घर से भागी हुई
साक्षी मिश्रा देशवासियों के लिए एक
‘राष्ट्रीय’ समस्या बन गई हैं। इसलिए टीवी चैनलवालों
ने भी उन्हें लपक लिया। लेकिन टीवी चैनलों में इस बहस-मुहाबसे
के बीच मुंबई में एक लड़की की हत्या उसके पिता ने ही कर दी, क्योंकि
उसने उनकी मर्जी के खिलाफ जाकर शादी की थी। ये छोटी बात है कि 20 साल की मीनाक्षी उस समय गर्भवती भी थी। इसे ऑनर किलिंग कहा जाता है। शायद ऐसे
ही किसी ऑनर किलिंग से बचने के लिए साक्षी मिश्रा ने एक वीडियो बनाकर सार्वजनिक कर
दिया। कहा कि उसकी और उसके पति अजितेश की जान को खतरा है। चूंकि अजितेश जाति से दलित
हैं जिससे शादी करने के कारण उनके रसूखदार विधायक पिता और भाई पसंद नहीं कर रहे हैं।
इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि उनकी हत्या हो सकती है। इस वीडियो के मार्फत ही
सभी को पता चला कि बरेली के विधायक राजेश मिश्रा की बेटी ने अपने अधिक उम्र के एक दलित
युवक से भागकर शादी कर ली है। सत्ताधारी पार्टी से विधायक होने के कारण यह मामला बहुत
कुछ राजनीतिक नफा-नुकसान के दायरे में भी आ गया। तब विधायक खुद
सामने आकर बेटी के बालिग होने और अपने फैसले स्वयं लेने के लिए स्वतंत्र होने की बात
उन्होंने कही। जबकि मीडिया के सामने आकर साक्षी ने घर की बंदिशों और शादी के बाद अपने
राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल करके उन्हें धमकाने और जान से मारने का खतरा होने का आरोप
लगाया। फिलहाल इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साक्षी और अजितेश को पुलिस सुरक्षा उपलब्ध कराने
के आदेश दिए हैं।
पर सवाल है कि
साक्षी-अजितेश
या उन जैसे तमाम जोड़ों को सुरक्षा की जरूरत ही क्यों पड़ती है? संविधान ने देश के हर नागरिक को अपनी इच्छानुसार जाति, धर्म, भाषा, समुदाय आदि के बंधनों
के बिना अपना साथी चुनने का हक दिया है। फिर क्या कारण है संविधान के रक्षक ही इन जोड़ों
को पूरी सुरक्षा उपलब्ध नहीं करा पाते हैं? कई बार पुलिस या प्रशासन
अमला ही इन जोड़ों का दुश्मन बन जाता है। यह समाज का कौन सा चेहरा है, जब संविधान से लिए गए अधिकार सामाजिक रूप से गलत हो जाते हैं? क्या कारण है कि मां-पिता अपने बच्चों को अपनी किसी
‘प्रापर्टी’ की तरह व्यवहार करते हैं? एक बड़ा सवाल कि हमारी सामाजिक संरचना संविधान और कानून के अनुसार काम क्यों
नहीं कर पाती है?
हमारे समाज में
शादी-ब्याह दो लोगों केबीच का मामला नहीं माना जाता है। बल्कि यह दो परिवारों के बीच का मामला होता है। इन
शादियों में परिवार अपने रसूख, प्रतिष्ठा, व्यक्तिगत लाभ, व्यापारिक नफा-नुकसान
आदि देखकर (तौलकर) तय करता है। जब शादियां
दो लोगों के बीच का मामला नहीं होता है, इसलिए जो इसे व्यक्तिगत
मामला बनाते हैं, समाज उन्हें बख्शने के मूड में नहीं रहता है।
आंकड़ों के अनुसार देश में 05 फीसदी ही अन्तर्जातीय और अंतर धार्मिक
विवाह संपन्न होते हैं। नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनामिक रिसर्च के 2014 के एक शोध में पाया गया है कि आज भी देश में 95 फीसदी
शादियां परंपरागत तरीके से अपनी जाति और समुदाय में संपन्न होती हैं।
ये 05 फीसदी अन्तर्जातीय और अंतर धार्मिक
शादियों की यह संख्या बताती है कि देश में जाति और धर्म के बंधन कितने मजबूत हैं। इसलिए
जब भी कोई इन बंधनों को तोड़ने की कोशिश करता है, तो ये जोड़े
हिंसा का शिकार हो जाते हैं। इस हिंसा में सबसे ज्यादा इन जोड़ों के परिवार वाले ही
बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। देखा गया है कि इस अपराध में उन्हें
किसी प्रकार की ग्लानि या दुख का एहसास नहीं होता है। उनके आसपास के लोग इन हत्याओं
को एक ‘प्रशस्ति’ से जोड़ देते हैं। इससे
इस अपराध के बावजूद उनमें विजयश्री का अहसास भर जाता है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
की समाजशास्त्र की प्रोफेसर श्वेता प्रसाद कहती हैं कि समाज बहुत ही धीमी गति से बढ़ने
वाली चीज है। प्रेम विवाह जैसे मामलों में जहां जाति और धर्म आड़े आता है, वहां लोगों की भावनाएं ज्यादा काम करती हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे यहां सभी
शादियां अपने धर्म और जाति में ही हो रही है। समाज में अब भी यह बात है कि फारवर्ड
कास्ट आपस में शादी कर ले, तो ज्यादा दिक्कत नहीं होती है,
वही दलित से करने पर दिक्कत आती है। साक्षी मिश्रा ने दलित के अलावा
किसी और जाति में शादी की होती, तो शायद इतनी दिक्कत नहीं आती।
सामाजिक रूप से
जाति और धर्म में कैद भारतीय समाज कई मामलों में आज सहिष्णु या लिबरल हुआ है। भूमंडलीयकरण, तकनीकि प्रगति और कम्यूनिकेशन के
बढ़ते दायरे से समाज में खुलापन आया है। पर ये खुलापन सामाजिक रूप से जाति और धर्म
की खाई भर सकने में सक्षम नहीं हुआ है। देखने में यह भी लगता है कि भूमंडलीयकरण के
कारण लड़कियों को अधिक छूट मिल गई है, पर वास्विकता तब समझ में
आती है जब बेटी या बेटा अपनी पसंद से शादी करने की इजाजत घरवालों से मांगते हैं। इस
मामले में बेटियां अधिक दुर्भाग्यशाली सिद्ध होती हैं, क्योंकि
बेटी को घर की इज्जत से जोड़कर देखा जाता है। प्रख्यात साहित्कार मैत्रेयी पुष्पा कहती
हैं कि जो शादियां अपनी मर्जी होती हैं, उनमें घरवालों का अहं
आडे आता है। यह अहम ही बढ़कर अहंकार का रूप धारण कर लेता है और ऑनर किलिंग का कारण
बनता है। बेटियां घर-परिवार के लिए आन-बान-शान मानी जाती हैं। हम बेटियों की पीठ पर इज्जत का झंडा गाड़ देते हैं और चाहते
हैं कि यह हमेशा लहराता रहे।
नेशनल क्राइम रिकार्ड
ब्यूरो के 2015 के आंकड़े बताते हैं कि देश भर में इस वर्ष ऑनर किलिंग के 251 मामले हुए थे। साक्षी मिश्रा पर जब पूरा समाज उद्वेलित था, तब भी मीडिया
में कई ऑनर किलिंग की घटनाएं रिपोर्ट की गईं। जो कई मायनों में वीभत्स थीं,
जिनकी उतनी चर्चा नहीं हो सकी। इस तरह की घटनाएं रुकेगी, यह अभी हमारे लिए दूर की कौड़ी है। क्योंकि कमी हमारे अंदर है, इस समाज के अंदर है और हमें इसे खुद ही दूर करना होगा। जैसा कि प्रो.
श्वेता प्रसाद कहती हैं कि हमारी वैल्यूज जितनी अधिक सशक्त होगी हम उतने
अच्छे समाज का निर्माण करेगें और कानूनों का पालन करेगें। और ये सब चीजें आने में काफी
समय लगेगा। वास्तव में समाज की सोच परिवर्तित होने की जरूरत है। हमारे समाज की सोच
परिवर्तित होने में अभी काफी समय लगेगा।
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