बुधवार, 19 सितंबर 2012

प्रेम का टी-प्वांइट


पहले सीध रास्ता ही था
इधर उधर नहीं मुड़ना था
मंजिल तो सामने ही दिख रही थी।
इसलिए कोई जद्दोजहद नहीं थी।
किसी को ओवरटेक भी नहीं करना था
था ही सीध, सरल, समतल रास्ता।
साथ में ठंडी हवा, शीतल छाया भी,
कोई मोड़, घुमाव भी नहीं दिख रहा था।
जिससे पहले ही सावधन हो जाया जाए।

जैसे जैसे आगे बढ़ते गए, रास्ता सीधा ही दिखता रहा।
मंजिल पहुंच के दायरे में दिख रही थी
अचानक...
यह टी प्वांइट कैसा!
यहां तो इतने लोग खडे़ है।
भला कब से?
आगे क्यों नहीं बढ़े?
एक से पूछा भई, अब वहां किस रास्ते से जाना पड़ेगा?
कोई उत्तर नहीं मिला।
कांधे पर हाथ रखकर झकझोरते हुए पूछा।
फिर भी कोई उत्तर नहीं।

लगता है इसी बात का उत्तर जानने के इंतजार में
वे वर्षों से बुत बन गए।
0000
पीछे मुड़कर अपना सीध रास्ता देखना चाहा-
आश्चर्य,
रास्ते की जगह झाड़-झंगाड़ का
एक आदिम जंगल उग गया था वहां..
... तत्काल।

3 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

लगता है इसी बात का उत्तर जानने के इंतजार में
वे वर्षों से बुत बन गए।....एक जगह जाकर सब बुत हो जाता है,मंजिल कहो या अंत

प्रतिभा कुशवाहा ने कहा…

rashmi ji dhanywad..aap hamare blog pa aaye..

संजय भास्‍कर ने कहा…

सुन्दर पंक्तियाँ.....इतने सच्चे विचार सार्थक रचना !!!!