मंगलवार, 30 जुलाई 2024

सत्संगों में महिलाओं को मिलता क्या हैं!

 

दो जुलाई को हाथरस के सिकंदरा राव के अंतगर्त फुलराई गांव में भोले बाबा के सत्संग में मची भगदड़ जो हुआ, उससे जन-सामान्य काफी नाराज है। आधिकारिक आंकड़े तो बता रहे है कि कुल 121 लोगों की मौत हुई, जिनमें से 112 महिलाएं थीं। और वो ज्यादातर बुजुर्ग महिलाएं। इन मरने वालों में सात बच्चे और दो पुरूष भी शामिल हैं। इस भगदड़ में मरने वालों में 112 महिलाओं की संख्या जन-साधारण में चिंता और चर्चा का विषय बन गई है। अगर सोशल मीडिया को समाज का आईना माने, तो दो जुलाई से अब तक इस सत्संग में भगदड़ की चर्चा हो रही है। कहा जा रहा है कि ऐसी जगहों में सबसे ज्यादा महिलाएं ही जाती है। धार्मिक क्रिया-कलापों में महिलाओं की दिलचस्पी होने और खाली समय होने के कारण भी ऐसी जगहों में महिलाएं और उनके साथ में बच्चे एकट्ठा हो जाते हैं। महिलाएं ही सबसे ज्यादा बाबाओं धार्मिक गुरूओं की भक्त होती हैं। अंधविश्वासी है महिलाएं, तभी इतनी बड़ी संख्या में ऐसी जगहों पर बिना सोचे-समझे पहुंचती हैं। भावनात्मक रूप से कमजोर महिलाएं इन बाबाओं के झांसे में आ जाती हैं। इन महिलाओं को घर में बैठकर पूजा-पाठ नहीं किया जाता, हर जगह भीड़ बढ़ाती हैं।

किसी भी धर्म में धार्मिक होना अच्छी दृष्टि से देखा जाता है। व्रत-उपवास, पूजापाठ, धार्मिक कर्मकांड करने वाली स्त्री हर घर में मान्य होती है। कई घरों में ऐसी महिलाओं के उदाहरण देकर अन्य महिलाओं को प्रेरित भी किया जाता है।

ऐसी टिप्पणियों को पढ़ने के बाद लगने लगा कि कहीं न कहीं वास्तव में ऐसे धार्मिक आयोजनों में होने वाली महिलाओं की भीड़ तो जिम्मेदार नहीं है। अगर गहराई से सोचा जाए तो ऐसी टिप्पणियां जो ज्यादातर पुरूषों की ओर से आई थीं, स्त्री विरोधी ही लगीं। अत्यधिक धार्मिक होना, अंधविश्वासी होना, बाबाओं के झांसे में आ जाना, भावनात्मक रूप से कमजोर, घर में खाली होना आदि आरोप सही हैं, पर वे ऐसी क्योंकर हैं, या वे ऐसी बनाई गई हैं, इस पर चर्चा कौन करेगा। किसी भी धर्म में धार्मिक होना अच्छी दृष्टि से देखा जाता है। व्रत-उपवास, पूजापाठ, धार्मिक कर्मकांड करने वाली स्त्री हर घर में मान्य होती है। कई घरों में ऐसी महिलाओं के उदाहरण देकर अन्य महिलाओं को प्रेरित भी किया जाता है। यहां तक तो सभी को ठीक लगता है कि घर की महिलाएं हमारी धार्मिक परंपराओं की रक्षा कर रही हैं, लेकिन जब यह धार्मिक प्रवृत्तियां धीरे-धीरे अंधविश्वास में बदल जाएं, तब उन्हें सही गलत कौन बताने आयेगा। आलोचना करने से तो यह समस्या नहीं हल होने वाली कि महिलाएं ऐसे सत्संगों में क्यों जाती हैं।

सत्संगों में क्यों जाती हैं महिलाएं

महिलाओं के पास खाली समय होता है। हां, होता है। जैसे वे धार्मिक कर्मकांड़ों के लिये समय निकालती हैं, वैसे वे ऐसी जगह जाने के लिये भी समय निकालती हैं। वजह है घर की बोरियत से कुछ समय के लिये ही सही, छुटकारा मिल सके। घर से कुछ दूर होने वाले मेला, हाट बाजार, धार्मिक आयोजनों में महिलाएं बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती देखी जाती हैं। समाज में यह परंपरा भी है कि पचास-साठ की उम्र की महिलाओं को पूजा-पाठ में अधिक समय व्यतीत करना चाहिये। पुरूषों पर भी यह नियम लागू होता है, पर वे आय कमाने में लगे होते हैं, इस कारण समय का अभाव होता है। पर महिलाओं के पास ऐसा समय निकल आता है। ये भी एक तथ्य है कि ऐसी जगहों पर जाने के लिये घर के मुखिया की तरफ कोई खास रोक-टोक भी नहीं लगाई जाती है। आस-पड़ोस की महिलाएं मिलकर एक ग्रुप बनाकर स्वमेव ऐसे आयोजनों पर चली जाती हैं।

घर से कुछ दूर होने वाले मेला, हाट बाजार, धार्मिक आयोजनों में महिलाएं बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती देखी जाती हैं। समाज में यह परंपरा भी है कि पचास-साठ की उम्र की महिलाओं को पूजा-पाठ में अधिक समय व्यतीत करना चाहिये।

आज भी हमारे समाज में ऐसी संस्कृति विकसित नहीं हुई है कि महिलाएं स्वयं के लिये समय निकालकर सैर-सपाटे के लिये निकल सकें। रिश्तेदारी के अलावे घर के आसपास या दूसरे गांव-शहर में होने वाले धार्मिक आयोजनों में जाना उनके लिये अधिक आसान होता है। आज भी गांव और कस्बे की महिलाओं के लिये सोलो ट्रैवेलिंग सपना ही हैं। मध्यम क्लास की इन महिलाओं में देश-दुनिया देखने के अवसरों की भारी कमी होती है। खुद को एक्सप्रेस करने के लिये ऐसे स्थानों पर जाती है, यहां होने वाले प्रवचनों से उन्हें थोड़े समय के लिये मानसिक शांति का अनुभव होता है। और इसीलिये ऐसी जगहों के लिये उनका विश्वास बढ़ जाता है। वे पुनः पूरे उत्साह के साथ ऐसे सत्संगों में जाने के लिये सजधज कर तैयार हो जाती हैं।

ऐसे धार्मिक आयोजनों में होने वाला कीर्तन, नृत्य जैसी गतिविधियों में महिलाएं खुद को अभिव्यक्ति करने का अवसर तलाशती हैं। बगैर किसी लोकलाज के डर के खुद को अभिव्यक्त करती हुईं देखी जा सकती हैं। ऐसे बाबाओं के साथ व्यक्तिगत बातचीत में कई तरह की सांत्वना पाती हैं, भेदभाव रहित प्रेम देखती हैं, अपनी समस्या सुनाने के लिये यहां कोई मिल जाता है, जो उनके घरों में कभी नहीं मिल पाता हैं और अगर संयोग से उनके जीवन में कुछ अच्छा हो जाता है, तो वे इसे इन बाबाओं का आशीर्वाद समझती हैंै। इसलिये यह समझना कहीं से मुश्किल नहीं है कि यहां आकर महिलाओं को क्या मिलता है। वे बेवजह यहां नहीं आती हैं, यहां उनका अपना ‘स्पेस’ होता है।

मध्यम क्लास की इन महिलाओं में देश-दुनिया देखने के अवसरों की भारी कमी होती है। खुद को एक्सप्रेस करने के लिये ऐसे स्थानों पर जाती है, यहां होने वाले प्रवचनों से उन्हें थोड़े समय के लिये मानसिक शांति का अनुभव होता है।

भगदड़ में क्यों मरती हैं महिलाएं

वैसे तो हमारे यहां किसी तरह के पुख्ता आंकड़े नहीं हैं, जो कह सके कि ऐसी भगदड़ों में कितनी महिलाएं, बुजुर्ग या बच्चे जान से हाथ धोते हैं। लेकिन हर बार होने वाली ऐसी भगदड़ों की मीडिया रिपोर्ट से यहीं छनकर आता है कि महिलाएं सबसे पहले हताहत होती हैं। ऐसा होने का सबसे बड़ा कारण है कि शारीरिक रूप से खुद को दमखम के साथ आगे नहीं बढ़ा पाना। दूसरा कारण होता है उनकी वेशभूषा। साड़ी जैसा परिधान दौड़ने और कूदने में उन्हें अक्षम बना देता है। चूंकि महिलाएं घर से बाहर कम निकलती हैं, इसलिये संकट का सामना करने के अवसर उनके पास कम होते हैं। जाहिर है किसी संकट की घड़ी में उनके अंदर घबराहट अधिक होती है। और घबराहट में किसी भी संकट का सामना नहीं किया जा सकता है। परिणामस्वरूप वे अपने उपर नियंत्रण खो देती हैं।

महिलाएं घर से बाहर कम निकलती हैं, इसलिये संकट का सामना करने के अवसर उनके पास कम होते हैं। जाहिर है किसी संकट की घड़ी में उनके अंदर घबराहट अधिक होती है। और घबराहट में किसी भी संकट का सामना नहीं किया जा सकता है।

समाज महिलाओं की स्थिति दूसरे दर्जे की है। हर क्षेत्र के आंकड़े यही कहते हैं। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक असुरक्षाओं से ग्रसित महिला किसी
आसाराम, रामपाल, रामरहीम, जया किशोरी, अनिरूद्धाचार्य के यहां ही आश्रय तलाशते चले जाने की संभावना अधिक ही होती है। तो इसके कारणों को तलाशकर उनका उपाय करने की जरूरत है ना कि उनकी कमियों और कमजोरियों को दर्शाने की।

शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

हर स्त्री का रोजनामचा

कुछ पुस्तकें खुद को पढ़ाने की काबिलियत रखती हैं। ऐसी ही एक पतली सी पुस्तक पिछले दिनों हाथ में आयी। आदतन मजमून समझने के उद्देश्य से पेज पलटते-पलटते वह कब पढ़ते हुये समाप्त हो गयी, समाप्त होने के साथ समझ आया कि अच्छी पुस्तकें स्वयं को पढ़ाने की काबिलियत रखती हैं। यह खूबसूरत किताब है- रोजनामचा, एक कवि-पत्नी का।

किताब किसी रहस्य या रोमांच से भरी हुयी नहीं थी, इसमें चिलचस्पी की वजह बनती है इसकी सीधी और साधारण तरीके से दर्ज की गई जिंदगी की बातें। वैसी ही बातें जैसी हम अपने पड़ोसियों या जान-परिचय के साथ पांच या दस मिनट खड़े होकर कर लेते हैं और मन हल्का होने के साथ हम फिर अपनी जिंदगी में वापस आ जाते हैं। किताब रोजनामचा, एक कवि-पत्नी काऐसी ही रोजमर्रा की मन की बातें कहने वाली किताब हैं। इसमें
दिलचस्पी इस करण से भी बढ़ जाती हैं कि यह रोजनामचा एक ऐसी महिला ने दर्ज किया जो एक नामी लेखक
, कवि और साहित्यकार की पत्नी हैं। एक लेखक साहित्कार की पत्नियों के अपने जीवन में क्या संघर्ष होते हैं, यह जानने के लिये इस तरह की डायरीनुमा किताबों का अपना महत्व है। ऐसी रचनायें एक रचनात्मक व्यक्ति के सबसे करीब शख्स के माध्यम से आती हैं, तो उनकी विश्वनीयता अधिक स्थायी होती है और अनुभव अद्भुत है।

जानेमाने वरिष्ठ साहित्यकार रमाकांत शर्मा उद्भ्रांतकी पत्नी उषा शर्मा की यह डायरी है। जिसे उन्होंने अनियमित ही सही पर अपने अनुभवों को लिखा है। यह पुस्तक उषा शर्मा की मृत्यु के उपरांत उद्भ्रांत जी ने संपादित करके हम पाठकों के समझ प्रस्तुत किया है। डायरी में दर्ज घटनाएं बहुत लंबे समय तक की नहीं हैं। 1977 से 1983 तक ही उषा शर्मा लगातार लिख सकीं। आखिर उनकी अपनी व्यस्तताएं थीं, दूसरी बात किताब के संपादक जिन्होंने अपने प्राक्कथन में लिखा है कि उनके कहने पर ही वे लिखने को तैयार हुई थीं। इसलिये शायद समय के दबाव और संघर्ष के कारण वे इस तरह के काम को महत्व नहीं दे पायी होंगी। 18 मार्च 1983 को वे लिखती भी हैं- डायरी आज तो लिख रही हूं देखो कितने दिन लिख पाती हूं। रिंकी के इम्तहान भी होने वाले हैं। उसका टीवी में भी प्रोग्राम है। इच्छा तो हो रही है कि उसको भेज दूं। देखो क्या होता है।

इस रोजनामचा में लेखिका उषा शर्मा ने 30-40 शब्दों से लेकर लगभग एक हजार शब्दों में अपने मन-भावों को व्यक्त किया है। यह कोई घुमा-फिराकर लिखी गई साहित्यिक रचना नहीं हैं। एक पत्नी अपने घरेलू फ्रंट पर क्या संघर्ष करती है बस इसे साफ-साफ लिखा गया है। एक दंपति के बीच का प्यार और टकराहट, उनका मान और मनौव्वल, बच्चों का लालन-पालन, एक संयुक्त परिवार के आपसी टकराहटें, पति से उसकी अपेक्षायें, इन सबके बीच होने वाला सिर दर्द भी, सब कुछ बड़ी ही साफगोई से दर्ज कर दिया है लेखिका ने। 20 जुलाई, 1982 को वे लिखती हैं- काफी दिनों बाद आज लिखने बैठी हूं। बच्चे इतना तंग करते हैं। घर में किसी न किसी बात को लेकर झगड़ा हो जाता है। क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता है।

कई साहित्कार पत्नियों ने अपने साहित्कार पतियों के बारे में लिखा है। जिन्हें पढ़कर साहित्कारों के निजी जीवन की काफी जानकारियां मिलती है। लेकिन एक गैर साहित्कार पत्नी जब अपने साहित्कार पति और अपने निजी जीवन के बारे में साफगोई से लिखती है, तब एक समाज की सामाजिक और सांस्कृतिक बुनावट उद्घाटित होती है। एक गैर साहित्यिक पत्नी कैसे अपने पति से कम्युनिकेट करें यह भी समस्या होती है। इसी समस्या के बारे में लेखिका ने 12 जनवरी 1980 को भारी मन से लिखा है- समझ में नहीं आता कि किस तरह ये समझ पैदा करूं। राजू थोड़ी बातें करा करें, तो शायद आ जाए, लेकिन राजू चाहते हैं कि हम किताबें पढ़ के समझ पैदा करें।लेखिका की इतनी संक्षिप्त डायरी में ही हमारे समाज की स्त्रियों के जीवन के इतने पहलू समाहित हैं कि किताब में हर स्त्री को अपना जिया जीवन दिख जायेगा। ऐसा लगता है कि लेखिका यदि अपना यह लेखन जारी रख पाती तो हम उनके लेखक पति और स्वयं उनके लेखन की उत्कृटता के दूसरे पहलू जरूर देख पाते।

 

(समीक्षा युगवार्ता पत्रिका के जुलाई अंक में छपी है)