मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

काम की होंगी महिला सरपंच

मुखिया पति या सरपंच पति’, यह सम्बोधन उस व्यवस्था के लूप होल है, जिसे बड़ी सद्इच्छा से शुरू किया गया था। ढाई दशक पहले राजनीतिक सत्ता में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए त्रि-स्तरीय स्थानीय चुनावों में आरक्षण देकर उनके हक और हुकूक को पुख्ता किया गया था। इन प्रावधानों को बनाने के पीछे यह मान्यता थी कि इससे महिला सशक्तिकरण में इजाफा होगा। महिलाओं में आत्म-सम्मान, आत्मविश्वास और निर्णय लेने की क्षमता का विकास किया जाएगा। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि संविधान से मिले इस अधिकार का महिलाएं उपयोग नहीं कर सकीं, और वे पुरुषों की रबर स्टाम्प बनकर रह गईं। देश के विभिन्न राज्यों में पंचायत और निकाय चुनाव हुए, महिलाएं आरक्षण के बल पर चुनकर आईं, पर वे डमी सरपंच ही बनकर रह गईं। 1993 से मिले इस अधिकार का उपयोग अब तक महिलाएं कर तो रही हैं, पर वे अपने पुरुष साथियों की छाया मात्र ही बनी रह गई हैं, फिर चाहे वे उनके पति हों, बेटे हों या पिता ही क्यों न हों। इस साल पंचायत दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मुखिया पति या सरपंच पति जैसी बुराई की तरफ इशारा किया था। ऐसा क्यों है, इसे समझने के लिए किसी बहुत बड़े शोध की जरूरत नहीं होगी? महिलाओं का सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा होना, शिक्षा की कमी, पुरुष सत्तात्मक समाज, महिलाओं की सार्वजनिक भागीदारी कम होना, उन्हें बाहर के कामों के लिए अयोग्य मानने की मानसिकता, ऐसे बहुत से कारक हैं, जो संविधान से मिले अधिकारों के उपयोग के लिए एक महिलाओं को नि:सहाय कर देते हैं।
शायद यही सब सोचकर और ध्यान में रखकर वास्तविक रूप से महिलाओं की भागीदारी बनाए रखने के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका संजय गांधी ने 27 नवंबर को पंचायती राज संस्थानों की निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों यानी ईडब्ल्यूआर और मास्टर ट्रेनर्स (प्रधान प्रशिक्षकों) के लिए एक गहन प्रशिक्षण कार्यक्रम की शुरूआत की। उनकी प्रशासनिक क्षमता विकास के इस कार्यक्रम का आयोजन महिला और बाल विकास मंत्रालय के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक कोऑपरेशन एण्ड चाइल्ड डेवलपमेंट (एनआईपीसीसीडी) करेगा। इस अभियान की योजना प्रत्येक जिले से लगभग 50 ईडब्ल्यूआर को प्रशिक्षित करते हुए मार्च, 2018 तक कुल 20,000 ईडब्ल्यूआर को प्रशिक्षित करने की है। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य एक आदर्श गांव पाने की कोशिश होगी, वहीं इसका सबसे बड़ा फायदा महिलाओं को भविष्य के राजनीतिक प्रतिनिधियों के रूप में तैयार करना होगा। अगर महिलाएं लोकसभा और विधानसभा के लिए आरक्षण की लड़ाई लड़ रही हैं, तो इसमें वास्तविक भागीदारी के लिए इस तरह से प्रशिक्षित होना और भी आवश्यक है।
जब विभिन्न राज्यों ने अपने यहां महिलाओं के लिए पंचायत और निकाय चुनावों में 50 प्रतिशत सीटों को आरक्षित करके उन्हें रसोई और घर सीमित भूमिका से निकालकर सार्वजनिक जीवन में खड़ा किया, तब यह महिलाओं के लिए ही आश्चर्य का विषय बन गया था। उन्हें जो बचपन और पीढियों से सिखाया गया था कि वे पुरुषों के कार्यक्षेत्र में हस्ताक्षेप नहीं कर सकती हैं, वह सब करने के लिए देश का कानून उन्हें कह रहा था। नानाकरते हुए महिलाएं जब अपना घर छोड़कर सार्वजनिक रूप से वोट मांगने, पंचायतों का कामकाज देखने के लिए बाध्य हुईं, तो उन्हें अपने पर विश्वास ही नहीं हुआ। कई जगह मुखिया बनी महिलाएं अपना घूंघट तक उठाने के लिए तैयार नहीं हुई थीं। फिर भी उन्हें सार्वजनिक जीवन में प्रवेश दिया गया, भले ही यह उनके लिए संविधान प्रदत्त था। भले ही वे अपने आश्रित पुरुषों के लिए रबर स्टाम्प थीं। भले ही वास्तविक रूप से मुखिया पति या सरपंच पति उनके प्रतिनिधि के रूप में काम कर रहे थे, फिर भी उनका सार्वजनिक जीवन में प्रवेश हो गया था। वर्षों बाद यह बदलाव दिख भी रहा है। जब हमें यह सूचना या आंकड़े मिलते हैं कि हरियाणा पंचायत चुनाव, 2016 में महिलाओं के संवैधानिक आरक्षण 33 प्रतिशत होते हुए भी 42 प्रतिशत पंच, 41.37 प्रतिशत सरपंच, 41.9 प्रतिशत पंचायत समिति सदस्य तथा 43.5 प्रतिशत जिला परिषद सदस्य महिलाएं बन चुकी हैं। इतना ही नहीं हरियाणा के सरपंचों में 51 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं, जो सामान्य सीटों पर पुरुषों को चुनाव हराकर निर्वाचित हुई हैं। इससे समझा जा सकता है कि हरियाणा जैसे राज्य में जहां महिलाओं के साथ लिंग भेद काफी होता है, वहां इस तरह का परिणाम कुछ शुभ संकेत जरूर देता है। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश का भी यही हाल है, यहां प्रदेश की 43.86 प्रतिशत ग्राम पंचायतों में मुखिया महिलाएं हैं। उत्तर प्रदेश में महिलाओं को सिर्फ 33 फीसदी आरक्षण मिला हुआ है। इसके बावजूद 11 प्रतिशत अधिक पदों पर महिलाओं ने अधिकार क्षेत्र में ले लिया है। राजस्थान में महिलाओं को जहां पंचायती राज व्यवस्था में 50 प्रतिशत आरक्षण है। यहां उनकी भागीदारी पुरुषों के मुकाबले अधिक है। इस व्यवस्था में कमी जिस चीज की है, उस पर देर से ही सही, महिला और बाल विकास मंत्रालय ने सही ध्यान दे दिया है।


(युगवार्ता साप्ताहिक में प्रकाशित)

रविवार, 26 नवंबर 2017

अपने स्वास्थ का ख्याल कब रखेगीं महिलाएं?

महिलाओं के स्वास्थ को लेकर हमारे समाज में हमेशा से लापरवाही, अज्ञानता, ढिलाई और अनुत्तरदायीता का माहौल रहा है। इसका बहुत बड़ा कारण गरीबी, अशिक्षा के साथ-साथ लैंगिग असमानता के चलते भेदभावपूर्ण व्यवहार, आर्थिक रूप से दूसरों पर आश्रित होना है। इसके चलते महिलाएं घर में अपने स्वास्थ के बारे में बात नहीं कर पाती। समाज में दोयम दर्जे की जिंदगी जीने वाली महिलाएं और लड़कियां अपने सभी फैसलों के लिए जहां पुरुष वर्ग पर आश्रित होती हैं, वहीं उनसे इस बात की आशा नहीं जा सकती कि वे अपने स्वास्थ जैसी मामूली बातों के लिए जद्दोजहद कर सकेंगीं। यहीं कारण है कि देश में हर वर्ग की स्त्री अपने स्वास्थ को लेकर न केवल लापरवाह हैं बल्कि एक हद तक उदासीन भी है। ऐसा नहीं हैकि मैट्रो सिटी में महिलाएं न केवल अपने पैरों में खड़ी हैं, बल्कि एक हद तक काफी पढ़ी-लिखी भी हैं, वे भी अपने स्वास्थ को लेकर ढिलाई बरतती हुई मिल जाएगी। इसका कारण कहीं न कहीं उनके आसपास का माहौल और बचपन से उनकी परवरिश जिम्मेदार है, जिसके कारण वे अपने खानपान और अपने शरीर के प्रति अनुत्तरदायी हो जाती हैं। 
देश में महिलाओं की एक बड़ी समस्या कुपोषण है। सही ढंग से खानपान न कर पाने के कारण महिलाएं और किशोर लड़कियां कुपोषण की समस्या को झेल रही हैं। हाल ही में ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट-2017 आई है। इसमें बताया गया है कि देश की आधे से ज्यादा प्रजनन क्षमता वाली महिलाएं एनीमिक यानी रक्त अल्पतता से जूझ रही हैं। यह अध्ययन 140 देशों की महिलाओं के स्वास्थ संबंधी आंकड़ों पर विश्लेषण वर्ल्ड हेल्थ एसेम्बली ने प्रस्तुत किया। रिपोर्ट में बताया गया कि 2016 में यह संख्या 48 प्रतिशत था, जो अब बढ़कर 51 प्रतिशत हो गया। इसी तरह डब्ल्यूएचओ के 2011 के आंकड़ों के अनुसार भारत में 54 फीसदी गर्भवती महिलाएं एनीमिक हैं, यह संख्या पाकिस्तान के 50 फीसदी, बांग्लादेश के 48 फीसदी, नेपाल के 44 फीसदी, थाइलैंड के 30 फीसदी, इरान के 26 फीसदी के मुकाबले अधिक है। वास्तव में एनीमिया अपने आप में कोई बड़ी बीमारी नहीं है। मामूली खानपान में ध्यान देकर इस पर नियंत्रण किया जा सकता है। लेकिन तमाम सरकारी प्रयासों के बाद भी यह समस्या दशकों से बनी हुई है। 
हमारे देश में महिलाओं के एनीमिक होने के कई समाजिक-सांस्कृतिक कारण हैं। पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण महिलाओं और लड़कियों के साथ तमाम तरह के भेदभाव किए जाते हैं। बहुत से समाजों में रूढ़ियों और खाने-पीने के कई तरह के प्रतिबंध होते हैं। बचपन से लड़कियों के प्रति खाने-पीने को लेकर होने वाले भेदभाव से भी उनमें जन्मजात पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। किशोरावस्था में जब बच्चियों को मासिकधर्म होने लगता है तब उन्हें पोषक तत्वों जैसे प्रोटीन, आयरन, मिनरल की कहीं ज्यादा आवश्यकता होती है, लेकिन उन्हें यह सब उतनी मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाता है। एक प्रजननकाल वाली महिलाओं में प्रत्येक महीने मासिकधर्म के तहत 40 मिली. खून शरीर से निकल जाता है, इसके साथ उनके शरीर से लगभग 0.6 मिलीग्रा. आयरन भी नष्ट हो जाता है। इसलिए एक महिला के लिए आयरन की आवश्यकता कहीं अधिक बढ़ जाती है। शादी के बाद भी महिलाओं को ससुराल पक्ष की अधिक जिम्मेदारी के चलते अपने स्वास्थ के प्रति लापरवाह होती जाती है। कई घरों में प्रजनन या बेटे न पैदा कर पाने के कारण होने वाला भेदभाव भी उनके स्वास्थ्य पर काफी असर डालता है। कम उम्र में शादी और जल्दी बच्चा पैदा करने के कारण भी उनका स्वास्थ काफी हद तक प्रभावित होता है। इसलिए उनमें पोषण की कमी और एनीमिया हो जाना ज्यादा बड़ी बात नहीं लगती है।
सवाल उठता है कि जो महिलाएं घर का इतना ख्याल रखती हैं, वे खुद के प्रति इतनी लापरवाह क्यों हो जाती हैं? यह भी देखा जाता है कि महिलाएं घर के दूसरे सदस्यों के न होने पर अपने लिए खाना तक नहीं पकाती। जो भी थोड़ा बहुत होता है, उसी को खाकर संतुष्ट हो जाती हैं। उन्हें लगता हैं कि यह उनके लिए पर्याप्त है। कई घरों में यह परंपरा के तहत होता है कि महिलाएं घर के पुरुषों और बड़े-बूढ़े को खिलाने के बाद खाती हैं। इसी कारण से उन्हें पर्याप्त और समय पर भोजन नहीं मिल पाता है। कई बार खाने से अनिच्छा भी हो जाती है। अगर इस दौरान भोजन कम पड़ जाए, तो आधा-अधूरा खाना खाकर उठ जाती हैं। आज भी गांव-देहात में शादी या दूसरे समारोहों में पंगत में महिलाओं को पुरुषों के बाद खिलाने का रिवाज है। ये कुछ ऐसी छिपी वजहें हैं जिसके कारण भी महिलाओं में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है।
देश के नागरिक अस्वस्थ्य हो तो देश को आर्थिक नुकसान भी उठाने पड़ते हैं। इसका असर देश की जीडीपी पर भी पड़ता है। 2003 में फूड पॉलिसी में एक पेपर प्रस्तुत किया गया था, जिसने बताया कि आयरन की कमी से होने वाली एनीमिया से देश को 0.9 फीसदी जीडीपी का नुकसान उठाना पड़ता है। यह नुकसान डालर में 20.25 बिलियन और रुपयों में 1.35 लाख करोड़ से ऊपर था। यह आकलन वर्ल्ड बैंक ने 2016 की भारत की जीडीपी से निकाला था। चूंकि एनीमिया प्रमुख रूप से बच्चों और महिलाओं को ज्यादा प्रभावित करता है, इसलिए इस कारण मातृ मृत्यु दर और बीच में ही स्कूल छोड़ने के मामले सामने आते हैं। इससे राष्ट्र को बड़ी क्षति उठानी पड़ती है। 2014 के न्यूट्रिशन में प्रकाशित एक स्टडी के अनुसार मातृ मृत्यु से संबंधित कारणों में 50 फीसदी जिम्मेदार कारण एनीमिया ही होता है। साथ ही गर्भावस्था में भ्रूण मृत्यु, कम वजन के बच्चे, जन्मगत असमान्यताएं और बीच में ही डिलीवरी होने का कारण भी एनीमिया से संबंधित होता है। एनीमिया से बच्चों के आईक्यू लेबल को भी नुकसान पहुंचाता है। 

देश इस समस्या से लड़ने के लिए काफी प्रयासरत है। 1970 से ही यहां पर एनएनएपीपी यानी राष्ट्रीय पोषणात्मक रक्तअल्पता रोकथाम कार्यक्रम चल रहा है। तीन वर्ष पहले इसने साप्ताहिक आयरन व फोलिक एसिड संबंधित कार्यक्रम चलाया, जिसके तहत किशोरियों को आयरन से संबंधित गोली दी जाने की व्यवस्था की गई थी। फिर भी, स्वास्थ संबंधी विशेषज्ञों का मानना है कि एनएनएपीपी की इस तरह की मुहिम पर्याप्त नहीं है। महिलाओं में आयरन की कमी कुपोषण और गरीबी से संबंधित है। भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ मिशन के तहत 36,707 करोड़ का आवटन किया है। यह वास्तविक आवश्यकता से काफी कम है। इसके साथ सरकार ने 2.07 लाख करोड़ एक दूसरी योजना महत्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी के लिए खर्च किए है, ताकि गरीबी से लोग लड़ सके, पर इस योजना की भी अपनी विवशताएं हैं। जनवरी 2016 की इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट इस संबंध में विस्तार से बताती है। 

(पूरा लेख युगवार्ता साप्ताहिक में प्रकाशित)

सोमवार, 13 नवंबर 2017

#मी टू : टूट रही चुप्पी

बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी को यूं भी कहें कि आवाज उठेगी तो दूर तक जाएगी’, तो इसके अर्थ में कोई अंतर नहीं आएगा। मौजूं सिर्फ यही है कि आवाज उठनी चाहिए। शुरूआत हुई, तो परिणाम भी निकलेगा। इधर, हैशटैग मी टू के साथ जो अभियान महिलाओं ने चलाया है, उससे समस्या का अंत हो या न हो, पर चुप्पी पर लगा ताला तो हट ही गया। अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न पर अपनी चुप्पी तोड़ते हुए फिल्म हॉलीवुड अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने सोशल मीडिया को माध्यम बनाया और लोगों से हैशटैग मी टू के सा महिलाओं से अपील की कि वे भी अपने साथ हुए यौन दुर्व्यहारों पर अपनी चुप्पी तोड़ें। कुछ देर बाद देखते ही देखते दुनिया भर की महिलाओं और पुरुषों ने अपनी प्रतिक्रिया में हैशटैग मी टू के साथ अपनी आपबीती बताई। इस हैशटैग के साथ इस तरह की घटनाएं बयां करने वाले कोई साधारण लोग नहीं थे, बहुत संख्या में जाने माने लोग भी शामिल थे, जिन्होंने अपनी जिंदगी में कभी न कभी यौन उत्पीड़न सहा था। हैशटैग मी टू के साथ एक ही दिन में 12 मिलियन लोगों ने अपने अनुभवों को शेयर किया। खुद अभिनेत्री की पोस्ट पर ही हजारों लोगों ने उत्तर दिया, अपने अनुभव साझा किए।
हॉलीवुड के मशहूर प्रोड्यूसर हार्वे विंस्टीन पर अभिनेत्री एलिसा मिलानो ने जो यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए, उसके परिप्रेक्ष्य में न्यूयार्क टाइम्स ने बताया कि इस महीने विंस्टीन ने कोर्ट के बाहर आठ महिलाओं के साथ अपने विरूद्ध लगाए गए यौन शोषण के आरोपों पर समझौता किया है। इसी दौरान एशिया अर्जेंटो, लुसिया एवांस, लिसे एंटोनी और रोज मैकगॉउन ने हॉलीवुड के इस शहंशाह पर रेप के आरोप लगाए। हाई-प्रोफाइल हॉलीवुड अभिनेत्रियों जिनमें एंजोलिना जॉली, केट बिंस्लेट, ग्वेनेथ पाल्ट्रो ने भी विंस्टीन के खिलाफ उत्पीड़न के आरोप लगाए। अभिनेत्री एलिसा के चुप्पी तोड़ने के साथ एक ही व्यक्ति के खिलाफ इतनी महिलाओं, कहा जाए तो समृद्ध महिलाओं ने अपनी चुप्पी तोड़ी। अगर अभिनेत्री एलिसा भी चुप रहती तो…? तो कुछ नहीं होता। एक ऐसे व्यक्ति के बारे में, हम इतने घिनोने पक्ष को नहीं जान पाते। यही होता है और यही होता आ रहा है। क्योंकि महिलाएं किसी न किसी दबाव वश अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न की बातें घर तक में नहीं कह पाती हैं। या घर में उन्हें इज्जत का वास्ता देकर चुप करा दिया जाता है। वास्तविकता तो यह कि उनके साथ ऐसी घटनाएं घर पर, बेहद सुरक्षित लोगों के घेरे के बीच ही होती हैं। इस बात को हाईवे फिल्म में बहुत ही संवेदनशील तरीके से दिखाया गया था।
हॉलीवुड अभिनेत्री एलिसा के इस अभियान की गूंज दुनिया भर में हो चुकी है। मी टू हैशटैग के साथ भारत में भी इस तरह के अभियान को सोशल मीडिया पर जमकर प्रतिक्रिया मिली। सोशल मीडिया का उपयोग करने वाली काफी महिलाओं ने हैशटैग मी टू के साथ अपने साथ होने वाली घटनाओं पर खुलकर लिखा। चर्चित कॉमेडियन मल्लिका दुआ ने भी बचपन में अपने साथ हुई यौन शोषण की घटना का खुलासा किया है। कुछ पुरुषों ने भी इसके समर्थन में प्रतिक्रिया दी। इस समस्या का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि हैशटैग मी टू के साथ मिलने वाली प्रतिक्रियाओं में चौबीस घंटों में ट्वीटर पर पांच लाख ट्वीट्स और फेसबुक पर बारह मिलियन पोस्ट लिखे गए।
दिल्ली के निर्भया कांड के बाद जिस मुखरता से यौन हिंसा के विरोध में अवाजें उठी थी, उससे लग रहा था कि ऐसी घटनाओं में कुछ कमी आएगी, लेकिन ऐसा नहीं है। देश में तो बिलकुल नहीं है। आंकड़े दूसरी ही कहानी कहते हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार देश में 2010 में 22,000 बलात्कार के केस दर्ज हुए, वहीं 2014 में बढ़कर 36,000 हो गए यानी पूरे 30 प्रतिशत की बढ़त्तरी हुई। एनसीआरबी ने ही 2016 में बताया कि बलात्कार के 95.5 केस में पीड़िता रेपिस्ट को जानती थी। ताजा आंकड़ों में 2016 में ही 4,437 बलात्कार के केस दर्ज हुए थे। इसी से समझा जा सकता है कि महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न, शरीरिक हमले, विदेश में लड़कियां भेजना, पति और संबंधियों द्वारा हिंसा, अपहरण के बाद बलात्कार और हत्या के सभी प्रकार के मामले मिलाकर कितने होंगे? इस हैशटैग के बीच ही में थाम्पसन रिटर्नस फांउडेशन ने अपने एक पोल में बताया कि दिल्ली यौन हिंसा के मामले में सबसे असुरक्षित जगह है। दिल्ली में महिलाएं रेप, यौन उत्पीड़न और यौन हमलों के प्रति हमेंशा सशंकित रहती हैं। दिल्ली को पहले भी रेप राजधानी कहा गया है। यह सर्वे संसार की 19 बड़े शहरों में जून और जुलाई 2017 के दौरान किया गया। यह आंकड़े निर्भया केस के पांच वर्ष होने की वर्षी से कुछ समय पहले ही आए हैं। यह आश्चर्य की बात है कि कराची और टोक्यो दिल्ली से बेहतर जगहें हैं।
2013 में मशहूर सितार वादक पं. रविशंकर की बेटी अनुष्का ने जब इस बात का खुलासा किया कि बचपन में उसके एक करीबी जानकार व्यक्ति ने उनका यौन शोषण किया तो इस पर विश्वास किया जाना मुश्किल हो रहा था। अब हैशटैग मी टू के बहाने जब इतनी घटनाएं सामने आई हैं, तब इस पर हम विश्वास करें या न करें, पर इस समस्या की गहराई तक जाना होगा। अपने आसपास के चेहरों का पहचानना होगा, जो इस तरह की हरकतों को अंजाम देकर हमारे बीच अच्छे मुखौटों के बीच छुपे बैठे हुए हैं। इनके चेहरों से अगर हिम्मत करके मुखौटे ही हटा दिए जाए, तो समस्या का काफी बड़ा समाधान निकल सकता है, इसके लिए बस चुप्पी ही तोड़नी होगी। कुछ हैशटैग मी टू का मार्ग अपनाना होगा। घर पर बताना होगा, सबको बताना होगा। कुछ दिन पहले फेसबुक पर महिलाओं ने अपनी डीपी काली रखकर यौन हिंसा के खिलाफ अपना विरोध दर्ज किया था। सोशल मीडिया पर उनकी काली डीपी इस बात का संकेत दे रही थी कि महिलाएं केवल सोशल मीडिया में ही न दिखे, तो यह जगह कितनी बदरंगीन हो जाएगी। फिर पूरे संसार से ही महिलाएं गायब हो जाए तो…। क्या ऐसी स्थिति आ सकती है?


(लेख युगवार्ता साप्ताहिक में प्रकाशित है। आंशिक रूप से यहां प्रस्तुत है।)

रविवार, 15 अक्तूबर 2017

देवी पूजन : गुम होता बचपन


शक्ति पूजन भारतीय संस्कृति और धर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। देश के एक भाग में नहीं बल्कि पूरे देश में शक्ति के रूप में स्त्री रूप का ही पूजन होता है। नवरात्र इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इन्हीं नवरात्र के दौरान देश के कई मंदिरों में कई वर्षो या यूं कहें कई सौ, हजार वर्षों से शक्ति रूप में कई प्रकार की देवियों की अराधना की जा रही है। आज भी वे अपने पुराने रूप यानी परंपरा के रूप में मान्य हैं। हर परंपरा अपने समय-काल के अनुसार सही हो ऐसा जरूरी नहीं होता। ऐसी ही एक घटना प्रकाश में आई है। तमिलनाडु के मदुरै के वेल्लूर में येजहायकथा अम्मान मंदिर में एक धार्मिक परंपरा पूरा करने के लिए सात या उससे अधिक कुंवारी लड़कियों को देवी के रूप में सजाया जाता है। देवी के रूप में सजी इन लड़कियों की पंद्रह दिनों तक लोग इनकी पूजा-अर्चना करते हैं। यहां तक तो सब सामान्य बात है, पर इस समारोह की समाप्ति पर पांच लड़के इन लड़कियों के ऊपरी वस्त्रों को एक-एक कर हटाने का उपक्रम करते हैं और इसी टॉपलेस अवस्था में उन्हें मंदिर के समारोह में शामिल भी किया जाता है। जिससे आमलोग उनके दर्शन कर सकें। धार्मिक परंपरा के नाम लड़कियों के साथ ऐसा व्यवहार आज क्षम्य नहीं माना जा सकता है। मीडिया में जब यह खबर इस तरह की तस्वीरों के साथ रिपोर्ट हुईं और चारों तरफ आलोचना होने लगी तब प्रशासन भी चौकन्ना हुआ। और इस बात की तस्दीक की तथा अश्वासन दिया कि इन देवी बनी इन बच्चियों को उनके परिवार की निगरानी में रखा जाएगा। उनके साथ किसी तरह का दुर्व्यवहार नहीं होने दिया जाएगा।
मीडिया में खबरें आने के बाद यह मामला राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी अपने संज्ञान में लिया और राज्य सरकार को इस बावत पत्र लिखा। आयोग ने इस पूरे मामले को अमानवीय करार दिया। इस अमानवीय व्यवहार को लेकर तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश सरकार और पुलिस प्रमुखों को नोटिस जारी किए। आयोग का मानना है कि इन बच्चियों को कथिततौर से प्रतिबंधित देवदासी जैसी एक पुरानी प्रथा के तहत जबर्दस्ती मंदिरों में ले जाया जाता हैआयोग ने कहा कि इस परंपरा के जारी रहने के बारे में शिकायत के साथ ही मीडिया की ख़बरों में लगाए गए गंभीर आरोप हैं। इसलिए आयोग ने दोनों राज्यों के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशकों को नोटिस जारी करके चार सप्ताह में रिपोर्ट मांगी हैं। आयोग के अनुसार इन बच्चियों को उनके परिवारों के साथ नहीं रहने दिया जाता और उन्हें स्कूल से भी वंचित कर दिया जाता है। उन्हें मातम्मा मंदिर में ही रहने के लिए मजबूर किया जाता है, जहां उन्हें यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता हैआयोग ने कहा कि यदि आरोप सही हैं, तो ये मानवाधिकारों का उल्लंघन है आयोग ने एक बयान में कहा कि यह कथित रूप से देवदासी प्रथा के एक अन्य रूप है। आयोग की इन चिंताओं के बरक्स प्रशासन की माने तो उनका कहना है कि यह परंपरा सदियों से चलती आ रही है। इसके लिए लड़कियों का चुनाव उनके घरवालों की सहमति के बाद ही होता है। जबरदस्ती ऐसा किया जा रहा है, इस संबंध में हमें अब तक कोई शिकायत नहीं मिली है। वास्तविक तस्वीर आनी अभी शेष है, पर जो हुआ उसे मानवीय तो नहीं कहा जा सकता है। इस प्रथा का विरोध कर रहे समाजसेवी संगठनों का कहना है कि प्रशासन चाहे जो भी कहे, पर सच्चाई इसके उलट है। परंपरा के नाम पर सात से दस साल की सैकड़ों बच्चियां इस त्योहार के दौरान मंदिर में रहती हैं। इन लड़कियों को तमिलनाडु में मतम्मा कहा जाता है। आगे इन लड़कियों की शादी-ब्याह पर रोक लग जाती है, इन्हें अपनी जीविका नाच-गाकर चलानी पड़ती है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस 200 वर्ष पुरानी धार्मिक परंपरा को देवदासी का एक रूप मानकर इस मामले की तह तक जा रहा है। देवदासी प्रथा को 1982 और 1988 में कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में प्रतिबंधित कर दी गई है। लेकिन यहां आज भी इस प्रथा का प्रचलन हो रहा है। 2013 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने देश में करीब 4,50,000 संख्या में देवदासी होने की बात कही। वहीं 2015 में जस्टिस रघुनाथ राव की कमेटी ने तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में 80,000 देवदासी होने की बात कही। देवदासी प्रथा तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उडीशा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के कुछ इलाकों में चली आ रही है। इस प्रथा के अनुसार एक लड़की का विवाह भगवान से कर दिया जाता था। आजीवन वह लड़की भगवान की पत्नी या प्रेयसी के रूप में मंदिर में रहकर मंदिर की सेवा, पूजा-पाठ और देखरेख् करती है। उन्हें नाचने-गाने जैसी कई कलाओं को भी सिखाया जाता था। उनकी इस कला का प्रदर्शन मंदिर के कई समारोहों में किया जाता था। बदलते वक्त के साथ इन युवतियों का शारीरिक शोषण मुख्य उद्देश्य बन गया। यह प्रथा छठी और सातवीं शताब्दी पर अपने पूरे रूप में थी। यह प्रथा चोल, चेर और पांडया शासकों के शासनकाल में खूब फली-फूली। इस प्रथा का किसी न किसी रूप में अभी भी जारी रहना लड़कियों और महिलाओं के शोषण की कथा बयां कर रही है।
धार्मिक परंपरा के नाम छोटी बच्चियों को यूं मंदिरों में दान करना या मातम्मा मंदिर की हाल की घटना किसी भी अर्थ में मान्य नहीं कहा जा सकता है। इस धार्मिक संस्कार के नाम पर उन्हें सामान्य जीवन से वंचित कर देना एक अपराध और गैर मानवीय कर्म होता है। ऐसा नहीं है कि इस तरह की प्रथा हमारे देश में ही प्रचलित है। हमारे पड़ोसी देश नेपाल में भी कुमारी, कुमारी देवी या जीवित देवी के रूप में लगभग दो हजार साल से एक प्रथा प्रचलित है। इसमें एक ऐसी बच्ची को देवी घोषित कर दिया जाता है जिसने विशेष ग्रह-नक्षत्रों में जन्म लिया हो। जैसे की तिब्बत में लामा चुनने का काम होता है। बच्ची के विशेष गुणों की परीक्षा के बाद देवी के रूप में मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है। हाल ही में 28 सितंबर को तृष्णा शाक्य को नई कुमारी के रूप में देवी घोषित कर दिया गया हैं। घोषित कुमारी देवी को काठमांडू के नेवार समुदाय से संबंधित लोग तलाजू देवी का अवतार मानकर पूजते हैं। देवी घोषित होने के बाद ऐसी बच्ची को परिवार से दूर रहना होता है, उसे मात्र 13 बार ही विशेष अवसरों पर मठ को छोड़ने की अनुमति होती। देवी घोषित यह बालिका तब तक देवी रहती हैं, जब तक मासिकधर्म शुरू नहीं हो जाता। मासिकधर्म शुरू होने के बाद युवा मानकर इनकी जगह दूसरी कन्या का चयन देवी के रूप में कर लिया जाता है। देवी कुमारी को देवी की तरह साज-सज्जा के साथ एक देवी जैसा आचरण करना होता है। इस दौरान उन्हें धार्मिक शिक्षाएं भी दी जाती है। इन कुमारी देवी की असली मुसीबत तब शुरू होती है, जब इन्हें सामान्य जीवन में लौटना होता है। इन देवियों के संबंध में इस प्रकार की मान्यता भी प्रचलित है कि इनसे जो शादी करेगा, वह अल्पायु में ही मर जाएगा। इस कारण से इन देवी रह चुकी युवतियों से विवाह करने को कोई तैयार नहीं होता। इससे अधिकांश देवी रह चुकीं कुंवारियां कुंवारी ही रह जाती हैं। हालांकि इन्हें आजीवन पेंशन के रूप में कुछ धनराशि और रहने के लिए सरकारी आवास दिया जाता है।
सवाल उठता है कि सामान्य जीवन जीने तक के लिए मोहताज कर देने वाली इन धार्मिक प्रथाओं जारी रखने के पीछे क्या औचित्य है? सामाजिक रूप से मान्यता प्राप्त इन धार्मिक कृत्यों के पीछे क्या कारक हो सकते हैं? किन समाजों की लड़कियां इस तरह के कृत्यों को ढो रही हैं और क्यों? इस तरह के प्रश्नों से इतर यह परंपराएं बाल अधिकारों का हनन ज्यादा हैं। एक मानवीय दृष्टिकोण से आस्था का यह मामला सवालिया घेरे में ही आते हैं। मासूम बच्चियों का बचपन और समाजिकता छीन लेने वाले यह धार्मिक उपक्रम कब तक सामाजिक स्वीकृति पाते रहेंगे?



('युगवार्ता' सप्ताहिक में प्रकाशित)

सोमवार, 4 सितंबर 2017

मौत के खेल का चैलेंज

एक अंग्रेजी कहावत है- नो रिस्क, नो गेम। हमने खेल में तलवारबाजी, घुड़दौड़, जल्लीकुट्टू या फिर आधुनिक समय के मौत का कुंआ, हांटेड हाउस, रेस ऐसे बहुतेरे खेल हैं, जहां एक व्यक्ति रोमांच और मनोरंजन पाने के लिए खेलता है। इन खेलों को पौरुष से भी जोड़कर देखा जाता था। इन खेलों को खेलने वाले को पता होता है कि वह क्या खेल खेल रहा है, पर एक ऐसा खेल जहां खेलने वाले को पता ही नहीं होता है कि वह खेल खेल रहा है या उसके साथ कोई खेल रहा है। यह कंप्यूटर युग का एक ऐसा खेल है, जो सामने वाले के दिमाग से खेलता है। एक अवस्था के बाद खिलाड़ी मनोवैज्ञानिक रूप से एक लाचारी की अवस्था तक पहुंचा दिया जाता है। एक ऐसी लाचारी जहां वह सामने वाले के कहने पर अपना जीवन उसके बताए तरीके से समाप्त कर लेता है। ऐसा खेल खेलने वाले कोई पौरुषवान व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि वे हमारे बच्चे हैं, जो अपना समय बिताने और थोड़ा सा रोमांच पाने के लिए सोशल मीडिया में चले जाते हैं। और मौत का खेल खेलते हुए शौक से अपना जीवन समाप्त कर लेते हैं। इस खेल का नाम है ब्लू व्हेल गेम, जिसकी परिणति खेलने वाले की मौत होती है।
कंप्यूटर ज्ञान का मतलब आधुनिकता से लगाया जाता है। हम सब जानते हैं कि हमारे बच्चे भी इस तकनीकी से अछूते नहीं रहे हैं। कंप्यूटर ज्ञान के साथ-साथ बच्चे अपना समय बिताने के लिए मनोरंजन के कई साधन यहां तलाश लेते हैं। इसे और भी आसान बनाया है स्मार्ट फोन ने। छह इंच का स्मार्ट फोन बच्चों के हाथ में एक तिलिस्म की तरह आ गया है। इसमें वे अपना संसार ढूढ़ते हैं। माता-पिता भी बच्चों को इस यंत्र के हवाले कर के पैसा और शोहरत कमाने की धुन में लग जाते हैं। परिणामस्वरूप बच्चा जो बाहर की दुनिया के बारे में अंजान रहता है, इस दुनिया के फरेब में आ जाता है। जिन माता-पिता को ऐसे मामलों पर उनसे बात करनी चाहिए और उन्हें गाइड करना चाहिए था, वे यह सब करने में असफल रहते हैं। इसलिए बहुत से मामलों में बच्चे ठगे जाते हैं, बहलाए जाते हैं, जिसका परिणाम अंतत: आत्महत्या हो जाता है।
ब्लू व्हेल चैलेंज गेम इस आभासी दुनिया का ऐसा ही खेल है, जो बच्चों को गुमराह करके उन्हें मृत्यु के मुहाने पर ले जाता है। इस खेल के प्रभाव में आकर अब तक दुनियाभर के करीब 250 बच्चों ने अपनी जान गवा दी है। हमारे देश में एक अगस्त को पहला मामला सामने आया, जब मुंबई के अंधेरी में 14 साल के मनप्रीत ने आत्महत्या कर ली। छानबीन के बाद पता चला कि नौवीं में पढ़ने वाले मनप्रीत ने पूरे प्लान के साथ एम्पायर हाइट्स की सातवीं मंजिल की छत से कूदकर आत्महत्या की। इसी तरह जमशेदपुर के पंद्रह वर्षीय बेटे फरदीन खान ने झील में कूदकर अपनी जान ले ली। इस गेम के मुताबिक वह अपना आखिरी टॉस्क पूरा करने रात को घर से निकला था। पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर के दसवीं में पढ़ने वाले अंकन डे ने फांसी लगाकर जान दे दी। अंकन के दोस्तों के अनुसार उसे ब्लू व्हेल खेलने की लत थी। इंदौर के एक सातवीं में पढ़ने वाले छात्र ने तीसरी मंजिल से कूदकर आत्महत्या करने की कोशिश की थी। देखा जा सकता है कि इस तरह के मामले एक के बाद एक हमारे देश भी देखे जा रहे हैं। जो बता रहा है कि हमारा समाज भी उसी आधुनिकता के छद्म की ओर तेजी से बढ़ रहा है। अब तक दुनियाभर में 250  से ज्यादा बच्चों की जान इस गेम को खेलने की वजह से हो चुकी है। इसमें अकेले रूस में ही 130 बच्चों की मौत होने की गणना की गई है। रूस में इस गेम में सुसाइड का पहला केस साल 2015 में आया थारूस के अतिरिक्त अमेरिका, वेनेजुएला, ब्राजील, केन्या, अर्जेंटीना, पराग्वे, इटली, पुर्तगाल, साऊदी अरब और चीन में इस खेल ने अपना खूनी खेल जारी रखा है। प्रमुख रूप से इन देशों में इस खेल के प्रभाव में आकर सैकड़ों बच्चों ने आत्महत्या कर ली है।
ब्लू व्हेल गेम के खतरों को देखते हुए सरकार और प्रशासन सतर्क हो चुका है। कुछ बच्चों की आत्महत्या को देखते हुए कानून एवं आइटी मंत्रालय ने सभी तकनीकी मंचों को यह दिशा-निर्देश दिए जा चुके हैं कि वे तत्काल प्रभाव से इस गेम को डीलिंक कर दें। वैसे हमारी आइटी विभाग की नयमावली कहती है कि छोटे बच्चों को आत्महत्या के लिए उकसाने वाली किसी भी सामग्री को अनुमति नहीं दी जा सकती है। इसी क्रम में सीबीएसई ने स्कूलों में इंटरनेट और इलेक्ट्रानिक गैजेट्स के उपयोग के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इसमें साफतौर से इस बात की ताकीद की है कि बच्चे स्मार्टफोन, टैबलेट, आईपैड, लैपटॉप जैसे उपकरण स्कूल में इजाजत के बगैर न ला सकें। बच्चों सुरक्षित तरीके से इंटरनेट के उपयोग के बारे में अध्यापक उन्हें जागरुक करें। स्कूलों में सभी कंप्यूटरों में प्रभावशाली फायरवाल, फिल्टर, निगरानी साफ्टवेयर जैसे सुरक्षा उपायों को लगाना सुनिश्चित करना होगा। साथ ही सभी कंप्यूटर में पैरेंटल कंट्रोल फिल्टर एवं एंटी वायरस अपलोड करना होगा। बोर्ड को काफी जोर स्मार्टफोन को लेकर है। आजकल माता-पिता बच्चों को स्मार्टफोन आसानी से खरीदकर दे देते है। चूंकि फोन उनकी पर्सनल प्रापर्टी होती है इसलिए इस बात की आशंका अधिक हो जाती है कि बच्चा किसी ऐसी गतिविधियों में लिप्त हो जाए। इसलिए सीबीएसई बोर्ड ने स्कूल प्राचार्य और स्कूल बसों में परिवहन प्रभारी को इस बात का ध्यान में रखने के निर्देश हैँ।
भारतीय इलेक्ट्रानिक्स और आईटी मंत्रालय ने गूगल, फेसबुक, वाट्सएप, इंस्टाग्राम और याहू को इस गेम से संबंधित ऐसे लिंक हटाने की ताकीद की थी। साथ ही इस गेम बैन करने संबंधी एक याचिका महिला और बाल कल्याण मंत्रालय ने भी दायर की है। रुस जहां सबसे ज्यादा बच्चों ने इस खेल के कारण आत्महत्याएं की हैं, वहां की संसद ड्यूमा इसी 26 मई को इस तरह के खेल खिलाने वाले ग्रुप्स को क्रिमिनल रूप से उत्तरदायी मानी जाएगी। वहां के राष्ट्रपति ब्लादीमीर पुतिन ने इस लॉ पर साइन किया जिसमें अधिकत छह महीने जेल की सजा हो सकती है। 
कैसे बचाए अपने बच्चों को
इस संबंध में मनोवैज्ञानिक इस बात से सहमत है कि बच्चा जब अपनों से प्यार नहीं पाता है, तो वह अकेलेपन का शिकार हो जाता है। इस अकेलेपन को दूर करने के लिए वह कुछ दोस्त ढूढ़ता है और इस तरह के दोस्त उसे सोशल मीडिया में मिल जाते हैं। जो उसकी बातें सुनते हैं और उनको प्रोत्साहित भी करते हैं। ऐसी स्थिति में कभी कभी वे ऐसे खेल खेलने वाले ग्रुप के चक्कर में भी पड़ जाते हैं। इसलिए मां-बाप को चाहिए कि वे अपने बच्चों से कम्युनिकेशन बनाए रखे ताकि बच्चा आपसी परेशानियां खुद ही शेयर करने लगे। बच्चा अपने कंप्युटर और स्मार्ट फोन पर क्या कर रहा है, इस पर समय समय पर नजर रखनी चाहिए। अब स्कूलों को भी इस तरह के निर्देश दे दिए गए हैं। मनोविश्लेषक इस गेम को खेलने वाले या प्रभावित बच्चों के कुछ लक्षण बताते हैं, जैसे बच्चा अचानक अपने दोस्तों से कट जाए, बाहर खेलना कम कर दे, अपने फोन और कंप्यूटर पर अधिक समय बिताए, तो उस पर नजर रखकर मां-पिता को बच्चों से बात करनी चाहिए। हो सकता है कि केवल इतना ही करके हम अपने अपने बच्चों की कीमती जान बचा पाएं।

रविवार, 27 अगस्त 2017

हमारी है हर तीसरी बालिका वधु

सालों-साल चला बालिका वधु टीवी सीरियल दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ था। इस सीरियल ने बाल विवाह के प्रति लोगों का काफी ध्यान खींचा था। हाल ही सोनी चैनल पर पहरेदार पिया की नाम से एक सीरियल चल रहा है। इसकी थीम बाल विवाह तो नहीं कही जा सकती, पर उसमें बाल विवाह जरूर दिखाया गया है। राजस्थान के अमीर रजवाडे घराने के 10 साल के बेटे की शादी किन्ही परिस्थतियों के चलते एक अठारह साल की युवती से कराई जाती है और वह अपने पति की पहरेदार बन जाती है। इस सीरियल पर आरोप लग रहे हैं कि यह बाल विवाह और पुरुष सत्ता जैसी चीजों को बढ़ावा दे रहा है। विरोधस्वरूप इस सीरियल के खिलाफ ऑनलाइन पीटिशन दायर की गई है, जिस पर अब तक पचास हजार से ज्यादा लोगों ने अपनी सहमति दी है। इस पूरे मामले को सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी ने संज्ञान में लेते हुए इसे प्रसारण सामग्री शिकायत परिषद यानी बीसीसीसी के पास भेज दिया है। बीसीसीसी ने सोनी से सीरियल का समय बदलने के लिए भी कहा है। साथ ही यह भी हिदायत दी है कि इस सीरियल के साथ एक चेतावनी यह भी चलाई जाए कि यह सीरियल बाल विवाह हो बढ़ावा नहीं दे रहा है।
टीवी पर चलने वाले अधिकांश सीरियल जिनमें पारिवारिक और सामाजिक होने का टैग लगा होता है, आपत्तिजनक सामग्री प्रसारित करते हैं और यह हर घर के ड्राइंगरूम में रखे टीवी में चलते हैं। काफी देखे भी जाते हैं। यहीं कारण है कि पिटिशन दायर होने पर सोनी टीवी अपनी सफाई में कहते हैँ कि हम कुछ भी आपत्तिजनक नहीं दिखा रहे हैं। हम पारंपरिक लोग हैं, और अपनी सीमाएं जानते हैं। क्या ग्रामीण, क्या शहरी और क्या मैट्रो सिटी से संबंध रखने वाले लोग, सभी बाल विवाह की इस प्रथा को किसी न किसी स्तर पर पचाते हुए दिखते हैं। चाहे वह मनोरंजन के नाम पर हो या फिर उनके आसपास किसी मजबूरीवश होने वाले बाल विवाह। देश में कुछ हजार और लाख लोग ही लोग इस तरह के मामलों में सक्रीय होते दिख रहे हैं। यही बदलाव हमें चेंज डॉट आर्ग नाम बेवसाइट पर दिखता महसूस हो रहा है। लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि विश्व में होने वाले बाल विवाह में प्रत्येक तीसरी बाल बधु हमारे देश की होती हैं। यह हाल में हुए अध्ययन में दिखाया गया।
हाल ही जारी एक्शन एड इंडिया संस्थान की रिपोर्ट एलिमिनेटिंग चाइल्ड मैरिज इन इंडिया: प्रोग्रेस एंड प्रॉस्पेक्ट्समें बताया गया है कि भारत में दुनिया की करीब 33 प्रतिशत बाल वधुएं हैं और करीब 10.3 करोड़ भारतीयों की शादी अठारह साल से पहले हो जाती हैरिपोर्ट में 2011 की जनगणना आंकड़ों को आधार बनाकर विश्लेषण करने के बाद कहा गया कि देश में हो रहे 10.3 करोड़ बाल विवाहों की संख्या फिलीपीन्स (10 करोड़) और जर्मनी (8 करोड़) की कुल जनसंख्या से भी अधिक है। इन आंकड़ों के मूल्यांकन से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक विकसित देश की जनसंख्या से अधिक हमारे यहां बाल विवाह संपन्न करा दिए जाते हैँ। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह सब सामाजिक सहमति से ही होते हैँ। हमारी सामाजिक सहमति को देखते हुए ही इस तरह के सीरियल अपनी लोकप्रियता की मिसाल कायम कर लेते हैं, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। इसी तरह की बात भारत वार्षिक सेंसस 2011 भी कहता है कि 12 मिलियन लोगों की शादी उनकी 10 वर्ष की आयु पूरी होने से पहले हो जाती है। दुर्भाग्य यह है कि इनमें से 65 प्रतिशत लड़कियां होती हैं।
अभी भी बाल विवाह का समर्थन करने वाले इस बात की ताकीद करते हैं कि बचपन में शादी करने से कुछ भी गलत नहीं होता है क्योंकि हम गौना (शादी के कुछ सालों बाद लड़की को ससुराल भेजने का रिवाज) बाद में करते हैं। इसलिए कम उम्र में शादी होने से होने वाले नुकसान, जो गिनाए जाते हैं, नहीं होते हैं। एक्शन एड इंडिया की रिपोर्ट की माने तो 18 साल से कम उम्र होने वाली 10.3 करोड़ भारतीयों में से करीब 8.52 करोड़ की संख्या लड़कियों की होती है। इसी तरह इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो लड़कियों की शिक्षा, स्वास्थ्य तो खराब होता ही है, आने वाली हमारी भावी पीढ़ी पर भी पड़ता है। उनकी आने वाली संतानें न केवल कुपोषण का शिकार होती हैं बल्कि वे अपना और अपने परिवार का जीवन स्तर उठाने में नाकामयाब रहती हैं। शिशु एवं मातृ मुत्यु दर में इजाफा के मूल में बाल विवाह एक बड़ा कारण है। इसी रिपोर्ट की माने तो बालिकाओं के बाल विवाह रोकने से तकरीबन 27 हजार नवजातों, 55 हजार शिशुओं की मौत और 1,60,000 बच्चों को मौत से बचाया जा सकता है। इस रिपोर्ट के लेखक और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एसिस्टेंस प्रोफेसर डॉ. श्रीनिवास गोली कहते हैं कि बाल विवाह केवल मानवाधिकार और लिंग आधारित मुद्दा नहीं है, बल्कि यह भारतीय जनांनकीय के स्वास्थ, शिक्षा, और आर्थिक उन्नति के मामले के गंभीर परिणाम हैं। महिलाएं हमारी आधी आबादी हैं और यदि हम बाल विवाह से नहीं लड़ पा रहे हैं, तो यह हमारी आर्थिक व्यवस्था को अस्वस्थ और अकुशल मैन पॉवर उपलब्ध कराएगी जो हमारी आर्थिक ग्रोथ, जिसकी दोगुना करने की आशा व्यक्त की जाती है, इसे कम कर देगी।प्रश्न उठता है कि इतनी जागरुकता अभियान जो सरकारी और गैर सरकारी दोनों स्तरों पर चलाए जा रहे हैं, के बावजूद बाल विवाह रुक क्यों नहीं रहा है। इसके मूल में ऐसे कौन से कारण होते हैं, जो सभी तरह के नुकसान को देखते हुए भी मां-बाप बाल विवाह करने से नहीं चूकते हैं। देश में अधिकांश घरों में लड़कियों को बोझ माना जाता है और इस बोझ को उतारने की प्रक्रिया उनकी कम उम्र में शादी के रूप में देखी जाती है। इसमें गरीबी भी एक प्रमुख कारण होता है, जहां लड़की को उसके ससुराल भेजने की जल्दी दिखाई जाती है। समाज में दहेज का लेन-देन भी लड़की जल्दी शादी कर देने का कारण माना जा सकता है। जल्दी शादी करने से लड़के वाले दहेज ज्यादा नहीं मांगते हैं। हमारे समाज का ढांचा इस तरह का है कि लड़कियां दूसरे घर की धरोहर मानी जाती है। उन्हें घर तक सीमित रखते हुए जल्दी से जल्दी ससुराल भेजना मानकर चला जाता है, इसलिए लड़कियों की शादी कर दूसरे घर भेजने में ही इतिश्री समझी जाती है। कुछ समाजों में पितृसत्ता और सामंतवाद इतना हावी रहता है कि वे बेटियों और बहुओं को अपने अनुसार कंट्रोल करना चाहते हैं, इसलिए कम उम्र में ही उन्हें घर-गृहस्थी के चक्कर में डालकर मां-बाप एक चिंता से मुक्ति पा लेना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त समाज में लड़कियों के लिए असुरक्षा का भाव और माहोल भी उनकी जल्दी शादी के लिए मां-बाप को इस ओर प्रेरित करता है।
अब यह भी प्रश्न उठता है कि बाल विवाह जो इतने प्रयासों से थम नहीं रहा है, तो कैसे इसके हानिकारक प्रभावों को दूर किया जा सकता है। वास्तव में बच्चों का बचपन छीनकर उन्हें घर गृहस्थी के भार से लादने वाले माता-पिता गरीबी और अशिक्षा के दुष्चक्र में फंसे होते हैं। इसलिए लड़कियों के भार को दूसरे घर भेजने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। लड़कियों को भार न समझा जाए, इसके लिए बच्चियों के पैदा होने और बड़े होने के साथ होने वाली शिक्षा की व्यवस्था को सरकार को समझना चाहिए। ऐसी योजनाओं को बढावा भी देना चाहिए। एक्शन एड इंडिया संस्थान की रिपोर्ट जारी करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता अभिनेत्री शबाना आजमी की कही इस बात से समझा जा सकता है कि पितृसत्ता बाल विवाह की जड़ में है और बाल विवाह रोकने के लिए पितृसत्ता से पूरी तरह से निपटना होगा लड़कियों को शिक्षित करना और उनमें भरोसा पैदा करना होगा ताकि वे बाल विवाह का विरोध करें और अपने जीवन के बारे में खुद फैसला करें

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

और मैं स्वतंत्रता दिवस भूल गया

मैं सुबह की मीठी नींद सो रहा था कि किसी भारी-भरकम आवाज का कानों में प्रवेश हुआ। और मैं स्वप्न लोक से इहलोक आ गया। आंख खोलकर देखा तो मेरे सात जन्मों की संगनी भृकुटी चढ़ाये खड़ी हैं। मुझे अलसाते देख यथाशक्ति कोमल स्वर में बोली-‘आपकेा आपिफस नहीं जाना है?’ ‘हां! जाना है पर इतनी सुबह क्यों जगा रही हो।’ मैंने स्पष्टीकरण मांगा जो वाकई मुझे कभी नही मिला। ‘सारी जिन्दगी सोते ही रहियेगाा। आज 15 अगस्त है, आफिस नहीं जाना है?’ झुंझलाते हुये वह बोली और किसी जलजले की भांति कमरे से बाहर भी चली गयी। पर मुझे जोर का झटका जोर से लगा कि अरे! 15 अगस्त! मैं ‘स्वतंत्रता दिवस’ कैसे भूल गया!
 मैं उधेड़बुन में फंस गया। मैं स्ववंत्राता दिवस क्योंकर भूल गया। यह कैसे हुआ? जिसे मैं बचपन से लेकर अब तक पूरे मनोयोग से मनाता आ रहा हूं। एक बार भी नहीं भूला, आज क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ? ऐसी धृषटता कैसे हुई मुझसे। यह तो कृतग्घनता हुई देश से। ऐसे कितने विचारों का आवेग मुझ पर बढ़ने लगा। ..कि मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा और जन गण मन का राग चारों दिशाओं में गूंजने लगा। और तत्काल मैं फ्लैस बैक में चला गया और इस भयानक भूल का कारण तलाशने लगा।
मैं अपनी स्मृति-मशीन के द्वारा अपने पिछले सभी स्वतंत्रता दिवसों घूम रहा था। मैंने देखा कि बचपन में लड्डुओं के लालच में ही सही, मैं 15 अगस्त को स्कूल अवश्य जाता था। इस दिन मेरे पेट में कभी दर्द नहीं होता था। वहां होने वाले सारे कार्यक्रम पूरे मनोयोग से देखता था जो मुझे भार-स्वरूप भले ही लगते थे। पर मेरा सारा ध्यान मोदकों पर टिका रहता कि कब वह मेरे हाथ लगे और मैं घर चलूं। लेकिन ऐसा काफी इंतजार के बाद सम्भव होता था। बचपन में 15 अगस्त के दिन मास्टर जी एक बात अवश्य बताते- बच्चों! हम सब 15 अगस्त को स्वतंत्र हुये थे और इसी दिन हमें स्वतंत्र रूप से जीने का अधिकार मिला था।’ फलत: इस बात का प्रभाव किशोरावस्था तक आते-आते मेरे मन-मस्तिष्क पर जबरदस्त पड़ गया कि मैं 15 अगस्त 1947 के बाद पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो चुका हूं। अत: इस अधिकार के प्रयोग  के लिये मैं हमेशा लालायित रहता था।
लेकिन मेरी इस सोच पर  तब तुषारापात हो जाता, जब मैं पढ़ना नहीं चाहता और खेलने की स्वतंत्रता मांगता, दोस्तों के साथ घूमने, फैशनेबल कपड़े पहनने एवं सिनेमा जाने की स्वतंत्रता मांगता, तब पिताजी मुझे लम्बा-चौड़ा भाषण देते और बताते कि कितनी मेहनत के बाद वह अध्यापक बन पाये हैं। अगर तुम्हारे यही लक्षण रहे, तो तुम स्कूल का चपरासी भी नहीं बन पाओगे, ...समझे!
और इसके बाद मेरी हर प्रकार की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लग जाता। खैर, इन सब के बावजूद मैं 15 अगस्त जोरशोर से मनाता रहता। इस समय तक मैं एक चलता पुर्जा किस्म का छात्रा बन गया था। अपने जैसे विचारों वाले छोटे भाई लोगों का एक ग्रुप बना कर छुटभैय्या नेताओं की चमचागिरी कर लेता था। उन्हीं के प्रोत्साहन से थोड़ी बहुत भाषणबाजी भी करने लगा था। पढ़ाई-लिखाई में तो मुझे कभी तारीफ मिली नहीं, इसलिये साल में मिलने वाले ऐसेे एक दो मौकों को मैं नही छोड़ता था। और स्वतंत्रता दिवस खूब मनाता।
युवावस्था में मुझे एक सीधी-साधी लड़की से प्यार हो गया। तब स्वतंत्रता वाली मेरी भावनायें फिर से जाग्रत हो गईं।  ..कि प्यार करने और अपनी पसंद की लड़की से विवाह करने के लिये तो मैं स्वतंत्र हूं। लेकिन यहां भी मैं गलत हो गया। पिता जी को मेरा प्यार पसंद नहीं आया और जल्द ही उन्होंने एक सुयोग्य-गृहकार्य दक्ष लक्ष्मी से मेरी सगाई कर चैन की सांस ली। फिर भी मैं स्वतंत्रता दिवस मनाता रहा। शादी होने के बाद गृहस्थी की गाड़ी हांकनी थी, इसलिये जोड़-तोड़कर के सरकारी ऑफिस में क्लर्की हासिल कर ली। सोचा कि यहां पर सात-आठ घंटे रहकर अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग कर सकूंगा। पर अफसोस! अध्रिकारियों के आदेश पर फाइलें इधर-उधर  करता रहता। उपर-नीचे भी करता। कभी इसको टालता, कभी उसको टालता। ऊपर से जैसे आदेश मिलते मैं वैसा ही करता। कभी स्वतंत्र क्लर्की नहीं करता, पर हर साल मैं 15 अगस्त अवश्य मनाता। जिंदगी इन्हीं स्वतंत्रओं के अपहरणों के बीच चलती रही और मैं स्वतंत्रता दिवसों को पूरे 'बुझे' मन से मनाता रहा।
आज भी स्वतंत्रता दिवस है] मैं तैयार होकर जा रहा हूं। स्कूली पोशाक में सजे-धजे बच्चे तिरंगा लिये भागते चले जा रहे। तभी मुझे किसी की जोर से पुकारने की आवाज सुनाई दी। मैंने देखा कि मैं अभी भी बिस्तर पर पड़ा हुआ हूं। मेरी पत्नी मेरे सामने खड़ी मेरी चादर खींचते हुये कह रही है ‘ऐसे ही जिंदगी भर उंघाते रहना, जाइये, जल्दी से निपटकर आइये। दूसरे भी काम करने है। बड़ी मुश्किल से कोई छुट्टी का दिन मिलता है।’