दिल्ली से मात्र साठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित हापुड़ जिले के लोग एक दूसरे के साथ खुशियां बांट रहे हैं। कारण, हापुड़ के एक गांव में बनी 25 मिनट की डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘पीरियड, एंड ऑफ सेंटेंस’ को 91वें एकेडमी अवार्ड्स यानी ऑस्कर में बेस्ट डॉक्युमेंट्री शॉर्ट सब्जेक्ट कैटेगरी के लिए चुन लिया गया है। यह डॉक्युमेंट्री महिलाओं के पीरियड यानी महावारी को टैबू मानने को लेकर बनी है। इसलिए जब इस खुशी का इजहार डॉक्युमेंट्री की भारतीय सह-निर्माता गुनीता मोंगा ने यह लिखकर किया कि हम जीत गए, इस दुनिया की हर लड़की तुम सब देवी हो… अगर जन्नत सुन रही है तो। …यह दिखाता है कि पीरियड जैसा बालॉजिकल विषय हमेशा से कितनी भ्रांतियों की जकड़न में रहा है। जिस पर खुद महिलाएं तक बात नहीं कर पाती हैं, जैसा कि इस डॉक्युमेंट्री में दिखाया गया है।
‘पीरियड, एंड ऑफ सेंटेंस’ डॉक्युमेंट्री की शुरुआत ही कुछ किशोरियों से इसी सवाल के साथ होती है, जिस पर वे बिना झिझक के बोल तक नहीं पाती हैं। चाहे यह सवाल उनसे उनके ही घर पर किया गया हो, या फिर स्कूल में। जब लड़कियों का यह हाल है, तो पुरुषों का क्या हाल हो सकता है, यह भी इस डॉक्युमेंट्री में है। जहां महिलाएं इस बॉयोलाजिकल प्रक्रिया को छूत, बीमारी या गंदी बात मानती हैं, वहीं आदमी इसे महिलाओं की एक बीमारी बताते हैं। काठीखेड़ा (हापुड़ का एक गांव, जहां पर इस डॉक्युमेंट्री को बनाया गया है।) गांव में थोड़ा परिवर्तन तब आता है, जब यहां एक सेनेटरी पैड बनाने वाली मशीन लगाई जाती है। इस मशीन के माध्यम से महिलाओं को पीरियड के दौरान स्वच्छता जैसे मुद्दों के प्रति जागरुक किया जाता है। इस गांव की महिलाओं को इस मानसिक स्थिति तक पहुंचने और सेनेटरी पैड बनाने के कारखाने में काम करने के दौरान कितनी परेशानियों और समाज के विरोध को झेलना पड़ता है, यह सब इस डॉक्युमेंट्री का वृहद विषय है। इन सबको 25 मिनट की इस डॉक्युमेंट्री में समेट लिया गया है। यहां बनने वाले सेनेटरी पैड को फ्लाई नाम से बेचा जाता है। फ्लाई नाम से इस ब्रांड के साथ इस गांव की महिलाओं के सपनों को भी पंख लग जाते हैं।
बेस्ट डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट कैटेगरी अवॉर्ड के लिए ‘पीरियड, एंड ऑफ सेंटेंस’ के मुकाबले 'ब्लैक शीप', 'एंड गेम', 'लाइफबोट' और 'अ नाइट ऐट दी गार्डन' फिल्में थीं। डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘पीरियड, एंड ऑफ सेंटेंस’ का निर्देशन रायका जेहताबची ने किया है। इसे भारतीय सह-निर्माता गुनीता मोंगा की सिखिया एंटरटेनमेंट ने इसे प्रोड्यूज किया है। गुनीत मोगा गैंग्स ऑफ बासेपुर, लंच बाक्स, जुबान, मसान और पेडलर्स जैसी फिल्में प्रोड्यूज कर चुकी हैं। यह डॉक्यूमेंट्री 'ऑकवुड स्कूल इन लॉस एंजिलिस' के छात्रों और उनकी शिक्षक मेलिसा बर्टन द्वारा शुरू किए गए 'द पैड प्रोजेक्ट' का हिस्सा है। भारतीय समय के अनुसार सुबह, 25 फरवरी को इन पुरस्कारों की घोषणा की गईं। देश में दस साल के बाद इस डॉक्यूमेंट्री के बहाने कोई ऑस्कर देश में आया है। इससे पहले 2009 में ए.आर. रहमान और साउंड इंजीनियर रसूल पोकुट्टी को 'स्लमडॉग मिलेनियर' के लिए ऑस्कर मिला था।
पिछले साल अभिनेता अक्षय कुमार अपनी फिल्म ‘पैडमैन’ के माध्यम से इस विषय को उठा चुके हैं। इस फिल्म को तमिलनाडु के अरुणाचलम मुरुगनांथम के कार्यों से प्रेरित बताया गया था। अरुणाचलम ने महिलाओं की इस समस्या के लिए एक सस्ती पैड मशीन का अविष्कार किया था। जिससे महिलाओं को अपने हाईजीन को बनाए रखने के लिए सस्ती दर में सेनेटरी पैड उपलब्ध हो सकें। और इस काम में वे न केवल सफल होते हैं, बल्कि महिलाओं से जुड़े इस विषय के प्रति वे लोगों का जागरुक करने में भी सफल होते हैं। माहवारी यानी पीरियड को लेकर अधिकतर समाजों में जकड़न इस हद तक है कि इन दिनों में महिलाओं और किशोरियों को घर से बाहर किसी झोपड़ी में रहने तक के लिए मजबूर कर दिया जाता है। इससे न केवल उनकी जान चली जाती है, बल्कि उन्हें अकेला पाकर बलात्कार तक किया जाता है। इसे पड़ोसी देश नेपाल और देश के कुछ इलाकों में चौपदी या छौपाड़ी प्रथा कहते हैं। पैडमैन फिल्म के साथ में इसी विषय को अभिषेक सक्सेना ने ‘फुल्लू’ नाम से फिल्म बनायी थी, बेहतरीन होने के बावजूद जिसकी चर्चा भी कम हुई।
महिलाओं के पीरियड्स संबंधी जकड़न तोड़ने के लिए इस तरह की डॉक्यूमेंट्री और फिल्म को माध्यम बनाने से लोगों का ध्यान आसानी से खींचा जा सकता है। इसलिए इस तरह के प्रयासों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। वैसे भी सदियों से चली आ रही यह जकड़न किसी एक फिल्म से टूटने वाली भी नहीं है। पर बार-बार चोट करने से टूटने की गुंजाइस बन ही जाती है।
‘पीरियड, एंड ऑफ सेंटेंस’ डॉक्युमेंट्री की शुरुआत ही कुछ किशोरियों से इसी सवाल के साथ होती है, जिस पर वे बिना झिझक के बोल तक नहीं पाती हैं। चाहे यह सवाल उनसे उनके ही घर पर किया गया हो, या फिर स्कूल में। जब लड़कियों का यह हाल है, तो पुरुषों का क्या हाल हो सकता है, यह भी इस डॉक्युमेंट्री में है। जहां महिलाएं इस बॉयोलाजिकल प्रक्रिया को छूत, बीमारी या गंदी बात मानती हैं, वहीं आदमी इसे महिलाओं की एक बीमारी बताते हैं। काठीखेड़ा (हापुड़ का एक गांव, जहां पर इस डॉक्युमेंट्री को बनाया गया है।) गांव में थोड़ा परिवर्तन तब आता है, जब यहां एक सेनेटरी पैड बनाने वाली मशीन लगाई जाती है। इस मशीन के माध्यम से महिलाओं को पीरियड के दौरान स्वच्छता जैसे मुद्दों के प्रति जागरुक किया जाता है। इस गांव की महिलाओं को इस मानसिक स्थिति तक पहुंचने और सेनेटरी पैड बनाने के कारखाने में काम करने के दौरान कितनी परेशानियों और समाज के विरोध को झेलना पड़ता है, यह सब इस डॉक्युमेंट्री का वृहद विषय है। इन सबको 25 मिनट की इस डॉक्युमेंट्री में समेट लिया गया है। यहां बनने वाले सेनेटरी पैड को फ्लाई नाम से बेचा जाता है। फ्लाई नाम से इस ब्रांड के साथ इस गांव की महिलाओं के सपनों को भी पंख लग जाते हैं।
बेस्ट डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट कैटेगरी अवॉर्ड के लिए ‘पीरियड, एंड ऑफ सेंटेंस’ के मुकाबले 'ब्लैक शीप', 'एंड गेम', 'लाइफबोट' और 'अ नाइट ऐट दी गार्डन' फिल्में थीं। डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘पीरियड, एंड ऑफ सेंटेंस’ का निर्देशन रायका जेहताबची ने किया है। इसे भारतीय सह-निर्माता गुनीता मोंगा की सिखिया एंटरटेनमेंट ने इसे प्रोड्यूज किया है। गुनीत मोगा गैंग्स ऑफ बासेपुर, लंच बाक्स, जुबान, मसान और पेडलर्स जैसी फिल्में प्रोड्यूज कर चुकी हैं। यह डॉक्यूमेंट्री 'ऑकवुड स्कूल इन लॉस एंजिलिस' के छात्रों और उनकी शिक्षक मेलिसा बर्टन द्वारा शुरू किए गए 'द पैड प्रोजेक्ट' का हिस्सा है। भारतीय समय के अनुसार सुबह, 25 फरवरी को इन पुरस्कारों की घोषणा की गईं। देश में दस साल के बाद इस डॉक्यूमेंट्री के बहाने कोई ऑस्कर देश में आया है। इससे पहले 2009 में ए.आर. रहमान और साउंड इंजीनियर रसूल पोकुट्टी को 'स्लमडॉग मिलेनियर' के लिए ऑस्कर मिला था।
पिछले साल अभिनेता अक्षय कुमार अपनी फिल्म ‘पैडमैन’ के माध्यम से इस विषय को उठा चुके हैं। इस फिल्म को तमिलनाडु के अरुणाचलम मुरुगनांथम के कार्यों से प्रेरित बताया गया था। अरुणाचलम ने महिलाओं की इस समस्या के लिए एक सस्ती पैड मशीन का अविष्कार किया था। जिससे महिलाओं को अपने हाईजीन को बनाए रखने के लिए सस्ती दर में सेनेटरी पैड उपलब्ध हो सकें। और इस काम में वे न केवल सफल होते हैं, बल्कि महिलाओं से जुड़े इस विषय के प्रति वे लोगों का जागरुक करने में भी सफल होते हैं। माहवारी यानी पीरियड को लेकर अधिकतर समाजों में जकड़न इस हद तक है कि इन दिनों में महिलाओं और किशोरियों को घर से बाहर किसी झोपड़ी में रहने तक के लिए मजबूर कर दिया जाता है। इससे न केवल उनकी जान चली जाती है, बल्कि उन्हें अकेला पाकर बलात्कार तक किया जाता है। इसे पड़ोसी देश नेपाल और देश के कुछ इलाकों में चौपदी या छौपाड़ी प्रथा कहते हैं। पैडमैन फिल्म के साथ में इसी विषय को अभिषेक सक्सेना ने ‘फुल्लू’ नाम से फिल्म बनायी थी, बेहतरीन होने के बावजूद जिसकी चर्चा भी कम हुई।
महिलाओं के पीरियड्स संबंधी जकड़न तोड़ने के लिए इस तरह की डॉक्यूमेंट्री और फिल्म को माध्यम बनाने से लोगों का ध्यान आसानी से खींचा जा सकता है। इसलिए इस तरह के प्रयासों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। वैसे भी सदियों से चली आ रही यह जकड़न किसी एक फिल्म से टूटने वाली भी नहीं है। पर बार-बार चोट करने से टूटने की गुंजाइस बन ही जाती है।
1 टिप्पणी:
ब्लॉग बुलेटिन टीम की और रश्मि प्रभा जी की ओर से आप सब को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर बधाइयाँ और हार्दिक शुभकामनाएँ |
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 08/03/2019 की बुलेटिन, " आरम्भ मुझसे,समापन मुझमें “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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