नारी शक्ति वंदन अधिनियम, 2023 के बाद राजनीति को अपने कार्यक्षेत्र के रूप में देख रही
महिलाओं को यह आशा बनती है कि राजनीतिक दल महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारेगे।
अधिक संख्या में उनके नाम को पुरुष कैंडीडेट के बरक्स कंसीडर करेंगे। लेकिन सारी
आशाएं धूमिल हो जाती हैं, जब 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा चुनावों में
महिलाओं को टिकट देने की संख्या का पता चलता है। चुनाव मैदान में तीन मुख्य
राजनीति दलों के कुल 210 प्रत्याशियों में 25 महिलाएं चुनाव मैदान में हैं। आम आदमी पार्टी
ने 09 महिलाओं को, भारतीय जनता पार्टी ने भी 09 महिलाओं और कांग्रेस ने 07 महिलाओं को टिकट दिये हैं। यद्यपि यह संख्या पिछले चुनाव 2020 से अधिक है।
इन चुनावों पर पूरे देश की नजर है, कारण, दिल्ली देश की राजधानी है, सत्ता का केंद्र है। लेकिन सत्ता केंद्र में महिला भागीदारी
संतोषजनक नहीं दिख रही है। आप ने अपने सात महिला प्रत्याशियों को फिर से टिकट दिये
हैं, जिन्हें 2020 में दिये थे। इसमें मुख्यमंत्री आतिशी सहित राखी, प्रमिला टोकास, धनवंती चंदेला, बंदना कुमारी, और सरिता सिंह हैं। बाकि में अंजना पार्च एक नया चेहरा है, जबकि पूजा बाल्यान एमएलए नरेश बाल्यान की पत्नी
हैं जिन्हें हाल ही में एक मामले में गिरफ्तार किया गया था। इसके बरक्स भारतीय
जनता पार्टी ने रेखा गुप्ता, पूनम शर्मा, दीप्ती इंदौरा, उर्मिला कैलाश, स्वेता सैनी, नीलम पहलवान, शिखा राय, प्रियंका गौतम एवं
कुमारी रिंकू को चुनाव मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस भी जानीमानी राजनीतिक
शख्सियत अलका लाम्बा के अलावा रागिनी नायक, अरिबा खान, अरुणा कुमारी, हरबनी कौर, सुषमा यादव, पुष्पा सिंह के साथ चुनाव मैदान में है।
2020 में हुये दिल्ली
विधानसभा चुनाव में इन तीनों राजनीतिक दलों ने कुल मिलाकर 24 महिलाओं को टिकट दिये थे। इनमें से कांग्रेस ने
सबसे ज्यादा 10 महिलाओं को टिकट
दिये थे। वहीं 2015 के चुनावों में कुल
19 महिलाएं चुनाव मैदान में थीं, इनमें से सबसे ज्यादा भाजपा ने 08 महिलाओं को अपना प्रत्याशी बनाया था। चुनाव
आयोग के अनुसार दिल्ली में वोटरों की संख्या 1.55 करोड़ है जिनमें से 83.89 लाख पुरुष वोटर एवं 71.74 लाख महिला वोटर हैं। पिछली विधानसभा चुनाव 2020 में 62.5 फीसदी महिलाओं ने
वोट किया था। महिला वोटरों की संख्या देखते हुये ही चुनाव के केंद्र में महिलाएं आ
गई हैं, लेकिन चुनाव के मैदान में महिलाओं को उतारने में
बड़े राजनीतिक दलों में जो हिचकिचाहट है, वह महिलाओं को राजनीति के क्षेत्र में आने से कहीं न कहीं
रोक रही है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव, 2020 में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 62 सीटें जीती थीं। 2015 के मुकाबले महिला
सीटों में इजाफा हुआ था। 62 विधायकों में आठ
महिला विधायक चुनावी जंग जीत कर आई थीं। आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की इस
धमाकेदार जीत के पीछे महिलाओं के समर्थन को एक बड़ी वजह बताया गया था। चुनाव के बाद
हुए सीएसडीएस के सर्वे के अनुसार आम आदमी पार्टी को 60 फीसदी महिलाओं ने वोट दिये थे। यह 2015 के मुकाबले 07 फीसदी ज्यादा थे। महिला वोटरों ने आम आदमी
पार्टी को कई कारणों से वोट किया था। इसमें सबसे बड़ा कारण महिलाओं के लिए उनकी
कल्याणकारी योजनाएं थीं। शायद पूर्व मुख्यमंत्री केजरीवाल इस बात को अच्छे से
समझते हैं कि महिलाएं एक वोटबैंक के रूप में कितना सशक्त हो चुकी हैं। शायद यही वह
कारण भी बना जब अदालती फैसले के बाद मुख्यमंत्री के रूप में काम करने के अयोग्य
घोषित होते ही नया मुख्यमंत्री चुनने की बारी आयी तो उन्हें एक योग्य उम्मीदवार के
रूप में आतिशी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौप दीं। इस निर्णय के पीछे कहीं न कहीं
महिलाओं को अपनी पार्टी के प्रति आकर्षित करना ही था। लेकिन जब बात सत्ता में
भागीदारी की आती है, तब वही ढाक के तीन
पात वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है।
और यह सब तब है जब सितंबर, 2023 में नारी शक्ति वंदन अधिनियम का कमोबेश सभी राजनीतिक दलों
ने समर्थन किया था। इस बिल के पास होते ही अभी तो नहीं भविष्य के लिए महिलाओं को
लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित कर दी जायेगीं। तब से 2024 में होने वाले
लोकसभा चुनावों से कई राज्यों के विधानसभा चुनावों तक सार्वजनिक क्षेत्रों में काम
कर रहीं महिलाओं ने जिस बात की उम्मीद लगा रखी है, उसको पूरा होते नहीं देख रही हैं। खासतौर पर राजनीति में
अपना भविष्य देख रही महिलाओं ने तो ऐसा बिलकुल नहीं सोचा होगा कि एक तिहाई सीटों
के आरक्षण का समर्थन करने वाली पार्टियां चुनावों में महिलाओं को उतारने में इतना
संकोच कर रही हैं। 27 साल की जद्दोजहेद
के बाद महिला आरक्षण बिल पास होने के बाद महिलाओं को ऐसा लग रहा है कि यह कोरा
आश्वासन ही बनकर रह गया है।
सवाल उठता है कि राजनीतिक दल स्वतःस्फूर्ति महिलाओं को टिकट
देने और राजनीतिक भागीदारी देने में इतना ना-नुकुर क्योंकर करते हैं। कहीं राजनीति
में पुरुष वर्चस्व इसका कारण तो नहीं है। 2019 लोकसभा चुनाव के समय सीएसडीएस-लोकनीति-क्विंट ने संयुक्त
रूप से एक दिलचस्प सर्वे किया था। इस सर्वे में महिला और पुरुषों की इस प्रवृत्ति
पर अध्ययन किया गया कि वे वोट करते समय किन चीजों का ध्यान रखते हैं। इस सर्वे में
68 प्रतिशत युवा महिलाओं ने माना कि महिलाओं को
पुरुषों की तरह राजनीति में भाग लेना चाहिए। इसी सर्वे में पांच में से तीन
महिलाओं ने कहा कि वे अपने परिवार या पति से प्रभावित हुए बगैर लोकसभा 2019 चुनाव के लिए वोट
करेंगी। 65 प्रतिशत पहली बार वोट करने जा रही युवतियों ने
नहीं माना कि महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा अच्छी नेता नहीं होती हैं। साथ ही दो
तिहाई युवतियों ने राजनीति में अपनी रुचि भी जाहिर की। अतः कह सकते हैं कि
धीरे-धीरे ही सही, राजनीति के प्रति
महिलाओं की रुचि-समझ बढ़ रही है। लेकिन राजनीतिक दल इस बात को स्वीकार करने में
आना-कानी करते रहते हैं। देखना यह है कि यह आना-कानी कब तक जारी रख सकते हैं, देर-सबेर तो उन्हें उनका हक देना ही होगा।
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