शनिवार, 22 मार्च 2025

पंचायत पति, मुखिया पति, सरपंच पति हैं, तो फिर कौन है असली प्रधान

एक ओटीटी वेब सीरीज ‘पंचायत’ लोगों द्वारा काफी पसंद की जा रही है। इसके कई संस्करण भी आ चुके हैं। इसमें मंजू देवी गांव फुलेरा की प्रधान चुनी जाती हैं, लेकिन नाममात्र की प्रधान। उनके प्रतिनिधि के तौर पर उनके पति ही सारा कामकाज देखते हैं और गांववालों की नजर में वे ही ‘असली’ प्रधान (मुखिया सरपंच) होते हैं। इस सीरीज में बहुत ही चुटीले ढंग से गांव फुलेरा, उसकी समस्याओं और असली प्रधान मंजू देवी और उनके प्रतिनिधि यानी प्राॅक्सी प्रधान, प्रशासन और गांवदारी पर बड़ी रोचकता के साथ चित्रण किया गया है। इसी ‘पंचायत’ सीरीज के कलाकारों को लेकर पंचायती राज मंत्रालय ने द वायरल फीवर के सहयोग से 15 से 20 मिनट की फिल्म बनाई गई है जिसमें प्रधान मंजू देवी अपने पति ‘प्रधानपति’ की अनुपस्थिति में अपने कामकाज को निपटाती हैं, बल्कि बड़ी ही कुशलता से निपटाती हैं। और गांववालों का दिल जीत लेती हैं। इस प्रोडक्शन का शीर्षक दिया गया है- असली प्रधान कौन?

चार मार्च को इस प्रोडक्शन का प्रीमियम विज्ञान भवन, दिल्ली में देश भर से आई 1200 ग्राम महिला प्रतिनिधियों के सामने किया गया। इस प्रोडक्शन में नीना गुप्ता, चंदन रॉय और फैसल मलिक जैसे प्रसिद्ध कलाकार हैं। यह फिल्म सरपंच पति संस्कृति को संबोधित करती है। आज भी हमारे महिला ग्राम प्रतिनिधियों की यह प्रमुख समस्या है कि उनके प्रतिनिधियों के तौर पर उनके पति, पिता, भाई, ससुर या देवर जैसे रिश्तों के पुरूष प्रतिनिधि ही उनके प्रतिनिधि के तौर पर काम करते हैं। इसके बहुत से कारण है जिनको दूर करना अभी बाकी है। इसी क्रम में पंचायती राज मंत्रालय ने ‘सशक्त पंचायत नेत्री अभियान’ चलाया है। असली प्रधान कौन फिल्म दर्शाती है कि एक महिला ग्राम प्रधान जन कल्याण के लिए अपनी शक्तियों का कितने प्रभावी ढंग से उपयोग करती है। यह फिल्म प्राॅक्सी प्रतिनिधित्व के मुद्दे को उठाती है, जहां परिवार के पुरुष सदस्य अनौपचारिक रूप से निर्वाचित महिला नेताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह एक ऐसी प्रथा है, जो पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के संवैधानिक जनादेश को कमजोर करती है। इस फिल्म के बारे में मंजू देवी का किरदार निभाने वाली प्रसिद्ध अभिनेत्री नीना गुप्ता कहती हैं कि असली प्रधान कौन? सिर्फ एक और प्रोडक्शन नहीं है, यह ग्रामीण भारत में महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली वास्तविक जीवन की चुनौतियां हैं।

पिछले दिनों पंचायती राज मंत्रालय द्वारा पूर्व खान सचिव सुशील कुमार के नेतृत्व में गठित समिति ने एक रिपोर्ट मंत्रालय को पेश की है। इस समिति का गठन सितंबर, 2023 में किया गया था। ‘पंचायती राज प्रणालियों और संस्थाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व और भूमिकाओं को बदलनाः प्रॉक्सी भागीदारी के प्रयासों को खत्म करना’ शीर्षक वाली यह रिपोर्ट ने मंत्रालय और कई संबंद्ध संस्थाओं का व्यापक ध्यान आकर्षित किया है। स्थानीय शासन में वास्तविक महिला नेतृत्व को मजबूत करने के मंत्रालय के लगातार प्रयासों के पक्ष में यह रिपोर्ट महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली है। इसकी वजह है कि इस रिपोर्ट ने न केवल वास्तविक समस्या को एड्रेस किया, बल्कि समस्या का समाधान भी प्रस्तावित किया है। इस कड़ी में मंत्रालय द्वारा साल भर चलने वाला ‘सशक्त पंचायत नेत्री अभियान’ है जिसे देश भर में पंचायती राज संस्थाओं की महिला प्रतिनिधियों की क्षमता और प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए बनाया गया है। यह पंचायती राज पदों पर निर्वाचित महिलाओं के कौशल और आत्मविश्वास के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करेगा। साथ ही यह सुनिश्चित करेगा कि वे अपने संवैधानिक अधिकारों और जिम्मेदारियों का प्रभावी ढंग से उपयोग कर रहीं हैं कि नहीं।

73वां संशोधन अधिनियम, 1992 के तहत प्रदेशों में पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम बनाये गये। इस तीन स्तरीय स्थानीय शासन व्यवस्था में महिलाओं को एक तिहाई सीटें आरक्षित की गईं। समय के साथ इस आरक्षण को बढ़ाकर कई राज्यों में 50 फीसदी तक कर दिया गया। अब तक 21 राज्य और दो केंद्र शासित प्रदेशों में महिलाओं की सीटें 50 फीसदी आरक्षित हैं। साल 2005 में, पंचायती राज संस्थाओं में कुल निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या 27.82 लाख थी, जिनमें 10.42 लाख यानी 37.46 फीसदी महिला प्रतिनिधि थीं। 2020 तक यह संख्या बढ़कर 31 लाख से अधिक हो गई, जिसमें 14.50 लाख से ज्यादा यानी 46 फीसदी महिलाएं निर्वाचित प्रतिनिधि थीं। यह दर्शाता है कि इतने वर्षों में महिला नेतृत्व की भागीदारी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। इन सबके बावजूद रिपोर्ट कहती है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और राजस्थान में प्राॅक्सी प्रतिनिधित्व की संख्या अन्य राज्यों की तुलता में कहीं ज्यादा है।

‘पंचायती राज प्रणालियों और संस्थाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व और भूमिकाओं को बदलनाः प्रॉक्सी भागीदारी के प्रयासों को खत्म करना’ रिपोर्ट में इस समस्या से निपटने के लिये कुछ सुधारात्मे दंड की सिफारिशें की गई हैं। मंत्रालय का भी कहना है वह अपनी सिफारिशों को लागू करने के लिये कदम उठाएगा, जिसमें नीतिगत हस्तक्षेप, संरचनात्मक सुधार और अनुकरणीय दंड शामिल है, ताकि प्रधान पति, सरपंच पति या मुखिया पति की प्रथा पर रोक लगाई जा सके। रिपोर्ट में कहा गया है कि गांवों में महिलाओं की पारंपरिक और सदियों पुरानी पितृसत्तात्मक मानसिकता और कठोर सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों को मनवाने से भी महिला प्रतिनिधित्व पीछे चला जाता है। इसमें एक है कई तरह की पर्दा प्रथाओं का पालन करना। रिपोर्ट में एक कारण राजनीतिक दबाव को भी बताया गया है, जिसमें राजनीतिक विरोधियों द्वारा मिलने वाली धमकी और दबाव भी होता है जिसे न मानने पर उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है। इस किस्म की हिंसा में उनका अनुसूचित जाति और जनजाति, अल्पसंख्यक और विकलांग श्रेणियों का होने से उनके उपर दबाव और अधिक पड़ने लगता है। इसके अतिरिक्त महिलाओं की घरेलू जिम्मेदारियों के कारण उन्हें सार्वजनिक कामों से खुद को अलग करने का दबाव भी पड़ता है। घर और बाहर दोनों जिम्मेदारियों के दबाव में वे अक्सर घर की जिम्मेदारियों को चुन लेती हैं। इसके अतिरिक्त बहुत बड़ा करण उनका अशिक्षित रह जाना भी है। बहुत सी सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों से महिलाओं को शिक्षा और सार्वजनिक कामों के अनुभव न हो पाने के कारण वे निर्वाचित होने के बावजूद अपनी भूमिका को सीमित कर लेती हैं। सबसे ज्यादा उन्हें वित्तीय निर्णय संबंधी कामों में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जिसकी वजह से वे संबंधी पुरूष साथियों की मदद लेने को मजबूर हो जाती हैं।

प्राॅक्सी प्रतिनिधित्व के कारणों में समिति की बातों को गौर किया जाये तो वे सभी वही कारण हैं जिनकी वजह से महिलाओं को घर के बाहर सार्वजनिक भूमिका को स्वीकारा नहीं जाता है। स्वीकारने से पहले उनकी सार्वजनिक भूमिका को ही नाकारने की प्रवृत्ति रहती है, जो उनकी राह में कई तरह की बाधाओं के रूप में सामने आती है। पंचायती शासन प्रणाली को लागू हुये 31 वर्ष हो चुके हैं। महिला प्रतिनिधियों को किसी न किसी बहाने उन्हें उनकी पारंपरिक भूमिका में सीमित करने की मानसिकता में ऐसे ही किन्हीं सरकारी प्रयासों से कुछ संभव हो सकता है। असली प्रधान कौन से यह शुरूआत कितनी प्रभावी होगी, आने वाले समय में ही पता चल सकेगा।

मंगलवार, 4 मार्च 2025

क्या कहती है पढ़ी-लिखी मांओं की बढ़ती संख्या

 किसी भी देश के विकास में महिला और पुरुषों की भूमिका समान होता है, अगर इनमें से कोई भी किसी भी दृष्टि से कमजोर होगा, तो समाज और देश के विकास में बाधा उत्पन्न होगी। उचित और संपूर्ण शिक्षा वह फैक्टर है जो महिला और पुरुष दोनों को समान रूप से प्रभावित करते हैं, लेकिन महिलाओं का अशिक्षित रह जाना पूरे समाज को प्रभावित करता है। इसलिये यदि मांएं अधिक शिक्षित हो रही हैं, तो यह उत्साहित करने वाली बात है।


  • एक पढ़ी-लिखी मां सिर्फ अपने परिवार का ही नहीं, बल्कि पूरे समाज का भविष्य संवारती है।
  • शिक्षित मां का हाथ थामकर बच्चे न केवल अक्षर पहचानते हैं, बल्कि जीवन के मूल्यों को भी समझते हैं।
  • अगर मां शिक्षित होगी, तो एक नहीं, बल्कि दो पीढ़ियां शिक्षित होंगी।
  • पढ़ी-लिखी मां अपने बच्चों के जीवन की पहली और सबसे प्रभावी गुरु होती है।
  • एक शिक्षित मां अपने बच्चों को केवल सपने देखना नहीं सिखाती, बल्कि उन्हें पूरा करने का हौसला भी देती है।
  • अगर हर मां शिक्षित हो जाए, तो पूरा देश तरक्की की राह पर दौड़ने लगेगा।


इंटरनेट पर तैरते इन ढेर सारे उपर्युक्त कथनों को यहां देने का अर्थ केवल इतना है कि एक पढ़ी लिखी मां के महत्व समझा और समझाया जा सके। और यही बात वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट-2024 ने अपने हालिया प्रकाशित सर्वे में आज साबित कर दिया है। खबर है कि 2016 से 2024 के दौरान ग्रामीण मातृ शिक्षा के स्तर में महत्वपूर्ण सकारात्मक परिवर्तन हुआ है, जो देश की आधी आबादी के लिये तो उत्साहवर्धक है ही, पर उससे कहीं अधिक हमारे समाज के लिये महत्वपूर्ण है। कभी स्कूल न जाने वाली मांओं (5-16 आयु वर्ग के बच्चों की) का अनुपात 2016 में 46.6 से घटकर 2024 में 29.4 फीसदी हो गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि अब किशोर उम्र के बच्चों की मांएं अधिक संख्या में पढ़ी-लिखी हो चुकी हैं। यह संभव हुआ है साक्षर भारत मिशन, सर्व शिक्षा अभियान (अब समग्र शिक्षा), बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, और साथ ही मिड डे मील के संयुक्त प्रयास से। इन्होंने इस दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिसका परिणाम आज दिख रहा है।

एएसईआर एक राष्ट्रव्यापी ग्रामीण घरेलू सर्वेक्षण है जिसे एनजीओ प्रथम ने देश के 605 ग्रामीण जिलों में 6,49,491 बच्चों के पढ़ने के स्तर और अंकगणित पर परीक्षण करके किया है। यह सर्वेक्षण बच्चों के नामांकन और सीखने के स्तर को देखने के अलावा, प्रत्येक बच्चे के माता-पिता के स्कूल के वर्षों की संख्या के बारे में जानकारी एकत्र करता है। एएसईआर-2024 की यह रिपोर्ट मातृ शिक्षा के बढ़ते आंकड़ों पर ही नहीं है, इसके समग्र अध्ययन से यह भी पता चलता है कि महिलाएं उच्च शिक्षित भी हो रही हैं। कक्षा 10 से आगे की पढ़ाई करने वाली महिलाओं की संख्या में इस दौरान वृद्धि देखी जा रही है। 2016 में जहां 9.2 फीसदी मांओं ने कक्षा 10 से आगे की पढ़ाई प्राप्त की थी, वहीं आठ वर्ष बाद यह 10 फीसदी बढ़कर 2024 में 19.5 फीसदी बढ़ गईं।

एएसईआर-2024 की यह रिपोर्ट मातृ शिक्षा के बढ़ते आंकड़ों पर ही नहीं है, इसके समग्र अध्ययन से यह भी पता चलता है कि महिलाएं उच्च शिक्षित भी हो रही हैं। कक्षा 10 से आगे की पढ़ाई करने वाली महिलाओं की संख्या में इस दौरान वृद्धि देखी जा रही है।

अगर राज्यवार आंकड़ों की बात की जाये, तो केरल ने न केवल इस दौरान सबसे अधिक वृद्धि देखी गई हैै। मांओं के स्कूली शिक्षा के स्तर की बात करें तो यह सबसे अच्छा प्रदर्शन भी रहा है। 2016 में 40 फीसदी मांओं ने कक्षा 10 से आगे की पढ़ाई की, जो 2024 में बढ़कर 69.6 फीसदी हो गई यानी पूरे 29 फीसदी की वृद्धि देखी गई। सभी राज्यों में 2016 और 2024 दोनों वर्षों में केरल ही ऐसा राज्य था, जहां मांएं कक्षा 10 से आगे की शिक्षा प्राप्त करने के मामले में सबसे अधिक रहीं। केरल के बाद हिमाचल प्रदेश का स्थान आता है, जहां पिछले आठ वर्षों में इस तरह के आंकड़े में लगभग 22 फीसदी की वृद्धि देखी गई है यानी 2016 में 30.7 फीसदी मांओं ने कक्षा 10 से आगे की पढ़ाई की थी, वहीं 2024 में यह 52.4 फीसदी हो गईं।

तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल सभी में कक्षा 10 से आगे की पढ़ाई करने वाली मांओं के प्रतिशत में 10 फीसदी से अधिक की वृद्धि ही हो सकी। इस मोर्चे पर सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला राज्य मध्य प्रदेश था, जहां 2016 में 3.6 फीसदी से 2024 में 9.7 फीसदी मांएं ही कक्षा 10 से आगे की पढ़ाई कर सकीं थी। अगर इस दौरान किशोर ग्रुप बच्चों के पिताओं की बात की जाए, तो महिलाओं से कमतर प्रदर्शन करते नजर आये हैं। पिछले आठ वर्षों में कक्षा 10 से आगे की पढ़ाई करने वाली माताओं और पिताओं के प्रतिशत के बीच का अंतर कम हुआ है। 2016 में कक्षा 10 से आगे की पढ़ाई करने वाले पिताओं का प्रतिशत माताओं की तुलना में 08 फीसदी था। यह 2024 में घटकर लगभग 05 फीसदी रह गया।

इस मोर्चे पर सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला राज्य मध्य प्रदेश था, जहां 2016 में 3.6 फीसदी से 2024 में 9.7 फीसदी मांएं ही कक्षा 10 से आगे की पढ़ाई कर सकीं थी। अगर इस दौरान किशोर ग्रुप बच्चों के पिताओं की बात की जाए, तो महिलाओं से कमतर प्रदर्शन करते नजर आये हैं।

सरकार द्वारा चलाए गए साक्षर भारत मिशन, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सर्व शिक्षा अभियान और मिड-डे मील जैसी योजनाओं ने महिलाओं को शिक्षा के प्रति प्रेरित किया है, इस तथ्य से तो इंकार नहीं किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त कई राज्यों में महिला साक्षरता केंद्र और रात्रि पाठशालाएं भी चलाई जाती थी, जिससे घरेलू महिलाओं को पढ़ने-लिखने की सुविधा हो जाती थी। इसके अतिरिक्त यदि हाल के दशक पर नजर डाली जाये, तो स्मार्टफोन और इंटरनेट की बढ़ती पहुंच ने महिलाओं को घर बैठे ऑनलाइन शिक्षा उपलब्ध कराने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पहले जहां ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की शिक्षा को अनदेखा किया जाता था, वहीं सरकारी अभियानों के प्रभाव और नजदीक ही उपलब्ध शिक्षा केंद्रों ने बेटियों को विद्यालय की चैखट तक पहुंचाने में मदद की। इसी का परिणाम है कि नई पीढ़ी की मांएं अधिक शिक्षित हो रही हैं। महिला स्वयं सहायता समूहों और विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों ने महिलाओं को शिक्षा के प्रति जागरूक किया है। इन कार्यक्रमों के माध्यम से महिलाओं ने शिक्षा के महत्व को समझा और उसे अपनाया। ग्रामीण भारत में महिलाओं की शिक्षा में यह सुधार समाज के लिए एक सकारात्मक संकेत है। इससे न केवल अगली पीढ़ी को लाभ मिलेगा, बल्कि पूरे देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति को भी गति मिलेगी। यदि यह प्रवृत्ति इसी तरह जारी रही, तो आने वाले वर्षों में ग्रामीण भारत पूर्ण साक्षरता की ओर अग्रसर हो सकेगा, जो 2047 के विकसित भारत के लिये एक बढ़ते कदम का द्योतक हो सकता है।

शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

वोट तो दिए, पर नहीं मिलीं सीटें ?


दिल्ली विधानसभा में महिला प्रतिनिधित्व में गिरावट चिंतन का विषय है। दिल्ली में शीला दीक्षितसुषमा स्वराज और आतिशी जैसी तीन महिला मुख्यमंत्री देने वाली दिल्ली की विधानसभा में महिला विधायकों की घटती संख्या आगामी नारी शक्ति वंदन अधिनियम के लिये कोई अच्छा संकेत तो नहीं

दिल्ली विधानसभा चुनाव-2025 के परिणाम जहां भारतीय जनता पार्टी के लिये काफी सुखद रहा, वहीं आम आदमी पार्टी के अस्तित्व का सवाल बन गया है। लेकिन इन सबके बीच महिला प्रतिनिधित्व का सवाल मुंह बांये खड़ा हो गया है। कारण, महिलाओं के निराशाजनक प्रदर्शन ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। सत्ता की बागडोर हाथ में लेने वाली भारतीय जनता पार्टी के पाले में चार महिला उम्मीदवारों की सीटें हाथ में आईं हैं, वहीं सत्ता खो चुकी आम आदमी पार्टी के हाथ में पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी के रूप में एक महिला विधायक की सीट आई है। विधानसभा चुनाव में इन दोनों प्रमुख दलों ने क्रमशः 09-09 महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था। कांग्रेस पार्टी ने 07 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया था, जिसमें अलका लांबा जैसी दिग्गज भी थीं, यह दूसरी बात है कि कांग्रेस का इस चुनाव में खाता भी नहीं खुला।

दिल्ली विधानसभा चुनाव-2025 महिला उम्मीदवारों की सफलता का प्रतिशत पिछली विधानसभा चुनाव से कम रहा है। आंकड़ों की माने तो कुल 699 उम्मीदवारों में से 96 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं, जिनमें से केवल 5 ही जीत दर्ज कर सकीं। 2020 में 08 महिलाएं विधानसभा में पहुंच सकी थीं। ग्रेटर कैलाश से विजय हुईं भाजपा की शिखा राय ने आप के दिग्गज सौरभ भारद्वाज को हराया है। नजफगढ़ सीट से विजय हुईं नीलम पहलवान ने आप के तरूण कुमार को हराया है। शालीमार बाग से जीतीं भाजपा की रेखा गुप्ता ने आप की वंदना कुमारी को हरा कर विधानसभा पहुंची हैं। वहीं वजीरपुर से जीतीं भाजपा की पूनम शर्मा ने राजेश गुप्ता को हराया है। अगर आम आदमी पार्टी की एकमात्र विजयी महिला उम्मीदवार आतिशी की बात करें तो उन्होंने कालकाजी सीट से भाजपा के रमेश विधूड़ी को एक कड़े मुकाबले में हराया है। इसी सीट से कांग्रेस की दिग्गज अलका लांबा भी खड़ी थीं। कालकाजी सीट काफी चर्चा बटोरने लगी थी, जब बड़बोले रमेश विधूड़ी ने पूर्व मुख्यमंत्री के लिये अशोभनीय टिप्पणी कर दी थी।

पिछले चुनावों की तुलना में इस बार महिला विधायकों की संख्या में कमी आई है। ऐसा नहीं है चुनाव मैदान में मजबूत महिला उम्मीदवार नहीं थी, आम आदमी पार्टी के कमजोर प्रदर्शन ने महिला उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा। 2020 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो राखी बिड़लान मंगोलपुरी, वंदना कुमारी शालीमार बाग, धनवंती चंदेला राजौरी गार्डन, राजकुमारी ढिल्लो हरिनगर, प्रीति तोमर त्रिनगर, भावना गौड़ पालम और आतिशी कालकाजी सीटों से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंची थीं। अगर इस बार की बात करें तो राखी बिड़लान मादीपुर से, वंदना कुमारी शालीमार बाग से, प्रीति तोमर त्रिनगर से और धनवंती चंदेला राजौरी गार्डन से चुनाव हार गई हैं। ये सभी महिलाएं आप की मजबूत उम्मीदवार थी। लेकिन जनता ने इनकी जगह दूसरे उम्मीदवारों को तरजीह दे दी।

मैदान में रहे तीन प्रमुख दलों ने कुल 25 महिलाओं को टिकट दिये थे। जो पिछली बार से एक अधिक था। इस बार 60.92 फीसदी महिलाओं ने वोट दिये, वहीं 60.21 फीसदी पुरुष वोट पड़े। कई विधानसभाओं में महिलाएं वोट देने के मामलों में पुरु
षों से आगे रहीं। इन चुनावों में महिलाओं को आकर्षित करने की काफी जद्दोजहद देखी गई। इसी का परिणाम है कि महिलाएं वोट देने में आगे रहीं। महिला वोटरों को आकर्षित करने के लिये लगभग सभी प्रमुख दलों ने एक से बढ़कर कैश ट्रांसफर
, फ्रीबीज का सहारा लिया, पर यहां एंटीकंबेंसी काम कर गई। आप की योजनाओं से एक ओर गरीब तबके की महिलाओं को काफी सुविधाएं हासिल हुई थीं, लेकिन मिडिल क्लास की महिलाओं को कुछ खास हाथ नहीं लगा। कम हो रही आमदनी और महंगाई के बीच संघर्ष ने उन्हें आप के अतिरिक्त सोचने पर मजबूर कर दिया। महिला उम्मीदवारों के हारने का चाहे जो करण हो, पर दिल्ली विधानसभा के अब तक के कुल कार्यकाल में तीन महिला मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, सुषमा स्वराज और आतिशी के रहते विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या का घटना चिंता का विषय तो है ही।

शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

चुनाव प्रचार में महिलाएं, लेकिन चुनाव मैदान से बाहर


नई दिल्ली विधानसभा चुनाव अपने चरम पर पहुंच चुके हैं। चुनावों में महिला वोटरों को आकर्षित करने के लिये सभी राजनीतिक दलों में खूब खींचतान मची हुई है। हो भी क्यों न, क्योंकि इस बार लगभग 72 लाख महिलाएं वोट करने के लिये तैयार हैं। इन वोटरों को आकर्षिक करने के लिये आम आदमी पार्टी ने महिला सम्मान राशि योजना,कांग्रेस ने प्यारी दीदी योजना और भारतीय जनता पार्टी ने महिला समृद्धि योजना के जरिये महिला वोट अपने तरफ खींचने का प्रयास कर रही हैं। कहने का अर्थ है कि इस चुनाव में एक वोट बैंक के रूप में महिलाएं केंद्र में बनी हुयी हैं। लेकिन जब बात चुनाव में महिलाओं को टिकट देने और राजनीतिक भागीदारी की आती है, तो सभी राजनीतिक दल एक सा चेहरा-मोहरा लिये दिखते हैं।

नारी शक्ति वंदन अधिनियम, 2023 के बाद राजनीति को अपने कार्यक्षेत्र के रूप में देख रही महिलाओं को यह आशा बनती है कि राजनीतिक दल महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारेगे। अधिक संख्या में उनके नाम को पुरुष कैंडीडेट के बरक्स कंसीडर करेंगे। लेकिन सारी आशाएं धूमिल हो जाती हैं, जब 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा चुनावों में महिलाओं को टिकट देने की संख्या का पता चलता है। चुनाव मैदान में तीन मुख्य राजनीति दलों के कुल 210 प्रत्याशियों में 25 महिलाएं चुनाव मैदान में हैं। आम आदमी पार्टी ने 09 महिलाओं को, भारतीय जनता पार्टी ने भी 09 महिलाओं और कांग्रेस ने 07 महिलाओं को टिकट दिये हैं। यद्यपि यह संख्या पिछले चुनाव 2020 से अधिक है।

इन चुनावों पर पूरे देश की नजर है, कारण, दिल्ली देश की राजधानी है, सत्ता का केंद्र है। लेकिन सत्ता केंद्र में महिला भागीदारी संतोषजनक नहीं दिख रही है। आप ने अपने सात महिला प्रत्याशियों को फिर से टिकट दिये हैं, जिन्हें 2020 में दिये थे। इसमें मुख्यमंत्री आतिशी सहित राखी, प्रमिला टोकास, धनवंती चंदेला, बंदना कुमारी, और सरिता सिंह हैं। बाकि में अंजना पार्च एक नया चेहरा है, जबकि पूजा बाल्यान एमएलए नरेश बाल्यान की पत्नी हैं जिन्हें हाल ही में एक मामले में गिरफ्तार किया गया था। इसके बरक्स भारतीय जनता पार्टी ने रेखा गुप्ता, पूनम शर्मा, दीप्ती इंदौरा, उर्मिला कैलाश, स्वेता सैनी, नीलम पहलवान, शिखा राय, प्रियंका गौतम एवं कुमारी रिंकू को चुनाव मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस भी जानीमानी राजनीतिक शख्सियत अलका लाम्बा के अलावा रागिनी नायक, अरिबा खान, अरुणा कुमारी, हरबनी कौर, सुषमा यादव, पुष्पा सिंह के साथ चुनाव मैदान में है।

2020 में हुये दिल्ली विधानसभा चुनाव में इन तीनों राजनीतिक दलों ने कुल मिलाकर 24 महिलाओं को टिकट दिये थे। इनमें से कांग्रेस ने सबसे ज्यादा 10 महिलाओं को टिकट दिये थे। वहीं 2015 के चुनावों में कुल 19 महिलाएं चुनाव मैदान में थीं, इनमें से सबसे ज्यादा भाजपा ने 08 महिलाओं को अपना प्रत्याशी बनाया था। चुनाव आयोग के अनुसार दिल्ली में वोटरों की संख्या 1.55 करोड़ है जिनमें से 83.89 लाख पुरुष वोटर एवं 71.74 लाख महिला वोटर हैं। पिछली विधानसभा चुनाव 2020 में 62.5 फीसदी महिलाओं ने वोट किया था। महिला वोटरों की संख्या देखते हुये ही चुनाव के केंद्र में महिलाएं आ गई हैं, लेकिन चुनाव के मैदान में महिलाओं को उतारने में बड़े राजनीतिक दलों में जो हिचकिचाहट है, वह महिलाओं को राजनीति के क्षेत्र में आने से कहीं न कहीं रोक रही है।

दिल्ली विधानसभा चुनाव, 2020 में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 62 सीटें जीती थीं। 2015 के मुकाबले महिला सीटों में इजाफा हुआ था। 62 विधायकों में आठ महिला विधायक चुनावी जंग जीत कर आई थीं। आप सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की इस धमाकेदार जीत के पीछे महिलाओं के समर्थन को एक बड़ी वजह बताया गया था। चुनाव के बाद हुए सीएसडीएस के सर्वे के अनुसार आम आदमी पार्टी को 60 फीसदी महिलाओं ने वोट दिये थे। यह 2015 के मुकाबले 07 फीसदी ज्यादा थे। महिला वोटरों ने आम आदमी पार्टी को कई कारणों से वोट किया था। इसमें सबसे बड़ा कारण महिलाओं के लिए उनकी कल्याणकारी योजनाएं थीं। शायद पूर्व मुख्यमंत्री केजरीवाल इस बात को अच्छे से समझते हैं कि महिलाएं एक वोटबैंक के रूप में कितना सशक्त हो चुकी हैं। शायद यही वह कारण भी बना जब अदालती फैसले के बाद मुख्यमंत्री के रूप में काम करने के अयोग्य घोषित होते ही नया मुख्यमंत्री चुनने की बारी आयी तो उन्हें एक योग्य उम्मीदवार के रूप में आतिशी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौप दीं। इस निर्णय के पीछे कहीं न कहीं महिलाओं को अपनी पार्टी के प्रति आकर्षित करना ही था। लेकिन जब बात सत्ता में भागीदारी की आती है, तब वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है।

और यह सब तब है जब सितंबर, 2023 में नारी शक्ति वंदन अधिनियम का कमोबेश सभी राजनीतिक दलों ने समर्थन किया था। इस बिल के पास होते ही अभी तो नहीं भविष्य के लिए महिलाओं को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित कर दी जायेगीं। तब से 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों से कई राज्यों के विधानसभा चुनावों तक सार्वजनिक क्षेत्रों में काम कर रहीं महिलाओं ने जिस बात की उम्मीद लगा रखी है, उसको पूरा होते नहीं देख रही हैं। खासतौर पर राजनीति में अपना भविष्य देख रही महिलाओं ने तो ऐसा बिलकुल नहीं सोचा होगा कि एक तिहाई सीटों के आरक्षण का समर्थन करने वाली पार्टियां चुनावों में महिलाओं को उतारने में इतना संकोच कर रही हैं। 27 साल की जद्दोजहेद के बाद महिला आरक्षण बिल पास होने के बाद महिलाओं को ऐसा लग रहा है कि यह कोरा आश्वासन ही बनकर रह गया है।

सवाल उठता है कि राजनीतिक दल स्वतःस्फूर्ति महिलाओं को टिकट देने और राजनीतिक भागीदारी देने में इतना ना-नुकुर क्योंकर करते हैं। कहीं राजनीति में पुरुष वर्चस्व इसका कारण तो नहीं है। 2019 लोकसभा चुनाव के समय सीएसडीएस-लोकनीति-क्विंट ने संयुक्त रूप से एक दिलचस्प सर्वे किया था। इस सर्वे में महिला और पुरुषों की इस प्रवृत्ति पर अध्ययन किया गया कि वे वोट करते समय किन चीजों का ध्यान रखते हैं। इस सर्वे में 68 प्रतिशत युवा महिलाओं ने माना कि महिलाओं को पुरुषों की तरह राजनीति में भाग लेना चाहिए। इसी सर्वे में पांच में से तीन महिलाओं ने कहा कि वे अपने परिवार या पति से प्रभावित हुए बगैर लोकसभा 2019 चुनाव के लिए वोट करेंगी। 65 प्रतिशत पहली बार वोट करने जा रही युवतियों ने नहीं माना कि महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा अच्छी नेता नहीं होती हैं। साथ ही दो तिहाई युवतियों ने राजनीति में अपनी रुचि भी जाहिर की। अतः कह सकते हैं कि धीरे-धीरे ही सही, राजनीति के प्रति महिलाओं की रुचि-समझ बढ़ रही है। लेकिन राजनीतिक दल इस बात को स्वीकार करने में आना-कानी करते रहते हैं। देखना यह है कि यह आना-कानी कब तक जारी रख सकते हैं, देर-सबेर तो उन्हें उनका हक देना ही होगा।

मंगलवार, 21 जनवरी 2025

मुफ्त...मुफ्त के फेर में महिला वोटबैंक

देश में महिलाओं को एक अलग वोट बैंक के रूप में देखने और समझने की प्रवृत्ति बहुत देर से विकसित हुई। और अब जब महिलाएं किसी भी चुनाव के लिये निर्णायक वोट बैंक के रूप में उभरने लगी हैं, तब उन्हें फ्रीबीज के भंवर में उलझा दिया जा रहा है।

राजधानी दिल्ली के चुनावों की घोषण हो चुकी है। इसी के साथ सभी राजनीतिक दल वोटरों को लुभाने में जुट गये हैं। इस लोक लुभावन वादों में एक बड़ा बदलाव महिला वोट बैंक को अपनी ओर आकर्षिक करने के लिये विशेष जुगत के रूप में देखा जा रहा है। एक दशक पहले राजनीतिक दलों के लिये महिला वोट पुरूष वोटरों के ‘पिछलग्गू’ वोटरों तक सीमित था, लेकिन अब सभी राजनीतिक दलों के लिये महत्वपूर्ण होता जा रहा है। एक दशक के अंदर हुये लोगसभा और विभिन्न राज्यों में हुये चुनावों में जो उलट-पुलट दिखी है, माना जा रहा है कि उसमंे महिला वोट बैंक का एक बड़ा हाथ है। इसे समझने के लिये नवंबर, 2024 में हुये महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हुये उलटफेर के जरिये समझा जा सकता है। चुनाव से ठीक छह महीने पहले महायुति गठबंधन की सरकार ने ‘माझी लाडकी बहिण योजना’ के रूप में महिलाओं को हर महीने 1500 रूपये देने की घोषण की। चंद महीनों बाद चुनाव परिणाम ने दिखा दिया कि महिलाओं का कितना बड़ा समर्थन महायुति गठबंधन को हासिल हुआ। महायुति गठबंधन ने 231 सीटों पर जीत दर्ज की। इस चुनाव में 2019 के मुकाबले महिला मतदाताओं की संख्या 06 फीसदी बढ़ गई थी। महाराष्ट्र चुनावों में कई विधानसभा सीटों पर जीत का अंतर 6 से 7 हजार वोट तक ही सीमित था। तो क्या यह कहा जा सकता है कि महिलाओं ने चुनावों में खुद को एक वोटबैंक के रूप में तबदील कर लिया है। जो वोटिंग पहले पुरूष केंद्रित जाति और धर्म से प्रभावित रहती थी, वह अब महिला केंद्रित भी हो सकती है।

राजधानी दिल्ली में विधानसभा चुनावों की घोषणा से पहले जब आम आदमी पार्टी ने ‘मुख्यमंत्री महिला सम्मान’ योजना के लिये रजिस्टे्रशन की घोषणा की, तो इसे पार्टी की महिला वोटरों को अपने पाले में खींचने की कवायद के रूप में अधिक देखा गया। इस योजना में दिल्ली में रहने वाली 18 साल या उससे उपर की उम्र वाली सभी महिलाओं को जिनकी आय तीन लाख रूपये से ज्यादा न हो, हर महीने सरकार 1000 रूपये देगी और इस राशि को चुनाव जीतने के बाद बढ़ाकर 2100 रूपये कर दिया जायेगा। हालांकि घोषणा के बाद ही यह योजना विवादों के घेरे में आ गई और आम आदमी पार्टी को इस मामले में चुप्पी साधनी पड़ गई, जब दिल्ली सरकार के महिला और बाल विकास विभाग ने अखबारों में विज्ञापन देकर साफ कर दिया कि दिल्ली सरकार ने इस तरह से किसी योजना का नोटिफिकेशन जारी नहीं किया है। वैसे इस योजना की घोषणा 2024-25 के लिये अपने बजट को पेश करते समय की थी। इसके लिये पार्टी ने 2000 करोड़ रूपये आवंटित भी किये थे। विवाद के बाद भी आम आदमी पार्टी अपनी इस योजना का पूरा फायदा उठाने के लिये तत्पर्य दिख रही है।

अगस्त, 2024 को झारखंड सरकार ने ‘मैया सम्मान योजना’ की शुरू की थी जिसके तहत महिलाओं को हर महीने 1000 रूपये देने का प्रावधान किया गया। नवंबर को संपन्न हुये विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने वादा किया कि चुनाव जीतने के बाद यह राशि बढ़ाकर 2500 रूपये प्रति माह कर दी जायेगी। परिणाम सामने है, कुल 81 सीटों में से 34 सीटें जीतकर हेमंत सोरेन की सरकार पुनः सत्ता में आ गई। 2023 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने घोषणा की कि अगर वह सत्ता में आई तो गृह लक्ष्मी योजना के तहत परिवार की महिला मुखिया को हर महीने 2000 रूपये की सहायता दी जायेगी। इसका फायदा कांग्रेस पार्टी को 135 सीटों पर जीत के तौर पर मिला। सरकार बनने के बाद कांग्रेस को तुरंत इस योजना को लागू करने का काम करना पड़ा। इसी तरह जनवरी, 2023 में मध्य प्रदेश सरकार ने ‘लाड़ली बहना योजना’ की घोषणा की। नवंबर, 2023 में संपन्न हुये चुनावों से पहले कांग्रेस ने भी ‘नारी सम्मान योजना’ की घोषणा की और घरेलू सिलेंडर 500 रूपये में देने का वादा भी किया। इसके जवाब में तत्कालिक शिवराज सिंह सरकार ने भी अपनी योजना की राशि में बढ़ोत्तरी करने का वादा महिलाओं से कर लिया। इन सबका नतीजा रहा कि भारतीय जनता पार्टी पुनः सत्ता में आ गई।

हमेशा से यह धारणा रही है कि महिलाएं वोट डालने के मामले में अपने परिवार का अनुसरण करती करती हैं। शायद यही कारण है कि देश की आधी आबादी को सत्ता में एक फिलर के तौर पर ही ट्रीट किया जाता है। राजनीतिक दलों की नजर उनके वोटों पर रहती तो है, पर वे उन्हें एक स्वतंत्र वोटर के रूप नहीं ले पाते हैं। इसलिए उनके घोषणापत्रों में भी महिलाओं के हिस्से में कोई ठोस योजनाओं की जगह लोकलुभावन और ‘राशन वितरण प्रणाली’ जैसे वादे ही नजर आते हैं। कई दल तो उन्हें साड़ी, चूड़ी, कुकर, टीवी बांटकर ही उनके वोट हासिल करते रहे हैं। कहने का अर्थ है कि देश में महिलाओं को एक अलग वोट बैंक के रूप में देखने और समझने की प्रवृत्ति बहुत देर से विकसित हुई। देश में महिलाओं को वोटिंग के अधिकार के लिए कोई जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी। तमाम अधिकारों के साथ ही महिलाओं को पुरुषों के समान वोट करने का अधिकार भी मिल गया था। देश के स्वतंत्रता आंदोलन ने महिलाओं को राजनीतिक भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया था, पर स्वतंत्रता मिलने के बाद लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी काफी देर से हुई। इसके कई कारण हो सकते हैं। लेकिन धीरे-धीरे यह ट्रेंड बदला। 2014 के लोकसभा चुनाव में महिला वोट प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले अधिक रहा। इस लोकसभा चुनाव में महिला और पुरुष वोट प्रतिशत दोनों बढ़ा था, पर पुरुषों के मुकाबले 1.79 फीसदी महिलाएं अधिक मात्रा में वोट देने निकलीं। यह पहली बार हुआ था। 2019 की लोकसभा चुनाव में भी यही हुआ।

वास्तव में इस तरह की योजनाओं पर फ्रीबीज, मुफ्तखोरी, खैरात, नोट के बदले वोट आदि का इल्जाम लगता है। हालांकि सभी इस समय सभी राजनीतिक दल इस तरह से महिलाओं के खातों में कैश ट्रांसफर कर रहे हैं। लेकिन अपने विपक्षी और प्रतिद्वंद्वी दलों पर फ्रीबी की तोहमत लगाते हैं। जो उनके लिये कल्याणकारी योजना है, वही विरोधी दल के लिये फ्रीबी दिखाते हैं। लेकिन सवाल है कि उन्हें इस किस्म से महिलाओं के वोटों को आकर्षित करने की जरूरत क्यों पड़ रही है। उनके पास महिलाओं के लिये ठोस योजनाओं के नाम पर यही 1000 से 3000 तक कैश ट्रांसफर की योजना ही रह गई हैं। यही वह सवाल है जिससे सभी राजनीतिक दल कन्नी काट रहे हैं। पिछले दो लोकसभा चुनावों में महिलाओं ने पुरूषों के मुकाबले वोट देने अधिक निकली हैं। इससे सभी राजनीतिक दलों में महिलाओं के एक बड़े वोट बेैंक क रूप में उभर कर सामने आने का आभास हो गया है। लेकिन वे इस उभरती शक्ति को कोई आर्थिक आधार देने में समर्थ और सफल नहीं हो सके हैं। महिलाएं एक बहुत बड़ी लेबर फोर्स बन सकती है, काम चाहने वाली सभी महिलाओं को देश की अर्थव्यवस्था से जोड़ा जाना चाहिये। तमाम सरकारें इसी मोर्चे पर फेल होती दिखती हैं। महिलाएं घर से निकलकर बाहर आयें, पैसा कमाने में समर्थ हो सकें, इसके लिये एक बहुत बड़े आर्थिक मोर्चे को खड़ा करना होगा। फिलहाल इतना बड़ा परिवर्तन बगैर किसी राजनीतिक इच्छा शक्ति के संभव होता नहीं दिख रहा है। अधिसंख्य महिलाएं घरेलू काम करती हैं, जिनका आर्थिक मूल्य देश की अर्थव्यवस्था में नहीं जोड़ा जाता है। इन तमाम कमियों के कारण महिलाओं के खातों में यह कैश ट्रांसफर एक सांत्वना या बेरोजगारी भत्ता के रूप में महिलाओं की मदद करता है। और महिलाएं इस मदद को परिवार पर ही खर्च करती हैं। फिलहाल इस कवायद से महिला वोट बैंक और राजनीतिक दल दोनों खुश हैं।

मंगलवार, 26 नवंबर 2024

वे कौन थीं, जिन्होंने गढ़ा हमारा संविधान

देश की स्वतंत्रता के लिये सभी वर्गों के सामूहिक संघर्ष ने हमें लोकतांत्रिक मूल्यों के बारे में विश्वास करना सिखाया। इसी की झलक हमारे संविधान में दिखती है। हमारे संविधान निर्माण के लिये बना मसौदा समिति पैनल बहुत ही शिक्षित और लोकतांत्रिक तरीकों में विश्वास रखने वाले लोगों का समूह था। इसमें देश की विविधता का वाजिब प्रतिनिधित्व शामिल किया गया था। इसलिये संविधान निर्माण में आधी आबादी का शामिल होना लाजिमी था। देश के विभाजन के संविधान सभा के माननीय सदस्यों की संख्या 299 थे जिनमें से 15 महिलाएं थीं। देखा जाये तो यह संख्या कोई आदर्श संख्या नहीं है, लेकिन अंग्रेजी शासन की अधीनता, अशिक्षा, समाज में मौजूद पूर्वाग्रह के कारण महिलाओं का राजनीति में अपना दावा प्रस्तुत करना लगभग असंभव था। फिर भी इस प्रतिनिधित्व ने संविधान निर्माण में क्या शामिल करने और क्या न शामिल करने के द्वंद्व को स्पष्ट किया, यह बदलाव आज हम महिलाएं जरूर देखने में सक्षम हुई हैं। यही हमारी उपलब्धि भी है। 

इस रौशनी में आइये जानते हैं कि वे कौन सी विद्वत् महिलाएं थीं जिनके विचारों और कार्याें का प्रभाव संविधान निर्माण पर इस हद तक पड़ा कि आज हमें उन्हें याद कर गर्व महसूस होता है-  


अम्मू स्वामीनाथन

केरल के नायर समुदाय से आने वाली अम्मू स्वामीनाथन का स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण स्थान है। उन्हें प्यार से अम्मुकुट्टी भी बुलाया जाता था, वे अपने विचारों और कार्यों में काफी निडर थीं, यह उनके सामाजिक कार्यों एवं एक राजनेता के रूप में उनके जीवनकाल से स्पष्ट होता है। अपने काम के माध्यम से उन्होंने महिला श्रमिकों के आर्थिक मुद्दों और समस्याओं को सबसे आगे रखा। संविधान निर्माण के समय उन्होंने महिलाओं के लिए वयस्क मताधिकार और संवैधानिक अधिकारों की मांग का मुखर होकर समर्थन किया था। 1952 में वे राज्यसभा की सदस्य चुनी गईं और कई संस्थाओं से जुड़कर काम करती रहीं।

एनी मस्कारेन

स्ंाविधान सभा में एनी मस्कारेन ने केरल का प्रतिनिधित्व किया था। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रीय रहते हुये वे कई बार जेल भी गईं। राजनीतिक रूप से काफी सक्रीय रहीं। वे कांग्रेस की राज्य कार्यकारिणी की सदस्य भी नियुक्त हुई थीं। स्वतंत्रता के बाद एनी मस्कारेन  रियासतों के एकीकरण के लिए चलाए गए आंदोलनों की नेताओं में से एक थीं। जब राजनीतिक दल त्रावणकोर स्टेट कांग्रेस का गठन हुआ, तो वह इसमें शामिल होने वाली पहली महिलाओं में से एक थीं। उन्होंने संविधान सभा की चयन समिति में भी काम किया, जिसने हिंदू कोड बिल पर विचार किया।

दक्षायनी वेलायुधन

संविधान सभा के लिए चुनी जाने वाली एकमात्र दलित महिला थीं, वे एर्नाकुलम के पुलया समुदाय से संबंध रखती थीं। वे देश की पहली अनुसूचित जाति की स्नातक तक शिक्षित महिला थीं। उन्होंने विधानसभा की सदस्य के रूप में कार्य किया। 1946-52 तक अनंतिम संसद का हिस्सा रहीं। 34 वर्ष की उम्र में, वह विधानसभा की सबसे कम उम्र की सदस्यों में से एक थीं। वेलायुधन ने केरल में जड़ जाति व्यवस्था को अपने जीवन और कार्याें से  प्रभावित और परिभाषित किया। साथ ही संविधान सभा में जाति आधारित भेदभाव को मिटाने के लिये जोरदार तर्क दिये।

बेगम ऐजाज रसूल

वेलायुधन की तरह बेगम ऐजाज संविधान सभा में एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य थीं। रसूल मालरकोटला के राजपरिवार से ऐजाज का ताल्लुक था। ऐजाज रसूल ने औपचारिक रूप से 1937 में पर्दा त्याग दिया था, जब उन्होंने गैर-आरक्षित सीट से अपना पहला चुनाव जीता और उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्य बनीं। 1952 में वे राज्यसभा के लिये चुनी गयी थीं। उन्होंने महिला हॉकी को लोकप्रिय बनाने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।

दुर्गाबाई देशमुख

किशोरावस्था से ही स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रीय होने वाली दुर्गाबाई देशमुख महिला अधिकारों के प्रति अपने पूरे जीवन सक्रीय रहीं। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान नमक सत्याग्रह में भाग लेने के दौरान ही उन्होंने आंदोलन में महिला सत्याग्रहियों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके कारण ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें 1930 और 1933 के बीच तीन बार कैद किया। 1936 में उन्होंने  आंध्र महिला सभा की स्थापना की, जो आगे जाकर बहुत महत्वपूर्ण संस्था बन गई। दुर्गाबाई पहली महिला थीं जिन्होंने चीन, जापान की अपनी विदेश यात्राओं के दौरान अध्ययन करने के बाद अलग-अलग पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना की आवश्यकता पर जोर दिया।

हंसा जीवराज मेहता

बड़ौदा, गुजरात से संबंध रखने वाली हंसा जीवराज मेहता संविधान सभा की प्रमुख सदस्य थीं। वे इस दौरान मौलिक अधिकार उप-समिति, सलाहकार समिति और प्रांतीय संवैधानिक समिति की सदस्य बनी थीं। 15 अगस्त 1947 को आधी रात के कुछ मिनट बाद, मेहता ने “भारत की महिलाओं” की ओर से सभा को राष्ट्रीय ध्वज भेंट किया- जो स्वतंत्र भारत पर फहराया जाने वाला पहला ध्वज था। हंसा ने इंग्लैंड से पत्रकारिता और समाजशास्त्र में पढ़ाई करने के बाद देश की महिलाओं के लिये काम करना शुरू किया। 1945 में उन्हें अखिल भारतीय महिला सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया गया था। हैदराबाद में आयोजित अखिल भारतीय महिला सम्मेलन में उन्होंने महिलाओं के अधिकारों का चार्टर प्रस्तावित किया था।

कमला चौधरी

कमला चौधरी एक हिंदी साहित्यकार के रूप में आजादी के आंदोलन में सक्रीय रहीं। उन्होंने 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। वे आंदोलन के दौरान छह बार जेल भी गईं। उन्होंने महिलाओं केा देश की आजादी के संघर्ष से जोड़ने का काम किया। वे संविधान सभा की सदस्य बनीं और संविधान अपनाए जाने के बाद, उन्होंने 1952 तक भारत की प्रांतीय सरकार के सदस्य के रूप में कार्य किया।

लीला रॉय

संविधान सभा में असम का प्रतिनिधित्व लीला राॅय ने किया था। असम के गोलपाड़ा से संबंध रखने वाली लीला राॅय एक उच्च शिक्षित एवं राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन करने वाले परिवार से आती थीं। उन्होंने देश की महिलाओं के अधिकारों के लिये काफी संघर्ष किया। साथ ही वे कई संगठनों से जुड़ी भी रहीं। 1937 में लीला कांग्रेस में शामिल हुईं और बंगाल प्रांतीय कांग्रेस महिला संगठन की स्थापना भी की। बंगाल से विधानसभा में चुनी गई एकमात्र महिला सदस्य थीं। वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की एक करीबी सहयोगी थीं।

मालती चौधरी

एक प्रतिष्ठित परिवार से ताल्लुक रखने वाली मालती चौधरी की शिक्षा शांति निकेतन से हुई थी। वे बंगाल की प्रगतिशील महिलाओं में से प्रमुख चेहरा थीं। नमक आंदोलन के समय वे कांग्रेस से जुड़ी और अपने पूरे जीवन देश के लिये समर्पित रहीं। स्वतंत्रता के बाद, मालती चौधरी ने संविधान सभा की सदस्य और उत्कल प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष के रूप में अपनी भूमिका निभाई। ग्रामीण पुनर्निर्माण में शिक्षा, विशेष रूप से वयस्क शिक्षा के महत्व पर जोर दिया। वह आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में भी शामिल हुईं। वे टैगोर और गांधी दोनों से बहुत प्रभावित हुईं।

पूर्णिमा बनर्जी

पूर्णिमा बनर्जी उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से संबंध रखने वाली थीं। उन्होंने देश की स्वतंत्रा के लिये संघर्ष किया। सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उनकी गिरफ्तारी भी हुई।  वे इलाहाबाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समिति की सचिव भी रहीं। उन्होंने ट्रेड यूनियन के साथ भी काम किया। वे प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और कार्यकर्ता अरुणा आसफ अली की छोटी बहन थीं।

राजकुमारी अमृत कौर

अमृत कौर संयुक्त प्रांत से संविधान सभा के लिए चुनी गई थीं। उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान महिलाओं की व्यापक राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करना था। उनका संबंध कपूरथला राजघराने से था। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ पर काफी काम किया। वे रेडक्राॅस सोसाइटी से भी जुड़ी रहीं। स्वास्थ्य मंत्री के रूप में कैबिनेट पद संभालने वाली पहली महिला बनीं। अखिल भारतीय महिला सम्मेलन केंद्र, दिल्ली में लेडी इरविन कॉलेज और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) कुछ प्रतिष्ठित संगठन हैं जिनमें उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहीं। 

रेणुका रे

पश्चिम बंगाल से संविधान सभा सदस्य के रूप में उन्होंने विधानसभा में महिला अधिकार मुद्दों, अल्पसंख्यकों के अधिकारों और द्विसदनीय विधायिका जैसे प्रावधानों पर अपना महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया। वे अखिल भारतीय महिला सम्मेलन में भी शामिल हुईं। महिलाओं के अधिकारों और पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार के अधिकारों के लिए जोरदार अभियान चलाया। 1952 से 1957 तक उन्होंने प. बंगाल विधानसभा में मंत्री के रूप में कार्य किया।

सरोजिनी नायडू

सरोजिनी नायडू जानीमानी भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ता और कवियत्री थीं। सरोजनी एकमात्र ऐसी महिला हैं, जिन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष होने का गौरव प्राप्त है। नायडू की कविताओं में बच्चों की कवितायें और देशभक्ति, रोमांस और त्रासदी पर उनकी कविताएं आज भी याद की जाती हैं। स्वतंत्रता के बाद उन्हें संयुक्त प्रांत का राज्यपाल नियुक्त किया गया।

सुचेता कृपलानी

सुचेता कृपलानी को 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी भूमिका के लिए याद किया जाता है। उन्होंने 1940 में कांग्रेस पार्टी की महिला शाखा की स्थापना की थी। उन्होंने संविधान सभा के स्वतंत्रता सत्र में वंदे मातरम् गाया। वह भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री भी थीं।

विजयलक्ष्मी पंडित

एक राजनीतिक कार्यकर्ता, मंत्री, राजदूत और राजनयिक के रूप में विजयलक्ष्मी पंडित ने राष्ट्र निर्माण में महिलाओं की भूमिका में क्रांतिकारी बदलाव लाईं। ब्रिटिश काल में पहली महिला कैबिनेट मंत्री विजयलक्ष्मी पंडित संविधान बनाने के लिए भारतीय संविधान सभा की मांग करने वाले पहले नेताओं में से एक थीं। वे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कई बार जेल भी गईं। संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्ष बनने वाली विश्व की पहली महिला थीं।