सोमवार, 16 दिसंबर 2019

न्याय मिलेगा तब, जब महिला पुलिस में होगा दम

इंडियन जुडिशल रिपोर्ट-2019 इस माह आई है। यूं तो यह नागरिकों और उनके न्यायक्षेत्र से संबंधित है, पर इसका एक आवश्यक भाग पुलिस भी है। जिस पर नागरिकों की सुरक्षा भार और उत्तरदायित्व होता है। एक अच्छी पुलिस आम नागरिकों को न केवल सुरक्षा उपलब्ध कराती है, बल्कि उसके साथ हुई  हिंसा या अपराध में न्याय दिलाने में सहायक भी होती है, यह माना हुआ तथ्य है। इसलिए रिपोर्ट में पुलिस जैसे महत्वपूर्ण और सबसे जरूरी अंग पर काफी विश्लेषण किया गया है। इसमें पुलिस की संख्या बल, पुलिस में विभिन्न धर्मों, जातियों, महिलाओं का प्रतिनिधित्व एक बड़ा मुद्दा है। इसमें आधी आबादी के लिए काम की बात यह है कि पुलिस विभाग में महिला बल न केवल बहुत कम है, बल्कि हमारा सिस्टम निर्धारित लक्ष्य का पीछा जिस कछुआ गति से कर रहा है, उसमें 100-300 साल भी लग सकते हैं। जुडिशल रिपोर्ट यह मानती है कि महिलाओं और बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों में बढोत्तरी और न्याय न मिल पाने की एक बहुत बड़ी वजह महिलाओं का पुलिस संख्या बल में न केवल कम होना है, बल्कि ऑफीसर रैंक में भी उचित प्रतिनिधित्व में न होना भी है।
देश के पूरे पुलिस महकमे में महिलाओं की संख्या 7 फीसदी है। केवल चार राज्या और चार केंद्रशासित प्रदेशों में 10 फीसदी से अधिक संख्या में है। राष्ट्रीय स्तर पर चंडीगढ़ और दादर-नागर हवेली में महिला पुलिस की संख्या सबसे अधिक 18 और 15 फीसदी है। इसीतरह तमिलनाडु में 13 फीसदी, हिमाचल प्रदेश में 12 फीसदी है जबकि आठ राज्यों जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, आंध्रप्रदेश, मेघालय, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और त्रिपुरा में केवल पांच फीसदी महिला पुलिस संख्या बल है। इस रिपोर्ट में इस बात को भी रेखांकित किया गया है कि महिलाओं की पुलिस महकमें ऊंची रैंक पर भी कम काम कर रही हैं, जिसके कारण बहुत से मामलों में ठीक ढंग से जांच नहीं हो पाती है। इसी बात को कॉमनवेल्थ ह्युमन राइट्स इनीसियेटिव ने 06 मार्च, 2018 को ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एडं डेवलपमेंट्स एनुअल रिपोर्ट के आंकड़ों का इस्तेमाल कर इस बात का पता लगाया था। इसमें पुलिस बल में ऑफीसर रैंक में महिलाओं की बहुत अधिक कमी देखी गई। इस रिपोर्ट के अनुसार, महिला पुलिस में सबसे अधिक कांस्टेबल के पद पर नियुक्ति होती है, जोकि कुल नियुक्ति का 71.75 फीसदी होता है। कमाल की बात यह होती है कि महिला इसी पद पर नियुक्ति होने के बाद इसी पद पर रिटायर भी हो जाती हैं। यह इस विभाग का महिलाओं की योग्यता के प्रति कम विश्वास को दिखाता है। इसके अतिरिक्त महिला पुलिस की कुल नियुक्ति में हेड कांस्टेबल 17.63 फीसदी, सब-इस्पेक्टर 5.34 फीसदी, इस्पेक्टर 1.69 फीसदी, एएसपी, डिप्टी एसपी 0.46 फीसदी, एडीसनल एसपी 0.13, एआईजीपी, एसएसपी 0.20 फीसदी, डीआईजी 0.02, आईजीपी 0.03, एडीशनल डीजी 0.01 एवं डीजीपी 0.01 नियुक्त होती हैं। समझा जा सकता है कि पुलिस महकमे में महिलाओं की उपस्थिति किस कदर कम है।
देश में कई अध्ययनों और परामर्शदात्री कमेटियों ने पुलिस में महिलाओं की संख्या बढ़ाकर 33 फीसदी करने का परामर्श दिया है। ये अध्ययन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि महिला पुलिस महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों को पुरुषों की अपेक्षा अधिक बेहतर ढंग से हैंडल कर सकती हैं। यूनाइटेड नेशंस वूमेन ने अपनी रिपोर्ट (प्रोग्रेस ऑफ द वर्ल्डस वुमेन: इन परसुएट ऑफ जस्टिस,2011-12) 39 देशों के आंकड़े जुटाए जिससे बताया गया कि पुलिस बल में महिलाओं की उपस्थिति से सकारात्मक रूप से यौनहिंसात्मक अपराधों की सही ढंग से रिपोर्टिंग हुई थी। इससे यह महिलाओं को न्याय दिलाने के प्रति यह महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वपूर्ण अंग बन सका। शायद इसलिए 2009 में केंद्रीय गृहमंत्रालय ने पुलिस में महिला प्रतिनिधित्व का एक बेंचमार्क 33 फीसदी निर्धारित किया। इसके बावजूद केवल नौ राज्यों ने पुलिस में महिलाओं की संख्या 33 फीसदी करने की नीति को स्वीकार किया, जबकि पांच राज्यों ने 30 फीसदी और दूसरे पांच राज्यों ने 30 फीसदी से नीचे की संख्या निर्धारित की। इन सबके बीच बिहार ने 38 फीसदी महिला प्रतिनिधित्व करने की बात की।
इसके अतिरिक्त 2013 में ही गृह मंत्रालय ने परामर्श दिया था कि प्रत्येक पुलिस स्टेशन में कम से कम तीन महिला सब-इस्पेक्टर और 10 महिला कांस्टेबल सहित महिला हेल्प डेस्क वाला स्टॉफ होना चाहिए। इसी तरह 2015 में मंत्रालय ने प्रस्ताव दिया कि राज्यों को ज्यादा अपराध वाली जगहों के पुलिस स्टेशन में महिलाओं के प्रति अपराधों के लिए एक इनवेस्टिगेटिव यूनिट बनानी चाहिए। जिसमें इस तरह के अपराधों को डील करने वाले 15 विशेषज्ञों को रखा जाना चाहिए। इसमें कम से कम एक तिहाई महिलाएं होंनी चाहिए। वास्तव में इस तरह के एडवाइजरी या परामर्श या प्रस्ताव इस बात को बता रहे हैं कि महिलाओं और बच्चों के प्रति होने वाले अपराधों को इस तरह नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन यह महिलाओं और बच्चों का दुर्भाग्य है कि इन्हें जमीन पर उतारने के नाम पर कुछ खास नहीं किया जा रहा है।
भारतीय पुलिस सेवा का प्रमुख स्वरूप पुरुषों के अनुरूप अधिक है। यह मानकर चला जाता रहा है कि सेना और पुलिस जो रक्षा का काम करते हैं, मुख्यत: पुरुषों का काम है। इसलिए इस महिलाओं के अनुकूल बनाया भी नहीं गया है। इसलिए महिलाएं इस काम के प्रति जल्दी आकर्षित भी नहीं होती हैं और जो महिलाएं इस विभाग में काम कर रही हैं, उनकी अलग ही प्रकार की कठिनाइयां हैं। जिन्हें पुलिस विभाग में काम करने वाली महिलाओं की तमाम कठिनाइयों और समस्याओं पर स्टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रपोर्ट-2019 में हाल ही में बताया है। अगर इस विभाग की ऐसी बहुत सी समस्याओं को ध्यान दिया जाए, तो यह विभाग वुमन फ्रेंडली बन सकता है। आखिर सुरक्षा और न्याय पाने के लिए महिला पुलिस की हम उपेक्षा कब तक कर सकते हैं?

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

जब कुछ अखबार स्त्री शिक्षा के विरोध में भी थे


देश की गुलामी के दौर में शिक्षा कुछ जातीय वर्गों और जेंडर स्तर पर पुरुषों तक ही सीमित थी। ऐसे में जागरुकता और समाज सुधार की दृष्टि से सभी में शिक्षा के प्रसार की आवश्यकता महसूस हुई। इसलिए इस दौर में स्त्री शिक्षा की जरूरत को भी अत्यधिक बल दिया गया। यह सर्वसिद्ध तथ्य है कि एक शिक्षित मस्तिष्क ही नये विचारों का वाहक हो सकता है। इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर बालिका और महिला शिक्षा पर जोर देने के लिए सामाजिक-राजनीतिक ही नहीं पत्र-पत्रिकाओं के स्तर पर एक मुहिम छेड़ी गई। पत्र-पत्रिकाएं यह बात अच्छी तरह से समझती थीं कि जब लोग शिक्षित होगें, तब ही उनका महत्व और औचित्य निर्धारित हो सकता है। अनपढ़ों के बीच पत्र-पत्रिकाओं की क्या आवश्यकता? इसी फलसफे को समझते हुए इस दौर की पत्रकारिता ने शिक्षा, पर कहीं अधिक स्त्री शिक्षा पर बल दिया। आखिर सवाल आधी आबादी का भी था।
1884 में बंगदर्शन स्त्री शिक्षा की वकालत कर रहा था। उसने लिखा कि इस समय सब लोग स्वीकार स्वीकार करते हैं कि लड़कियों को कुछ लिखाना-पढ़ाना अच्छा है, किंतु कोई यह नहीं सोचता कि स्त्रियां पुरुषों की तरह अनेक प्रकार के साहित्य, गणित, विज्ञान, दर्शन आदि की शिक्षा क्यों न प्राप्त करें?...कन्या भी पुत्र की तरह एमए क्यों नहीं पास करेगी, इस प्रश्न को वे एक बार भी अपने मन में स्थान नहीं देते।यह पत्र न केवल स्त्री शिक्षा की वकालत कर रहा था, बल्कि स्त्री शिक्षा के साधन न होने पर उपाय भी बता रहा था। पत्र इस बात की भी हिमाकत करता है कि लड़कियों के स्कूल न होने की स्थिति में उन्हें लड़कों के स्कूलों में भेजा जा सकता है।जब बंगदर्शन जैसे बहुत सी पत्र स्त्री शिक्षा के हिमायत जब लिख रहे थे, तब से बहुत पहले ही 1848 में ज्योतिराव फुले ने पूना में लड़कियों के लिए अपना पहला स्कूल खोलकर स्त्री शिक्षा की अलख जगा दी थी। उसी वर्ष एल्फिंस्टन कालेज बंबई के छात्रों ने एक कन्या पाठशाला शुरू की तथा स्त्रियों के लिए एक मासिक पत्रिका भी निकाली।
हिंदी पत्रकारिता में विशिष्ट स्थान रखने वाले बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र 1867 में अपनी लेखनीय और संपादन में स्त्री शिक्षा के पक्ष में जमकर लिख रहे थे। उन्होंने लिखा कि पश्चिमोत्तर देश की कदापि उन्नति नहीं होगी, जब तक यहां की स्त्रियों की शिक्षा न होगी, क्योंकि यदि पुरुष विद्वान होंगे और उनकी स्त्रियां मूर्खा तो उनमें आपस में कभी स्नेह न होगा।स्त्री शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए उन्होंने केवल लेखन ही नहीं किया, बल्कि जो युवतियां परीक्षा पास करती थीं उन्हें वे साड़ी भी भेंटस्वरूप दिया करते थे। उन्होंने इसी क्रम में महिलाओं के लिए 1874 में बाल बोधिनी पत्रिका भी निकाली।
इसके प्रभाव में स्त्री शिक्षा के लिए दरवाजे धीरे-धीरे ही सही खोले जा रहे थे। 1862 के मराठी पत्र इंदुप्रकाश जो एक सामाजिक सुधार का पत्र समझा जाता था, नेपूना में स्त्रियों के लिए हाई स्कूलमें युवतियों की उच्च शिक्षा विवाह में बाधा न बन जाए, इस पर चिंता प्रकट की। उसने लिखा किशहरों में विद्यालयों की स्थापना कर स्त्रियों को विद्या संपन्न बनाने का उत्तम कार्य वर्षों से चल रहा है और अंग्रेज सरकार भरपूर आश्रय दे रही है।सिर्फ एक कठिनाई है कि हाईस्कूल में पढ़ने वाली लड़कियां उम्र में 18-19 साल की हो जाएंगी तो शादी करने में दिक्कत आएगी, इसलिए शादीशुदा लड़कियां पढ़ना चाहे तो ससुराल से अनुमति मिलना आवश्यक होगा।इसी तरह 1929 में हैदराबाद से प्रकाशित महिलाओं की पत्रिका सफीना--निस्वां जिसकी संपादिका सादिका कुरैशी थीं, पत्रिका पर्दे का समर्थन तो करती थी, पर महिला शिक्षा पर भी बल देती थी।
स्त्री शिक्षा इस समय जोरों पर थी, इसलिए लगभग हर भाषा के छोटे-बड़े पत्र स्त्री शिक्षा को बढ़ावा दे रहे थे। रंगपुर वार्ता ने लिखा- ‘अब तक एक ऐसा वर्ग भारत में तैयार हो गया है, जो स्त्री शिक्षा के महत्व को जान चुका है। अल्पसंख्या में छपने वाले अल्पजीवी भाषाई पत्र भी स्त्री शिक्षा पर सामग्री छापकर अपने हिस्से की भूमिकाएं निभाते हैं।बंगाल में बंगदर्शन 1884 में खुलकर स्त्री शिक्षा के बारे में लिख रहा था। लेकिन सब तरह के पत्रों में ऐसा नहीं था, कुछ इसके विरोध में अपनी प्रतिक्रियाएं दे रहे थे। 1880 से प्रकाशित पुणे वैभव के संपादक शंकर विनायक केलकर स्त्री शिक्षा के विरोधी थे। उसमें छपे लेखों पर पुणे के शारदाश्रम की पंडिता रमाबाई ने जब घोर आपत्ति जताई, तो पत्र को माफी भी मांगनी पड़ी। इसी तरह मराठी पत्र भालाने स्त्री शिक्षा का विरोध करते हुए लिखा कि कुछ लोग महिलाओं के लिए कलकत्ता में अस्पताल बनाने की या नर्स बनाने की बात करते हैं। इसका विरोध होना चाहिए। इन्हीं सब बातों से महिलाओं में शिक्षा और अशिक्षा के बीच भेद की चेतना जगी। फलत: महिलाएं लेखन के प्रति सजग हुईं। और यह सिलसिला चल निकला, आज हम सब इसके साक्षी हैं।

मंगलवार, 24 सितंबर 2019

एक रुपये में महिला स्वास्थ्य


महिलाएं टैक्स फ्री सैनेटरी नैपकिन की मांग कर रही हैं, मगर मैं चाहता हूं कि यह पूरी तरह से मुफ्त हो, क्योंकि महिलाओं की सेहत से जुड़ा यह बहुत ही गंभीर मसला है। सिर्फ रक्षा बजट में 5 फीसदी की कमी करके सरकार महिलाओं को यह सौगात दे सकती है। ये बाते फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार ने अपनी फिल्म पैडमैन के प्रचार के दौरान कही थी। जो आज जाकर मौजूं हुई है। फ्री तो नहीं हुआ, पर उसकी कीमत न के बराबर रख दी गई है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि योजना के अंतगर्त सुगम एप को लांच करने के दौरान महिलाओं के लिए सैनेटरी पैड की कीमत एक रुपये प्रति पैड रख दी है। यह सुविधा प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि के अंतगर्त हर महिला उठा सकती है। पहले इसकी कीमत प्रति पैड ढाई रुपये थी। 4 जून, 2018 को जन औषधि सुविधा ऑक्‍सो-बायोडीग्रेडेबल सेनेटरी नैपकीनकी शुरूआत की गई थी। जन औषधि सुविधा की विशेष बात यह है कि यह इस्‍तेमाल के बाद ऑक्‍सीजन के संपर्क में आता है तो यह बायोडीग्रेडेबल हो जाता है। 31 अगस्‍त, 2019 तक प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि केन्‍द्रों ने कुल 1.30 करोड़ से अधिक पैड की बिक्री की थी।
जन औषधि सुगम एप के अवसर पर यह तथ्य सामने आया कि बेहतर सैनेटरी नैपकिन के अभाव में 28 मिलियन किशोरियां बीच में पढ़ाई छोड़ देती हैं। उन्हें पीरियड से निपटने के लिए सुविधाजनक नैपकीन उचित दाम पर नहीं मिल पाते हैं। अब इस योजना से देश की वंचित महिलाओं और किशोरियों की स्‍वच्‍छतास्‍वास्‍थ्‍य और सुविधा’ सुनिश्चित होने की संभावना बढ़ी है। वास्तव में बहुत से शोध और अध्ययन से यह तथ्य सामने आया है कि महिलाएं पीरियड से निपटने के लिए कई तरह के असुरक्षित तरीकों का इस्तेमाल करती हैं। यह बहुत कुछ अशिक्षा, अंधविश्वास और आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण भी होता है। वैसे तो बाजार में कई तरह के ब्रांड वाले सैनेटरी पैड उपलब्ध हैं, पर इनकी कीमत इतनी ज्यादा है कि महिलाएं अपने स्वास्थ और हाइजीन की कीमत पर इसे नजरअंदाज करती रहती हैं। ऐसे में महिलाओं के लिए स्‍वास्‍थ्‍य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए यह एक महत्‍वपूर्ण सरकारी कदम माना जा सकता है।
देखा जा सकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों या कम पढ़ी-लिखी महिलाएं आज भी पीरियड संबंधी भ्रांतियों, शर्म और अंधविश्वास की जकड़न में कैद हैं। इसलिए इस दौरान इतने अस्वास्थ्यकर तरीके अपनाये जाते हैं कि महिलाओं को अनेक तरह के रोग के रोग लग जाते हैं। देश में गर्भाशय का कैंसर या सर्वाइकल कैंसर का सबसे बड़ा कारण यही अस्वास्थकर परिस्थितियां हैं। महिलाओं में होने वाले सभी तरह के कैंसर में सर्वाइकल कैंसर 23 प्रतिशत है। शोध बताते हैं कि इसका सीधा कनेक्शन एचपीवी इंफेक्शन और पीरियड में स्वच्छता का अभाव होता है। स्वच्छता का ख्याल का मतलत पीरियड के दौरान साफ-सुथरे ढंग से रहना है। इसके लिए कहीं अधिक मात्रा में सस्ते और हाईजीन सैनेटरी नैपकिन की जरूरत होती है। हमारे देश में किशोरियों की स्कूल में 24 फीसदी अनुपस्थिति पीरियड्स के दौरान होती है। इसलिए कुछ राज्यों में सस्ते सैनेटरी पैड स्कूलों में मुफ्त दिए जा रहे हैं। पर यह पर्याप्त नहीं है क्योंकि सभी लड़कियां स्कूल नहीं जा पाती हैं।

2011 में ए.सी. नीलसन और प्लान इंडिया ने सैनेटरी प्रोटेक्शन : एवरी वूमेन्स हेल्थ राइट नाम से एक अध्ययन किया था जिसमें उन्होंने दावा किया था कि भारत में सिर्फ 12 प्रतिशत महिलाएं ही सैनेटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं, बाकी महिलाएं उन दिनों असुरक्षित साधनों का इस्तेमाल करती हैं। यह स्टडी काफी विवादित रही थी। भारत सरकार ने इस स्टडी को आधार बनाकर ही अपनी कई योजनाओं की रणनीति बनाई थी। लेकिन बाद में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-2015-16 ने एक दूसरी ही तस्वीर प्रस्तुत की। इस सर्वे के अनुसार कुल मिलाकर देश की 58 प्रतिशत महिलाएं हाइजीन तरीकों का इस्तेमाल कर रही हैं। आज दस में छह महिलाएं डिस्पोजेबल सैनेटरी नैपकिन प्रयोग करती हैं। इससे पता चलता है कि महिलाएं साफ-सफाई की जरूरत स्वयं समझ रही हैं। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार की यह पहल महिलाओं और किशोरियों के लिए एक सहारा साबित होगी, बशर्ते प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि केन्‍द्रों की संख्या और पहुंच महिलाओं तक हो जाए।

सोमवार, 12 अगस्त 2019

साइंस पढ़ने वाली महिलाएं जाती कहां हैं?

अपने लक्ष्य के लिए तीन लाख चौरासी हजार किलोमीटर की यात्रा पर चंद्रयान-2 निकल चुका है। इस मिशन की कमान संभालने वाली दो महिला वैज्ञानिक ऋतु करीधल और एम. वनिता को देश सलाम कर रहा है। इसरो की वैज्ञानिक ऋतु करीधल चंद्रयान-2 मिशन की डायरेक्टर हैं और एम. वनीता इस मिशन की प्रोजेक्ट डायरेक्टर हैं। इनकी अथक मेहनत का फल है कि आज देश अंतरिक्ष क्षेत्र में इतनी बड़ी उपलब्धि को सेलिब्रेट कर रहा है। महिलाओं की तरफ से देश को मिली यह पहली उपलब्धि नहीं है, जब ऐसे किसी मिशन में महिला वैज्ञानिकों ने सहयोग किया हो। इससे पहले 2013 में मंगल मिशन की सफलता का जश्न मनाती हुईं महिलाओं की तस्वीर वायरल हो चुकी है। इस फोटो में साधारण साड़ियों में लिपटी हुई महिला वैज्ञानिक मार्स आर्बिटर मिशन की सफलता का जश्न मना रही थीं। इस मिशन में आठ महिला वैज्ञानिकों ने अपनी खास भूमिका निभाई थी। इस विषय को आधार बनाकर एक फिल्ममिशन मंगल भी बन चुकी है।
चंद्रयान-2 मिशन में इन दो महिला वैज्ञानिक के अलावा और भी महिला वैज्ञानिकों का साथ मिला। चेयरमैन के. सिवन की माने तो इस प्रोजेक्ट में 30 फीसदी महिला वैज्ञानिकों की अथक परिश्रम शामिल है। चंद्रयान-2 मिशन में मौमिता दत्ता, नंदिनी हरिनाथ, एन. वलारमथी, मीनल संपथ, कीर्ति फौजदार और टेसी थॉमस जैसी दूसरी महिला वैज्ञानिक शामिल हैं। इस उपलब्धि को बांटते हुए इसरो के चेयरमैन के. सिवन ने कहा था कि हम पुरुष और महिला वैज्ञानिकों में अंतर नहीं समझते हैं। जो भी सक्षम होता है, उसे बेहतरीन काम सौंपा जाता है। शायद इसरो के चेयरमैन का यही विश्वास आज कार्यरूप में परिणत हुआ दिखता है।
महिलाओं की विज्ञान के क्षेत्र में इन तमाम उपलब्धियों के बीच आज भी यही देखा जाता है कि विज्ञान पुरुष वर्चस्व का क्षेत्र बना हुआ है। ऐसा नहीं है कि महिलाएं विज्ञान और टेक्नॉलजी पढ़ने में रुचि नहीं ले रही हैं। ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन 2016-17 बताता है कि पुरुषों के मुकाबले आधे से कहीं ज्यादा महिलाएं विज्ञान विषय में ग्रेजुएट थीं, जबकि 60 फीसदी महिलाओं ने एमसी की थीं। इसी तरह विज्ञान से पीएचडी करने वाली महिलाएं भी अधिक संख्या में थीं। पीएचडी करने वाली महिलाओं में मैथ से पीएचडी करने वाली महिलाएं 55 फीसदी से अधिक और फिजिक्स और कमेस्ट्री से पीएचडी करने वाली महिलाएं भी 30 फीसदी से अधिक थीं। आंकड़ों के प्रकाश में कहा जा सकता है कि महिलाओं की न केवल विज्ञान और तकनीकि में रुचि है, बल्कि वे आगे इस विषय की पढ़ाई भी कर नहीं हैं। सवाल यह है कि फिर क्या कारण है कि महिलाएं इसे अपना करियर बनाने में पिछड़ रही हैं। साथ-साथ विज्ञान में शोध और विभिन्न प्रकार के रिसर्च और दूसरी गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी कम क्यों रहती है?
समय-समय पर होने वाले विभिन्न संस्थानों के सर्वे में यह तथ्य सामने आया है कि केवल 25 फीसदी महिलाएं ही विभिन्न संस्थाओं और विश्वविद्यालयों में साइंस फैकल्टी हैं। इसमें बायोलॉजी का सेक्टर जरूर अपवाद हैं। यहां महिलाएं अधिक संख्या में काम कर रही हैं। देश के अनुसंधान और विकास संस्थानों में 2.8 लाख वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और तकनीशियनों में से केवल 14 फीसदी महिलाएं ही काम रही हैं। संख्या के हिसाब से यह 39,389 महिलाएं हैं। जबकि वैश्विक औसत 28.4 फीसदी का है। यही हाल देश के विभिन्न आईआईटी संस्थानों का भी है। 2017 में देश के विभिन्न आईआईटी संस्थानों की विभिन्न शाखाओं में महिला आवेदक सिर्फ 10 फीसदी थीं। अगर विज्ञान और तकनीकि से संबंधित शोध और रिसर्च की बात की जाए तो महिलाएं काफी पिछड़ी हुई हैं। इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी, इंडियन एकेडमी ऑफ साइंस, नेशनल एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चर साइंस की केवल पांच फीसदी फेलोशिप महिलाएं लेती हैं। इससे समझा जा सकता है कि जब बात साइंस और तकनीकि में करियर बनाने की आती है, तब महिलाएं कहीं कहीं पीछे रह जा रही हैं।

मार्च, 2018 में मणिपुर यूनीवर्सिटी में सातवीं वुमन साइंस कांग्रेस का आयोजन हुआ था। महिला वैज्ञानिकों के लिए आयोजित इस कार्यक्रम में यह दुर्भाग्य था कि स्टेज पर केवल दो महिला वैज्ञानिक ही भाग लेती हुई नजर आईं। यह कार्यक्रम बताता है कि देश में महिला वैज्ञानिकों की कितनी कमी है। इस आयोजन में महिला वैज्ञानिकों ने कहा कि महिलाएं बड़े पैमाने में विज्ञान क्षेत्र में पीजी और पीएचडी की पढ़ाई करती हैं, पर वे अपनी इस पढ़ाई को अपनी बायोलॉजिकल क्लॉक और पारिवारिक दबाव के कारण कॅरियर में कंवर्ट नहीं कर पाती हैं। सोसायटी ऑफ सोसियो इकोनामिक्स स्टडी एंड सर्विसेज (एसएसइएसएस), कोलकाता ने नीति आयोग के सहयोग से महिला वैज्ञानिकों पर एक स्टडी रिपोर्ट- 2017-18 तैयार करवाई है। इसमें इस बात का पता लगाने की कोशिश की गई है कि विज्ञान के क्षेत्र महिलाओं को उच्च शिक्षा और शोध के क्षेत्र में जाने के परिप्रेक्ष्य में उनके सामने क्या इश्यू और चैलेंज रहते हैं। यह सर्वे पूरे देश को छह विभिन्न जोन में बांटकर बड़े पैमाने पर किया गया।
इस सर्वे रिपोर्ट में बताया गया है कि 15 फीसदी महिलाओं ने अपने करियर में एक वर्ष का ब्रेक लेना पड़ा। जबकि 2 फीसदी महिलाओं ने दो वर्ष का एवं एक फीसदी महिलाओं ने तीन वर्ष से अधिक समय का अपने करियर ब्रेक लेना पड़ा। करियर में महिलाओं को यह ब्रेक शादी और शादी के बाद परिवारिक जिम्मेदारियों और बच्चों की परवरिश के कारण लेने पड़ते हैं। इस सर्वे रिपोर्ट में यह भी बात सामने आई कि महिलाओं ने अपने करियर ग्रोथ के लिए शादी से पहले का समय चुना यानी उन्होंने शादी देर से की। इसके अतिरिक्त शादी के कारण उनका स्थान परिवर्तन भी एक तरह से बाधा डालता है। ऐसे में सातवीं वुमन साइंस कांग्रेस में महिला वैज्ञानिकों ने करियर में आने वाली जिन समस्याओं का जिक्र किया, उनमें से महिलाओं की परिवार संबंधी जिम्मेदारियां भी एक कारण है। अमूमन महिलाओं के करियर में जो आमतौर पर बाधाएं होती हैं, कामोवेश वही सब बाधाएं महिला वैज्ञानिकों के मार्ग में भी आती हैं। इन सबके बावजूद भी अगर महिला वैज्ञानिक हम देशवासियों को गर्व करने का मौका देती हैं, तो हमें उनके बारे में सोचना चाहिए, तभी उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है।