो। पर गौर करने लायक यह बात है कि दोनों देषों ने किताबों को प्रतिबंधित करने का का ही कारण ‘धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना’ बताया। लेखिका ने इस्लाम में सुधार के प्रश्न साहस से उठाया था। न केवल इस्लाम में स्त्रियों और गैर-मुस्लिमों की स्थिति, बल्कि मत-स्वतंत्रता और खुले विमर्श की कमी का प्रश्न भी। तसलीमा ने कुरान में पूर्ण सुधार की बात कही। यही कहने पर उलेमा ने मौत का फतवा जारी कर दिया। और इसे नाम दिया गया ‘धार्मिक भावानाओं को ठेस पहुंचाना।’ देष में लेखिका द्विखंडितो से अपने तीन पेज वापस ले लेती है। तब भी कट्टरपंथियों का रोष कम नहीं होता है। वजह ‘सच कहने के जुर्म में मुझे कितनी और सजा देगे धर्मवादी और धर्म का व्यवहार कर वोट चाहने वाले राजनेता?’ कट्टरपंथ्यिों के हाथ का खिलौना बनी भारतीय राजनीति ‘तुम जबान दो कि तुम भारत में नहीं रहोगी, तभी तुम्हें भारत में रहने का वीजा देंगे’ षर्त रख देती है। अपनी चिंगारियों से भरी रचनाओं की वजह से तसलीमा नसरीन को स्वदेष एवं दूसरे मुस्लिम देषों में मौलवादियों के हमलों का सामना करना पडत़ा है, परन्तु दुनिया के एक धर्मनिरपेक्ष बहु-संस्कृतिवादी, एक बड़े लोकतांत्रिक देष भारत में उनके लिए इस अनुभव का स्वाद निष्चित ही बहुत तरहों से अलग था।
व्यक्ति को अगर तोड़ना हो तो उसे तन्हाई की सजा सुना देा। अंग्रेजी राज के समय भारतीयों के लिए कालापानी की सजा एक ऐसी ही सजा थी। तसलीमा को भी तोड़ने के लिए नजरबंद कर दिया गया, किसी से मिलने नहीं दिया जाता था। किससे मिलना है, क्यूं मिलना है? ‘खिड़की की दराजों से बादल और धूप’ देख कर ‘मनुष्य विहीन’ जीवन गुजारना पड़ेगा। ‘मिथ्या बोलने से तुम्हें निर्वासन से मुक्ति मिलेगी, तुम्हें देष मिलेगा, बहुत से दोस्त मिलेंगे, हाथ-पैरों की जंजीरें खोल दी जाएगी, तुम रोषनी और आकाष देख सकोगी।’ हैदराबाद में एक साहित्यिक कार्यक्रम के दौरान लेखिका पर हमला होता है। इसी क्षण से सुरक्षा के नाम पर ‘चार महीने गृहबंदी कलकत्ता में। तीन महीने से दिल्ली में।’ दिल्ली में-तीन महीनों से मुझे अज्ञातवास में रखा गया है। मेरी इच्छा के मुताबिक, मुझे कहीं, किसी के साथ मिलने नहीं दिया गया। क्या कारण है इसका? एक ही कारण है इसका? ...मुझे समझाना कि हम तुम्हें नहीं चाहते हैं। इंसान समाज के बिना कैसे जिन्दा रह सकता है।....कैसे जिन्दा रह सकता है आजादी के बगैर, कितने दिन! एक न एक दिन तो मै परेषान हो ही जाउंगी।...एक न एक दिन बोलंूगी ही अब और नहीं सह पा रही हूं। ‘सरकारी हिफाजत में कैसा रहा जा सकता है? जितने दिन वैसे हिफाजत में रहने का अनुभव न हो, समझा नहीं जा सकता है। सरकार जब किसी को सीमा पार कराने के उद्देष्य से हिफाजत में रखती है, तो वह हिफाजत बहुत भयंकर होती है।’ यूरोप में बारह बरस बिताने के बाद भी उसे अपना देष नहीं मान पायी। भारत में एक साल भी नहीं काटना पड़ा, इसे अपना देष मानने के लिए। ‘मैं अपना फैसला सुना देती हूं कि मैं भारत छोड़ूंगी।’
तसलीमा ने अपने उपन्यास ‘लज्जा’ में बंगलादेश में हिन्दुओं की दुर्दशा का बेबाक चित्रण किया है। इसी पाप के लिए भारत का हिन्दू सेक्यूलर-वामपंथी उन्हें क्षमा नहीं कर सका! वह आतंकवादी मुहम्मद अफजल, कसाब और इशरत जहाँ के पक्ष में खड़ा हो सकता है, किंतु तसलीमा नसरीन के पक्ष में हरगिज नहीं। क्योंकि तसलीमा ने हमारे उदारवादियों के शुतुरमुर्गी पाखंड को उघाड़ कर रख दिया, इसीलिए वे उस से रुष्ट हैं। क्योंकि उत्पीडि़त हिन्दुओं के लिए बोलना सो-काल्ड सेक्यूलर-वामपंथी-उदारवादियों में निषिद्ध है। तसलीमा मानवतावादी रही हैं, केवल आत्म-प्रचार चाहने वाली ‘मानवाधिकारवादी’ नहीं। उन्होंने अपने विचारों और सत्यनिष्ठा के लिए कष्ट सहा और आज भी उस का परिणाम भुगत रही हैं। कोई उनसे चाहे कितनी घृणा करे, उनका चाहे जितना बहिष्कार किया जाये पर उनका कहना है कि ‘मैं इसी तरह हूं और यही रास्ता चुना है मैंने।’
किताब-निर्वासन/लेखिका-तसलीमा नसरीन/प्रकाषन-वाणी प्रकाषन/पृष्ठ संख्या-256/मूल्य-200