नो एक शब्द ही नहीं, अपने आप में पूरा वाक्य है योरऑनर। इसे किसी तर्क, स्पष्टीकरण या व्याख्या की जरूरत नहीं है। ‘न’ का मतलब ‘न’ ही होता है योरऑनर। ’
‘न मैं नाना पाटेकर हूं और न तनुश्री, तो मैं आपके सवाल का जवाब कैसे दे सकता हूं।’
ऊपर लिखी यह दोनों लाइनें फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन ने बोली हैं। पहली लाइन फिल्म ‘पिंक’ में एक बलात्कार की शिकार लड़की का केस लड़ते हुए और दूसरी लाइन अभिनेत्री तनुश्री और नाना पाटेकर विवाद पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कही। मामला एक ही तरह का है, पर रील और रियल लाइफ का अंतर है। वास्तव में रील और रियल लाइफ में यही फर्क होता है। अगर तनुश्री और नाना पाटेकर विवाद रियल लाइफ में न होकर सिनेमा के लिए फिल्माया गया एक दृश्य जैसा होता तो? तो सदी के महानायक पुरजोर वकालत करके यह केस जीत लेते और फिल्म ‘हिट’ हो जाती। चूंकि मामला फिल्म का नहीं है, इसलिए वे बड़े ही ‘बेशर्म’ तरीके से इस सवाल से बच निकलते हैं। खैर, सदी के महानायक की छोड़िए, दरियादिल सलमान खान की बात कर लें। जब एक प्रेस कांफ्रेंस में महिला पत्रकार ने इस विवाद पर सलमान की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तब ‘आप किस इवेंट में आई हैं मैडम।’ कहकर न केवल महिला पत्रकार का उपहास किया, बल्कि इस मामले को हल्का कर दिया।
हमारी हीरो और नायकों वाली इंडस्ट्री के ‘हीरो’ सिर्फ फिल्मों में ही गरीब, मजलूमों और महिलाओं के लिए लड़ते दिखते हैं, फिल्म से बाहर वे उतने ही साधारण व्यक्ति होते हैं, जितने हमारे आसपास का कोई सामान्य इंसान। इसलिए तनुश्री जैसी किसी भी अभिनेत्री को सदी के महानायक और दरियादिल सलमान खान से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। न ही उन लोगों से कोई उम्मीद होनी चाहिए, जो यह कहते नजर आ रहे हैं कि उसी समय क्यों नहीं बोलीं। या यह प्रसिद्धि पाने का एक आसान तरीका है। अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब तेलुगू अभिनेत्री श्री रेड्डी को कास्टिंग काउच और अपने साथ हुए यौन शोषण के विरोध में सरेआम निर्वस्त्र होकर प्रोटेस्ट करना पड़ा। तब भी यही सवाल चारों तरफ तैरतें नजर आए। आखिरकार श्री रेड्डी के मामले के सामने आने के बाद कई और अभिनेत्रियों ने अपना मुंह खोला और सब कुछ ढका-छिपा क्रिस्टल की तरह साफ नजर आने लगा। यही हाल आज इस बॉलीवुड का है। सब कुछ ढका-छिपा है। अगर कोई अपना मुंह खोलता भी है, तो बजाए उसकी गंभीरता के समझने के, उल्टा उसी का ट्रायल शुरू हो जाता है। कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। इस मामले में भी सवाल तनुश्री से ही किए जा रहे हैं, नाना से नहीं।
हमें तनुश्री की इस बात की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने अपने साथ हुए उस वाकये पर न उस समय चुप रहीं और न आज चुप हैं। आज वे जिस आत्मविश्वास के साथ मुखर होकर अपनी बात मीडिया में रख रही हैं, उस हिम्मत को पाने में उन बीते दस साल का योगदान भी है, जिसे उन्होंने इस दर्द के साथ जिया है। आज तनुश्री पर वैसे ही हमले हो रहे हैं, जैसा श्री रेड्डी पर हुए थे। पर इस समाज की महिलाओं के प्रति जड़ता और माइंडसेट को क्या कहा जाए, जो सारे सवाल तनुश्री से ही कर रहा है। तनुश्री से ही गवाह और सुबूत मांग रहा है। तनुश्री को ही सिद्ध करना पड़ रहा है कि ज्यादती उसके साथ हुई है। यह एक सभ्य समाज की निशानी कैसे हो सकती है जहां पीड़िता को ही सिद्ध करना पड़े कि उसके साथ कुछ गलत हुआ था। इस मामले पर केद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि ‘पहले क्यों नहीं कहा’ का सवाल लोगों ने तब भी पूछा था, जब हॉलीवुड निर्देशक हार्वे विंस्टीन के खिलाफ बोला गया था। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पीड़तिा कब सामने आती है। मैं जानती हूं कि जब आपके शरीर पर हमला होता है, तो यह आपको हमेशा याद रहता है।
बॉलीवुड महिला और महिला चरित्रों को लेकर स्टीरियो टाइप रहा है। हर इंडस्ट्री की तरह बॉलीवुड भी पुरुष प्रधान है। आज भी यहां महिलाओं को पेमेंट से लेकर रोल तक में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। आज भी इस इंडस्ट्री में महिला निर्देशक गिनती की हैं। उनका अनुभव बताता है कि कैसे उन्हें ‘जज’ किया जाता है। पहले भी और आज भी फिल्मों और मॉडलिंग के क्षेत्र को लड़कियों के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। सवाल है कि ऐसा क्यों है? जब इस क्षेत्र में पढ़े-लिखे जहीन लोग काम कर रहे हैं, तो महिला के काम को खराब क्यों समझा जाता है? कहीं सामान्य लोगों की यही समझ बॉलीवुड में काम करने वालों की भी तो नहीं है। दुर्भाग्य है कि ऐसा ही है। तभी वह इस इंडस्ट्री में काम करने वाली महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से नहीं देख पाते हैं। वे उनके अस्तित्व को उसी तरह स्वीकार करने की स्थिति में नहीं होता है, जिस तरह वे अपनी घर की महिलाओं के बारे में सोचते हैं। यहीं अंतर ही इस इंडस्ट्री में काम करने वाली महिलाओं को यौन उत्पीड़न और काटिंग काउच के रूप में भुगतना पड़ता है।
हमारा सिनेमा (बॉलीवुड) शताब्दी पार कर गया है। यहां महिलाओं (अभिनेत्रियों और दूसरे काम करने वाली महिलाएं) के शोषण का इतिहास भी इतना ही पुराना हो चुका है। भारतीय सिनेमा में महिलाओं के लिए द्वार खोलने वाली बांग्ला स्टार अभिनेत्री कानन देवी ने अपनी आत्मकथा में सेक्सुअल हैरेसमेंट और दुर्व्यहार के बारे में लिखा है। बाद में इन्होंने महिला कलाकारों की मदद के लिए एक संस्था महिला शिल्पी महल की स्थापना भी इसी वजह से की। लीजेंड गजल गायिका बेगम अख्तर की कहानी तो अत्यंत दर्दभरी है। बिहार के एक राजा ने किशोरावस्था में ही उनकी कला की प्रशंसा के बहाने उनका बलात्कार किया। जिसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव उन पर ताउम्र रहा। ये कुछ ऐसी सच्चाइयां हैं, जो लोगों के सामने आ पाई। वरना ऐसी बहुत सी कहानियां इस इंडस्ट्री में दफ्न पड़ी हैं। यह केवल तनुश्री की लड़ाई नहीं है, यह बॉलीवुड की बहुत सी तनुश्रीयों की लड़ाई है, जिसे उन्हें खुद ही लड़नी पड़ेगी। इस मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी की बात ठीक लगती है कि भारत में भी हमें हैशटैग मीटू जैसा अभियान शुरु करने की जरूरत है।
ऊपर लिखी यह दोनों लाइनें फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन ने बोली हैं। पहली लाइन फिल्म ‘पिंक’ में एक बलात्कार की शिकार लड़की का केस लड़ते हुए और दूसरी लाइन अभिनेत्री तनुश्री और नाना पाटेकर विवाद पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कही। मामला एक ही तरह का है, पर रील और रियल लाइफ का अंतर है। वास्तव में रील और रियल लाइफ में यही फर्क होता है। अगर तनुश्री और नाना पाटेकर विवाद रियल लाइफ में न होकर सिनेमा के लिए फिल्माया गया एक दृश्य जैसा होता तो? तो सदी के महानायक पुरजोर वकालत करके यह केस जीत लेते और फिल्म ‘हिट’ हो जाती। चूंकि मामला फिल्म का नहीं है, इसलिए वे बड़े ही ‘बेशर्म’ तरीके से इस सवाल से बच निकलते हैं। खैर, सदी के महानायक की छोड़िए, दरियादिल सलमान खान की बात कर लें। जब एक प्रेस कांफ्रेंस में महिला पत्रकार ने इस विवाद पर सलमान की प्रतिक्रिया जाननी चाही, तब ‘आप किस इवेंट में आई हैं मैडम।’ कहकर न केवल महिला पत्रकार का उपहास किया, बल्कि इस मामले को हल्का कर दिया।
हमारी हीरो और नायकों वाली इंडस्ट्री के ‘हीरो’ सिर्फ फिल्मों में ही गरीब, मजलूमों और महिलाओं के लिए लड़ते दिखते हैं, फिल्म से बाहर वे उतने ही साधारण व्यक्ति होते हैं, जितने हमारे आसपास का कोई सामान्य इंसान। इसलिए तनुश्री जैसी किसी भी अभिनेत्री को सदी के महानायक और दरियादिल सलमान खान से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। न ही उन लोगों से कोई उम्मीद होनी चाहिए, जो यह कहते नजर आ रहे हैं कि उसी समय क्यों नहीं बोलीं। या यह प्रसिद्धि पाने का एक आसान तरीका है। अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब तेलुगू अभिनेत्री श्री रेड्डी को कास्टिंग काउच और अपने साथ हुए यौन शोषण के विरोध में सरेआम निर्वस्त्र होकर प्रोटेस्ट करना पड़ा। तब भी यही सवाल चारों तरफ तैरतें नजर आए। आखिरकार श्री रेड्डी के मामले के सामने आने के बाद कई और अभिनेत्रियों ने अपना मुंह खोला और सब कुछ ढका-छिपा क्रिस्टल की तरह साफ नजर आने लगा। यही हाल आज इस बॉलीवुड का है। सब कुछ ढका-छिपा है। अगर कोई अपना मुंह खोलता भी है, तो बजाए उसकी गंभीरता के समझने के, उल्टा उसी का ट्रायल शुरू हो जाता है। कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। इस मामले में भी सवाल तनुश्री से ही किए जा रहे हैं, नाना से नहीं।
हमें तनुश्री की इस बात की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने अपने साथ हुए उस वाकये पर न उस समय चुप रहीं और न आज चुप हैं। आज वे जिस आत्मविश्वास के साथ मुखर होकर अपनी बात मीडिया में रख रही हैं, उस हिम्मत को पाने में उन बीते दस साल का योगदान भी है, जिसे उन्होंने इस दर्द के साथ जिया है। आज तनुश्री पर वैसे ही हमले हो रहे हैं, जैसा श्री रेड्डी पर हुए थे। पर इस समाज की महिलाओं के प्रति जड़ता और माइंडसेट को क्या कहा जाए, जो सारे सवाल तनुश्री से ही कर रहा है। तनुश्री से ही गवाह और सुबूत मांग रहा है। तनुश्री को ही सिद्ध करना पड़ रहा है कि ज्यादती उसके साथ हुई है। यह एक सभ्य समाज की निशानी कैसे हो सकती है जहां पीड़िता को ही सिद्ध करना पड़े कि उसके साथ कुछ गलत हुआ था। इस मामले पर केद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि ‘पहले क्यों नहीं कहा’ का सवाल लोगों ने तब भी पूछा था, जब हॉलीवुड निर्देशक हार्वे विंस्टीन के खिलाफ बोला गया था। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पीड़तिा कब सामने आती है। मैं जानती हूं कि जब आपके शरीर पर हमला होता है, तो यह आपको हमेशा याद रहता है।
बॉलीवुड महिला और महिला चरित्रों को लेकर स्टीरियो टाइप रहा है। हर इंडस्ट्री की तरह बॉलीवुड भी पुरुष प्रधान है। आज भी यहां महिलाओं को पेमेंट से लेकर रोल तक में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। आज भी इस इंडस्ट्री में महिला निर्देशक गिनती की हैं। उनका अनुभव बताता है कि कैसे उन्हें ‘जज’ किया जाता है। पहले भी और आज भी फिल्मों और मॉडलिंग के क्षेत्र को लड़कियों के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। सवाल है कि ऐसा क्यों है? जब इस क्षेत्र में पढ़े-लिखे जहीन लोग काम कर रहे हैं, तो महिला के काम को खराब क्यों समझा जाता है? कहीं सामान्य लोगों की यही समझ बॉलीवुड में काम करने वालों की भी तो नहीं है। दुर्भाग्य है कि ऐसा ही है। तभी वह इस इंडस्ट्री में काम करने वाली महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से नहीं देख पाते हैं। वे उनके अस्तित्व को उसी तरह स्वीकार करने की स्थिति में नहीं होता है, जिस तरह वे अपनी घर की महिलाओं के बारे में सोचते हैं। यहीं अंतर ही इस इंडस्ट्री में काम करने वाली महिलाओं को यौन उत्पीड़न और काटिंग काउच के रूप में भुगतना पड़ता है।
हमारा सिनेमा (बॉलीवुड) शताब्दी पार कर गया है। यहां महिलाओं (अभिनेत्रियों और दूसरे काम करने वाली महिलाएं) के शोषण का इतिहास भी इतना ही पुराना हो चुका है। भारतीय सिनेमा में महिलाओं के लिए द्वार खोलने वाली बांग्ला स्टार अभिनेत्री कानन देवी ने अपनी आत्मकथा में सेक्सुअल हैरेसमेंट और दुर्व्यहार के बारे में लिखा है। बाद में इन्होंने महिला कलाकारों की मदद के लिए एक संस्था महिला शिल्पी महल की स्थापना भी इसी वजह से की। लीजेंड गजल गायिका बेगम अख्तर की कहानी तो अत्यंत दर्दभरी है। बिहार के एक राजा ने किशोरावस्था में ही उनकी कला की प्रशंसा के बहाने उनका बलात्कार किया। जिसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव उन पर ताउम्र रहा। ये कुछ ऐसी सच्चाइयां हैं, जो लोगों के सामने आ पाई। वरना ऐसी बहुत सी कहानियां इस इंडस्ट्री में दफ्न पड़ी हैं। यह केवल तनुश्री की लड़ाई नहीं है, यह बॉलीवुड की बहुत सी तनुश्रीयों की लड़ाई है, जिसे उन्हें खुद ही लड़नी पड़ेगी। इस मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी की बात ठीक लगती है कि भारत में भी हमें हैशटैग मीटू जैसा अभियान शुरु करने की जरूरत है।
3 टिप्पणियां:
https://bulletinofblog.blogspot.com/2018/10/blog-post_82.html
dhanyawad rashmi ji
सटीक
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